अग्नि पुराण - एक सौ अड़सठवाँ अध्याय | Agni Purana - 168 Chapter

अग्नि पुराण -  एक सौ अड़सठवाँ अध्याय ! नीचे हिन्दी मे है

एक सौ अड़सठवाँ अध्याय महापातकोंका वर्णन !

दण्डं कुर्यान्नृपो नॄणां प्रायश्चित्तमकुर्वतां ।१६८.००१
कामतोऽकामतो वापि प्रायश्चित्तं कृतं चरेत् ॥१६८.००१

मत्तक्रुद्धातुराणां च न भुञ्जीत कदाचन ।१६८.००२
महापातकिनां स्पृष्टं यच्च स्पृष्टमुदक्यया ॥१६८.००२

 Agni Purana - 168 Chapter

गणान्नं गणिकान्नं च वार्धुषेर्गायनस्य च ।१६८.००३
अभिशप्तस्य षण्डस्य यस्याश्चोपपतिर्गृहे ॥१६८.००३

रजकस्य नृशंसस्य वन्दिनः कितवस्य च ।१६८.००४
मिथ्यातपस्विनश्चैव चौरदण्डिकयोस्तथा ॥१६८.००४

कुण्डगोलस्त्रीजितानां वेदविक्रयिणस्तथा ।१६८.००५
शैलूषतन्त्रवायान्नं कृतघ्नस्यान्नमेव च ॥१६८.००५

कर्मारस्य निषादस्य चेलनिर्णेजकस्य च ।१६८.००६
मिथ्याप्रव्रजितस्यान्नम्पुंश्चल्यास्तैलिकस्य च ॥१६८.००६

आरूढपतितस्यान्नं विद्विष्टान्नं च वर्जयेत् ।१६८.००७
तथैव ब्राह्मणस्यान्नं ब्राह्मणेनानिमन्त्रितः ॥१६८.००७

ब्राह्मणान्नञ्च शूद्रेण नाद्याच्चैव निमन्त्रितः ।१६८.००८
एषामन्यतमस्यान्नममत्या वा त्र्यहं क्षपेत् ॥१६८.००८

मत्या भुक्त्वा चरेत्कृच्छ्रं रेतोविण्मूत्रमेव च ।१६८.००९
चण्डालश्वपचान्नन्तु भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥१६८.००९

अनिर्दिशं च प्रेतान्नं गवाघ्रातं तथैव च ।१६८.०१०
शूद्रोच्छिष्टं शुनोच्छिष्टं पतितान्नं तथैव च ॥१६८.०१०

तप्तकृच्छ्रं प्रकुर्वीत अशौचे कृच्छ्रमाचरेत् ।१६८.०११
अशौचे यस्य यो भुङ्क्ते सोप्यशुद्धस्तथा भवेत् ॥१६८.०११

मृतपञ्चनखात्कूपादमेध्येन सकृद्युतात् ।१६८.०१२
अपः पीत्वा त्र्यहं तिष्ठेत्सोपवासो द्विजोत्तमः ॥१६८.०१२

सर्वत्र शूद्रे पादः स्याद्द्वित्रयं वैश्यभूपयोः ।१६८.०१३
विड्वराहखरोष्ट्राणां गोमायोः कपिकाकयोः ॥१६८.०१३

प्राश्य मूत्रपुरीषाणि द्विजश्चान्द्रायणं चरेत् ।१६८.०१४
शुष्काणि जग्ध्वा मांसानि  प्रेतान्नं करकाणि च ॥१६८.०१४

क्रव्यादशूकरोष्ट्राणां गोमायोः कपिकाकयोः ।१६८.०१५
गोनराश्वखरोष्ट्राणां छत्राकं ग्रामकुक्कुटं ॥१६८.०१५

मांसं जग्ध्वा कुञ्जरस्य तप्तकृच्छ्रेण शुद्ध्यति ।१६८.०१६
आमश्राद्धे तथा भुक्त्वा ब्रह्मचारी मधु त्वदन् ॥१६८.०१६

लशुनं गुञ्जनं चाद्यात्प्राजापत्यादिना शुचिः ।१६८.०१७
भुक्त्वा चान्द्रायणं कुर्यान्मांसञ्चात्मकृतन्तथा ॥१६८.०१७

पेलुगव्यञ्च पेयूषं तथा श्लेष्मातकं मृदं ।१६८.०१८
वृथाकृशरसंयावपायसापूपशष्कुलीः ॥१६८.०१८

अनुपाकृटमांसानि देवान्नानि हवींषि च ।१६८.०१९
गवाञ्च महिषीणां च वर्जयित्वा तथाप्यजां ॥१६८.०१९

सर्वक्षीराणि वर्ज्याणि तासाञ्चैवाप्यन्निर्दशं ।१६८.०२०
शशकः शल्यकी गोधा खड्गः कूर्मस्तथैव च ॥१६८.०२०

भक्ष्याः पञ्चनखाः प्रोक्ताः परिशेषाश्च वर्जिताः ।१६८.०२१
पाठीनरोहितान्मत्स्यान् सिंहतुण्डांश्च भक्षयेत् ॥१६८.०२१

यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रियाः ।१६८.०२२
वागषाड्गवचक्रादीन् सस्नेहमुषितं तथा ॥१६८.०२२

अग्निहोत्रपरीद्धाग्निर्ब्राह्मणः कामचारतः ।१६८.०२३
चान्द्रायणं चरेन्मासं वीरवध्वासनं हितं ॥१६८.०२३

ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ।१६८.०२४
महान्ति पातकान्याहुः संयोगश्चैव तैः सह ॥१६८.०२४

अनृते च समुत्कर्षो राजगामि च पैशुनं ।१६८.०२५
गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानं ब्रह्महत्यया ॥१६८.०२५

ब्रह्मोज्झ्यवेदनिन्दा च कौटसाक्ष्यं सुहृद्बधः ।१६८.०२६
गर्हितान्नाज्ययोर्जग्धिः सुरापानसमानि षट् ॥१६८.०२६

निक्षेपस्यापहरणं नराश्वरजतस्य च ।१६८.०२७
भूमिवज्रमणीनाञ्च रुक्मस्तेयसमं स्मृतं ॥१६८.०२७

रेतःसेकः स्वयोन्याषु कुमारीष्वन्त्यजासु च ।१६८.०२८
सख्युः पुत्रस्य च स्त्रीषु गुरुतल्पसमं विदुः ॥१६८.०२८

गोबधोऽयाज्य संयाज्यं पारदार्यात्मविक्रियः ।१६८.०२९
गुरुमातृपितृत्यागः स्वाध्ययाग्न्योः सुतस्य च ॥१६८.०२९

परिवित्तितानुजेन परिवेदनमेव च ।१६८.०३०
तयोर्दानञ्च कन्यायास्तयोरेव च याजनं ॥१६८.०३०

कन्याया दूषणञ्चैव वार्धुष्यं व्रतलोपनं ।१६८.०३१
तडागारामदाराणामपत्यस्य च विक्रियः ॥१६८.०३१

व्रात्यता बान्धवत्यागो भृताध्यापनमेव च ।१६८.०३२
भृताच्चाध्ययनादानमविक्रेयस्य विक्रयः ॥१६८.०३२

सर्वाकारेष्वधीकारो महायन्त्रप्रवर्तनं ।१६८.०३३
हिंसौषधीनां स्त्र्याजीवः क्रियालङ्गनमेव च ॥१६८.०३३

इन्धनार्थमशुष्काणां दुमाणाञ्चैव पातनं ।१६८.०३४
योषितां ग्रहणञ्चैव स्त्रीनिन्दकसमागमः ॥१६८.०३४

आत्मार्थञ्च क्रियारम्भो निन्दितान्नदनन्तथा ।१६८.०३५
अनाहिताग्नितास्तेयमृणानाञ्चानपक्रिया ॥१६८.०३५

असच्छास्त्राधिगमनं दौःशील्यं व्यसनक्रिया ।१६८.०३६
धान्यकुप्यपशुस्तेयं मद्यपस्त्रीनिषेवणं ॥१६८.०३६

स्त्रीशूद्रविट्क्षत्रबधो नास्तिक्यञ्चोपपातकं ।१६८.०३७
ब्राह्मणस्य रुजः कृत्यं घ्रातिरघ्रेयमद्ययोः ॥१६८.०३७

जैंभं पुंसि च मैथुन्यं जातिभ्रंशकरं स्मृतं ।१६८.०३८
श्वखरोष्ट्रमृगेन्द्राणामजाव्योश्चैव मारणं ॥१६८.०३८

सङ्कीर्णकरणं ज्ञेयं मीनाहिनकुलस्य च ।१६८.०३९
निन्दितेभ्यो धनादानं बाणिज्यं शूद्रसेवनं ॥१६८.०३९

अपात्रीकरणं ज्ञेयमसत्यस्य च भाषणं ।१६८.०४०
कृमिकीटवयोहत्या मद्यानुगतभोजनं ॥१६८.०४०

फलैधःकुसुमस्तेयमधैर्यञ्च मलावहम् ॥४१॥१६८.०४१

इत्याग्नेये महापुराणे महापातकादिकथनं नामाष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण एक सौ अड़सठवाँ अध्याय हिन्दी मे | Agni Purana - 168 Chapter In Hindi

पुष्कर कहते हैं- जो मनुष्य पापों का प्रायश्चित्त न करें, राजा उन्हें दण्ड दे। मनुष्य को अपने पापों का इच्छा से अथवा अनिच्छा से भी प्रायश्चित्त करना चाहिये। उन्मत्त, क्रोधी और दुःखसे आतुर मनुष्य का अन्न कभी भोजन नहीं करना चाहिये। जिस अन्नका महापात की ने स्पर्श कर लिया हो, जो रजस्वला स्त्रीद्वारा छूआ गया हो, उस अन्नका भी परित्याग कर देना चाहिये। ज्यौतिषी, गणिका, अधिक मुनाफा करनेवाले ब्राह्मण और क्षत्रिय, गायक, अभिशप्त, नपुंसक, घरमें उपपतिको रखनेवाली स्त्री, धोबी, नृशंस, भाट, जुआरी, तपका आडम्बर करनेवाले, चोर, जल्लाद, कुण्डगोलक, स्त्रियों द्वारा पराजित, वेदों का विक्रय करनेवाले, नट, जुलाहे, कृतघ्न, लोहार, निषाद, रँगरेज, ढोंगी संन्यासी, कुलटा स्त्री, तेली, आरूढ पतित और शत्रुके अन्नका सदैव परित्याग करे। इसी प्रकार ब्राह्मणके बिना बुलाये ब्राह्मणका अन्न भोजन न करे। शूद्रको तो निमन्त्रित होने पर भी ब्राह्मणके अन्न का भोजन नहीं करना चाहिये। इनमेंसे बिना जाने किसी का अन्न खानेपर तीन दिनतक उपवास करे। जान-बूझकर खा लेनेपर 'कृच्छ्र व्रत' करे। वीर्य, मल, मूत्र तथा श्वपाक चाण्डालका अन्न खाकर 'चान्द्रायणव्रत' करे। मृत व्यक्तिके उद्देश्यसे प्रदत्त, गायका सूँघा हुआ, शूद्र अथवा कुत्तेके द्वारा उच्छिष्ट किया हुआ तथा पतितका अन्न भक्षण करके 'तप्तकृच्छ्र' करे। किसीके यहाँ सूतक होनेपर जो उसका अन्न खाता है, वह भी अशुद्ध हो जाता है। इसलिये अशौचयुक्त मनुष्यका अन्न भक्षण करनेपर 'कृच्छ्रव्रत' करे। जिस कुएँमें पाँच नखोंवाला पशु मरा पड़ा हो, जो एक बार अपवित्र वस्तुसे युक्त हो चुका हो, उसका जल पीनेपर श्रेष्ठ ब्राह्मणको तीन दिनतक उपवास रखना चाहिये। शूद्रको सभी प्रायश्चित्त एक चौथाई, वैश्यको दो चौथाई और क्षत्रियको तीन चौथाई करने चाहिये। ग्रामसूकर, गर्दभ, उष्ट्र, शृगाल, वानर और काक- इनके मल-मूत्रका भक्षण करनेपर ब्राह्मण 'चान्द्रायण- व्रत' करे। सूखा मांस, मृतक व्यक्तिके उद्देश्यसे दिया हुआ अन्न, करक तथा कच्चा मांस खानेवाले जीव, शूकर, उष्ट्र, शृगाल, वानर, काक, गौ, मनुष्य, अश्व, गर्दभ, छत्ता शाक, मुर्गे और हाथीका मांस खानेपर 'तप्तकृच्छ्र' से शुद्धि होती है। ब्रह्मचारी अमाश्राद्धमें भोजन, मधुपान अथवा लहसुन और गाजरका भक्षण करनेपर 'प्राजापत्यकृच्छ्र' से पवित्र होता है। अपने लिये पकाया हुआ मांस, पेलुगव्य (अण्डकोषका मांस), पेयूष (ब्यायी हुई गौ आदि पशुओंका सात दिनके अंदरका दूध), श्लेष्मातक (बहुवार), मिट्टी एवं दूषित खिचड़ी, लप्सी, खीर, पूआ और पूरी, यज्ञ-सम्बन्धी संस्कार-रहित मांस, देवताके निमित्त रखा हुआ अन्न और हवि - इनका भक्षण करनेपर 'चान्द्रायण व्रत' करनेसे शुद्धि होती है। गाय, भैंस और बकरीके दूधके सिवा अन्य पशुओंके दुग्धका परित्याग करना चाहिये। इनके भी ब्यानेके दस दिनके अंदरका दूध काममें नहीं लेना चाहिये। अग्निहोत्रकी प्रज्वलित अग्निमें हवन करनेवाला ब्राह्मण यदि स्वेच्छापूर्वक जौ और गेहूँसे तैयार की हुई वस्तुओं, दूधके विकारों, वागषाड्गवचक्र आदि तथा तैल-घी आदि चिकने पदार्थोंसे संस्कृत बासी अन्नको खा ले तो उसे एक मासतक 'चान्द्रायणव्रत' करना चाहिये; क्योंकि वह दोष वीरहत्याके समान माना जाता है ॥ १-२३ ॥ 
ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुतल्पगमन - ये 'महापातक' कहे गये हैं। इन पापोंके करनेवाले मनुष्योंका संसर्ग भी 'महापातक' माना गया है। झूठको बढ़ावा देना, राजाके समीप किसीकी चुगली करना, गुरुपर झूठा दोषारोपण - ये 'ब्रह्महत्या' के समान हैं। अध्ययन किये हुए वेदका विस्मरण, वेदनिन्दा, झूठी गवाही, सुहृ‌का वध, निन्दित अन्न एवं घृतका भक्षण- ये छः पाप सुरापानके समान माने गये हैं। धरोहरका अपहरण, मनुष्य, घोड़े, चाँदी, भूमि और हीरे आदि रत्नोंकी चोरी सुवर्णकी चोरीके समान मानी गयी है। सगोत्रा स्त्री, कुमारी कन्या, चाण्डाली, मित्रपत्नी और पुत्रवधू- इनमें वीर्यपात करना 'गुरुपत्नीगमन' के समान माना गया है। गोवध, अयोग्य व्यक्तिसे यज्ञ कराना, परस्त्रीगमन, अपनेको बेचना तथा गुरु, माता, पिता, पुत्र, स्वाध्याय एवं अग्निका परित्याग, परिवेत्ता अथवा परिवित्ति होना इन दोनोंमेंसे किसीको कन्यादान करना और इनका यज्ञ कराना, कन्याको दूषित करना, ब्याजसे जीविका निर्वाह, व्रतभङ्ग, सरोवर, उद्यान, स्त्री एवं पुत्रको बेचना, समयपर यज्ञोपवीत ग्रहण न करना, बान्धवोंका त्याग, वेतन लेकर अध्यापन कार्य करना, वेतनभोगी गुरुसे पढ़ना, न बेचनेयोग्य वस्तुको बेचना, सुवर्ण आदिकी खानका काम करना, विशाल यन्त्र चलाना,लता, गुल्म आदि ओषधियोंका नाश, स्त्रियोंके द्वारा जीविका उपार्जित करना, नित्य-नैमित्तिक कर्म का उल्लङ्घन, लकड़ी के लिये हरे-भरे वृक्षको काटना, अनेक स्त्रियों का संग्रह, स्त्री-निन्दकोंका संसर्ग, केवल अपने स्वार्थके लिये सम्पूर्ण कर्मोंका आरम्भ करना, निन्दित अन्नका भोजन, अग्निहोत्रका परित्याग, देवता, ऋषि और पितरों का ऋण न चुकाना, असत् शास्त्रों को पढ़ना, दुःशीलपरायण होना, व्यसनमें आसक्ति, धान्य, धातु और पशुओंकी चोरी, मद्यपान करनेवाली नारीसे समागम, स्त्री, शूद्र, वैश्य अथवा क्षत्रियका वध करना एवं नास्तिकता- ये सब 'उपपातक' हैं। ब्राह्मणको प्रहार करके रोगी बनाना, लहसुन और मद्य आदिको सूँघना, भिक्षासे निर्वाह करना, गुदामैथुन - ये सब 'जाति-भ्रंशकर पातक' बतलाये गये हैं। गर्दभ, घोड़ा, ऊँट, मृग, हाथी, भेंड़, बकरी, मछली, सर्प और नेवला- इनमेंसे किसीका वध 'संकरीकरण' कहलाता है। निन्दित मनुष्योंसे धनग्रहण, वाणिज्यवृत्ति, शूद्रकी सेवा एवं असत्य- भाषण- ये 'अपात्रीकरण पातक' माने जाते हैं। कृमि और कीटोंका वध, मद्ययुक्त भोजन, फल, काष्ठ और पुष्पकी चोरी तथा धैर्यका परित्याग - ये 'मलिनीकरण पातक' कहलाते हैं॥ २४-४० ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'महापातक आदिका वर्णन' नामक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६८ ॥

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