अग्नि पुराण - एक सौ सत्तरवाँ अध्याय | Agni Purana - 170 Chapter

अग्नि पुराण एक सौ सत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे 

  • एक सौ सत्तरवाँ अध्याय विभिन्न प्रायश्चित्तों का वर्णन
पुष्कर कहते हैं- अब मैं महापातकियोंका संसर्ग करनेवाले मनुष्यों के लिये प्रायश्चित्त बतलाता हूँ। पतितके साथ एक सवारीमें चलने, एक आसनपर बैठने, एक साथ भोजन करनेसे मनुष्य  एक वर्षके बाद पतित होता है, परंतु उनको यज्ञ कराने, पढ़ाने एवं उनसे यौन सम्बन्ध स्थापित करनेवाला तो तत्काल ही पतित हो जाता है। जो मनुष्य जिस पतितका संसर्ग करता है, वह उसके संसर्गजनित दोषकी शुद्धिके लिये, उस पतितके लिये विहित प्रायश्चित्त करे। पतितके सपिण्ड और बान्धवोंको एक साथ निन्दित दिनमें, संध्याके समय, जाति-भाई, ऋत्विक् और गुरुजनोंके निकट, पतित पुरुषकी जीवितावस्थामें ही उसकी उदक-क्रिया करनी चाहिये। तदनन्तर जलसे भरे हुए घड़ेको दासीद्वारा लातसे फेंकवा दे और पतितके सपिण्ड एवं बान्धव एक दिन-रात अशौच मानें। उसके बाद वे पतितके साथ सम्भाषण न करें और धनमें उसे ज्येष्ठांश भी न दें। पतितका छोटा भाई गुणोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण ज्येष्ठांशका अधिकारी होता है। यदि पतित बादमें प्रायश्चित्त कर ले, तो उसके सपिण्ड और बान्धव उसके साथ पवित्र जलाशयमें स्नान करके जलसे भरे हुए नवीन कुम्भको जलमें फेंके। पतित स्त्रियोंके सम्बन्धमें भी यही कार्य करे; परंतु उसको अन्न, वस्त्र और घरके समीप रहनेका स्थान देना चाहिये ॥ १-७३ ॥

Agni Purana - 170 Chapter

जिन ब्राह्मणोंको समयपर विधिके अनुसार गायत्रीका उपदेश प्राप्त नहीं हुआ है, उनसे तीन प्राजापत्य कराकर उनका विधिवत् उपनयन संस्कार करावे। निषिद्ध कर्मोंका आचरण करनेसे जिन ब्राह्मणोंका परित्याग कर दिया गया हो, उनके लिये भी इसी प्रायश्चित्तका उपदेश करे। ब्राह्मण संयतचित्त होकर तीन सहस्र गायत्रीका जप करके गोशाला में एक मासतक दूध पीकर निन्दित प्रतिग्रह के पापसे छूट जाता है। संस्कारहीन मनुष्यों का यज्ञ कराकर, गुरुजनोंके सिवा दूसरों का अन्त्येष्टिकर्म, अभिचारकर्म अथवा अहीन यज्ञ कराकर ब्राह्मण तीन प्राजापत्य-व्रत करनेपर शुद्ध होता है। जो द्विज शरणागतका परित्याग करता है और अनधिकारी को वेदका उपदेश करता है, वह एक वर्षतक नियमित आहार करके उस पापसे मुक्त होता है॥ ८-१२॥ 
कुत्ता, सियार, गर्दभ, बिल्ली, नेवला, मनुष्य, घोड़ा, ऊँट और सूअरके द्वारा काटे जानेपर प्राणायाम करनेसे शुद्धि होती है। स्नातकके व्रतका लोप और नित्यकर्मका उल्लङ्घन होनेपर निराहार रहना चाहिये। यदि ब्राह्मणके लिये 'हूं' कार और अपनेसे श्रेष्ठके लिये 'तू' का प्रयोग हो जाय, तो स्नान करके दिनके शेष भागमें उपवास रखे और अभिवादन करके उन्हें प्रसन्न करे। ब्राह्मणपर प्रहार करनेके लिये डंडा उठानेपर 'प्राजापत्य व्रत' करे। यदि डंडेसे प्रहार कर दिया हो तो 'अतिकृच्छु' और यदि प्रहारसे ब्राह्मणके खून निकल आया हो तो 'कृच्छ्र' एवं 'अतिकृच्छ्रव्रत' करे। जिसके घरमें अनजानमें चाण्डाल आकर टिक गया हो तो भलीभाँति जाननेपर यथासमय उसका प्रायश्चित्त करे। 'चान्द्रायण' अथवा 'पराकव्रत' करनेसे द्विजोंकी शुद्धि होती है। शूद्रोंकी शुद्धि 'प्राजापत्य-व्रत' से हो जाती है, शेष कर्म उन्हें द्विजोंकी भाँति करने चाहिये। घरमें जो गुड़, कुसुम्भ, लवण एवं धान्य आदि पदार्थ हों, उन्हें द्वारपर एकत्रित करके अग्निदेवको समर्पित करे। मिट्टीके पात्रोंका त्याग कर देना चाहिये। शेष द्रव्योंकी शास्त्रीय विधिके अनुसार
द्रव्यशुद्धि विहित है ॥ १३-१९ ॥ 
चाण्डालके स्पर्शसे दूषित एक कूएँका जल पीनेवाले जो ब्राह्मण हैं, वे उपवास अथवा पञ्चगव्यके पानसे शुद्ध हो जाते हैं। जो द्विज इच्छानुसार चाण्डालका स्पर्श करके भोजन कर लेता है, उसे 'चान्द्रायण' अथवा 'तप्तकृच्छ्र' करना चाहिये। चाण्डाल आदि घृणित जातियोंके स्पर्शसे जिनके पात्र अपवित्र हो गये हैं, वे द्विज (उन पात्रोंमें भोजन एवं पान करके) 'षड्ात्रव्रत' करनेसे शुद्ध होते हैं। अन्त्यजका उच्छिष्ट खाकर द्विज 'चान्द्रायणव्रत' करे और शूद्र 'त्रिरात्र व्रत' करे। जो द्विज चाण्डालोंके कूएँ या पात्रका जल बिना जाने पी लेता है, वह 'सांतपनकृच्छु' करे एवं शूद्र ऐसा करनेपर एक दिन उपवास करे। जो द्विज चाण्डालका स्पर्श करके जल पी लेता है, उसे 'त्रिरात्र व्रत' करना चाहिये और ऐसा करनेवाले शूद्रको एक दिनका उपवास करना चाहिये ॥ २०-२५ ॥
 ब्राह्मण यदि उच्छिष्ट, कुत्ता अथवा शूद्रका स्पर्श कर दे, तो एक रात उपवास करके पञ्चगव्य पीनेसे शुद्ध होता है। वैश्य अथवा क्षत्रियका स्पर्श होनेपर स्नान और 'नक्तव्रत' करे। मार्गमें चलता हुआ ब्राह्मण यदि वन अथवा जलरहित प्रदेशमें पक्वान्न हाथमें लिये मल-मूत्रका त्याग कर देता है, तो उस द्रव्यको अलग न रखकर अपने अङ्कमें रखे हुए ही आचमन आदि से पवित्र होकर अन्नका प्रोक्षण करके उसे सूर्य एवं अग्निको प्रदर्शित करे ॥ २६-२९ ॥
जो प्रवासी मनुष्य म्लेच्छों, चोरों के निवासभूत देश अथवा वनमें भोजन कर लेते हैं, अब मैं वर्णक्रमसे उनकी भक्ष्याभक्ष्यविषयक शुद्धि का उपाय बतलाता हूँ। ऐसा करनेवाले ब्राह्मणको अपने गाँवमें आकर 'पूर्णकृच्छ्र', क्षत्रिय को तीन चरण और वैश्य को आधा व्रत करके पुनः अपना संस्कार कराना चाहिये। एक चौथाई व्रत करके दान देनेसे शूद्रकी भी शुद्धि होती है ॥ ३०-३२॥
यदि किसी स्त्रीका समान वर्णवाली रजस्वला स्त्रीसे स्पर्श हो जाय तो वह उसी दिन स्नान करके शुद्ध हो जाती है, इसमें कोई संशय नहीं है। अपनेसे निकृष्ट जातिवाली रजस्वलाका स्पर्श करके रजस्वला स्त्रीको तबतक भोजन नहीं करना चाहिये, जबतक कि वह शुद्ध नहीं हो जाती। उसकी शुद्धि चौथे दिनके शुद्ध स्नानसे ही होती है। यदि कोई द्विज मूत्रत्याग करके मार्गमें चलता हुआ भूलकर जल पी ले, तो वह एक दिन-रात उपवास रखकर पञ्चगव्यके पानसे शुद्ध होता है। जो मूत्र त्याग करनेके पश्चात् आचमनादि शौच न करके मोहवश भोजन कर लेता है, वह तीन दिनतक यवपान करनेसे शुद्ध होता है॥ ३३-३६ ॥ 
जो ब्राह्मण संन्यास आदिकी दीक्षा लेकर गृहस्थाश्रमका परित्याग कर चुके हों और पुनः संन्यासाश्रमसे गृहस्थाश्रममें लौटना चाहते हों, अब मैं उनकी शुद्धिके विषयमें कहता हूँ। उनसे तीन 'प्राजापत्य' अथवा 'चान्द्रायण व्रत' कराने चाहिये। फिर उनके जातकर्म आदि संस्कार पुनः कराने चाहिये ॥ ३७-३८ !!
गाधार जिस के मुखसे जूते या किसी अपवित्र वस्तुका स्पर्श हो जाय, उसकी मिट्टी और गोबरके लेपन तथा पञ्चगव्य के पानसे शुद्धि होती है। नीलकी खेती, विक्रय और नीले वस्त्र आदिका धारण- ये ब्राह्मणका पतन करनेवाले हैं। इन दोषोंसे युक्त ब्राह्मणकी तीन 'प्राजापत्यव्रत' करनेसे शुद्धि होती है। यदि रजस्वला स्त्रीको अन्त्यज या चाण्डाल छू जाय तो 'त्रिरात्र व्रत' करनेसे चौथे दिन उसकी शुद्धि होती है। चाण्डाल, श्वपाक, मज्जा, सूतिका स्त्री, शव और शवका स्पर्श करनेवाले मनुष्यको छूनेपर तत्काल स्नान करनेसे शुद्धि होती है। मनुष्यकी अस्थिका स्पर्श होनेपर तैल लगाकर स्नान करनेसे ब्राह्मण विशुद्ध हो जाता है। गलीके कीचड़के छींटे लग जानेपर नाभिके नीचेका भाग मिट्टी और जलसे धोकर स्नान करनेसे शुद्धि होती है। वमन अथवा विरेचनके बाद स्नान करके घृतका प्राशन करनेसे शुद्धि होती है। स्नानके बाद क्षौरकर्म करनेवाला और ग्रहणके समय भोजन करनेवाला 'प्राजापत्यव्रत' करनेसे शुद्ध होता है। पङ्ग्रिदूषक मनुष्योंके साथ पङ्क्तिमें बैठकर भोजन करनेवाला, कुत्ते अथवा कीटसे दंशित मनुष्य पञ्चगव्यके पानसे शुद्धि पूर्णिमा) को उपवास रखे। फिर पञ्चगव्यपान करके हविष्यान्त्रका भोजन करे। यह 'ब्रह्मकूर्च व्रत' होता है। इस व्रतको एक मासमें दो बार करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य धन, पुष्टि, स्वर्ग एवं पापनाशकी कामना से देवताओं का आराधन और कृच्छ्रव्रत करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है॥ १-१७॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'गुप्त पापोंके प्रायश्चित्तका वर्णन' नामक एक सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७१ ॥

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