दस महाविद्याओं में से तीसरी महाविद्या मां त्रिपुर सुंदरी (षोडशी),Das Mahaavidyaon Mein Se Teesaree Mahaavidya Maa Tripur Sundaree (Shodashee)

दस महाविद्याओं में से तीसरी महाविद्या मां त्रिपुर सुंदरी (षोडशी)

मां त्रिपुर सुंदरी, दस महाविद्याओं में से तीसरी महाविद्या हैं. इन्हें महात्रिपुरसुन्दरी',षोडशी, ललिता, लीलावती, लीलामती, ललिताम्बिका, लीलेशी, लीलेश्वरी, ललितागौरी, पद्माक्षी रेणुका तथा राजराजेश्वरी भी कहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि मां त्रिपुर सुंदरी, सदाशिव भगवान की नाभि से प्रकट हुई हैं. मां त्रिपुर सुंदरी को तांत्रिक पार्वती भी कहा जाता है. इनके नाम का अर्थ है कि जो तीनों लोक यानी पाताल लोक (पृथ्वी लोक), और देव लोक (आसमान) में सुंदर है. मां त्रिपुर सुंदरी की तीन प्रमुख भूमिकाएँ हैं जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह निर्माता, पालनकर्ता और संहारक हैंयह देवी कालिका की ही भाँति सिद्धियों की दात्री हैं और इनकी कृपा से ही साधकों को प्रायः सिद्धि मिला करती है। इन्हें श्री विद्या भी कहते हैं।मूलतः आदि-भवानी के अनन्त नाम तथा स्वरूप हैं, परन्तु इनका परम तेजस्वी रूप तथा अभिन्न परिचय केवल इतना है कि आद्य महादेवी अपने दो भेदों से प्रकट होती हैं जो कि श्यामवर्णा तथा रक्त वर्णा है। श्यामवर्णा होकर यही देवी काली तथा रक्त वर्णा होकर यही महाविद्या षोडशी कहलाती हैं।
एक समय की बात है कि अगस्त्य मुनि समस्त पीठों का दर्शन करने हेतु निकले तो मध्य मार्ग में उन्होंने असंख्य जीवों को दुख से कातर होकर जीवन यापन करते हुये देखा। उनकी दुःखद स्थिति को देखकर उनके हृदय में करुणा का उदय हुआ।
Das Mahaavidyaon Mein Se Teesaree Mahaavidya Maa Tripur Sundaree (Shodashee)

अपने अगले पडाव में काँचीपुर नामक स्थान पर उन्होंने महाविष्णु की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया, जिस कारण वह प्रत्यक्ष हुये। उन्हें संतुष्ट एवं प्रसन्न जानकर मुनि ने कहा-“प्रभु! जगत में समस्त जीव दुःख से व्याकुल होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कृपया उनके उद्धार का उपाय कीजिये।“
मुनि के शब्द सुनकर महाविष्णु ने उन्हें एक स्थूल प्रतिमा प्रदान की तथा उसके विषय में भी उन्हें बताया। इसका सविस्तार महात्म्य प्रकट करने के लिए उन्होंने अपने अंशभूत हयग्रीव को नियुक्त किया
हे हरमहिले! जो पुरुष नग्न और मुक्तकेश होकर, पुष्ट और ऊँचे पीन कुम्भ स्तन वाली युवती नारी के साथ रति क्रीड़ा करते समय तुम्हारा मनन करते हुए तुम्हारे मन्त्र का जप करते रहते हैं, वह सरस्वती की कृपा से कवित्व की शक्तियुक्त होकर बहुत कालपर्यन्त पृथ्वी पर रहते हैं और सम्पूर्ण अभीष्ट उसको प्राप्त होता है।

समः सुस्थीभूतो जपति विपरीतो यदि सदा । 
विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालसुरताम् ॥
तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुषः ।
कराम्भोजे वश्याः स्मरहरवधु सिद्धिनिवहाः ॥

हे हरवल्लभे ! तुम महाकाल के संग विहार सुख अनुभव करती हो, विपरीतरतासक्त होकर जो साधक स्थिर मन से तुम्हारा ध्यान करता है उसे सर्वशास्त्र में पारदर्शी शक्ति प्राप्त हो जाती है और समस्त सिद्धिसमूह उसके करतलों में रहता है।

प्रसूते संसारं जननि जगतीं पालयति च ।
समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहारात च ॥
अतस्त्वां धातापि त्रिभुवनपतिः सहरपितिरधि ।
महेशोऽपि प्रायः सकलमपि किं स्तौमि भवतीम् ॥

हे जगन्मातः ! तुम से ही चराचर जगत के सम्पूर्ण पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, अतएव तुम्ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हो। तुम्हीं सम्पूर्ण जगत को पालती हो, अतः तुम्हीं नारायण हो। महाप्रलय काल के समय यह जगत तुम से ही लय को प्राप्त होता है। अतः तुम्हीं महेश्वरी हो; किन्तु स्पष्ट यही समझा जाता है कि तुम्हारे पति होने के कारण ही महेश्वर प्रलय काल में लय को प्राप्त नहीं होते हैं।

अनेके सेवन्ते भवदधिकगीव्र्व्वाणनिवहान् । 
विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् ॥
समाराध्यामाद्यां हरिहरविरिञ्चादिविबुधैः । 
प्रसक्तोऽस्मि स्वैरं रतिरस महानन्दनिरताम् ॥

हे जगदम्बे ! तुम निरन्तर रति रस के आनन्द में निमग्न रहती हो। तुम्हीं सबकी आदिस्वरूपिणी हो। अनेक मूढ़ बुद्धि मनुष्य अन्यान्य देवताओं की आराधना करते हैं किन्तु वे अवश्य ही तुम्हारे उस अनिर्वचनीय परम तत्व को नहीं जानते। उनके उपास्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादि देवता लोग भी सदा तुम्हारी उपासना में ही लगे रहते हैं।

धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं।
त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम् ॥
स्तुतिः का ते मातस्तवकरुणया मामगतिकं ।
प्रसन्ना त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः ॥

हे जननी ! क्षिति, जल, तेज, वायु और आकाश यह पंचभूत भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं भगवान् महेश्वर की हृदय रंजिनी हो। तुम्हीं इस त्रिभुवन का मंगल करती हो। हे जननि! इस अवस्था में तुम्हारी फिर क्या स्तुति करूँ ? क्योंकि किसी विलक्षण गुण का आरोप न करके वर्णन करने की स्तुति कहते हैं। हे माता! तुम में कौन सा गुण नहीं है, जो उसको जान करके तुम्हारा स्तव न करूँ ? तुम स्वयं जगन्मयी माता हो। तुम्हारे विषय में जो कीर्तन है वह सब तुम्हारे स्वरूप वर्णन पर आश्रित है। हे कृपामयी! तुम दया प्रकाश करके इस निराश्रय सेवक के प्रति सन्तुष्ट प्रसन्न हो तो फिर इस सेवक को संसार में पुनः जन्म लेना नहीं पड़ेगा।

श्मशानस्थस्स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः ।
सहस्त्रन्त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम् ॥
जपंस्त्वत्प्रत्येकममुमपि तव ध्याननिरतो।
महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः ॥

हे महाकालिके ! जो मनुष्य श्मशान भूमि में वस्त्रहीन और बाल खोलकर यथाविधि आसन पर बैठकर स्थिर मन से तुम्हारे स्वरूप का मनन/ध्यान करते हुए तुम्हारे मन्त्र का जाप करता है, और अपने निकले वीर्य में सहस्त्र आक के फूल एक-एक करके तुम्हारी प्रसन्नता के निमित्त अर्पण करता है, वह सम्पूर्ण धरती का स्वामी होता है।

गृहे सम्मार्जन्या परिगलितवीर्य्य हि चिकुरं।
समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने ॥
समुच्चार्य्य प्रेम्णा जपमनु सकृत कालि सततं ।
गजारूढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः ॥

हे देवी! जो मंगलवार के दिन मध्याह्न काल के समय कंघी द्वारा जिस किसी एक मन्त्र का जप करता हुआ तुम्हें भक्ति सहित वह सामग्री चिताग्नि में अर्पण करता है, वह धरा का अधीश्वर होकर निरन्तर हाथी पर चढ़कर विचरण करने में समर्थ होता है और व्यासादिक कवि कुल की प्रधानता को प्राप्त होता है।

सुपुष्पैराकीर्ण कुसुमधनुषो मंदिरमहो।
पुरो ध्यायन् यदि जपति भक्तस्स्तवममुम् ॥
स गन्धर्व्वश्रेणींपतिरिव कवित्वामृतनदी । 
नदीनः पर्य्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति ॥ 

हे जगन्मातः ! साधक यदि स्वयं फलों से रंजित कामगृह को अभिमुख करके मन्त्रार्थ के सहित तुम्हारा ध्यान करता-करता पूर्व वर्णित किसी एक मन्त्र का जप करे, तो वह कवित्व रूपी नदी के सम्बन्ध में समुद्रस्वरूप जाता है और महेन्द्र की समानता प्राप्त कर लेता है। वह देहान्त के समय तुम्हारे चरण कमल में लीन होकर मुक्ति प्राप्त करता है तो यह विचित्र बात नहीं है। 

त्रिपञ्चारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां !
महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम् !!
महासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो । 
जनो यो ध्यायेत्त्वामयि जननि स स्यात्स्मरहरः ॥

हे जगन्मातः ! तुम्हारे मुखमण्डल पर मृदु हास्य विराजित है। तुम सदा शिव के संग विहार अनुभव करती हो। जो साधक रात्रि में अपना विहार सुख अनुभव करता हुआ शव हृदय रूप आसन पर पाँच दशकोण युक्त तुम्हारे यंत्र में तुम्हारा पूर्वोक्त प्रकार से ध्यान करता है, यह शीघ्र शिवत्व. का लाभ प्राप्त करता है।

सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसितें ।
परञ्चौष्ट्रं मैषं नरमहिषयोश्छागमपि वा ॥
बलिन्ते पूजायामपि वितरतां मर्त्यवसतां ।
सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति ॥

हे जननी ! पृथ्वीवासी साधकगण यदि तुम्हारी पूजा में बिल्ली का माँस, ऊँट का माँस, नरमाँस, महिषमाँस अथवा छाग माँस रोमयुक्त और अस्थियों के सहित अर्पण करें, तो उनके चरण कमल में आश्चर्य भरे विषय सिद्ध होकर विराजित होते हैं।

वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो। 
दिवा मातर्युष्मच्चरणयुगलध्याननिपुणः ॥
परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं । 
जनो लक्षं स स्यात्स्मरहरसमान, क्षितितले ॥

हे जगन्मातः ! जो इन्द्रियों को अपने वशीभूत रखकर हविष्य भोजनपूर्वक प्रातःकाल से दिन के दूसरे प्रहर तक तुम्हारे दोनों चरणों में चित्त लगाकर जप करते हैं, और पशु भाव से एक लाख जप का पुरश्चरण करते हैं, अथवा जो साधक रात्रि काल में नग्न और रति में लीन होकर वीरसाधनानुसार एक लाख जप का पुरश्चरण करते हैं, यह दोनों प्रकार के साधक पृथ्वी तल में स्मरहर शिव के समान होते हैं।

इदं स्तोत्रं मातस्तवमनुसमुद्धारणजपः ।
स्वरूपाख्यं पादाम्बुजयुगलपूजाविधियुतम् ॥
निशार्द्ध वा पूजासमयमधि वा यस्तु पठति। 
प्रलापे तस्यापि प्रसरति कवित्वामृतरसः ॥


हे जननी ! मेरे द्वारा वर्णित इस स्तंव में तुम्हारे मन्त्र का उद्धार और तुम्हारे स्वरूप का वर्णन हुआ है। तुम्हारे चरण कमल की पूजा विधि का भी विधान इसमें व्यक्त किया है। जो साधक निशा द्विपहर काल में अथवा पूजा काल में इस स्तव को पढ़ता है, उसकी अनर्थक वाणी भी कवित्व सुधारस को प्रवाहित करती है।

कुरंगाक्षीवृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलं ।
वशस्तस्य क्षोणी पतिरपि कुबेरप्रतिनिधिः ॥
रिपुः कारागारं कलयति च तत्केलिकलया।
चिरं जीवन्मुक्तः स भवति च भक्तः प्रतिजनुः ॥

मृग के समान नेत्रों वाली नारियाँ इस स्तव को पढ़ने वाले साधक को प्रिय ज्ञानकर उसकी अनुगामिनी होती हैं। कुबेर के समान राजा भी उसके वश में रहते. हैं। उस सार्थक के शत्रुगण कारागार में बन्द होते हैं। वह साधक प्रत्येक जन्म में जगदम्बिका रुका काम भक्त होता है। वह सर्वदा महाआनन्द से विहार करता हुआ अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है।

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