श्री सरस्वती स्तुति ! Shri Saraswati Stuti !

श्री सरस्वती स्तुति !  Shri Saraswati Stuti !

श्री सरस्वती को हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण देवी माना जाता है. वेदों में उन्हें शुद्धि की जल देवी के रूप में जाना जाता है, जबकि धर्मशास्त्रों में पाठकों को सद्गुणों और कार्यों के अर्थ पर ध्यान देने के लिए सरस्वती का आह्वान किया गया है. भारत में, किसी भी शैक्षणिक कार्य को शुरू करने से पहले सरस्वती की पूजा की जाती है. मान्यता है कि बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती प्रकट हुई थीं, इसलिए इस दिन उन्हें विशेष रूप से पूजा जाता है. विद्यार्थी और संगीत प्रेमी इस दिन ज्ञान की देवी सरस्वती के साथ-साथ अपनी किताबों और वाद्ययंत्रों की भी पूजा करते हैं !
मां सरस्वती की स्तुति का एक रूप है, 'या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता'. इसका मतलब है, जो कुंद के फूल, चंद्रमा और बर्फ के हार के समान श्वेत हैं, जो श्वेत वस्त्र पहनती हैं, जो हाथों में वीणा धारण किए हैं और श्वेत कमलों के आसन पर विराजमान हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता जिनकी सदा स्तुति करते हैं, जो हर प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वह सरस्वती हम सबों का उद्धार करें !

श्री सरस्वती स्तुति का महत्व इस प्रकार :-

  • यह वंदना ज्ञान और बुद्धि को बहुमूल्य संपदा बताती है और समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाती है.
  • इससे मन की चंचलता कम होती है और सकारात्मक विचार आते हैं.
  • इससे व्यक्ति समाज में सकारात्मकता लाता है.
  • इससे मन शांत होता है और ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है.
  • इससे ज्ञान, बुद्धि, कलात्मक प्रतिभा, और वाक्पटुता बढ़ती है.
  • छात्रों को परीक्षाओं में सफलता मिलती है और पढ़ाई में मन लगता है.
  • संगीतकारों और कलाकारों को प्रेरणा और रचनात्मकता मिलती है.
श्री सरस्वती स्तुति !  Shri Saraswati Stuti !

॥ श्रीसरस्वतीस्तुती ॥ Shri Saraswati Stuti !

या कुन्देन्दु-तुषारहार-धवला या शुभ्र-वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमन्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युत-शंकर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥ १॥

दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण ।
भासा कुन्देन्दु-शंखस्फटिकमणिनिभा भासमानाऽसमाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥ २॥

आशासु राशी भवदंगवल्लि भासैव दासीकृत-दुग्धसिन्धुम् ।
मन्दस्मितैर्निन्दित-शारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासन-सुन्दरि त्वाम् ॥ ३॥

शारदा शारदाम्बोजवदना वदनाम्बुजे ।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥ ४॥

सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृ-देवताम् ।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जनाः ॥ ५॥

पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्नः सरस्वती ।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥ ६॥

शुद्धां ब्रह्मविचारसारपरमा-माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् ।
हस्ते स्पाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥ ७॥

वीणाधरे विपुलमंगलदानशीले
भक्तार्तिनाशिनि विरिंचिहरीशवन्द्ये ।
कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥ ८॥

श्वेताब्जपूर्ण-विमलासन-संस्थिते हे
श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे ।
उद्यन्मनोज्ञ-सितपंकजमंजुलास्ये
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥ ९॥

मातस्त्वदीय-पदपंकज-भक्तियुक्ता
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय ।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण
भूवह्नि-वायु-गगनाम्बु-विनिर्मितेन ॥ १०॥

मोहान्धकार-भरिते हृदये मदीये
मातः सदैव कुरु वासमुदारभावे ।
स्वीयाखिलावयव-निर्मलसुप्रभाभिः
शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥ ११॥

ब्रह्मा जगत् सृजति पालयतीन्दिरेशः
शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावैः ।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे
न स्युः कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षाः ॥ १२॥

लक्ष्मिर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तृष्टिः प्रभा धृतिः ।
एताभिः पाहि तनुभिरष्टभिर्मां सरस्वती ॥ १३॥

सरसवत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नमः
वेद-वेदान्त-वेदांग- विद्यास्थानेभ्य एव च ॥ १४॥

सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने ।
विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तु ते ॥ १५॥

यदक्षर-पदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥ १६॥

॥ इति श्रीसरस्वती स्तोत्रं सम्पूर्णं॥

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