आदित्य मंडल के उपास्य श्री सूर्य नारायण | Aadity Mandal Ke Upaasy Shree Soory Naaraayan

आदित्य मंडल के उपास्य श्री सूर्य नारायण |

प्रमुख वैदिक उपासनाओ में सूर्योपासना अन्यतम है। मानव-जीवन के नित्य-नैमित्तिक काम्य कर्मों की आधारशिला श्री सूर्य ही हैं। पुराणादि ग्रन्थो मे जो नार प्रकार के कालों (मानुपकाल, पितृकाल, देववाल और ब्रादाकाल) की गणना की गयी है, उसके भी आधार सूर्य ही हैं। दिन और रातका विभाग भी सुर्यपर ही आधारित है । प्राणी जितने कालतक सूर्य को देखता है, उनने काल को दिन तथा जितने कालतक वह सूर्यको नहीं देख पाता, उतने काल को रात मानता है। इसी तरह पितृदेव एवं ब्रह्मके अहोरात्र की व्यवस्था भी सूर्यपर ही आश्रित है।

भारतीय चिन्तन-पद्धति के अनुसार सूर्यो पासना किये बिना कोई भी गानब किसी भी शुभ कर्मका अधिकारी नहीं बन सकता। सायुज्य मुक्तिके गार्ग में सूर्य-मण्डलका मेदन करने वाला योगी ही उसका बास्तविक अधिकारी माना गया है। वर्णाश्रम-धर्मोके अनुसार सध्योपासना तथा गायत्री का अनुष्ठान करने वाला उपासका तीनो कालोमे गायत्री के द्वारा तेजोगय सूर्यरूप परमान्मासे सन्मार्ग-दर्शन एवं सद्बुद्रिकी प्राप्तिके लिये अभ्यर्थना किया करता है।
वेदो ने सूर्य के माहात्म्य को बतलाते हुए उसे जड जङ्गम-जगत्की आत्मा बतलाया है- 'सूर्य आत्मा जगत स्तस्थुपश्च' । भगवान् श्रीकृष्णने हार्य और चन्द्रमा के भीतर विद्यमान तेजको अपना ही तेज बनलाया है- 'यचन्द्रमसि यच्चान्नो तत्तेजो विद्धि मामकम् ।' शासों में सूर्य और चन्द्र‌माको भगवान्‌का नेत्र भी बतलाया गया है।
विगद् परमात्मा के नेत्र सूर्य से ही मानव-नेत्रो को ज्योति की प्राप्ति होनी है। उपनिपदों में मायाके बन्धनों से छुटकारा पाने तथा सर्वात्मना ब्रह्मप्राप्ति के लिये मधुविद्या, पुरुपविद्या, शाण्डिल्यविया, सवर्गब्रह्मविद्या, उपयोशल- विद्या, प्राणविद्या, पश्ञ्चाग्निविद्या, पाड्विया, वैश्वानरविद्या आदि ३२ विद्याओं (उपासनाओं) का विस्तारके साथ उल्लेख है। उनमें उद्द्रीय-विद्याके अन्तर्गत अन्तरादित्य विद्याका वर्णन किया गया है। उसके उपासक निदिध्यासनके द्वारा शुक्ल तेजको ऋग्वेद, नीलवर्ण या कान्तिको सामवेद‌के रूपमें देखते हैं। अन्तरादित्य- विद्याकी दृष्टिमें सूर्य-मण्डलके उपास्यरूपसे जिस पुरुपका वर्णन है, वह पुरुप श्रीसूर्यनारायण ही हैं। विचारकी दृष्टिसे सूर्यनारायण - पदमें कर्मधारय समास समधना नाहिये। गूर्यखरूप भगवान्‌का अत्यन्त गनोज्ञ वर्णन इस विद्याका प्रतिपाद्य विषय है। सम्पूर्ण जगत्‌को अपने प्रकाशद्वारा स्वस्वाभिप्रेत कर्ममे प्रवर्तका होनेके कारण नारायणका एक नाम सूर्य भी है इस बातको ईशोपनिषद्‌की- 'पूपन्नेकवें यम सूर्य' इत्यादि श्रुति बतलाती है। आदित्यमण्डलके आराध्य देवताका वर्णन छान्दो- ग्योपनिप‌ के में आया है। श्रुनिके अनुसार आदित्यमण्डलमे उसका जो अन्तर्यामी मनोज्ञ प्रकाशन्वरूप पुरुप दिखायी देता है जिसकी दाढी, केश खर्णकी भांति चमचमाते हैं तथा जो नखसे शिग्यापर्यन्त स्वर्णिम मनोज प्रकाशयुक्त है, जिसकी अर्चि यामलदल के सदृश है, उस सूर्यमण्डलान्तर्वर्ती पुरुपका नाम 'उत्' है; क्योकि वह कमेकि बन्धनोसे मुक्त है-

'अथ य एपोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते ।
हिरण्यश्मश्रुद्दिरण्यकेश आप्रणलात् सर्व एव एवर्णः ।

तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेचमक्षिणी तस्योदिति नाम। 
स एप सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदितः।'

ब्रह्मसूत्रके भाष्यकारोंने 'अन्तस्तद्धगोपदेशात्'  - सूत्र का विषय-वाक्य इस श्रुनिको माना है और दित्या दित्य पत्यु त्तरपदाण्ण्यः  इस पाणिनीयानुशासनके अनुसार ण्यत्- प्रत्ययान्त आदित्य पदको आदित्यमण्डल का वाचक नाना है। आदित्यमण्डलवे, नीतर रह‌नेवाले पुरुपको सम्पूर्ण जगत्‌के प्रेरक सूर्य-स्वरूप भगगन् नारायण ही गाने गये हैं। प्रकृत श्रुति उन्हीं भगनान् नारायणके मनोहर रूपका वर्णन प्रस्तुत करनी है।
आदिन्य पदको आदित्यमण्डलका वाचक इसलिये भी माना गया है कि 'य एप एतस्शिन, मण्डले पुरुषः इस वृद्‌दारण्यक श्रुति नथा 'य एप एनस्मिन् मण्डलेऽचिपि पुरुषः'टस तैत्तिरीय श्रुनिमें मण्डलवर्ती पुरुषका वर्णन मिलता है। उपर्युक्त आदित्यमण्डलवर्ती पुरुषके नेत्रों के विशेषणरूपमे आया हुआ 'याप्यास' पद भाष्य कारो की दृष्टि मे विवादा स्पद है ।
श्रीभाप्पकार 'कप्यास' पदको कमलका याचक मानने हैं। श्रुनप्रकाशिकाकारने कप्यास पढको कमल का वाचक मानते हुए उनकी दो प्रकारकी व्युग्पत्तियां दिखलायी है-
  • 'फम् जलम् पियतीति कर्काप, तेन आस्यने क्षिप्यने विकास्यते नि कप्यासः उस व्युत्पत्तिका अभिप्राय यह है कि जलाका अपनी किरणोद्वारा शोषण करनेके कारण सूर्य कपि कटल्लाता है और किरणोंद्वारा विकसित किये जानेके कारण कमल कप्यास कहलाता है।
  • अथवा जलको ही पीकर पुष्ट होनेगला कमल नाल कपिशब्दसे कहा जाता है और उसपर रहनेके कारण कमन्दपुष्प कप्यास कहलाता है- 'कम् जलम् पिवतीनि कपिः तत्र आसते उपविशति यत् तत् कप्यासम् ।'
इस प्रकार आदित्यमण्डलवर्ती पुरुप के नेत्रों की उपमा लाल कमल से उक्त श्रुति में बतलायी गयी है।
अब प्रश्न यह उठता है कि आदित्य-मण्डलमें रहनेवाले जिन पुरुगका उपास्यरूपसे वर्णन है, वे कौन हैं ?- आदित्य शब्द से कोई जीव कहा जाता है अथवा परमात्मा ? इसके उत्तर में ग्रहह्म सूत्र कार बादरायण का कहना है कि आदित्य मण्डल मे रहने वाले पुरुप के जो धर्म बतलाये गये है, वे धर्म परगामा के ही हो सकते हैं, जीवके नहीं; क्योकि श्रुति उसको अकर्मवश्य बतलाती है। छान्दोग्योप निषद्‌ के आटवे पाठक मे परमात्मा को ही अकर्मवश्य बतलाया गया है- 'एप आत्मा ऽपहतपाप्मा।' साथ ही बृहदारण्य- कोपनिषद्के अन्नयामित्व मे आदित्य शब्दाभिधेय जीव से निन्न ही आदित्या न्तर्यामी पुरुप को बतलाते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि जो परमात्मा आदित्य के भीतर रहते हुए आदित्यकी अपेक्षा अन्तरङ्ग हैं, जिन्हे आदित्य भी नहीं जानते और आदित्य जिनके शरीर है, जो आदित्यके भीतर रहकर उनका नियमन किया करते हैं, वे ही अमृत परमात्मा नुम्हारे भी अन्तरात्मा हैं।

य आदित्ये तिष्ठनादित्णदन्तरो यमादित्यो न येद यस्यादित्यः शरीरं य आदित्ययन्तरो यम- यत्येप त आन्मान्तर्याम्यसृतः ॥

अतएव आदित्यमण्डलके उपास्य देवता भगवान् नारायण ही हैं- जिस प्रकार देव आदि शरीरों के बाचक शब्द देवादि शरीरवान्ले आग्मा के भीतर रहनेवाले अन्तरात्मा परमात्माके भी बाचक होते हैं। यह अन्तरात्मा विज्ञानके पश्चात् ज्ञात होता है। आदित्यहृदय के १३८वें श्लोक में बतलाया गया है कि सवितृ-मण्डलके भीतर रह‌नेवाले पद्मासनसे बेठे हुए केयूर, मकर, कुण्डल, किरीटधारी तथा हार पहने, शत- चक्रधारी खर्णके सदृश देदीप्यमान शरीरवाले भगवान् नारायणका सदा ग्यान करना चाहिये । 

ध्येयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणः सरसिजासनसंनिविष्टः ।
केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी हारी हिरण्मयवपुर्धृतशङ्खचक्रः ॥

सूर्योपनिषद्में सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्तिमे एकमात्र कारण सूर्यको ही बतलाया गया है और उन्हींको सम्पूर्ण जगत्‌की आत्मा तथा ब्रह्म बतलाया गया है- 'सूर्याद् वै खल्विमानि भूतानि जायन्ते। असावादित्यो ब्रह्म ।' सूर्योपनिपकी श्रुतिके अनुसार सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते हैं। सम्पूर्ण जगत्‌का छप सूर्यमे ही होता है और जो सूर्य है बही मैं हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत्‌की अन्तरात्मा सूर्य ही हैं। 

सूर्याद् भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु । 
सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोऽहमेव च ॥

मद्रासकी लाइब्रेरीमे सुरक्षित सूर्यतापिनी-उपनिषद्‌के अनुसार सूर्य त्रिदेवात्मक तथा प्रत्यक्ष देवता हैं।

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