पांचवीं महाविद्या भैरवी माता,मंत्र,ध्यान,स्तोत्र,कवच,Paanchaveen Mahaavidya Bhairavee Mata,Mantr,Dhyaan,Stotr,Kavach

Paanchaveen Mahaavidya : पांचवीं महाविद्या भैरवी माता,मंत्र,ध्यान,स्तोत्र,कवच

दस महाविद्याओं में से पांचवीं महाविद्या भैरवी है. भैरवी को कुंडलिनी की देवी माना जाता है. वह मृत्यु, परिवर्तन, कामोत्तेजना, और नियंत्रण की देवी हैं. भैरवी, देवी पार्वती की महाविद्या हैं और साधकों को आध्यात्मिकता और आत्मज्ञान के मार्ग पर मार्गदर्शन करती हैं. भैरवी को परम प्रेयसी और परम चंचल ऊर्जा देवी माना जाता है. हालांकि, वह एक आकर्षक और शक्तिशाली देवी हैं, फिर भी वह आध्यात्मिक साधक को डराने वाली लग सकती हैं. किसी योग्य आध्यात्मिक शिक्षक के मार्गदर्शन के बिना देवी भैरवी का ध्यान करने की अनुशंसा नहीं की जाती !

  • दस महाविद्याएं ये हैं:
महाकाली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला. 

इन महाविद्याओं को दशावतार माना गया है. इनका संबंध भगवान विष्णु के दस अवतारों से है. तंत्र क्रिया में इन 10 महाविद्याओं का विशेष महत्व होता है. इनकी साधना और उपासना से विशेष फल की प्राप्ति होती है. मां दुर्गा के इन दस महाविद्याओं की साधना करने वाला व्यक्ति सभी भौतिक सुखों को प्राप्त कर बंधन से भी मुक्त हो जाता है

भैरवी योगेश्वरी रूप उमा है। तथा जगत का मूल कारण है। पूर्व पृष्ठों में वर्णित घटनानुसार जब शिवजी का मार्ग अवरुद्ध करके दशों दिशाओं में दश महादेवियाँ दर्शन देती हैं और शिवजी उनसे उनका परिचय पूछते हैं, तब पार्वती कहती हैं-
अहं तु भैरवी भीमां शम्भो मा त्वऽभयं कुरु ॥
  • अर्थात् 
हे शिव ! मैं स्वयं ही भैरवी रूप से आपको अभय दान देने के लिये प्रस्तुत हुई हूँ।
अतः कहा जा सकता है कि पार्वती ही भैरवी रूपा है।
श्री भैरवी का मुख्य उपयोग घोर कर्म में होता है। इनके ध्यान का उल्लेख सप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर वध के प्रसंग में हुआ है। इनका रंग लाल है, लाल वस्त्र पहनती हैं, गले में मुण्डमाला धारण करती हैं, स्तनों पर रक्त चन्दने का लेप करती हैं, जयमाला, पुस्तक तथा अभय और वर नामक मुद्रा धारण किए हुए हैं। कमलासन पर विराजमान हैं। मधुपान कर महिष का हृदय विदीर्ण करने के लिए इस घोर रूप का अवतरण हुआ है। इनका यन्त्र सुवर्ण में धारण करना चाहिए। संकटों से मुक्ति के लिए इनकी उपासना फलप्रदा है। जबलपुर के पास स्थित प्राचीन स्थान त्रिपुरी इस शक्ति का आराधना पीठ था।
  • भैरवी-मंत्र 
हसरें हसकलरीं हसरौः। हसरें हसकलरीं हसरोः ॥

भैरवी ध्यान

उद्य‌द्भानुसहस्त्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां । 
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्। 
हस्ताब्जैदधतीं त्रिनेत्रविलसद्रक्तारविन्दश्रियं । 
देवीं बद्धहिमांशुरक्तमुकुटां वन्दे समन्दस्मिताम् ॥

देवी के देह की कान्ति उदय हुए सहस्त्र सूर्य के समान है। रक्त वर्ण वस्त्र पहिने, गले में मुण्डमाला और दोनों स्तन रक्त से भीगे हुए हैं। इनके चारों हाथों में जपमाला, पुस्तक, अभय मुद्रा तथा वर मुद्रा और ललाट में चन्द्र विद्यमान है। इनके तीनों नेत्र लालकमल के समान हैं। मस्तक में रत्न जड़ित मुकुट और मुख पर मृदु हास्य विराजित है।
  • जप होम

दीक्षां प्राप्य जपेन्मंत्रं तत्त्वलक्षं जितेन्द्रियः ।
पुष्पैर्भानुसहस्त्राणि जुहुया‌द्ब्रह्मवृक्षजैः ॥

और ढाक के फूलों से बारह हजार होम करना उचित रहता है। ढाउपरोक्त मन्त्र का दश लाख जप करने से पुरश्चरण पूर्ण होता है

भैरवी-स्तोत्र

स्तुत्याऽनया त्वां त्रिपुरे स्तोष्येऽभीष्टफलाप्तये ।
यया व्रजन्ति तां लक्ष्मी मनुजाः सुरपूजिताम् ॥

हे त्रिपुरे! मैं वांछित फल प्राप्त होने की आशा से तुम्हारी स्तुति करता हूँ। इस स्तुति के द्वारा मनुष्यगण देवताओं से पूजित धन देवी को प्राप्त करते हैं।

ब्रह्मादयः स्तुतिशतैरपि सूक्ष्मरूपां ।
जानन्ति नैव जगदादिमनादिमूर्त्तिम् ।

तस्माद्वयं कुचनतां नवकुंकुमाभां । 
स्थूलां स्तुमः सकलवाड्मयमातृभूताम् ॥

हे जननी ! तुम जगत् की आद्या हो। तुम्हारा आदि नहीं है। इसी कारण ब्रह्मादि देवतागण भी सैंकड़ों स्तुति करके सूक्ष्मरूपिणी तुमको समझ पाने में समर्थ नहीं हैं। उनकी ऐसी वाक्सम्पत्ति ही नहीं हो पाती है, कि जो तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ हों। इस कारण हम कुंकुम के समान कांतिवाली वाक्य रचना की जननी उन्नत पुष्टस्तन वाली तुम्हारा स्तुतिगान करते हैं।

सद्यः समुद्यतसहस्त्रदिवाकराभां।
विद्याक्षसूत्रवरदाभयचिह्नहस्ताम् ।
नेत्रोत्पलैस्त्रिभिरलंकृतवऋपद्मां ।
त्वां हारभाररुचिरां त्रिपुरे भजामः ॥

हे त्रिपुरे ! तुम्हारे देह की कांति नये उदित होते हजार सूर्यों के समान उज्ज्वल है। तुम चारों हाथों में विद्या, अक्षयसूत्र और अभय धारण करती हो। तुम्हारे तीनों नेत्रकमलों से मुखकमल अलंकृत हुआ है। तुम्हारा गला हार से विराजमान है। ऐसी मैं तुम्हारी आराधना करता हूँ।

सिन्दूरपूररुचिरं कुचभारनघ्रं ।
जन्मान्तरेषु कृतपुण्यफलैकगम्यम् ।
अन्योन्यभेदकलहाकु लमानसास्ते ।
जानन्ति किं जडधियस्तव रूप मम्ब ॥

हे जननी ! तुम्हारा रूप सिन्दूर के समान लालवर्णा है। तुम्हारा देहांश भारी एवं उन्नत स्तनों के भार से झुक रहा है, जिन्होंने जन्म जन्मान्तर से बहुत पुण्य संचय किया है। वही उस पुण्य के प्रभाव से तुम्हारा ऐसा रूप देखने में समर्थ होगा। जो पुरुष निरंतर परस्पर कलह से कुंठित हैं, वह जड़मती पुरुष तुम्हारा ऐसा रूप किस प्रकार जान सकते हैं ?

स्थूलां वदन्ति मुनयः श्रुतयो गृणन्ति ।
सूक्ष्मां वदन्ति वचसामधिवासमन्ये ।
त्वां मूलमाहुस्परे जगतां भवानि ।
मन्यामहे वयमपारकृपाम्बुराशिम् ॥

हे भवानी ! मुनिगण तुमको स्थूल कहकर वर्णन करते हैं। श्रुतियें तुमको स्थूल कहकर स्तुति करती हैं। कोई जन तुमको वाक्य की अधिष्ठात्री देवी कहते हैं। अपरापर अनेक विद्वान् पुरुष जगत् का मूल कारण कहते हैं। किन्तु मैं तुम्हें केवल मात्र दया की देवी करुणेश्वरी जानता हूँ।

चन्द्रावतंसकलितां शरदिन्दुशुभ्रां ।
पञ्चाशदक्षरमयीं हृदि भावयन्ति ।
त्वां पुस्तकं जपवटीममृताढद्यकुम्भं ।
व्याख्याञ्च हस्तकमलैर्द्दधतीं त्रिनेत्राम् ॥

हे जननी ! तुम चंद्र से अलंकृत हो। तुम्हारे देह की कांति शरद के चंद्रमा के समान शुभ है। तुम्हीं पचास वर्णों वाली वर्णमाला हो। तुम्हारे चार हाथों में पुस्तक, जपमाला, सुधावर्ण कलश और व्याख्यानमुद्रा विद्यमान है। तुम्हीं त्रिनेत्रा हो। साधक इस प्रकार से तुम्हारा अपने हृदयकमल में ध्यान करते हैं।

शम्भुस्त्वमद्रितनया कलितार्द्धभागो ।
विष्णुस्त्वमन्यकमलापरिबद्धदेहः !
पद्मोद्भवस्त्वमसि वागाधिवासभूमिः ।
येषां क्रियाश्च जगति त्रिपुरे त्वमेव ॥

हे जननी ! तुम्हीं अर्द्धनारीश्वर शंभु रूप से शोभायमान हो। तुम्हीं तुम्हीं वागाधिष्ठात्री देवी हो।कमला श्लिष्टा विष्णु रूपिणी हो। तुम्हीं कमलयोनि ब्रह्मस्वरूपिणी हो। ब्रह्मादिक की सृष्टिक्रिया शक्ति भी केवल तुम्ही हो !

आकुच्य वायुमवजित्य च वैरिषट्क- 
मालोक्य निश्चलधियो निजनासिकाग्रम् ।
ध्यायन्ति मूर्छिन कलितेन्दुकलावतंसं ।
तद्रुपमम्ब कृति तस्तरुणार्कमित्रम् ॥

हे अम्बे ! विद्वान् पुरुष वायु का निरोध करके काम क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर अपनी नासिका का अग्र भाग देखते हुए चन्द्रस्वरूपी त्रये उदय हुए सूर्य समान तुम्हारे रूप का सहस्र कमल में ध्यान करते हैं।

त्वं प्राप्य मन्मथरिपोर्वपुरर्द्धभागं । 
सृष्टिं करोषि जगतामिति वेदवादः ।
सत्यं तदद्रितनये जगदेकमात- 
र्नोचेदशेषजगतः स्थितिरेव न स्यात् ॥

हे पर्वतराजपुत्री ! तुमने काम का दमन करने वाले महादेव के शरीर का अर्द्धश अवलम्बन करके जगत् को उत्पन्न किया है। वेद में जो इस प्रकार वर्णन है, वह सत्य ही जान पड़ता है। हे विश्वजननी ! यदि ऐसा न होता, तो कभी जगत् की स्थिति संभव नहीं होती।

पूजां विधाय कुसुमैः सुरपादपानां।
पीठे तवाम्ब कनकाचलगह्वरेषु ।
गायन्ति सिद्धवनिताः सह किन्नरीभि-
रास्वादितामृतरसारुणपद्मनेत्राः ॥

हे जननी ! जो कि सिद्धों की स्त्रियों के किन्नरीगणों के सहित एकत्र मिलकर आसव रस पान किया, इस कारण उनके नेत्रकमलों ने लोहित कांति धारण की है। वह पारिजातादि सुरतरु के फूलों से तुम्हारी पूजा करती हुई कैलाश पर्वत की कन्दराओं में तुम्हारे नाम का गायन करती हैं।

विद्युद्विलासवपुषं श्रियमुद्वहन्तीं ।
यान्तीं स्ववासभवनाच्छिवराजधानीम् ।
सौन्दर्यराशिकमलानि विकाशयन्तीं । 
देवीं भजे हृदि परामृतसिक्तगात्राम् ॥

हे देवी! जिन्होंने बिजली की रेखा के समान दीप्तमान् देह धारण किया है। जो अतिशय शोभा से युक्त है। जो अपने वासस्थान मूलाधार पद्म से सहस्र बार कमल में जाने के समय सुषुम्णा में स्थित पद्म समूह को विकसित करती है। जिनका शरीर परम अमृत से अभिषिक्त है। वह देवी तुम्हीं हो। मैं तुम्हारी आराधना करता हूँ।

आनन्दजन्मभवनं भवनं श्रुतीनां ।
चैतन्यमात्रतनुमम्ब तवाश्रयामि।
ब्रह्मेशविष्णुभिरुपासितपादपद्मां ।
सौभाग्यजन्मवसतीं त्रिपुरे यथावत् ॥

हे त्रिपुरे! तुम्हारा देह आनन्द भवन है। तुम्हारे शरीर से ही श्रुतियाँ उत्पन्न हुई हैं। यह देह चैतन्यययन ब्रह्मा, विष्णु और महादेव तुम्हारे चरणकमलों की आराधना करतय है। जयाम्य तुम्हारे शरीर का आश्रय करके शोभा पाता है। मैं तुम्हारे ऐसे शरीर का आश्रय ग्रहण करता हूँ।

सर्वार्थभावि भुवनं सृजतीन्दुरूपा ।
या तद्विर्भित्त पुरनर्कतनुः स्वशक्त्या ।
ब्रह्मांत्मिका हरति तत् सकलं युगान्ते।
तां शारदां मनसि जातु न विस्मरामि !!

और प्रलय काल में अग्नि रूप से उस सबको ध्वंस करती हैं. उस शारदा हे जननी ! जो चन्द्ररूप से भवनों की सृष्टि, सूर्यरूप से पालन देवी को मैं कभी न भूल सकूँ। 

नारायणीति नरकार्णवतारिणीति । 
गौरीति खेदशमनीति सरस्वतीति ।
ज्ञानप्रदेति नयनत्रयभूषितेति ।
त्वामद्रिराजतनये विबुधा वदन्ति ॥

हे पर्वतराजकन्ये ! साधकगण तुम्हारी नारायणी, नरक-रूप सागर से तारने वाली देवी, गौरी, दुःख नाशिनी, सरस्वती, ज्ञानदाती और तीन नेत्रों से भूषिता इत्यादि रूप से आराधना करते हैं।

ये स्तुवन्ति जगन्माता श्लोकैर्द्वादशभिः क्रमात् ।
त्वामनुप्राप्य वाक्सिद्धिं प्राप्नुयुस्ते परां गतिम् ॥

हे जगन्मातः ! जो पुरुष इन बारह श्लोकों से तुम्हारी स्तुति करते हैं, वह तुमको प्राप्त करके वाक्सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं, और देह के अंत में परमगति को प्राप्त होते हैं।

भैरवी-कवच

भैरवी कवचस्यास्य सदाशिव ऋषिः स्मृतः ।
छन्दोऽनुष्टुब् देवता च भैरवी भयनाशिनी।
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्त्तितः ॥

भैरवी कवच के ऋषि सदाशिव, छंद अनुष्टुप्, देवता भयनाशिनी भैरवी और धर्मार्थ काममोक्ष की प्राप्ति के लिए इसका विनियोग कहा गया है।

हसरें मे शिरः पातु भैरवी भयनाशिनी। 
हसकलरीं नेत्रञ्च हसरौश्च ललाटकम् । 
कुमारी सर्व्वगात्रे च वाराही उत्तरे तथा। 
पूर्वे च वैष्णवी देवी इन्द्राणी मम दक्षिणे। 
दिग्विदिक्षु सर्वत्रैव भैरवी सर्व्वदावतु । 
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेद्देविभैरवीम् ।
सकल्पकोटिशतेनापि सिद्धिस्तस्य न जायते ॥ 

हसरें मेरे मस्तक की, हसकलरी मेरे नेत्र की, हसरौः मेरे ललाट की और कुमारी मेरे गात्र की रसकलरी मेरे हे उत्तर दिशा में, वैष्णवी पूर्व दिशा में, इन्द्राणी दक्षिण दिशा में और भैरवी दिशा विदिशा में सर्वत्र जप करता है. सौ करोड कल्प में भी उसको सिद्धि प्राप्त नहीं होती

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