Kamala Mata : दसवीं महाविद्या कमला माता, मंत्र, ध्यान, स्तोत्र, कवच
दशमी महाविद्या कमला का लोक-प्रचलित नाम लक्ष्मी है। इन्हें नारायणी भी कहते हैं। धूमावती और कमला में प्रतिस्पर्धा है क्योंकि धूमावती ज्येष्ठा और कमला कनिष्ठा है। धूमावती को विधवा माना जाता है और अलक्ष्मी तथा भूखी माँ भी कहते हैं। धूमावती अवरोहिणी हैं तथा इन्हें आसुरी भी माना जाता है। इसके विपरीत कमला सधवा हैं और इन्हें लक्ष्मी कहते हैं। ये रोहिणी हैं तथा इन्हें दिव्या माना जाता है।
यूँ तो सभी महाविद्याएँ आदि अन्त से रहित हैं फिर भी इनके प्रादुर्भाव को विभिन्न प्राच्य विद्वानों ने अपने-अपने ज्ञानानुसार प्रकट किया है जिसके अनुसार समुद्र मंथन के समय धन्वन्तरी जी के बाद उच्चैःश्रवा-घोड़ा फिर ऐरावत तत्पश्चात् लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव हुआ था।
श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्द के आठवें अध्याय में इनके उद्भव की कथा आई है। देवताओं तथा असुरों द्वारा किए गए मन्थन के फलस्वरूप समुद्र से जब इनका प्रादुर्भाव हुआ तो विष्णु ने इनका वरण किया। यह जगत के पोषण-पालन में सहायक है। देवता, प्रजापति और प्रजा सभी इनकी कृपा-दृष्टि से शील आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर सुखी हो जाते हैं। इनके हाथ में कमल है और दिग्गजों ने जल से भरे कलशों द्वारा इन्हें स्नान कराया है। श्री कमला के विपरीत असुर श्रीहीन हो जाते हैं, उन्हें इनकी ज्येष्ठा धूमावती नष्ट कर देती हैं।
कमला माता मंत्र
भगवती कमला की पूजा जपादि करने के लिए उपरोक्त मन्त्रों में में किसी एक मन्त्र का चुनाव करें।
कमला माता ध्यान
कान्त्या काञ्चनसन्निभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुर्भिर्गजै-
र्हस्तोत्क्षिप्तहिरण्मयामृतघटैरासिच्यमानां श्रियम्॥
विभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः किरीटोज्ज्वलां।
क्षौमाबद्धनितम्बबिम्बललितां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ॥
कमला देवी स्वर्ण के समान कान्तिमान् हैं। इनका हिमगिरि के समान विशाल आकार वाले चार हाथी सूंड उठाकर सुधा से पूर्ण सुवर्ण घड़ों से अभिषेक करते हैं। इनके चार हाथों में वर और अभयमुद्रा तथा दो कमल स्थित हैं। इनके भाल पर रत्न मुकुट हैं और यह कमल पर स्थित हैं।
कमला माता स्तोत्र
अथातः संप्रवक्ष्यामि लक्ष्मीस्तोत्रमनुत्तमम । पठनात् श्रवणाद्यस्य नरो मोक्षमवाप्नुयात् ॥
श्रीमहादेव जी बोले, हे पार्वती! अब अति उत्तम लक्ष्मी स्तोत्र कहता हूँ, इसको पढ़ने वा सुनने से मनुष्यों को मुक्ति प्राप्त होती है।
गुह्याद् गुह्यतरं पुण्यं सर्वदेवनमस्कृतम् ।
सर्वमंत्रमयं साक्षाच्छृणु पर्वतनन्दिनि ॥
हे पर्वतनन्दिनि ! यह स्तोत्र गुह्य से गुह्यतर सर्वदेवों से नमस्कृत और सर्वमन्त्रमयी है। श्रवण करो।
अनन्तरूपिणी लक्ष्मीरपारगुणसागरी ।
अणिमादिसिद्धिदात्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी लक्ष्मी ! तुम अनन्तरूपिणी और गुणों का सागर हो। तुम्हीं प्रसन्न होकर अणिमादि सिद्धि का प्रसाद देती हो। तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
आपदुद्धारिणी त्वं हि आद्या शक्तिः शुभा परा।
आद्या आनन्ददात्री च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी! तुम्हीं प्रसन्न होकर अपने भक्तों का विपद से उद्धार करती हो। तुम्हीं कल्याणी हो। तुम्हीं आद्या शक्ति हो। तुम्हीं सबकी आदि हो एवं तुम्हीं आनन्ददायिनी हो। तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
इन्दुमुखी इष्टदात्री इष्टमंत्रस्वरूपिणी।
इच्छामयी जगन्मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी जगन्माता लक्ष्मी ! तुम्हीं अभीष्ट प्रदान करती हो। तुम्हारा मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकाशमान है। तुम्हीं इष्ट मन्त्र स्वरूपिणी और इच्छामयी हो। तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
उमा उमापतेस्त्वन्तु ह्यत्कण्ठाकुलनाशिनी ।
उर्वीश्वरी जगन्मातर्लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे देवी लक्ष्मी ! तुम्हीं उमापति की उमा हो। तुम्हीं पृथ्वी की ईश्वरी हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
ऐरावतपतिपूज्या ऐश्वर्याणां प्रदायिनी।
औदार्य्यगुणसम्पन्ना लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे देवी ! तुम्हीं ऐरावतपति देवराज इन्द्र की वन्दनीय हो। तुम्हीं प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान कर सकती हो। तुम्हीं उदार गुणों से विभूषित हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
कृष्णवक्षः स्थिता देवि कलिकल्मषनाशिनी।
कृष्णचित्तहरा की शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे दवी ! तुम सदा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में विराजमान रहती हो। तुम्हारे बिना और कोई भी कलि कल्म षध्वंस करने में समर्थ नहीं है। तुमने ही श्रीकृष्ण का चित्त हरण किया है। अतः केवल सर्वकारिणी तुम्हीं हो। तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
खञ्जनाक्षी खंजनासा देवि खेदविनाशिनी ।
खंजरीटगतिश्चैव शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी ! तुम खंजन के नेत्र के समान सुनयना हो। तुम्हारी नासिका गरुड़ की नासिका के समान मनोहर है। तुम आश्रितों के क्लेश का विनाश करती हो। तुम्हारी गति खंजरीट के समान है। मैं तुमको सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
गोविन्दवल्लभा देवी गन्धर्व्वकुलयावनी ।
गोलोकवासिनी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे जननी ! तुम्हीं बैकुण्ठपति गोविन्द की प्रियतमा हो। तुम्हारे अनुग्रह से ही गन्धर्वकुल पवित्र हुआ है। तुम्हीं सर्वदा गोलोकधाम में विहार करती हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
ज्ञानदा गुणदा देवि गुणाध्यक्षा गुणाकरी।
गन्धपुष्पधरा मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे मातः ! एकामात्र तुम्हीं ज्ञान की देने वाली हो एवं तुम ही एकमात्र गुण की खान हो। तुम्हीं गुणों की अध्यक्ष हो। तुम्हीं गुणों की आधार हो। तुम्हीं गन्धपुष्प द्वारा निरन्तर शोभित रहती हो। मैं सिर झुकाकर तुमको नमस्कार करता हूँ।
घनश्यामप्रिया देवि घोरसंसारतारिणी ।
घोरपापहरा चैव शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे कमले ! तुम्हीं घनश्याम की प्रियतमा हो। एकमात्र तुम्हीं घोरतम संसार सागर से रक्षा कर सकती हो। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी भयंकर पापों से उद्धार करने में समर्थ नहीं है अतः मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
चतुर्वेदमयी चिन्त्या चित्तचैतन्यदायिनी।
चतुराननपूज्या च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी ! तुम्हीं चतुर्वेदमयी हो। एकमात्र तुम्हीं योगियों का ध्यान हो। तुम्हारे प्रसाद से ही चित्त में चैतन्यता का संचार होता है। जगत्पति चतुरानन भी तुम्हारी पूजा करते हैं। अतएव हे जननी! मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
चैतन्यरूपिणी देवि चन्द्रकोटिसमप्रभा ।
चन्द्रार्कनखरज्योतिर्लक्ष्मि देवि नमाम्यहम् ॥
हे देवी! तुम्हीं चैतन्यरूपिणी हो। तुम्हारे देह की कान्ति करोड़ों चन्द्रमों के समान रमणीय है। तुम्हारे चरणों की दीप्ति चन्द्र सूर्य की कान्ति से भी अधिक देदीप्यमान है। मैं तुमको नमस्कार करता हूँ।
चपला चतुराध्यक्षी चरमे गतिदायिनी।
चराचरेश्वरी लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी लक्ष्मी ! तुम सदा एक स्थान में वास नहीं करती हो। इसीलिए तुम्हारा 'चपला' नाम हुआ है। अन्तकाल में एकमात्र तुम्हीं गति देती हो। तुम्हीं चराचर जीवों की अधीश्वरी हो। मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
छत्रचामरयुक्ता च छलचातुर्य्यनाशिनी ।
छिद्रौघहारिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे जननी ! तुम्हीं शोभायमान छत्र और चामर से परम शोभा पाती हो। छलचातुरी प्रभाव से नाश को प्राप्त होते हैं। तुम्हीं पाप समूह को नष्ट करती हो। अतः मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
जगन्माता जगत्कत्रीं जगदाधाररूपिणी ।
जयप्रदा जानकी च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे जननी ! तुम्हीं जगत् की जननी हो। तुम्हीं जगत् का एकमात्र आधार हो। तुम जयदात्री हो। तुम्हीं जानकी रूप से पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई हो। मैं सिर झुकाकर तुमको नमस्कार करता हूँ।
जानकीशप्रिया त्वं हि जनकोत्सवदायिनी ।
जीवात्मनां च त्वं मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे जननी ! तुम जानकी, रघुवर की सहधर्मिणी हो। तुम्हीं जनक को आनन्द देने वाली हो। तुम्हीं सर्व जीवों की आत्मस्वरूपा हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
झिञ्जीरवस्वना देवि झंझावातनिवारिणी।
झर्झरप्रियवाद्या च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी ! तुम्हारे कण्ठ का स्वर झिंजीरव के समान मधुर है। तुम्हारे अनुग्रह से झंझा वर्षायुक्त वायु के हाथ से सहज में ही रक्षा लाभ होता है। तुम गोवर्द्धनादि पर्वतों में झर्झर वाद्य में अत्यन्त हो, मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
अर्थप्रदायिनी त्वं हि त्वञ्च ठकाररूपिणी ।
ढक्कादिवाद्यप्रणया डम्फवाद्यविनोदिनी ॥
डमरूप्रणया मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।
हे जननी ! एकमात्र तुम्हीं धन प्रदान करती हो। तुम्हीं ठकाररूपिणी हो। डमरू और डम्फ वाद्य से तुमको अत्यन्त प्रसन्नता होती है। ढक्कादि वाद्य तुम्हें प्रीतिकर हैं। मैं सिर झुकाकर तुम्हारे चरण कमलों में प्रणाम करता हूँ।
तप्तकांचनवर्णाभा त्रैलोक्यलोकतारिणी ।
त्रिलोकजननी लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी लक्ष्मी ! तुम्हारा वर्ण तपे हुए कंचन के समान उज्ज्वल है। तुम त्रैलोक्यवासी जीवों की रक्षा करती हो। तुम्हीं त्रिलोक को उत्पन्न करने वाली हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
त्रैलोक्यसुंदरी त्वं हि तापत्रयनिवारिणी।
त्रिगुणधारिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे जननी ! तुम त्रिभुवन में परम रूपवती हो। तुम्हीं तीनों तापों का नाश करती हो। तुम्हीं सत्त्व, रज और तमोगुण धारिणी हो। मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
त्रैलोक्यमंगला त्वं हि तीर्थमूलपदद्वया।
त्रिकालज्ञा त्राणकर्जी शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी! तुम्हीं तीनों लोकों का मंगल विधान करती हो। तुम्हारे चरण कमलों में सम्पूर्ण तीर्थ विराजमान रहते हैं। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों को जानती हो। तुम्हीं जीवों की रक्षा किया करती हो। मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
दुर्गतिनाशिनी त्वं हि दारिद्र्यापद्विनाशिनी।
द्वारकावासिनी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे जननी ! तुम आपदा, दुर्गति और दरिद्रों की दरिद्रता, आपदा को दूर करती हो। तुम्हीं द्वारकापुरी में विराजमान रहती हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
देवतानां दुराराध्या दुःखशोकविनाशिनी ।
दिव्याभरणभूषांणी शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी ! देवता भी बहुत तपस्यादि बहुत से कष्ट से तुमको प्राप्त करते हैं। तुम प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण शोकों को नष्ट कर देती हो। तुम दिव्य आभूषणों से शोभायमान हो रही हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
दामोदरप्रिया त्वं हि दिव्ययोगप्रदर्शिनी ।
दयामयी दयाध्यक्षी शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे जननी ! तुम दामोदर की प्रिया हो। तुम्हारे प्रसाद से ही दिव्य योग प्राप्त किया जा सकता है। तुम्हीं दयामयी हो। तुम ही दया की अधिष्ठात्री देवी हो। तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
ध्यानातीता धराध्यक्षा धनधान्यप्रदायिनी।
धर्मदा धैर्यदा मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे माता ! तुम ध्यान से भी अतीत हो। तुम्हीं पृथ्वी की अध्यक्ष हो। तुम्हीं भक्तों को धन धान्यादि प्रदान करती हो। तुम्हीं धर्म और धैर्य की शक्ति देती हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
नवगोरोचना गौरी नन्दनन्दनगेहिनी।
नवयौवनचार्वंगी शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी ! तुम नवीन गोरोचन के समान गौरवर्णा हो। तुम्हीं नन्दनन्दन की प्रियतमा हो। तुम्हीं नवयौवन के कारण कान्तिप्रदा हो। मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
नानारत्नादिभूषाढ्या नानारत्नप्रदायिनी।
नितम्बिनी नलिनाक्षी लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे देवी! तुम अनेक प्रकार के रत्नादि आभूषणों से विभूषित होकर परम शोभा को पाती हो। तुम्हीं प्रसन्न होने पर नाना रत्नादि प्रदान करती हो। तुम्हीं विशाल नितम्ब वाली हो। तुम्हारे नेत्र कमल के समान सुन्दर हैं। तुमको सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
निधुवनप्रेमानन्दा निराश्रयगतिप्रदा।
निविकारा नित्यरूपा लक्ष्मिदेवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मीदेवी ! तुम विकाररहित और नित्यरूपिणी हो। निधुवन में विहार करने से तुमको प्रेमानन्द की प्राप्ति होती है। तुम्हीं निराश्रय को पार लगा देती हो। तुमको नमस्कार है।
पूर्णानन्दमयी त्वं हि पूर्णब्रह्मसनातनी ।
परा शक्तिः परा भक्तिर्लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे देवी कमले ! तुम पूर्णानन्दमयी हो। तुम्हीं पूर्ण ब्रह्मस्वरूपिणी हो। तुम्हीं परम शक्ति हो। तुम्हीं परम भक्तिस्वरूपा हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
पूर्णचन्द्रमुखी त्वं हि परानन्दप्रदायिनी।
परमार्थप्रदा लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी! तुम्हारी देह पूर्णचन्द्रमा के समान शोभायमान है। तुम्हीं परमानन्द और परमार्थ का दान देती हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
पुण्डरीकाक्षिणी त्वं हि पुण्डरीकाक्षगेहिनी।
पद्मरागधरा त्वं हि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
तुम्हारे नेत्र कमल के समान सुन्दर हैं। तुम्हीं पुण्डरीकाक्ष की गेहिनी हो। तुम्हीं पद्मरागमणि धारण करके परम शोभा को प्राप्त होती हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
पद्मा पद्मासना त्वं हि मद्ममालाविधारिणी।
प्रणवरूपिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे माता ! तुम पद्मासन पर विराजमान रहती हो। इसी कारण तुम्हारा 'पद्मा' नाम प्रसिद्ध हुआ है। तुम्हारे गले में मनोहर पद्ममाला सुन्दरता से पड़ी रहती है। तुम्हीं ओंकार रूपिणी हो। मैं तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
फुल्लेन्दुवदना त्वं हि फणिवेणिविमोहिनी।
फणिशायिप्रिया मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे माता ! तुम्हारा मुख चन्द्रमा की किरणों के समान मनोहर है। तुम्हारे सिर की वेणी ने फणि के समान लम्बायमान होकर परम शोभा धारण कर रखी है। तुम्हीं क्षीरोदसागर में शेष शय्या पर शयन करने वाले हरि की गृहिणी हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
विश्वकर्जी विश्वभर्ती विश्वत्रात्री विश्वेश्वरी।
विश्वाराध्या विश्वबाह्या लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी ! तुम्हीं संसार की सृष्टि करने वाली हो। तुम्हीं विश्व का पालन करने वाली हो। तुम्हीं केवल सम्पूर्ण विश्व की ईश्वरी हो। तुम्हीं विश्ववासी जीवों की पूजनीया हो। तुम्हीं विश्व में सर्वत्र रहती हो, किन्तु तो भी तुम जगत में लिप्त नहीं हो। तुम्हीं विश्व के बाहर स्थित हो। तुम्हीं विश्व के भीतर स्थित हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
विष्णुप्रिया विष्णुशक्तिर्बीजमंत्रस्वरूपिणी ।
वरदा वाक्यसिद्धा च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
तुम्हीं विष्णु की प्रिया हो। तुम्हीं विष्णु की एकमात्र शक्ति हो। तुम्हीं बीजमंत्र स्वरूपिणी हो। तुम्हीं वर का दान देने वाली हो। तुम्हीं वासिद्धियुक्त हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
वेणुवाद्यप्रिया त्वं हि वंशीवाद्यविनोदिनी।
विद्युद्गौरी महादेवि लक्ष्मी देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे महादेवी ! हे लक्ष्मी देवी! तुम विद्युत् के समान गौरवर्णा हो। तुम्हें वेणु का वाद्य अति प्रिय है। तुम वंशी की धुन से विनोदनी हो जाती हो। तुमको सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
भुक्तिमुक्तिप्रदा त्वं हि भक्तनुग्रहकारिणी।
भवार्णवत्राणकर्जी लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी! तुम भुक्ति और मुक्ति को प्रदान करती हो। तुम भक्तों के प्रति अनुग्रह रखती हो। तुम्हीं आश्रितों को भवसागर से पार करती हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
भक्तप्रिय नमस्कार भक्तमंगलदायिनी !
भयदा भयदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी! तुम भक्तों के प्रति आन्तरिक स्नेह रखती हो। तुम्हीं भागीरथी गंगास्वरूपिणी हो। तुम भक्तों का कल्याण करती हो। तुम्हीं दुष्टों का नाश करती हो। तुम शरणागतों को अभय करती हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
मनोऽभीष्टप्रदा त्वं हि महामोहविनाशिनी ।
मोक्षदा मानदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी ! तुम कामना पूर्ण करती हो। तुम मोह का विनाश करती हो। तुम्हीं मोक्ष देती हो। तुम सन्मान देती हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
महाधन्या महामान्या माधवस्यात्ममोहिनी।
मोक्षदा मानदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी ! तुम्हीं महाधन्या हो। तुम महा माननीय हो। तुमने ही माधव को मोहित किया हुआ है। जो बहुत बोलने वाले अर्थात चुगलखोर हैं। तुम उनका नाश करती हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
यौवनपूर्णसौन्दर्या योगमाया तथेश्वरी ।
युग्मश्रीफलवृक्षा च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी ! तुम पूर्ण यौवन को धारण करके सुन्दर लग रही हो। तुम्हीं योगमाया हो। तुम्हीं योग की ईश्वरी हो। तुम्हारे वक्ष पर दो नारियल के समान ऊँचे दो स्तन शोभा पा रहे हैं। तुमको नमस्कार करता हूँ।
युग्मांगदविभूषाढ्या युवतीनां शिरोमणिः ।
यशोदासुतपत्नी च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी ! तुम्हारे दोनों बाहुओं में दो बाजूबन्द विद्यमान हैं। तुम्हीं युवतियों की शिरोमणि हो। तुम्हीं यशोदानन्दन की पत्नी हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
रूपयौवनसम्पन्ना रत्नालंकारधारिणी।
राकेन्दुकोटिसौन्दर्य्या लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी! तुम रूप एवं यौवन से सम्पन्न हो। तुम्हीं रत्न अलंकार से विभूषित हो। तुम्हारी कान्ति करोड़ चन्द्रमा से भी उज्ज्वल है। तुमको नमस्कार करता हूँ।
रमा रामा रामपत्नी राजराजेश्वरी तथा।
राज्यदा राज्यहन्त्री च लक्ष्मिदेवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी! तुम्हारा ही नाम 'रमा' और 'रामा' है। तुम्हीं राम की पत्नी हो। तुम्हीं राज राजेश्वरी हो। तुम्हीं राज्य प्रदान करती हो। तुम्हीं राज्य का नाश करती हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
लीलालावण्यसम्पन्ना लोकानुग्रहकारिणी।
ललना प्रीतिदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे जननी ! तुम्हीं लीला और लावण्य से सम्पन्न हो। तुम्हीं लोकों पर अनुग्रह करती हो। स्त्रीजन तुम्हारे द्वारा परम प्रीति को प्राप्त करती हैं। तुमको नमस्कार करता हूँ।
विद्याधरी तथा विद्या वसुदा त्वन्तु वन्दिता ।
विन्ध्याचलवासिनी च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी ! तुम्हीं विद्या हो। तुम्हीं विद्याधरी हो। तुम्हीं वसुदा हो। तुम्हीं वंदनीय हो। तुम्हीं विन्ध्य वासिनी रूप से विन्ध्याचल में निवास करती हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
शुभ काञ्चनगौरांगी शंखकंकणधारिणी।
शुभदा शीलसम्पन्ना लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी! तुम शुभ कंचन के समान गौर वर्णा हो। तुमने अपने हाथ में शंख और कंकण धारण किये हैं। तुम शुभदायक हो। तुम अत्यन्त शीलवती हो, तुमको नमस्कार करता हूँ।
षट्चक्रभेदिनी त्वं हि षडैश्वर्य्यप्रदायिनी ।
षोडसी वयसा त्वन्तु लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी! तुम्हीं षड्चकभेदिनी हो। तुम्हीं छः प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करती हो। तुम्हीं सोलह वर्ष की अवस्था वाली नवयुवती हो। तुमको नमस्कार करता हूँ।
सदामन्दमयी त्वं हि सर्वसम्पत्तिदायिनी।
संसारतारिणी देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी! तुम सर्वदा आनन्दमयी हो। तुम्हीं सर्वसम्पत्ति देती हो। तुम्हीं संसार से पार करती हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
सुकेशी सुखदा देवि सुंदरी सुमनोरमा ।
सुरेश्वरी सिद्धिदात्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी! तुम्हारे केश मनोहर हैं। तुम सुख देती हो। तुम सुन्दरी और मनमोहिनी हो। तुम्हीं देवताओं की ईश्वरी हो। तुम सिद्धि प्रदायिनी हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
सर्वसंकटहन्त्री त्वं सत्यसत्त्वगुणान्विता ।
सीतापतिप्रिया देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी ! तुम सम्पूर्ण संकट दूर करती हो। तुम सत्य-नारायण हो। तुम सत्त्वगुणशालिनी हो। तुम ही सीतापति रमाचन्द्र की प्रिय पत्नी हो। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
हेमांगिनी हास्यमुखी हरिचित्तविमोहिनी ।
हरिपादप्रिया देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥
हे देवी! तुम विधले काँच के समान गौरवर्णा हो। तुम सर्वदा प्रसन्न रहती हो। तुभने हरि का चित्त मोहित किया हुआ है। हरि के चरणों में ही तुम्हारा अत्यन्त अनुराग है। मैं सिर झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ।
क्षेमंकरी क्षमादात्री क्षौमवासोविधारिणी ।
क्षीणमध्या च क्षेत्रांगी लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥
हे लक्ष्मी देवी! तुम कल्याण करने वाली हो। तुम क्षमादात्री हो। क्षौमवस्त्र को धारण करती हो। तुम्हारी कमर ने पतली होने से परम शोभा दिखा रही है। तुम्हारे अंग में सम्पूर्ण तीर्थ और क्षेत्र विद्यमान रहते हैं। तुमको नमस्कार करता हूँ।
अकारादि क्षकारान्तं लक्ष्मीदेव्याः स्तव शुभम्।
पठितव्यं प्रयत्नेन त्रिसन्ध्यञ्च दिने दिने ॥श्री महादेव जी बोले- हे पार्वती ! तुम्हारे प्रश्नानुसार अकारादि से क्षकारान्त वर्ण वाला लक्ष्मी स्तोत्र वर्णन किया है। इस कल्याणकारक स्तोत्र का प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में प्रयास करके पाठ करना चाहिये।
पूजनीया प्रयत्नेन कमला करुणामयी।
वाञ्छाकल्पलता साक्षाद्भक्तिमुक्तिप्रदायिनी ॥
इसे पूजना चाहिये क्योंकि यह कमला देवी करुणा से परिपूर्ण है। यह अभिलाभाएँ पूर्ण किया करती है। यही साक्षात् भक्ति एवं मुक्ति देने वाली है।
इदं स्तोत्र पठेद्यस्तु शृणुयात् श्रावयेदपि।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य सत्यं सत्यं हि पार्वति ॥
जो पुरुष इस लक्ष्मी स्तोत्र को पढ़ते हैं या सुनते हैं या दूसरे मनुष्य को सुनाते हैं। हे पार्वती ! उनके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं करना।
इदं स्तोत्रं महापुण्यं यः पठेद्भक्तिसंयुतः ।
तञ्च दृष्ट्वा भवेन्मको वादी सत्यं न संशयः ॥
हे गौरी! जो साधक भक्ति सहित इस पवित्र स्तोत्र का पाठ करते हैं, उनके दर्शन मात्र से ही वादी मूकता को प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं।
शृणुयाछ्रावयेद्यस्तु पठेद्वा पाठयेदपि।
राजानौ वशमायान्ति तं दृष्ट्वा गिरिनन्दिनि ।।
हे गिरिनन्दिनि ! जो इस स्तोत्र को सुनते हैं। जो दूसरों को सुनाते हैं। जो स्वयं पढ़ा करते हैं। जो दूसरों को पढ़ाते हैं। उनके दर्शनमात्र से ही राजा लोग वशीभूत होते हैं।
तं दृष्ट्वा दुष्टसंघाश्च पलायन्ते दिशो दश।
भूतप्रेतग्रहा यक्षा राक्षसा पन्नगादयः ॥
विद्रवन्ति भयार्ता वै स्तोत्रस्यापि च कीर्त्तनात् ॥
जो पुरुष इस लक्ष्मी स्तोत्र का कीर्तन करते हैं, उनके दर्शन मात्र से ही दुष्टगण दशों दिशा में भाग जाते हैं। भूत, प्रेत, ग्रह, यक्ष, राक्षस, सर्प इत्यादि भी उससे डरकर अन्यत्र चले जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं करना।
सुराश्च ह्यसुराश्चैव गंधर्वकिन्नरादयः ।
प्रणमन्ति सदा भक्त्त्या तं दृष्टवा पाठकं मुदा ॥
जो व्यक्ति इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, देवता, दानव, गन्धर्व, किन्नर उसको देखते ही आनन्द और भक्ति सहित प्रणाम करते हैं।
धनार्थी लभते चार्थं पुत्रार्थी च सुतं लभेत्।
राज्यार्थी लभते राज्यं स्तवराजस्य कीर्त्तनात् ॥
इस अति उत्तम स्तव का कीर्तन करने से धनार्थी धन, पुत्रार्थी पुत्र और राज्यार्थी राज्य को प्राप्त किया करता है।
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्व्वगनागमः ।
महापापोपापापञ्च तरन्ति स्तवकीर्त्तनात् ॥
ब्रह्म हत्या, सुरापान, चोरी, गुरु स्त्रीगमन, महापातक, उपपातक, उस स्तव के कीर्तन करने मात्र के प्रभाव से सम्पूर्ण पापों से छुटकारा पा जाते हैं।
गद्मपद्यमयी वाणी मुखात्तस्य प्रजायते ।
अष्टसिद्धिमवाप्नोति लक्ष्मीस्तोत्रस्य कीर्तनात् ॥
इस लक्ष्मी स्तोत्र के कीर्तन करने से आपने आप ही मुख से गद्य पद्यमयी वाणी प्रादुर्भूत हुआ करती है। इसका कीर्तन करने वाला आठ प्रकार की सिद्धि को प्राप्त किया करता है।
वन्ध्या चापि लभेत् पुत्रं गर्भिणी प्रसवेत्सुतम् ।
पठनात्स्मरणात् सत्यं वच्मि ते गिरिनन्दिनी ॥
हे पर्वतनन्दिनि ! तुमसे सत्य ही कहता हूँ। इस स्तोत्र के पढ़ने वा स्मरण करने मात्र से ही वंध्या पुत्र प्राप्त करती है, और गर्भवती स्त्री को उत्तम पुत्र प्राप्त होता है।
भूर्जपत्रे समालिख्य रोचनाकुंकुमेन तु।
भक्त्या संपूजयेद्यस्तु गन्धपुष्पाक्षतैस्तथा ॥
धारयेदक्षिणे बाहौ पुरुषः सिद्धिकांक्षया।
योषिद्वामभुजे धृत्वा सर्व्वसौख्यमयी भवेत् ॥
जो पुरुष लक्ष्मी की कामना करते हैं। वे भोजपत्र के ऊपर गोरोचन और कुंकुम द्वारा इस स्तव को लिखकर गन्धपुष्पादि से भक्ति के साथ पूजा अर्चना करके दाहिने बाहु में धारण करे। स्त्रियाँ भी बाईं भुजा में धारण करने से सर्व सुखों से सुखी हो सकती हैं।
विषं निर्विषतां याति अगिनर्याति च शीतताम् ।
शत्रवो मित्रतां यान्ति स्तवस्यास्य प्रसादतः ॥
इस स्तवराज के प्रसाद से विष में निर्विषता, अग्नि में शीतलता और शत्रुओं में मित्रता प्राप्त होती है।
बहुना किमिहोक्तेन स्तवस्यास्य प्रसादतः ।
वैकुण्ठे च वसेन्नित्यं सत्यं वच्मि सुरेश्वरि ॥
हे सुरेश्वरी ! इसका महात्म्य और अधिक क्या वर्णन करूँ ? अन्त समय नित्य दिवस वैकुण्ठ में वास होता है। इसमें सन्देह नहीं करना।
कमला (लक्ष्मी) कवच
लक्ष्मीर्मे चाग्रतः पातु कमला पातु पृष्ठतः ।
नारायणी शीर्षदेशे सर्वांगे श्रीस्वरूपिणी ॥
लक्ष्मी मेरे अग्र भाग की रक्षा करें।
कमला मेरी पीठ की रक्षा करें।
नारायणी मेरे सिर की और श्रीस्वरूपिणी देवी मेरे सर्वांग की रक्षा करें।
रामपत्नी प्रत्यंगे तु सदावतु रमेश्वरी।
विशालाक्षी योगमाया कौमारी चक्रिणी तथा ॥
जयदांत्री धनदांत्री पाशाक्षमालिनी शुभा।
हरिप्रिया हरिरामा जयंकरी महोदरी ॥
कृष्णपरायणा देवी श्रीकृष्णमनोमोहिनी ।
जयंकरी महारौद्री सिद्धिदात्री शुभंकरी ॥
सुखदा मोक्षदा देवी चित्रकूटनिवासिनी।
भयं हरेत्सदा पायाद् भवबन्धाद्विमोचयेत् ॥
जो रामपत्नी अर्थात रामेश्वरी हैं, वह विशाल नेत्र वाली योगमाया लक्ष्मी मेरे सम्पूर्ण अंगों की रक्षा करें। वही कौमारी है, वही चक्रधारिणी है, वही जय देने वाली है, वही धनदाता है, वही पाशअक्षमालिनी है, वही कल्याणी है, वही हरिप्रिया है, वही हरिरामा है, वही जय देने वाली है, वही महोदरी है, वही कृष्ण परायणा है, वही श्रीकृष्ण मोहिनी है, वही महारौद्री है, वही सिद्धि देने वाली है, वही शुभ करने वाली है, वही सुख देने वाली है, वही मोक्ष देने वाली है। वही चित्रकूटनिवासिनी है। वही अनपायिनी लक्ष्मी देवी मेरा भय दूर करें। सर्वदा मेरी रक्षा करें। मेरा भव बन्धन हटायें।
कवचन्तु महापुण्यं यः पठेत् भक्तिसंयुक्तः ।
त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यम्वा मुच्यते सर्व्वसंकटात् ॥
जो भक्तियुक्त होकर प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में या एक सन्ध्या में ही इस परम पवित्र लक्ष्मी कवच का पाठ करता है, वह सम्पूर्ण संकटों से छूट जाता है।
पठणं कवचस्यास्य पुत्रधनविवर्द्धनम् ।
भीति विनाशनञ्चैव त्रिषु लोकेषु कीर्त्तितम् ॥
इस कवच के पाठ करने से पुत्र और धनादि की वृद्धि होती है। साधक का भय दूर होता है। इसका माहात्म्य त्रिभुवन में प्रसिद्ध है।
भूर्जपत्रे समालिख्य रोचनाकुंकुमेन तु।
धारणाद्गलदेशे च सर्वसिद्धिभविष्यति ॥
भोज पत्र के ऊपर गोरोचन और कुंकुम से इसको लिखकर कण्ठ में धारण करने से सर्वकामना पूर्ण होती हैं।
अपुत्रो लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्।
मोक्षार्थी मोज्ञमाप्नोति कवचस्य प्रसादतः ॥
इस कवच के प्रसाद में अपुत्र को पुत्र लाभ होता है। धनार्थी को धन लाभ और मोक्षार्थी को मोक्ष प्राप्त होता है। इसमें सन्देह नहीं करना।
गर्भिणी लभते पुत्र वन्ध्या च गर्भिणी भवेत्।
धारयेद्यदि कण्ठे च अथवा वामबाहुके ॥
यदि नारियाँ इसे कण्ठ अथवा वाम बाहु पर नियमपूर्वक धारण करें, तो गर्भवती उत्तम पुत्र को प्राप्त करती हैं और वन्ध्या स्त्री भी गर्भवती हो जाती है।
यः पठेन्नियतो भक्त्त्या स एव विष्णुवद्भवेत् ।
मृत्युव्याधिभयं तस्य नास्ति किञ्चिन्महीतले ।
जो कोई नित्य भक्तिपूर्वक इस कवच का पाठ करता है, वह विष्णु की समानता को प्राप्त होता है। पृथ्वी में मृत्यु एवं व्याधि उस पर आक्रण नहीं कर सकती।
पठेद्वा पाठयेद्वापि शृणुयाच्छ्रावयेदपि ।
सर्व्वपापविमुक्तस्तु लभते परमां गतिम्॥
जो पुरुष इस कवच को पढ़ते हैं या पढ़ाते हैं या स्वयं सुनते हैं या दूसरों को सुनाते हैं, वह सम्पूर्ण पापों से छूट कर परम गति को प्राप्त होते हैं।
विपदि संकटे घोरे तथा च गहरे वने।
राजद्वारे च नौकायां तथा च रणमध्यतः ।
पठनद्धारणादस्य जयमाप्नोति निश्चितम् ॥
विपद, घोर संकट, गहन वन, राजद्वार, नौका मार्ग, रणमध्य में, इस कवच के पाठ अथवा धारण किए रखने से सर्वत्र जय प्राप्त होती है।
अपुत्रा च तथा वन्ध्या त्रिपक्षं शृणुयादपि ।
सुपुत्रं लभते सा तु दीर्घायुष्कं यशस्विनम् ॥
बांझ स्त्री तीन पक्ष पर्यन्त यह कवच सुने, तो दीर्घायु महायशस्वी पुत्र को जन्म दे सकती है। इसमें सन्देह नहीं करना।
शृणुयाद्यः शुद्धबुद्धया द्वौ मासौ विप्रवक्त्रतः ।
सर्वान्कामानवाप्नोति सर्व्वबन्धाद्विमुच्यते ॥
जो पुरुष शुद्ध मन से दो महीने तक ब्राह्मण के मुख से यह कवच सुनता है, उसकी सम्पूर्ण कामना सिद्ध होती है। वह सर्व प्रकार के भवबन्धनों से छूट जाता है।
मृतवत्सा जीववत्सा त्रिमासं शृणुयाद्यदि ।
रोगी रोगाद्विमुच्येत पठनान्मासमध्यतः ॥
जिस स्त्री के पुत्र उत्पन्न होकर जीवित नहीं रहते हों अर्थात मृतवत्सा हो वह तीन महीने पर्यन्त इस कवच को भक्ति सहित सुने तो जीववत्सा होती है। रोगी पुरुष इसका पाठ करे तो एक महीने में ही रोग का नाश हो जाता है।
लिखित्वा भूर्जपत्रे च ह्यथवा ताडपत्रके ।
स्थापयेन्नियतं गेहे नाग्निचौरभयं क्वचित् ॥
जो पुरुष भोजपत्र या ताड़पत्र पर इस कवच को लिखकर घर में स्थापित करता है, उसको अग्नि, चोर इत्यादि का भय नहीं रहता है ?
शृणुयाद्धारयेद्वपि पठेद्वा पाठयेदपि ।
यः पुमान्सततं तस्मिन्प्रसन्ना सर्व देवताः ॥
जो पुरुष प्रतिदिन यह कवच सुनता है या पढ़ता है या दूसरे को पढ़ाता है या जो कोई इसको धारण करता है, उस पर देवता सदा सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं।
बहुना किमिहोक्तेन सर्वजीवेश्वरेश्वरी ।
आद्या शक्तिः सदा लक्ष्मीर्भक्तानुग्रहकारिणी।
धारके पाठके चैव निश्चला निवसेद् ध्रुवम् ॥
अधिक और क्या कहूँ ? जो पुरुष इस कवच का पाठ करते हैं या इसे लिखकर धारण करते हैं, आद्या शक्ति कमला (लक्ष्मी) अटल होकर उसके गृह में स्थित होती है।
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