तीसरी महाविद्या श्री षोडशी (त्रिपुर-सुंदरी, ललिता) स्तोत्र,कवच, ध्यान,Third Mahavidya Shri Shodashi (Tripur-Sundari, Lalita) Stotra, Kavacham, Dhyanam,

Third Mahavidya : तीसरी महाविद्या श्री षोडशी (त्रिपुर-सुंदरी, ललिता) स्तोत्र,कवच, ध्यान

मां त्रिपुर सुंदरी, दस महाविद्याओं में से तीसरी महाविद्या हैं. इन्हें राजराजेश्वरी, षोडशी, कामाक्षी, और ललिता के नाम से भी जाना जाता है. ऐसा कहा जाता है कि मां त्रिपुर सुंदरी, सदाशिव भगवान की नाभि से प्रकट हुई हैं. मां त्रिपुर सुंदरी को तांत्रिक पार्वती भी कहा जाता है. इनके नाम का अर्थ है कि जो तीनों लोक यानी पाताल लोक (पृथ्वी लोक), और देव लोक (आसमान) में सुंदर है. मां त्रिपुर सुंदरी की तीन प्रमुख भूमिकाएँ हैं जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह निर्माता, पालनकर्ता और संहारक हैं

Third Mahavidya Shri Shodashi (Tripur-Sundari, Lalita) Stotra, Kavacham, Dhyanam

स्तोत्र प्रारम्भ

वाणीं जपेद् यस्त्रिपुरे ! भवान्या बीजं निशीथे जड़-भाव-लीनः । 
भवेत् स गीर्वाण-गुरोर्गरीयान् गिरीश-पत्नि ! प्रभुतादि तस्य ॥ १ ॥

  • अर्थात् :
हे त्रिपुरे ! जो आप भगवती के वाणी-बीज 'ऐं' का जप महा-रात्रि में भाव-निमग्न होकर करता है, वह देव-गुरु वृहस्पति से भी बढ़कर विद्वान् होता है और हे शम्भु-पत्नि ! सभी प्रकार का स्वामित्व उसे मिल जाता है।

कामेश्वरि ! त्र्यक्षरी काम-राजं जपेद् दिनान्ते तव मन्त्र-राजम् । 
रम्भाऽपि जृम्भारि-सभां विहाय भूमौ भजेत् तं कुल-दीक्षितं च ॥ २ ॥

  • अर्थात् : 
हे कामेश्वरि ! जो आपके तीन अक्षरवाले काम-राज 'क्लीं' का जप दिन के समाप्त हो जाने पर (संध्या-काल) में करता है, उस कुल-मार्ग में दीक्षित साधक को वरण करने के लिए जृम्भासुर के विनाशक देवराज इन्द्र की भी सभा को त्याग कर रम्भा जैसी अप्सरा पृथ्वी पर चली आती है।

तार्तीयकं बीजमिदं जपेद् यस्त्रैलोक्य-मातस्त्रिपुरे! पुरस्तात् ।
विधाय लीलां भुवने तथान्ते निरामयं ब्रह्म-पदं प्रयाति ॥ ३ ॥

  • अर्थात् : 
हे त्रैलोक्य-माता त्रिपुरे! जो तार्तीय-बीज 'सौः' का जप करता है, वह विश्व में अपने चरित से लोगों को चमत्कृत कर अन्त में आनन्दमय ब्रह्मपद को प्राप्त करता है।

धरा सद्म - त्रिवृत्ताष्ट पत्र षट्कोण - नागरे ! 
विन्दु-पीठेऽर्चयेद् बालां योऽयौ प्रान्ते शिवो भवेत् ॥ ४॥

  • अर्थात् : 
भू-पुर, त्रि-वृत्त, अष्ट-दल-पद्म, षट्-कोणात्मक नगरवाली हे जगदम्बिके ! जो विन्दु-पीठ पर आप 'बाला' का अर्चन करता है, वह शिव-स्वरूप हो जाता है।

इति मन्त्र-मयं स्तवं पठेद् यस्त्रिपुराया निशि वा निशावसाने। 
स भवेद् भुवि सार्वभौम-मौलिस्त्रिदिवे शक्र-समान-शौर्य-लक्ष्मी ॥५॥

  • अर्थात् : 
भगवती त्रिपुरा के इस मन्त्र-मय स्तव का जो दिन के अन्त में या निशा-काल में पाठ करता है, वह पृथ्वी पर सार्वभौम महापुरुषों का नेता बनता है और स्वर्ग में इन्द्र के समान शौर्य-लक्ष्मी से युक्त होता है।

इतीदं देवि ! बालाया स्तोत्रं मन्त्र-मयं परम् । 
अदातव्यमभक्तेभ्यो गोपनीयं स्व-योनि-वत् ॥ ६ ॥

  • अर्थात् : 
हे देवि ! भगवती बाला का यह मन्त्र-मय स्तोत्र अति श्रेष्ठ है। भक्तिहीन व्यक्तियों को इसे नहीं बताना चाहिये और अत्यन्त गुप्त बनाए रहना चाहिए।

श्री षोडषी (त्रिपुर-सुन्दरी, ललिता) कवचम्

  • श्री भैरवी उवाच
देवदेव ! महादेव ! भक्तानां प्रीति-वर्द्धन ! 
सूचितं यत् त्वया देव्याः कवचं कथयस्व मे ॥ १ ॥

  • श्री भैरव उवाच

शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि कवचं देव-दुर्लभम् । 
अप्रकाश्यं परं गुह्यं साधकाभीष्ट सिद्धिदम् ॥ २ ॥

  • विनियोगः
अस्य श्रीबाला-त्रिपुरसुन्दरी-कवचस्य श्रीदक्षिणामूर्तिः ऋषिः, पंक्तिश्छन्दः, श्रीबाला त्रिपुर-सुन्दरी देवता, ऐं बीजं, सौः शक्तिः, क्लीं कीलकं, चतुर्वर्ग-साधने पाठे विनियोगः ।
  • ऋष्यादि-न्यासः
श्रीदक्षिणामूर्ति-ऋषये नमः शिरसि । पंक्तिश्छन्दसे नमः मुखे, श्रीबाला-त्रिपुर-सुन्दरी-देवतायै नमो हृदि, ऐं बीजाय नमो गुह्ये, सौः शक्तये नमो नाभौ, क्लीं बीजाय नमः पादयोः, चतुर्वर्ग-साधने पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गेषु ।

षडङ्ग-न्यासः कर-न्यासः अङ्ग-न्यासः

  1. ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
  2. क्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
  3. सौः मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
  4. ऐं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं
  5. क्लीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
  6. सौः कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
ध्यानम् 

मुक्ता-शेखर-कुण्डलाङ्गद-मणि-ग्रैवेय-हारोर्मिका, 
विद्योतद्-वलयादि-कङ्कण-कटि-सूत्रां स्फुरन्-नूपुराम्। 
माणिक्योदर-बन्ध-कम्बु-कबरीमिन्दोः कलां विभ्रतीं, 
पाशं चांकुश-पुस्तकाक्ष-वलयं दक्षोर्ध्व-बाह्वादितः ॥

  • अर्थात् : 
भगवती बाला मोतियों से जड़े हुए चमकीले कुण्डल, अंगद, हार, वलय, कंगन, करधनी आदि आभूषण और पैर में गुंजायमान नूपुर धारण किए हैं। केश-पाश पर चन्द्रमा की कला शोभा पा रही है। दाएँ ऊर्ध्व हाथ से चार कर-कमलों में क्रमशः पाश, अंकुश, पुस्तक और अक्ष-माला लिए हैं।

कवच प्रारम्भ

मैं वाग्भवं पातु शीर्ष क्लीं कामस्तु तथा हृदि।
सौः शक्ति-बीजं च पातु नाभौ गृह्ये च पादयोः ॥ १ ॥

  • अर्थात् 
वाग्भव-बीज 'ऐं' सिर की, काम-बीज 'क्लीं' हृदय की ओर शक्ति-बीज 'सौः' नाभि की, गुह्य तथा पैरों की रक्षा करें।

ऐं क्लीं सौः वदने पातु बाला मां सर्व-सिद्धये।
हसकलह्रीं सौः पातु भैरवी कण्ठ देशतः ॥ २ ॥ 

  • अर्थात् :
'ऐं क्लीं सौः' बाला मुख-मण्डल में सर्व-सिद्धियों के लिए मेरी रक्षा करें। 'हसकलहीं सौः' भैरवी कण्ठ देश में रक्षा करें

सुन्दरी नाभि-देशेऽव्याच्छीर्षिका सकला सदा ।
भू-नासयोरन्तराले महा-त्रिपुर-सुन्दरी ॥ ३ ॥ 

  • अर्थात् : 
'सुन्दरी' नाभि देश में, 'सकला' शीर्ष-भाग में और भौंहों तथा नाक के मध्य भाग में महा-त्रिपुरी-सुन्दरी' सदा रक्षा करें।

ललाटे सुभगा पातु भगा मां कण्ठ-देशतः ।
भगा देवी तु हृदये उदरे भग-सर्पिणी ॥४॥

  • अर्थात् :
ललाट में 'सुभगा', कण्ठ देश में 'भगा', हृदय में 'भगवती देवी' और उदय में 'भग-सर्पिणी' मेरी रक्षा करें।

भग-माला नाभि-देशे लिङ्गे पातु मनोभवा ।
गुह्ये पातु महा-देवी राज राजेश्वरी शिवा ॥ ५ ॥

  • अर्थात् : 
नाभि-देश में 'भग-माला' और लिंग (योनि में 'मनोभवा' मेरी रक्षा करें। गुह्य में 'महा-देवी राज राजेश्वरी शिवा' रक्षा करें।)

चैतन्य-रूपिणी पातु पादयोर्जगदम्बिका।
नारायणी सर्व-गात्रे सर्व कार्ये शुभङ्करी ॥ ६॥

  • अर्थात् : 
दोनों पैरों में 'चैतन्य रूपिणी जगदम्बिका', सारे शरीर में 'नारायणी' और सभी कार्यों में 'शुभङ्करी' रक्षा करें।

ब्रह्माणी पातु मां पूर्वे दक्षिणे वैष्णवी तथा ।
पश्चिमे पातु वाराही उत्तरे तु महेश्वरी ॥ ७॥

  • अर्थात् : 
'ब्रह्माणी' पूर्व दिशा में और 'वैष्णवी' दक्षिण दिशा में मेरी रक्षा करें। 'वाराही' पश्चिम दिशा में और 'महेश्वरी' उत्तर दिशा में रक्षा करें।

आग्नेय्यां पातु कौमारी महा-लक्ष्मीश्च नैर्ऋते।
वायव्यां पातु चामुण्डा इन्द्राणी पातु चेशके ॥ ८ ॥

  • अर्थात् : 
'कौमारी' आग्नेय कोण में और 'महा-लक्ष्मी' नैऋत कोण में रक्षा करें। 'चामुण्डा' वायव्य कोण में और 'इन्द्राणी' ईशान कोण में रक्षा करें।

जले पातु महा-माया पृथिव्यां सर्व-मङ्गला। 
आकाशे पातु वरदा सर्वतो भुवनेश्वरी ॥ ९॥

  • अर्थात् : 
'महा-माया' जल में और 'सर्व-मङ्गला' पृथ्वी पर रक्षा करें। 'वरदा' आकाश में और 'भुवनेश्वरी' सभी ओर रक्षा करें।

फल-श्रुति 

इदं तु कवचं नाम देवानामपि दुर्लभम् ।
पठेत् प्रातः समुत्थाय शुचिः प्रयत-मानसः ॥ १०॥

  • अर्थात् : 
यह 'कवच' देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। प्रातःकाल उठकर पवित्र हो एकाग्र-मन से इसका पाठ करना चाहिए। 

नाधयो व्याधयस्तस्य न भयं च क्वचिद् भवेत् । 
न च मारी-भयं तस्य पातकानां भयं तथा ॥ ११॥ 

  • अर्थात् : 
पाठ करनेवाले को आधि-व्याधियाँ नहीं होतीं, न कहीं किसी प्रकार का भय होता है। उसे न महा-मारी का डर रहता है, न पापों का। 

न दारिद्र्य-वशं गच्छेत् तिष्ठेन्मृत्यु-वशे न च।
गच्छेच्छिव-पुरे देवि! सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ १२ ॥

  • अर्थात् 
वह दरिद्रता के वश में कभी नहीं होता और न मृत्यु के वशीभूत होता है। शिव के स्थान को ही वह प्राप्त होता है, यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ।

इदं कवचमज्ञात्वा श्रीविद्यां यो जपेच्छिवे !
स नाप्नोति फलं तस्य प्राप्नुयाच्छस्त्र-घातनम् ॥१३॥

  • अर्थात् :
इस 'कवच'को जाने बिना जो 'श्रीविद्या' के मन्त्र का जप करता है. उसे उस जप का फल नहीं मिलता. उल्टे वह किसी शस्त्र की चोट का भागी बन जाता है।

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