भगवान् श्री सूर्य को नित्यप्रति जल दिया करो | श्री सूर्य देव का विवेचन | Bhagavaan Shree Soory Ko Nity Prati Jal Diya Karo | Shree Soory Dev Ka Vivechan |

भगवान् श्री सूर्य को नित्यप्रति जल दिया करो

श्रीविश्वनाथपुरी काशीमे ब्रह्मलीन प्रातः स्मरणीय सिद्धसत श्रीहरिहर बाबाजी अस्सी घाटपर पतितपावनी भगवती भागीरथीजीमे नौकापर दिगम्बर रूप मे रहा करते थे । बडे-बडे राजा-महाराजा, विद्वान्, संत-महात्मा आपके दर्शनार्थ आया करते थे । पूज्य महामना मालवीयजी महाराज तो आपको साक्षात् शंकरख रूप ही मानकर सदा श्रद्धासे आपके श्रीचरणो में नतमस्तक हुआ करते थे। आपने बहुत कालतक श्रीगङ्गाजीमे खडे होकर भगवान् श्री सूर्य की ओर मुख करके घोर अमोघ तपस्या की थी। आपके दर्शनार्थ जो भी जाता था, उसे आप  श्री राम नाम जपने और  भगवान् श्री सूर्य को जल देनेका उपदेश दिया करते थे । सतस्वभाववश कृपा पूर्वक आपने हजारों मनुष्योको निष्ठासे सूर्या राधना एव सूर्यके रूप में परमात्मा की भक्ति करना सिखाया था। आपका उपदेश होता था- नित्य- प्रति श्रीसूर्यको जल दिया करो। प्रश्नोत्तर-क्रममे उनके उपदेशके दो प्रसग दिये जा रहे हैं- प्रश्न-पूज्यपाद बाबाजी ! हमारा कल्याण कैसे होगा ? पूज्य बावा तुम किस जाति के हो ? महाराजजी-मै तो जातिका वैश्य हूँ।


पूज्य वावा- तुम नित्यप्रति स्नान करके लोटे में जल लेकर भगवान् श्री सूर्यनारायण को जल दिया करो और भगवान् सूर्यको नित्यप्रति भक्तिभावसहित हाथ जोडकर प्रणाम किया करो । कम-से-कम एक माला राम नाम जपा करो, इसके साथ ही अपना जीवन धर्म- मय बनाओ। यही तुम्हारे कल्याणका मार्ग है। एक खी-महाराजजी ! हम लियोके कल्याणका साधन क्या है ? पूज्य वावा- तुम अपने पूज्य पतिकी श्रद्धासे सेत्रा किया करो। साथ-साथ तुम भी भगवान् सूर्यदेव को नित्यप्रति जलका अर्घ्य दिया करो। मालापर 'राम-राम' का जप, जब भी समय मिले, अवश्य कर लिया करो। ऐसा करने से अन्तःकरण शुद्ध होकर भगवान्‌की कृपा- से निश्चय ही आत्मकल्याण होगा ।

श्री सूर्य देव का विवेचन

आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च । 
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

यह वैदिक मन्त्र भगवान् सूर्यकी पूजामे विनियुक्त है। इसमें उनके धाम एवं स्थितिका वर्णन है। कृष्णवर्ग रजोगुणके द्वारा वे संसारमे अमृत और मरण दोनोके नियामक हैं। हिरण्यरूप रथके ऊपर बैठे हुए ऐसे सविता (देव) सब जगत्‌के प्रेक्षक एवं प्रेरक हैं। चौदह भुबनोको देखते हुए वे अपना व्यबहार-कार्य कर रहे हैं। विद्वानोकी मान्यता है कि कालका नियमन चन्द्र और सूर्य दोनोके द्वारा हो रहा है। सूर्य दिनके खामी तथा चन्द्रमा रात्रि विशेषकर तिथि-नक्षत्रोके खामी हैं। तिथियों सोलह हैं, ये ही चन्द्रमाकी पोडश कलाएँ है। सूर्यकी द्वादश कलाएँ है, जिनसे सौरपथके बारह मास निर्मित होते हैं। प्रत्येक मासमे कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष आते है। खरोदयशाखमे भी कृष्णपक्ष सूर्यका और शुक्ल- पक्ष चन्द्रमाका माना गया है। मन्त्रमे जो 'आकृष्णेन' पद आया है, उससे यह बात स्पष्ट होती है। योगशाखमें इडा-पिङ्गला जो दो नाडियों है, उनमें इडा चन्द्रमाकी तथा पिङ्गला सूर्यकी नाड़ी मानी गयी है। नियमानुसार इन्ही दो नाडियोमे पोंचों तत्त्वोका प्रवाह होता है। आनन्द और क्रियाके अधिष्ठान चन्द्र है। ज्ञानके अधिष्ठान सूर्य है। इन्हीं सूर्यके ध्यानमे-

आदित्यं सर्वकर्त्तारं कलाद्वादशसंयुतम् ।
पद्महस्तद्वयं वन्दे सर्वलोकैकभास्करम् ॥

- इत्यादि श्लोक कहे गये है, जो मन्त्रार्थको स्पष्ट करते हैं। इसीलिये महर्षि पतञ्जलिने योगदर्शनके विभूति पाद, २६में-'भुवनशानं सूर्ये संयमात्' सूर्यमे संयम करनेसे भुवनोका ज्ञान होता है कहा है। यह मन्त्रमे आये 'भुवनानि पश्यन्' पदको स्पष्ट करता है। सत्ताईस नक्षत्र, बारह राशियों और नवग्रह - ये सब काल-तत्त्वके सूचक हैं। इनमे सूर्य प्रधान हैं। कालतत्त्व इन्हींके द्वारा नियमन करता है। भगवान् सूर्य के दैविक पक्षका यह परिचय है। सुर्य आत्मा जगतस्तस्युपश्च- सम्पूर्ण चराचर जगत्‌की आत्मा सूर्य है। आध्यात्मिक पक्षमें जिसे साधना- मार्गमे परालिङ्ग कहते हैं, शिवका सर्वोत्कृष्ट रूप है। इसमें शिव और विष्णुका अमेद रूप है। इसीको उपनिपदो तथा पुराणोमे विष्णुका परम पद कहा है-'

तद् विष्णोः परमं पदम् ।'

जब वही परमतत्त्व भक्तोकी रक्षा, धर्मकी स्थापना और दुष्टो के दमनार्थ चन्द्रमण्डलचे आविर्भूत होता है, तब उसे श्रीकृष्णचन्द्र कहते है। सूर्यमण्डलसे प्रकट होनेवाला यही परम तत्त्व श्रीरामचन्द्र है। तन्त्रसाधनामे ऐसा माना जाता है कि चन्द्रमण्डलसे आविर्भूत होनेवाला परमतत्त्व आनन्द, भैरव है, सूर्यमण्डलसे प्रकट होनेवाले शिव के द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग है, अग्निमण्डलकी सप्त जिह्वाएँ हैं। इसका मुण्डकोपनिषद्‌मे इस प्रकार वर्णन है-

काळी कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा । 
विस्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिहा ॥

इनसे प्रकट होनेवाले सप्त भैरव हैं, जिनके नाम इस प्रकार है- 

मन्थानभैरव, फट्‌कारभैरव, षट्चक्र- भैरव, एकात्मभैरव, 
हविर्भक्ष्यभैरव, चण्डभैरव और भ्रमरभास्करभैरव ।

महात्मा तुलसीदास ने रामायण में श्रीरामजी एवं शिवजी का अमेदसम्बन्ध प्रतिपादन किया है। इसका पुराणों में भी स्पष्टरूपमे बगन आया है। मन्त्रमे आये अमृतपदसे उक्त आध्यात्मिक स्वरूप और मर्त्यपदसे ससारका जीवन-मरण खभावतः स्पष्ट है। तान्त्रिक साधनामे इसी परमतत्त्वत्को इस प्रकार बताया गया है- 

चित्रभानुशशिभानुगुर्वकाः त्रित्रिकेण नियतेषु वस्तुषु ।
तत्तदात्मकतया विमर्शनं तत्समष्टिगुरुपादुकाजपः ॥

अग्नि, चन्द्र, सूर्य ये ही ब्रिबिन्दु प्रत्येक तत्त्व एवं पदार्थ में विद्यमान हैं। इन तीनोका समष्टिरूप ही परब्रह्म खरूप गुरुका स्मरण है। चन्द्र विन्दु से श्रीकृष्ण, सूर्य- बिन्दुसे श्रीराम तथा अग्निबिन्दुसे श्री पर शुराम अवतार माने गये है। तीनोकी एकता उस परमतत्त्वयमे बतायी गयी है। इनका आराधन करनेसे जीवका सर्वप्रकारका कल्याण होता है। शब्दब्रह्मका आविर्भाव भी उक्त तीनों मण्डलों से हुआ है। चन्द्रमण्डलसे पोडश खर. झुर्यमण्डलसे चौत्रीस व्यञ्जन तथा अग्निमण्डलसे आठ वर्ण- तक आविर्भूत हुए हैं। मन्वर्ण विन्दुस्थानीय है। इसी शब्दब्रह्म से समस्त व्यावहारिक ज्ञान होता है । गीता मे भगवान् श्रीकृष्णने कहा है-

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥

'जो चन्द्र, सूर्य और अग्नि में तेज है, यह मैं हूँ। वह मेरा ही खरूप है। (वस्तुतः सभी तेजखी पदार्थ उसी के तेज से अनुप्राणित है।) 'आरोग्यं भास्करादिच्छेत्' मानसिक और बाबा दोनो रोगोंकी निवृत्ति भगवान् सूर्यकी उपासनासे हो जाती है। और भी सूर्य भगवान्‌ के अनेक रहस्य है, जो साधना करने वालो को व्यक्त हो जाते हैं। अतः सूर्याराधन आवश्यक कत्र्तव्य है ।

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