छठी महाविद्या छिन्नमस्ता,मन्त्र,ध्यान,स्तोत्र,कवच,Chhathee Mahaavidya Maa Chhinnamasta, Mantr, Dhyaan, Stotr, Kavach

Maa Chhinnamasta छठी महाविद्या छिन्नमस्ता,मन्त्र,ध्यान,स्तोत्र,कवच

दस महाविद्याओं में से छठी महाविद्या छिन्नमस्ता है. छिन्नमस्ता को विनाश की देवी माना जाता है. छिन्नमस्ता को एक कटे हुए सिर के साथ चित्रित किया गया है, जो एक हाथ में अपना ही कटा हुआ सिर पकड़े हुए हैं और एक मैथुनरत जोड़े पर खड़ी हैं. छिन्नमस्ता, आत्म-बलिदान और अहंकार के अतिक्रमण का प्रतीक है. छिन्नमस्ता की छवि से पता चलता है कि जीवन, मृत्यु और लिंग एक दूसरे पर निर्भर हैं. छिन्नमस्ता का प्राधान्य तब होता है जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है !
शास्त्रों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है. तंत्र क्रिया में इनका विशेष महत्व होता है. इनकी साधना और उपासना से विशेष फल की प्राप्ति होती है. इन महाविद्याओं को दशावतार माना गया है. मां दुर्गा के इन दस महाविद्याओं की साधना करने वाला व्यक्ति सभी भौतिक सुखों को प्राप्त कर बंधन से भी मुक्त हो जाता है !
एक बार आद्यभवानी अपनी सहचरियों जया तथा विजया के साथ नदी में स्नान करने के निमित्त गयी। उस स्थल पर स्नान करते हुये देवी के हृदय में सृष्टि निर्माण की प्रबल अभिलाषा जागृत हुई। इस इच्छा शक्ति की गरिमा के प्रभाव से देवी का रंग काला पड़ गया। वह स्वयं में मगन थीं और समय भी अत्यधिक व्यतीत हो चुका था। दोनों सहचरियों ने उनसे बताया कि उन्हें भूख लगी हुई है। देवी ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिये कहा। कुछ समयोपरांत उन्होंने पुनः उन्हें स्मरण कराया कि वह भूखी हैं। तब देवी ने अपने खड्ग से अपना शीश छिन्न कर दिया और उनके धड़ से रक्त की लहरें फूट पड़ीं। देवी ने अपना कटा हुआ शीश अपने हाथ पर रख लिया था। धड़ से प्रवाहित हो रहे रक्त को उनकी सहचारियाँ तथा स्वयं उनका मुख पीने लग गया। भारत में जो 'चिन्तपुर्णी' देवी के नाम से हिमाचल (ऊना जिला) में जो भव्य मन्दिर भक्तों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है वह छिन्नमस्ता देवी का ही है।

छिन्नमस्ता मन्त्र - Maa Chhinnamasta Mantr

श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवैरोचनीये हुं हुं फट् स्वाहा ॥

छिन्नमस्ता ध्यान - Maa Chhinnamasta Dhyaan

प्रत्यालीढपदां सदैव दधतीं छिन्नं शिरः कर्तृकां । 
दिग्वस्त्रां स्वकबन्धशोणितसुधाधारां पिबन्तीं मुदा ॥ 
नगाबद्धशिरोमणिं, त्रियनयनां हृद्युत्पलालंकृतां । 
रत्यांसक्तमनोभवोपरि दृढां ध्यायेज्ञ्जपासन्निभाम् ॥ 
दक्षे चातिसिताविमुक्तचिकुरा कर्तृस्तथा खर्परं। 
हस्ताभ्यां दधती रजोगुणभवो नाम्नापिसा वर्णिनी ।॥ 
देव्याश्छिन्नकबन्धतः पतदसृग्धारां पिबन्तीं मुदा । 
नागाबद्धशिरोमणिर्म्मनुविदा ध्येय सदा सा सुरैः ॥ 
वामे कृष्णतनूस्तथैव दधती खंगं तथा खर्परं। 
प्रत्यालीढपदाकबन्धविगलद्रक्त वा तथा मुदा ॥
या प्रलये समस्तभुवनं भोक्तुं क्षमा तामसी !
शक्तिः सापि परात् परा भगवती नाम्ना परा डाकिनी ॥

देवी प्रत्यालीढपदा हैं, अर्थात् युद्ध के लिये आगे चरण किये और एक पीछे करके वीर वेश करके खड़ी हैं। इन्होंने छिन्नशिर और बंग धारण किया हुआ है। देवी नग्न हैं आते हैं। इन्होने गले से निकली हुई शोणित धारा का पान करती हैं। उनकेर अपने वि सर्पाबद्ध मणि है, तीन नेत्र हैं और वक्षःस्थल कमलों की माला एक अलंकृत है। यह रति में आसक्त काम करके ऊपर दंडायमान है। इनकी देह की कान्ति जपा पुष्प के समान रक्त वर्णा है। देवी के दाहिने नकग में श्वेत वर्ण वाली, खुले केश, कैंची और खर्पर धारिणी एक देवी खड़ी है जिनका नाम वर्णिनी' है। यह वर्णिनी देवी के छिन्न गले से गिरती हुई रक्तधारा का पान करती है। इनके मस्तक में नागाबद्ध मणि है बिायीं तरफ खंग खर्पर धारिणी कृष्ण वर्णा दूसरी देवी खड़ी है। यह देवी के छिन्न गले से निकली हुई रुधिर धारा का पान करती हैं। इनका दाहिना पाँव आगे और बायाँ पाँव पीछे के भाग में स्थित है। यह प्रलय काल के समय सम्पूर्ण जगत् का भक्षण करने में समर्थ हैं। इनका नाम 'डाकिनी' है।

छिन्नमस्ता स्तोत्र Maa Chhinnamasta Stotr

नाभौ शुद्धसरोजरक्तविलसद्वन्धूकपुष्पारुणं । 
भास्वद्भास्करमण्डलं तदुदरे तद्योनिचक्रम्महत् ॥ 
तन्मध्ये विपरीत मैथुन रतप्रद्युम्नतत्कामिनी । 
पृष्ठस्थां तरुणार्ककोटिविलसत्तेजः स्वरूपां शिवाम् ॥

उनकी नाभि में खिला हुआ कमल है। उसके मध्य में बंदूक पुष्प के समान लाल वर्ण प्रदीप्त सूर्य मण्डल है, उस रवि मण्डल के मध्य में बड़ा योनि चक्र है। उसके मध्य में विपरीत मैथुन क्रीड़ा में आसक्त कामदेव और रति विराजमान हैं। इन कामदेव और रति की पीठ में प्रचण्ड अर्थात् छिन्नमस्ता स्थित हैं। यह करोड़ तरुण सूर्य के समान तेज शालिनी और मंगलमयी हैं।

वामे छिन्नशिरोधरां तदितरे पाणौ महत्कर्तृकां । 
प्रत्यालीढपदां दिगन्तवसनामुन्मुक्तकेशव्रजाम् ॥ 
छिन्नात्मीयशिरः समुल्लसद्ह्यूग्धारां पिबन्तीं परां । 
बालादित्यसमप्रकाशविलसन्नेत्रत्रयोद्भासिनीम् ॥

इनके बायें हाथ में छिन्न मुण्ड है। दाहिने हाथ में भीषण कृपाण है। देवी एक चरण आगे एक चरण पीछे किये वीरवेष से स्थित हैं। दिशा के वस्त्रों को धारण किये हुए हैं। उनके केश खुले हुए हैं। यह अपने सिर को काटकर उसकी रुधिर धारा का पान कर रही हैं। इनके तीनों नेत्र प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रकाशमान हैं।

वामादन्यत्र नालं बहु बहुलगलद्रक्तधाराभिरुच्चैः । 
पायन्तीमस्थिभूषां करकमललसत्कर्तृकामुग्ररूपाम् ।।
रक्तामारक्तकेशीमपगतवसनां वर्णिनीमात्मशक्तिं । 
प्रत्यालीढोरुपादामरुणितनयनां योगिनीं योगनिद्राम् ॥

इस देवी के दक्षिण और वाम भाग में निज शक्तिरूपा दो योगिनियाँ विराजमान हैं। इनके दक्षिण भाग स्थित योगिनी के हाथ में बड़ी कैंची है। यह योगिनी की उग्र मूर्ति है। यह रक्तवर्णा और रक्त केशी हैं। यह नग्न है और प्रत्यालीढपद से स्थित हैं। इनके नेत्र लाल हैं। इसको छिन्न मस्ता देवी अपनी देह से निकलती हुई रुधिर धारा का पान करा रही है।

दिग्वस्त्रां मुक्तकेशीं प्रलयघटघटाघोररूपां प्रचण्डां।
दंष्ट्रांदुष्प्रेक्ष्यवक्त्रोदरविवरलसल्लोलजिह्वाग्रभागाम् ॥
विद्युल्लोलाक्षियुग्मां हृदयतटलसद्धोगिभीमां सुमूर्ति।
सद्यश्छिन्नात्मकण्ठप्रगलितरुधिरैर्डाकिनीं वर्द्धयन्तीम् ॥

जो योगिनी वाम भाग में स्थित है, वह नग्न है और उसके केश खुले हुए हैं। उसकी मूर्ति प्रलय काल के मेघ के समान भयंकर है। वह प्रचण्ड स्वरूपा है। इसका मुखमण्डल दाँतों से दुर्निरीक्ष हो रहा है। ऐसे मुख मण्डल के मध्य में चलायमान जीभ शोभित हो रही है। इसके तीनों नेत्र बिजली के समान चंचल हैं। इसके हृदय में सर्प विराजमान है।इसकी अत्यन्त भयानक मूर्ति है। छिन्नमस्ता देवी इस डाकिनी को अपने कंठ के रुधिर से तृप्त कर रही हैं।

ब्रह्मेशानाच्युताद्यैः शिरसि  विनिहितामंदपादारविंदामात्मज्ञैर्योगिमुख्यैः
विनिपुणमनिशं चिन्तिताचिंत्यरूपाम् संसारे सारभूतां
त्रिभुवनजननीं छिन्न मस्तां प्रशस्तामिष्टां तामिष्टदात्रीं कलिकलुषहरां चेतसा चिन्तयामि ॥

ब्रह्मा, शिव और विष्णु आदि आत्मज्ञ योगीन्द्रगण इन छिन्नमस्ता   ब्रह्मा, शिव और विष्णु आदि आत्मज्ञ योगेन्द्रगण इन छिन्नमस्ता देवी के चरण कमल को मस्तक में धारण करते हैं। वह प्रतिदिन इनके अचिन्त्य रूप का मनन करते हैं। यह संसार का सारभूत हैं । यह तीनों लोकों को उत्पन्न करने वाली हैं। यह मनोरथों को सिद्ध करने वाली हैं। इस कारण, कलियुग के पापों को हरने वाली इन देवी जी का मैं मन में ध्यान करता हूँ ।

उत्पत्तिस्थितिसंहृतीर्घटयितुं धत्ते त्रिरूपां तनुं ।
 त्रैगुण्याञ्जगतो मदीयविकृतिर्ब्रह्माच्युतः शूलभृत् ॥ 
तामाद्यां प्रकृतिं स्मरामि मनसा सर्वार्थसंसिद्धये । 
यस्याः स्मेरपदारविन्दयुगले लाभं भजन्तेऽमराः ॥

यह संसार की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने के निमित्त ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीन मूर्तियों को धारण करती हैं। देवता इनके खिले कमल के समान दोनों चरणों का सदा भजन करते रहते हैं। सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि के निमित्त छिन्नमस्ता देवी का मन में ध्यान करता हूँ।

अपि पिशित-परस्त्री-योगपूजापरोऽहं ।
 बहुविधजडभावारम्भसम्भावितोऽहम् ॥ 
पशुजनविरतोऽहं भैरवीसंस्थितोऽहं । 
गुरुचरणपरोऽहं भैरवोऽहं शिवोऽहम् ॥


मैं सदा मद्य माँस, परस्त्री आसक्त तथा योगपरायण हूँ। मैं जगदम्बा के चरण कमल में, संलिप्त हो बाह्य जगत् में रहकर जडभावापन्न हूँ। मैं पशुभावापन्न साधक के अंग से अलग हूँ। मैं सदा भैरवीगणों के मध्य में स्थित रहता हूँ। मैं गुरु के चरण चमलों का ध्यान करता रहता हूँ। मैं भैरव स्वरूप और मैं ही शिव स्वरूप हूँ।

इदं स्तोत्रं महापुण्यं ब्रह्मणा भाषितं पुरा। 
सर्वसिद्धिप्रदं साक्षान्महापातकनाशनम् ॥

यह महापुण्य का देने वाला स्तोत्र पहिले ब्रह्मा जी ने कहा है। यह स्तोत्र सम्पूर्ण सिद्धियों का देने वाला है। बड़े बड़े पातक और उपपातकों का यह नाश करने वाला है। 

यः पठेत प्रातरुत्थाय देव्याः सन्निहितोऽपि वा।
तस्य सिद्धिर्भवेद्देवि वाञ्छितार्थप्रदायिनी ॥

जो मनुष्य प्रातःकाल के समय शय्या से उठकर वा छिन्नमस्ता देवी के पूजा काल में इस स्तोत्र का पाठ करता है, हे देवी! उनकी मनोकामना शीघ्र पूर्ण ही होती है।

धनं धान्यं सुतां जायां हयं हस्तिनमेव च।
वसुन्धरां महाविद्यामष्टसिद्धिर्भवेद्भुवम् ॥

इस स्तोत्र के पाठ करने वाले मनुष्य को धन, धान्य, पुत्र, कलत्र, घोड़ा, हाथी और पृथ्वी प्राप्त होती है। वह अष्ट सिद्धि और नव सिद्धियों को निश्चय ही लाभ पाता है।

वैयाघ्राजिनरञ्जितस्वजघने रम्ये प्रलम्बोदरे। 
खर्वेऽनिर्वचनीयपर्व्वसुभगे मुण्डावलीमण्डिते ॥ 
कर्नी कुन्दरुचिं विचित्ररचनां ज्ञानं दधाने पदे ।
हे मातर्भक्तजनानुकम्पितमहामायेऽस्तु तुभ्यं नमः ।। 

हे मातः ! तुमने व्याघ्रचर्म द्वारा अपनी जंघाओं को रंजित किया हुआ है। तुम अत्यन्त मनोहर 'आकृति वाली हो। तुम्हारा उदर अधिक लम्बायमान हैं। तुम छोटी आकृति वाली हो। तुम्हारा देह अनिर्वचनीय त्रिवली से शोभित है। तुम मुक्ता से विभूषित हो। तुमने हाथ में कुन्दवर सदा दया करती हो। हे महामाये ! तुमको मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

छिन्नमस्ता कवच - Maa Chhinnamasta Kavach

हूं बीजात्मिका देवी मुण्डकर्तृधरापरा। 
हृदयं पातु सा देवी वर्णिनी डाकिनीयुता ॥

देवी डाकिनी से युक्त मुण्डकर्तृ को धारण करने वाली, हूँ बीजयुक्त महादेवी मेरे हृदय की रक्षा करें।

श्रीं ह्रीं हूं ऐं चैव देवी पूव्वंस्यां पातु सर्वदा।
सर्वांगं मे सदा पातु छिन्नमस्ता महाबला ॥

श्रीं ह्रीं हूं ऐं बीजात्मिका देवी मेरी पूर्व की और छिन्नमस्ता सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे।

वज्रवैरोचनीये हुं बीजसमन्विता । 
फट् उत्तरस्यां तथाग्नौ च वारुणे नैर्ऋते ऽवतु ॥

'वज्रवैरोचनीये हूं फट्' देवी उत्तर में, अग्नि, वरुण और नैऋत्य दिशा में रक्षा करे।

इन्द्राक्षी भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी।
सर्व्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै ॥

इद्राक्षी, भैरवी, असितांगी और संहारिणी देवी सर्वदा मेरी सब दिशाओं में मेरी कक्षा करे।

इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेच्छिन्नमस्तकाम् । 
न तस्य फलसिद्धिः स्यात्कल्पकोटिशतैरपि ॥

इस कवच को बिना जाने जो पुरुष छिन्नमस्ता का मंत्र जपता है वह सौ करोड़ कल्प में भी उसका फल प्राप्त नहीं कर पाता है।

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