अग्नि पुराण - एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय | Agni Purana - 172 Chapter

अग्नि पुराण एक सौ सत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे 

एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय समस्त पापनाशक स्तोत्र !

पुष्कर कहते हैं- जब मनुष्यों का चित्त परस्त्रीगमन, परस्वापहरण एवं जीवहिंसा आदि पापोंमें प्रवृत्त होता है, तो स्तुति करनेसे उसका प्रायश्चित्त होता है। (उस समय निम्नलिखित प्रकारसे भगवान् श्रीविष्णुकी स्तुति करे) "सर्वव्यापी विष्णुको सदा नमस्कार है। श्रीहरि विष्णुको नमस्कार है। मैं अपने चित्तमें स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरिको नमस्कार करता हूँ। मैं अपने मानसमें विराजमान अव्यक्त, अनन्त और अपराजित परमेश्वरको नमस्कार करता हूँ। सबके पूजनीय, जन्म और मरणसे रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णुको नमस्कार है। विष्णु मेरे चित्तमें निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धिमें विराजमान हैं, विष्णु मेरे अहंकारमें प्रतिष्ठित हैं और विष्णु मुझमें भी स्थित हैं। वे श्रीविष्णु ही चराचर प्राणियोंके कर्मोंके रूपमें स्थित हैं, उनके चिन्तनसे मेरे पापका विनाश हो। जो ध्यान करनेपर पापोंका हरण करते हैं और भावना करनेसे स्वप्नमें दर्शन देते हैं, इन्द्रके अनुज, शरणागतजनोंका दुःख दूर करनेवाले उन पापा पहारी श्रीविष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ। मैं इस निराधार जगत्में अज्ञानान्धकारमें डूबते हुएको हाथका सहारा देनेवाले परात्परस्वरूप श्रीविष्णुके सम्मुख प्रणत होता हूँ। सर्वेश्वरेश्वर प्रभो! कमलनयन परमात्मन् !

 Agni Purana - 172 Chapter

हृषीकेश! आपको नमस्कार है। इन्द्रियोंके स्वामी श्रीविष्णो! आपको नमस्कार है। नृसिंह! अनन्तस्वरूप गोविन्द ! समस्त भूत-प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले केशव ! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिन्तन किया गया हो, मेरे उस पापका प्रशमन कीजिये; आपको नमस्कार है। केशव! अपने मनके वशमें होकर मैंने जो न करनेयोग्य अत्यन्त उग्र पापपूर्ण चिन्तन किया है, उसे शान्त कीजिये। परमार्थपरायण ब्राह्मणप्रिय गोविन्द ! अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले जगन्नाथ! जगत्का भरण- पोषण करनेवाले देवेश्वर! मेरे पापका विनाश कीजिये। मैंने मध्याह्न, अपराह्न, सायंकाल एवं रात्रिके समय, जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणीके द्वारा जो पाप किया हो, 'पुण्डरी काक्ष', 'हृषीकेश', 'माधव' आपके इन तीन नामोंके उच्चारणसे मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें। कमलनयन लक्ष्मीपते! इन्द्रियोंके स्वामी माधव ! आज आप मेरे शरीर एवं वाणीद्वारा किये हुए पापोंका हनन कीजिये। आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शरीरसे जो भी नीच योनि एवं नरककी प्राप्ति करानेवाला सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किया हो, भगवान् वासुदेवके नामोच्चारणसे वे सब विनष्ट हो जायें। जो परब्रह्म, परमधाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णुके संकीर्तनसे मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुनः लौटकर नहीं आते, जो गन्ध, स्पर्श आदि तन्मात्राओंसे रहित है; श्रीविष्णुका वह परमपद मेरे पापोंका शमन करे ॥ १-१८ ॥
जो मनुष्य पापोंका विनाश करनेवाले इस स्तोत्रका पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पाप ग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णुके  परमपदको प्राप्त होता है। इसलिये किसी भी पापके हो जानेपर इस स्तोत्र का जप करे। यह स्तोत्र पाप समूहों के प्रायश्चित्तके समान है। कृच्छ्र आदि व्रत करने वाले के लिये भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित्तसे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये भोग और मोक्षकी सिद्धि के लिये इनका अनुष्ठान करना चाहिये ॥ १९-२१ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें  समस्तपापनाशक स्तोत्रका वर्णन' नामक एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७२ ॥

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