अधिक मास या पुरुषोत्तम मास कैसे बनता है क्यों विशेष है, Adhik Maas Ya Purushottam Maas Kaise Banata Hai Kyon Vishesh Hai

अधिक मास या पुरुषोत्तम मास कैसे बनता है क्यों विशेष है

अधिक मास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है, क्योंकि इसके स्वामी भगवान श्री हरि विष्णु है. मान्यता है कि इस मास में किए गए धार्मिक कार्यों और पूजा पाठ का अधिक फल प्राप्त होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है.सौर वर्ष और चान्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए हर तीसरे वर्ष पंचांगों में एक चान्द्रमास की वृद्धि कर दी जाती है। इसी को अधिक मास या अधिमास या मलमास कहते हैं। सौर-वर्ष का मान ३६५ दिन १५ घड़ी २२ पल और ५७ विपल हैं। जबकि चान्द्र-वर्ष ३५४ दिन २२ घड़ी १ पल और २३ विपल का होता है। इस प्रकार दोनों वर्षमानों में प्रतिवर्ष १० दिन ५३ घटी २१ पल अर्थात लगभग ११ दिन का अन्तर पड़ता है। इस अन्तर में समानता लाने के लिए चान्द्र-वर्ष १२ मासों के स्थान पर १३ मास का हो जाता है।

Adhik Maas Ya Purushottam Maas Kaise Banata Hai Kyon Vishesh Hai

अधिक मास को स्वयं भगवान पुरुषोत्तम ने अपना नाम दिया है, इसलिए इसे पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। कम ही लोग ये बात जानते होंगे कि अधिक मास भी कई प्रकार का होता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार अलग-अलग कारणों से अधिक मास के तीन प्रकार बताए गए हैं। सामान्य अधिकमास, संसर्प अधिकमास और मलिम्लुच अधिकमास।
ज्योतिषियों के अनुसार जो अधिकमास क्षयमास के बिना आता है अर्थात वर्ष में केवल एक अधिकमास आता है वह सामान्य अधिकमास होता है। वर्तमान में जो अधिकमास चल रहा है, वह इसी प्रकार का है। भारतीय पंचांग के अनुसार सभी नक्षत्र, तिथियाँ-वार, योग-करण के अलावा सभी माह के कोई न कोई देवता स्वामी है, किन्तु पुरुषोत्तम मास का कोई स्वामी न होने के कारण सभी मंगल कार्य, शुभ और पितृ कार्य इस माह में वर्जित माने जाते हैं।

क्यों विशेष है अधिक मास

हिन्दू धर्म में अधिक मास को बहुत ही पवित्र और पुण्य फल देने वाला माना गया है। अधिक मास को पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं। इस महीने में भगवान पुरुषोत्तम की पूजा करने व श्रीमद्भागवत की कथाएँ सुनने, मन्त्र जाप, तप व तीर्थ यात्रा का भी बड़ा महत्व है। वास्तव में यह तो विष्णु और लक्ष्मी की पूजा एवं साधना करने का सर्वोत्तम मास है। इस महीने में पवित्र नदियों में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता है। अधिक मास में सात्विक भोजन, शाकाहारी भोजन, दूध, फल, वनस्पतियों, फलाहार, नारियल इत्यादि का सेवन करना चाहिए।

साधना विधान

ह साधना आप पुरुषोत्तम मास में सम्पन्न करें, क्योंकि पुरुषोत्तम मास विष्णु साधना के लिए सर्वश्रेष्ठ है। वैसे तो विष्णु साधना केवल श्राद्धपक्ष को छोड़कर किसी भी शुभ मुहूर्त में, किसी भी रविवार या गुरुवार को आरम्भ की जा सकती है। साधना काल में हर रविवार को यह पूजा विधान अवश्य सम्पन्न करना चाहिए।     इस साधना में साधक के आसन व वस्त्र पीले रहेंगे और दिशा उत्तर होगी।
इस साधना में मूल रूप स विष्णु यन्त्र आवश्यक है, जिसे लकड़ी के एक पट्टे (चौकी) पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित करें और पूरे अनुष्ठान में उसी रूप में स्थापित रहने दें। इसे हटाना नहीं है। इसके अतिरिक्त अबीर, गुलाल, कुमकुम, केसर, चन्दन, मौलि, सुपारी तथा अर्पण हेतु प्रसाद आवश्यक है।
इस साधना क्रम में विष्णु के सभी स्वरूपों का पूजन किया जाता है। यह पूजन करते हुए द्वादश कमल बीज चन्दन में डुबोकर भगवान विष्णु को अर्पित करना है। इसके लिए काफी मात्रा में चन्दन घिसकर पहले से ही रख लेना चाहिए।
श्रीविष्णु की साधना में विनियोग, साधना तथा पंचावरण पूजा का विशेष विधान है। सभी दिशाओं में स्थित विष्णु स्वरूपों का पूजन किया जाता है, अतः इसे इसी रूप में सम्पन्न करना है। दाहिने हाथ से शरीर के अंगों को स्पर्श करना है, अर्पण भी दाहिने हाथ से ही किया जाता है, इस बात का विशेष ध्यान रहे।

  • विनियोग
दाहिने हाथ में जल लेकर विनियोग मन्त्र का उच्चारण करें,

ॐ अस्य श्री द्वादशाक्षरमन्त्रस्य प्रजापतिः ऋषिः गायत्री छन्दः 
वासुदेव परमात्मा देवता सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनियोगः।

और फिर जल को भूमि पर छोड़ दें।
  • ऋषयादि न्यास
ॐ प्रजापति ऋषये नमः शिरसि।  (सिर को स्पर्श करें)
गायत्री छन्दसे नमः मुखे।   (मुख को स्पर्श करें)
वासुदेव परमात्मा देवतायै नमः हृदि। (हृदय को स्पर्श करें)
विनियोगाय नमः सर्वांगे। (सभी अंगों को स्पर्श करें)
  • कर न्यास
ॐ अँगुष्ठाभ्याम् नमः। (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठों को स्पर्श करें)
नमो तर्जनीभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
भगवते मध्यमाभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
वासुदेवाय अनामिकाभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय कनिष्ठिकाभ्याम् नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
  • हृदयादि न्यास
ॐ हृदयाय नमः।  (हृदय को स्पर्श करें)
नमो शिरसे स्वाहा।  (सिर को स्पर्श करें)
भगवते शिखायै वषट्। (शिखा को स्पर्श करें)
वासुदेवाय कवचाय हुम्। (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अस्त्राय फट्। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)
  • ध्यान 
हाथ जोड़कर वासुदेव स्वरूप भगवान विष्णु का ध्यान करें-
ॐ विष्णुं शारद चन्द्रकोटि सदृश शंखं रथांगं गदाम्,
अम्भोजं दधतं सिताब्जनिलयं कान्त्या जगन्मोहनम्।
आबद्धांगदहारकुण्डल महामौलिं स्फुरत्कंकणम्,
श्रीवत्सांकमुदार कौस्तुभधरं वन्दे मुनिन्द्रैः स्तुतम्।।
  • पीठशक्ति पूजन
पने सामने जो यन्त्र स्थापना के लिए पीठ बनाई है, उस पर वस्त्र बिछाकर सबसे पहले पीठ पूजन किया जाता है और यह पूजन पूर्व दिशा से प्रारम्भ करते हुए आठ दिशाओं तथा अन्त में पीठ की मध्य दिशा का पूजन किया जाता है। यह क्रम निम्न प्रकार से  होगा, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक पीठशक्ति का ध्यान कर उस दिशा में पुष्प चढ़ाएं
  • ॐ विमलायै नमः।  (पूर्व में)
  • ॐ उत्कर्षिण्यै नमः।
  • ॐ ज्ञानायै नमः।
  • ॐ क्रियायै नमः।
  • ॐ योगायै नमः।
  • ॐ प्रहर्यै नमः।
  • ॐ सत्यायै नमः।
  • ॐ ईशानायै नमः।
  • ॐ अनुग्रहायै नमः।  (मध्य में)
इस प्रकार नवपीठशक्तियों की पूजा करने के बाद यन्त्र स्थापना आरम्भ होती है। हाथ में पुष्प लेकर उसे चन्दन में डुबोकर पीठ के मध्य में आसन स्थापित करें और निम्न मन्त्र बोलते हुए यन्त्र को पुष्प के इस आसन पर स्थापित करें ,
ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय सर्वात्मसंयोगापद्मपीठात्मने नमः।

इसके बाद यन्त्र का षोडशोपचार अथवा पंचोपचार पूजन करें। यथाशक्ति नेवैद्य अर्पित करें। 
तत्पश्चात यन्त्र पर द्वादश कमल बीज भगवान विष्णु के द्वादश स्वरूपों का ध्यान करते हुए अर्पित करना है। प्रत्येक कमल बीज को चन्दन में डुबोकर नीचे दिए गए प्रत्येक मन्त्र का उच्चारण करके यन्त्र पर अर्पित करते जाएं,-
  • ॐ ॐ केशवाय नमः‚  श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ नं नारायणाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ मों माधवाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ भं गोविन्दाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ गं विष्णवे नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ वं मधुसूदनाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ तें त्रिविक्रमाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ वां वामनाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ सुं श्रीधराय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ दें हृषीकेशाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ वां पद्मनाभाय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
  • ॐ यं दामोदराय नमः‚ श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
तदुपरान्त हाथ जोड़कर भगवान विष्णु को निम्न मन्त्रोच्चारण से नमस्कार करें-

ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

इस प्रकार प्रणाम करने के बाद शान्त भाव में बैठकर वैजयन्ती माला से निम्न मन्त्र का जाप करना चाहिए ,
  • मन्त्र
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।

मन्त्र जाप के बाद एक आचमनी जल भूमि पर छोड़कर समस्त जाप भगवान वासुदेव विष्णु को ही समर्पित कर दें। इस साधना में मन्त्र जाप की संख्या साधक की इच्छा पर निर्भर करती है और यह क्रम निरन्तर चलते रहना चाहिए। शास्त्रोक्त विधान है कि बारह अक्षर के इस मन्त्र का सम संख्या लक्ष अर्थात् बारह लाख मन्त्रों का जाप करने से साधक को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है तथा भगवान विष्णु की अभीष्ट कृपा सिद्धि से साधक मनोवांछित फल प्राप्त करता है। सब प्रकार के पाप दोष दूर होकर साधक श्रीविष्णु का तेज ग्रहण करने में समर्थ रहता है। यह साधना तो निश्चय ही सर्वोत्तम साधना है वर्तमान समय में सामान्य साधक के लिए इतने अधिक मन्त्र जाप सम्भव नहीं है। इसलिए साधक सवा लाख मन्त्र जाप का संकल्प लें और ११, २१ अथवा २४ दिनों में मन्त्र जाप सम्पन्न कर लें।आपकी साधना सफल हो और मनोकामना पूर्ण हो! मैं सद्गुरुदेव भगवान परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्दजी आप सबके लिए कल्याण कामना करता हूँ।

ॐ  नमो आदेश निखिल को आदेश आदेश  आदेश।।

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