श्री गणेश पुराण | भगवान् महोत्कट की बाल-लीलाएँ,Shri Ganesh Puraan | Bhagavaan Mahotkat Kee Baal-Leelaen

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड का चतुर्थ अध्याय !

श्रीगणेश-पुराण पञ्चम खण्ड  का चतुर्थ अध्याय ! नीचे दिए गए 4 शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  1. भगवान् महोत्कट की बाल-लीलाएँ
  2. चित्र नामक गन्धर्व को अपने स्वरूप की प्राप्ति
  3. महोत्कट के मुख में विश्वरूप दर्शन कथन
  4. महोत्कट के विविध रूपों के दर्शन

भगवान् महोत्कट की बाल-लीलाएँ

महोत्कट के जन्म का समाचार सुनकर असुरों में चिन्ता व्याप्त हो गई। वे जान गए कि यह अदितिपुत्र अवश्य ही हमारे अनिष्ट में तत्पर होगा। उन्हें अब यह समझने में देर न लगी कि अदिति ने इसलिए कठोर तपस्या की थी। शंकित असुरगण भविष्य में उपस्थित होने वाले इस घोर संकट के प्रतिकार का उपाय सोचने लगे। अने कों प्रमुख असुरों ने एक स्थान पर बैठकर परस्पर परामर्श किया। उस समय स्पष्ट निर्णय लिया गया कि 'घातक वृक्ष अंकुर से विशाल न हो सके, इस उद्देश्य से उसे पहिले ही नष्ट कर डालना चाहिए। इस निर्णय को कार्यान्वित करने का भार सौंपा गया 'विरजा' नाम की एक अत्यन्त कुटिला एवं क्रूर कर्मा राक्षसी पर ।
राक्षसी विरजा अपने कार्य में तुरन्त लग गई। वह बिना कुछ विचार किए हुए, अपनी चतुरता के अहंकार में मत्त हुई कश्यप जी के आश्रम में जा पहुँची। वह बालक को देखने का उपक्रम करती हुई जैसे ही महोत्कट के पास गई, वैसे ही उन्होंने झपटकर उसे मृत्यु मुख में पहुँचा दिया। इस प्रकार बेचारी विरजा अपनी ही चतुरता पर बलिदान हो गई।
असुरों ने सुना कि विरजा मारी गई तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । सोचने लगे कि वह तो बहुत ही चतुर और बल शालिनी थी, एक छोटे से बालक के हाथों कैसे मारी गई! अन्त में निश्चय हुआ कि 'उद्धत' और 'धुन्धुर' नामक वीरों को वहाँ भेजा जाये। वे अवश्य ही उस बालक को मारने में सफल रहेंगे।


आदेश मिलते ही दोनों असुर-वीर चल पड़े। उन्होंने तोते का मनोहर रूप बनाया और कश्यपाश्रम में जा पहुँचे, उस समय अदिति महोत्कट को दुग्ध पान करा रही थीं। तभी दो तोते सुमधुर वाणी में बोलने लगे। सुन्दर तोतों को देख कर महोत्कट ने दूध पीना छोड़ दिया और माता से बोले- 'माता ! उन तोतों को ला दो।' माता ने समझाया - 'पुत्र ! पहिले दूध पीकर पेट भर लो, तब उन्हें देखना। यह तो आकाश में उड़ने वाले पक्षी हैं, इन्हें पकड़ना भी कोई सहज कार्य नहीं है।'महोत्कट बोले- 'अरे ! इन्हें पकड़ना भी कोई बड़ी बात है ? लो देखो, मैं पकड़ता हूँ इन्हें ।' यह कहकर महोत्कट वेगपूर्वक उछले और बाज के समान झपट्टा मारकर एक-एक हाथ में दोनों को पकड़ लाये। पक्षी उनके हाथों में दबाव में फड़फड़ाये और चोंच मार-मारकर महोत्कट को घायल करने लगे। यह देखकर मुनिकुमार ने उन तोतों को तुरन्त ही मार डाला। तब उनका छद्मवेश दूर हो गया और उनका राक्षस रूप प्रत्यक्ष हो गया । यह देखकर भयभीत हुई माता ने अपने बालक को उठाकर गोद में ले लिया। महर्षि ने शान्ति कर्म करके बाधा शान्त की और पत्नी से बोले- 'आज परमात्मा ने ही इसकी रक्षा की है, तुमने यह जानते हुए भी कि यहाँ अनेकों असुर रहते हैं, बालक को अकेला कैसे छोड़ दिया ?'
अदिति ने कहा, 'मैंने अकेला तो नहीं छोड़ा था, वरन् बालक ही उनके मायावी रूप पर मोहित होकर उन्हें पकड़ लाया। अब और सावधानी रखूँगी ।' धीरे-धीरे चार वर्ष व्यतीत हो गए। उनकी बाल-क्रीड़ाएँ माता-पिता और बनवासी स्त्री, पुरुष, बालकों के लिए मनोरञ्जन और चर्चा का विषय बनी हुई थीं। सभी के लिए महोत्कट भगवान् प्राणों से भी अधिक प्रिय हो रहे थे। आश्रम के निकट, ताल-तमाल, देवदारु, जामुन, आम, कटहल आदि के अनेकों सघन वृक्ष थे, जिनके मध्य में एक गहरे मीठे और स्वच्छ जल का सरोवर विद्यमान था। उसमें अनेकों मत्स्य-मकर आदि जल-जीव भी थे, जो आश्रमवासियों के लिए बहुत कष्टकर सिद्ध होते थे। क्योंकि उनके कारण कोई निःशङ्क रूप से स्नान तो क्या, तट पर बैठकर सन्ध्या-वन्दन करने या पानी भरने में भी भयभीत रहता था ।

चित्र नामक गन्धर्व को अपने स्वरूप की प्राप्ति

एक बार सोमवती अमावस के साथ व्यतीपात योग पड़ा। उस दिन माता अदिति भी स्नान करने के लिए उस सरोवर पर जा पहुँचीं। उनके साथ महोत्कट भी थे। बालक को तट पर बैठाया और स्वयं स्नान करने के लिए सरोवर में उतर गयीं। तभी बालक ने भी माता के पास पहुँचने की चेष्टा की, परन्तु पास न पहुँचकर प्रथम सीढ़ी पर ही गिर पड़ा और फिर सँभल कर वहीं खेलने लगा। तभी उसे एक मगर ने पकड़ लिया । यह देखकर माता उधर दौड़ी हुई चिल्लाई 'अरे, कोई इसे बचाओ । हाय ! मेरे लाल को मगर ने पकड़ लिया है।' निकट में ही कुछ मुनिकुमार स्नान कर रहे थे, वे बालक को छुड़ाने के लिए दौड़ पड़े, किन्तु वे उसे मगर से न छुड़ा सके। बालक को पकड़े हुए मगर पानी के भीतर ले जाने के लिए खींच रहा था। उसके साथ माता भी खिंचती जा रही थीं।'
उसी समय बालक उछला और उसने मगर से अपने को छुड़ाकर तुरन्त ही उस जल में से उठाकर बाहर तट से भी दूर फेंक दिया। इससे उसका शरीर फटकर चूर-चूर हो गया और उसके प्राणों ने शरीर का साथ छोड़ दिया। यह देखकर माता सहित सभी उपस्थित व्यक्तियों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ ।तभी सबने देखा कि मगर-देह के समीप ही एक सुन्दर वस्त्रालङ्कार- धारी तेजस्वी पुरुष प्रकट होकर महोत्कट की ओर हाथ जोड़कर कह रहा है- 'प्रभो ! मेरा नाम चित्र गन्धर्व है। मैं सभी गन्धर्वों का अधिपति था । मेरे विवाहोत्सव में समस्त गन्धर्व और बहुत से ऋषि-मुनि भी सम्मिलित हुए थे। मैंने सभी का स्वागत सत्कार किया था। किन्तु भ्रमित बुद्धि के कारण महर्षि भृगु का सत्कार करने में भूल हो गई।
यह देखकर महर्षि क्रोधित होकर बोले- 'दुष्ट ! तूने मेरा अपमान किया है, इसके फलस्वरूप एक सरोवर में जाकर मगर बनेगा ।'ऋषि का शाप सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा। फिर मैंने उन महर्षि की बहुत अनुनय-विनय की, तो वे कुछ द्रवित होकर बोले- 'गन्धर्वराज ! मेरा शाप तो मिथ्या नहीं हो सकता। किन्तु जब भगवान् गजानन कश्यप- पुत्र होंगे, तब उनके स्पर्श से तुम उस योनि से छूटकर निज स्वरूप प्राप्त करोगे ।' इतना कहकर गन्धर्व ने भगवान् गजानन की स्तुति आरम्भ की- 

"त्वमेव जगतां नाथ ! कर्ता पापापहारकः । 
निर्गुणो निरहंकारः सदसत्कारणं परम् ॥"

"हे प्रभो ! आप ही जगत् स्वामी एवं रचयिता हैं। आप ही पापों का नाश करने वाले गुण रहित, अहङ्कार रहित एवं सत्-असत् रूप तथा सभी के परम कारण हैं, आपकी कृपा से ही मुझे अपने पूर्व रूप की पुनः प्राप्ति हुई है।'
इस प्रकार प्रार्थना करके गन्धर्व अपने लोक को गया, इधर माता अदिति के आश्चर्य की सीमा न थी। वह सोचती, यह सब क्या है ? यह दिव्य पुरुष कौन था ? मनुष्य, राक्षस अथवा देवता ? मेरे पुत्र की ओर मुख करके न जाने क्या-क्या करता रहा और अन्त में प्रणाम करके चला गया। परन्तु, मेरा अबोध बालक क्या समझता उनकी बातों को ? अवश्य वह कोई आसुरी माया रही होगी।' ऐसा विचार कर उन्होंने पुत्र को गोद में उठा लिया और उसे मरा हुआ जानकर स्तन-पान कराने लगीं।

महोत्कट के मुख में विश्वरूप दर्शन कथन

एक समय महर्षि कश्यप के आश्रम पर सङ्गीत-विशारद हाहा, हूहू और तुम्बुरू नामक गन्धर्व आये। वे शरीर पर पीताम्बर धारण किए, माथे पर गोपीचन्दन का तिलक लगाये, वीणा पर हरिगुण कीर्तन कर रहे थे। अपने-अपने स्थान से कैलास-यात्रा के लिए चले थे, वहाँ से होते हुए यहाँ आ पहुँचे । महर्षि कश्यप ने उनका स्वागत सत्कार कर, भोजन स्वीकार करने का निवेदन किया। तब तीनों ने स्नानादि कर्मों द्वारा पवित्र होकर भगवती उमा, शिव, विष्णु, विनायकदेव और भास्कर का पूजन किया तथा अपने इष्टदेव का ध्यान कर रहे थे, तभी महोत्कट भी खेलते हुए वहाँ जा पहुँचे। उन्होंने पाँच देवताओं की मूर्तियाँ वहाँ देखीं तो खेल-खेल में उठाकर अन्यत्र फेंक दीं और चुपचाप वहाँ से हद गये।
ध्यान समाप्त होने पर गन्धों ने देखा कि वहाँ मूर्तियाँ नहीं हैं, तो बहुत व्याकुल हुए। उन्होंने इधर-उधर मूर्तियों को खोजा और जब वे न मिलीं तो महर्षि कश्यप से कहा, 'हे भगवन्! हम उमा, शिव, विष्णु, विनायक और सूर्य की पूजा करके इष्टदेव का ध्यान कर रहे थे, तभी उनकी पाँच मूर्तियाँ अदृश्य हो गयीं। पता नहीं, कौन उठाकर ले गया ?'
कश्यप जी को मूर्तियों के चले जाने की बात सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ । सोचा-'अब तक तो कभी कोई वस्तु आश्रम से चोरी नहीं गई, तब आज ही यह कैसे हुआ? कहीं महोत्कट ने तो वे प्रतिमाएँ नहीं उड़ा दीं। खेल-खेल में ले गया हो कहीं।'
ऐसा सन्देह होने पर उन्होंने महोत्कट को बुलाकर पुचकारते हुए पूछा- 'पुत्र ! तुमने अतिथियों की देवी मूर्तियाँ देखी थीं क्या ?' पुत्र ने स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया । महर्षि ने कुछ कठोर होकर कहा- 'तेरे अतिरिक्त वहाँ एकान्त में अन्य कौन जा सकता था ? अवश्य ही तू वहाँ गया और प्रतिमाओं को खिलौने समझकर उठा लाया।' महोत्कट ने विनम्रता से कहा- 'परन्तु मैंने प्रतिमाएँ नहीं उठायीं ।' कश्यप बोले- 'तू वहाँ गया था ही फिर प्रतिमाएँ कौन उठा ले
गया ?' पुत्र ने कुछ उत्तर न दिया तो उसे डराने के लिए महर्षि ने छड़ी दिखाते हुए कहा- 'बताओ, मूर्तियाँ कहाँ फेंक दीं ? यदि नहीं बतायेगा तो मैं तुझे मारूँगा ।'
महोत्कट भयभीत के समान खड़े हो गए। महर्षि की कठोर वाणी सुनकर अदिति भी वहाँ आ गईं। तभी पुत्र ने पिता को उत्तर दिया- 'मूर्तियाँ उठाकर कहीं फेंक देता तो भी यहीं कहीं मिल जातीं। यदि आपको यह सन्देह हो कि मैं उन्हें खा गया हूँ तो मेरा मुख देख लीजिए ।' यह कहकर पुत्र ने अपना मुख खोल दिया। भीतर का दृश्य देखकर अदिति मूच्छित हो गईं और अन्य सभी आश्चर्य चकित रह गए ! सबने बालक के मुख में कैलास सहित शंकर, बैकुण्ठ सहित विष्णु, सत्यलोक, स्वर्गलोक सहित समस्त पृथ्वी, चौदहों भुवन, सभी लोकपाल एवं दसों दिशाओं में विद्यमान अद्भुत सृष्टि देखी ।
सभी मौन थे। कश्यप जी सोचने लगे- 'अरे, मैं यह तो भूल ही गया कि यह मेरे पुत्र रूप में साक्षात् जगदीश्वर ही अवतरित हुए हैं, मैंने इन्हें छड़ी दिखाकर कैसा अपराध कर डाला!' फिर उन्होंने गन्धों से कहा- 'अब आप ही बताइए कि मैं क्या करूँ ? बालक को दण्ड देना भी मेरे वश की बात नहीं है।' इतने में अदिति की मूर्च्छा दूर हो चुकी थी। वे बालक को गोद में उठाकर भीतर ले गईं और उसे दूध पिलाने लगीं। इधर गन्धर्वों ने महर्षि से कहा- 'महर्षे! यद्यपि मूर्तियाँ चोरी होने में आपका कोई दोष नहीं है, तो भी जब तक वे मिलेंगी नहीं, तब तक हम आपके द्वारा प्रदत्त अन्न-फल एवं कन्दमूलादि कुछ भी पदार्थ ग्रहण करने में असमर्थ होंगे।'

महोत्कट के विविध रूपों के दर्शन

महर्षि देख रहे थे कि गन्धर्व बहुत दुखित हो रहे हैं, तो भी प्रतिमाएँ प्राप्त कराना उनके वश की बात नहीं थी। इतने में ही कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि सभी उपस्थित व्यक्ति अत्यन्त आश्चर्य में भर गए। सभी ने, विशेषकर गन्धर्वों ने देखा कि महोत्कट वहाँ आ खड़े हुए, वे कभी भगवती उमा, कभी विष्णु, कभी विनायक और कभी सूर्यरूप में दिखाई दे रहे हैं। वह एक ही बालक क्षण-क्षण में पञ्चदेव के रूप में साकार दर्शन दे रहा था।

"क्षणं ते ददृशुर्बालं क्षणं पञ्चस्वरूपिणम् । 
क्षणं महाभीतिकरं क्षणं तं विश्वरूपिणम् ॥"

उनके पश्चात् गन्धर्वों ने बालक के और भी अनेक रूप देखे। 'कभी पञ्चदेव तो कभी विश्वरूप और कभी अत्यन्त भयङ्कर रूप दिखाई देता।' इस प्रकार उन्हें विनायक तत्त्व का पूर्ण रूपेण साक्षात्कार हो गया। महर्षि कश्यप के यहाँ आकर वे धन्य हो गए। उन्हें सहज में ही परमात्मा के दर्शन प्राप्त हो गए। तब तो उन्होंने महोत्कट की भक्तिभाव से स्तुति की और महर्षि को धन्यवाद देकर सहर्ष उनका भोजन ग्रहण किया । तदुपरान्त बारम्बार भगवान् महोत्कट के चरणों में प्रणाम करते और महर्षि कश्यप और देवमाता अदिति की प्रशंसा करते हुए गन्तव्य स्थान की ओर प्रस्थित हुए ।

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