विष्णु पुराण तृतीय अंश का 6 अध्याय संस्कृत और हिंदी में ,Vishnu Purana Trteey Ansh Ka 6 Chapter in Sanskrit and Hindi
छठा अध्याय सामवेद की शाखा, अठारह पुराण और चौदह विद्याओंके विभागका वर्णन !सामवेदतरोश्शाखा व्यासशिष्यस्स जैमिनिः ।
क्रमेण येन मैत्रेय बिभेद शृणु तन्मम ॥ १
सुमन्तुस्तस्य पुत्रोऽभूत्सुकर्मास्याप्यभूत्सुतः ।
अधीतवन्तौ चैकैकां संहितां तौ महामती ॥ २
सहस्त्रसंहिताभेदं सुकर्मा तत्सुतस्ततः ।
चकार तं च तच्छिष्यौ जगृहाते महाव्रतौ ॥ ३
हिरण्यनाभः कौसल्यः पौष्पिञ्जिश्च द्विजोत्तम ।
उदीच्यास्सामगाः शिष्यास्तस्य पञ्चशतं स्मृताः ॥ ४
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Vishnu Purana Trteey Ansh Ka 6 Chapter |
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय! जिस क्रमसे व्यासजीके शिष्य जैमिनिने सामवेदकी शाखाओंका विभाग किया था, वह मुझसे सुनो जैमिनिका पुत्र सुमन्तु था और उसका पुत्र सुकर्मा हुआ। उन दोनों महामति पुत्र-पौत्रोंने सामवेदकी एक-एक शाखाका अध्ययन किया तदनन्तर सुमन्तुके पुत्र सुकर्माने अपनी सामवेदसंहिताके एक सहस्त्र शाखाभेद किये और हे द्विजोत्तम ! उन्हें उसके कौसल्य हिरण्यनाभ तथा पौष्पिंजि नामक दो महाव्रती शिष्योंने ग्रहण किया। हिरण्यनाभके पाँच सौ शिष्य थे जो उदीच्य सामग कहलाये ॥ १ - ४॥
हिरण्यनाभात्तावत्यस्संहिता यैर्द्विजोत्तमैः ।
गृहीतास्तेऽपि चोच्यन्ते पण्डितैः प्राच्यसामगाः ॥ ५
लोकाक्षिर्नीधमिश्चैव कक्षीवाँल्लाङ्गलिस्तथा ।
पौष्पिञ्जिशिष्यास्तद्भेदैस्संहिता बहुलीकृताः ॥ ६
हिरण्यनाभशिष्यस्तु चतुर्विंशतिसंहिताः ।
प्रोवाच कृतिनामासौ शिष्येभ्यश्च महामुनिः ॥ ७
तैश्चापि सामवेदोऽसौ शाखाभिर्बहुलीकृतः ।
अथर्वणामथो वक्ष्ये संहितानां समुच्चयम् ॥ ८
अथर्ववेदं स मुनिस्सुमन्तुरमितद्युतिः ।
शिष्यमध्यापयामास कबन्धं सोऽपि तं द्विधा।
कृत्वा तु देवदर्शाय तथा पथ्याय दत्तवान् ॥ ९
देवदर्शस्य शिष्यास्तु मेधोब्रह्मबलिस्तथा ।
शौल्कायनिः पिप्पलादस्तथान्यो द्विजसत्तम ॥ १०
पथ्यस्यापि त्रयश्शिष्याः कृता यैर्द्विज संहिताः ।
जाबालिः कुमुदादिश्च तृतीयशौनको द्विज । ११
शौनकस्तु द्विधा कृत्वा ददावेकां तु बभ्रवे।
द्वितीयां संहितां प्रादात्सैन्धवाय च संज्ञिने ॥ १२
सैन्धवान्मुञ्जिकेशश्च द्वेधाभिन्नास्त्रिधा पुनः ।
नक्षत्रकल्पो वेदानां संहितानां तथैव च ॥ १३
चतुर्थस्स्यादांगिरसश्शान्तिकल्पश्च पञ्चमः ।
श्रेष्ठास्त्वथर्वणामेते संहितानां विकल्पकाः ॥ १४
आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः ।
पुराणसंहितां चक्रे पुराणार्थविशारदः ॥ १५
प्रख्यातो व्यासशिष्योऽभूत्सूतो वै रोमहर्षणः ।
पुराणसंहितां तस्मै ददौ व्यासो महामतिः ॥ १६
सुमतिश्चाग्निवर्चाश्च मित्रायुश्शांसपायनः ।
अकृतव्रणसावर्णी षट् शिष्यास्तस्य चाभवन् ॥ १७
काश्यपः संहिताकर्ता सावर्णिश्शांसपायनः ।
रोमहर्षणिका चान्या तिसृणां मूलसंहिता ॥ १८
चतुष्टयेन भेदेन संहितानामिदं मुने ॥ १९
आद्यं सर्वपुराणानां पुराणं ब्राह्ममुच्यते।
अष्टादशपुराणानि पुराणज्ञाः प्रचक्षते ॥ २०
इसी प्रकार जिन अन्य द्विजोत्तमोंने इतनी ही संहिताएँ हिरण्यनाभसे और ग्रहण कीं उन्हें पण्डितजन प्राच्य सामग कहते हैंपौष्पिंजिके शिष्य लोकाक्षि, नौधमि, कक्षीवान् और लांगलि थे। उनके शिष्य- प्रशिष्योंने अपनी-अपनी संहिताओंके विभाग करके उन्हें बहुत बढ़ा दिया महामुनि कृति नामक हिरण्यनाभके एक और शिष्यने अपने शिष्योंको सामवेदकी चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं फिर उन्होंने भी इस सामवेदका शाखाओंद्वारा खूब विस्तार किया। अब मैं अथर्ववेदकी संहिताओंके समुच्चयका वर्णन करता हूँ
अथर्ववेदको सर्वप्रथम अमिततेजोमय सुमन्तु मुनिने अपने शिष्य कबन्धको पढ़ाया था, फिर कबन्धने उसके दो भाग कर उन्हें देवदर्श और पथ्य नामक अपने शिष्योंको दिया हे द्विजसत्तम ! देवदर्शक शिष्य मेध, ब्रह्मबलि, शौल्कायनि और पिप्पलाद थे हे द्विज! पथ्यके भी जाबालि, कुमुदादि और शौनक नामक तीन शिष्य थे, जिन्होंने संहिताओंका विभाग किया शौनकने भी अपनी संहिताके दो विभाग करके उनमेंसे एक बभ्रुको तथा दूसरी सैन्धव नामक अपने शिष्यको दी सैन्धवसे पढ़कर मुंजिकेशने अपनी संहिताके पहले दो और फिर तीन [इस प्रकार पाँच] विभाग किये। नक्षत्रकल्प, वेदकल्प, संहिताकल्प, आंगिरसकल्प और शान्तिकल्प - उनके रचे हुए ये पाँच विकल्प अथर्ववेद संहिताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं तदनन्तर पुराणार्थविशारद व्यासजीने आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पशुद्धिके सहित पुराणसंहिताकी रचना की रोमहर्षण सूत व्यासजीके प्रसिद्ध शिष्य थे। महामति व्यासजीने उन्हें पुराणसंहिताका अध्ययन कराया उन सूतजीके सुमति, अग्निवर्चा, मित्रायु, शांसपायन, अकृतव्रण और सावर्णि-ये छः शिष्य थे काश्यपगोत्रीय अकृतव्रण, सावर्णि और शांसपायन- ये तीनों संहिताकर्ता हैं। उन तीनों संहिताओंकी आधार एक रोमहर्षणजीकी संहिता है। हे मुने ! इन चारों संहिताओंकी सारभूत मैंने यह विष्णुपुराणसंहिता बनायी है पुराणज्ञ पुरुष कुल अठारह पुराण बतलाते हैं; उन सबमें प्राचीनतम ब्रह्मपुराण है॥ ५ - २० ॥
ब्राह्यं पाद्यं वैष्णवं च शैवं भागवतं तथा।
तथान्यं नारदीयं च मार्कण्डेयं च सप्तमम् ॥ २१
आग्नेयमष्टमं चैव भविष्यन्नवमं स्मृतम्।
दशमं ब्रह्मवैवर्त्त लैंगमेकादशं स्मृतम् ॥ २२
वाराहं द्वादशं चैव स्कान्दं चात्र त्रयोदशम् ।
चतुर्दशं वामनं च कौर्मं पञ्चदशं तथा ॥ २३
मात्स्यं च गारुडं चैव ब्रह्माण्डं च ततः परम् ।
महापुराणान्येतानि ह्यष्टादश महामुने ॥ २४
तथा चोपपुराणानि मुनिभिः कथितानि च।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशमन्वन्तराणि च।
सर्वेष्वेतेषु कथ्यन्ते वंशानुचरितं च यत् ॥ २५
यदेतत्तव मैत्रेय पुराणं कथ्यते मया।
एतद्वैष्णवसंज्ञं वै पाद्मस्य समनन्तरम् ॥ २६
सर्गे च प्रतिसर्गे च वंशमन्वन्तरादिषु ।
कथ्यते भगवान्विष्णुरशेषेष्वेव सत्तम ॥ २७
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः ।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश ॥ २८
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः ।
अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः ॥ २९
ज्ञेया ब्रह्मर्षयः पूर्वं तेभ्यो देवर्षयः पुनः ।
राजर्षयः पुनस्तेभ्य ऋषिप्रकृतयस्त्रयः ॥ ३०
इति शाखास्समाख्याताश्शाखाभेदास्तथैव च ।
कर्तारश्चैव शाखानां भेदहेतुस्तथोदितः ॥ ३१
सर्वमन्वन्तरेष्वेवं शाखाभेदास्समाः स्मृताः ।
प्राजापत्या श्रुतिर्नित्या तद्विकल्पास्त्विमे द्विज ॥ ३२
एतत्ते कथितं सर्वं यत्पृष्टोऽहमिह त्वया।
मैत्रेय वेदसम्बन्धः किमन्यत्कथयामि ते ॥ ३३
प्रथम पुराण ब्राह्म है, दूसरा पाद्य, तीसरा वैष्णव, चौथा शैव, पाँचवाँ भागवत, छठा नारदीय और सातवाँ मार्कण्डेय है इसी प्रकार आठवाँ आग्नेय, नवाँ भविष्यत्, दसवाँ ब्रह्मवैवर्त्त और ग्यारहवाँ पुराण लैङ्ग कहा जाता है तथा बारहवाँ वाराह, तेरहवाँ स्कान्द, चौदहवाँ वामन, पन्द्रहवाँ कौर्म, तथा इनके पश्चात् मात्स्य, गारुड और ब्रह्माण्डपुराण हैं। हे महामुने ! ये ही अठारह महापुराण हैं इनके अतिरिक्त मुनिजनोंने और भी अनेक उपपुराण बतलाये हैं। इन सभीमें सृष्टि, प्रलय, देवता आदिकोंके वंश, मन्वन्तर और भिन्न-भिन्न राजवंशोंके चरित्रोंका वर्णन किया गया है हे मैत्रेय ! जिस पुराणको मैं तुम्हें सुना रहा हूँ वह पाद्मपुराणके अनन्तर कहा हुआ वैष्णव नामक महापुराण है हे साधुश्रेष्ठ ! इसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करते हुए सर्वत्र केवल विष्णुभगवान्का ही वर्णन किया गया है
छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र-ये ही चौदह विद्याएँ हैं इन्हींमें आयुर्वेद, धनुर्वेद और गान्धर्व इन तीनोंको तथा चौथे अर्थशास्त्रको मिला लेनेसे कुल अठारह विद्याएँ हो जाती हैं। ऋषियोंके तीन भेद हैं- प्रथम ब्रह्मर्षि, द्वितीय देवर्षि और फिर राजर्षि इस प्रकार मैंने तुमसे वेदोंकी शाखा, शाखाओंके भेद, उनके रचयिता तथा शाखाभेदके कारणोंका भी वर्णन कर दिया इसी प्रकार समस्त मन्वन्तरोंमें एक-से शाखाभेद रहते हैं; हे द्विज! प्रजापति ब्रह्माजीसे प्रकट होनेवाली श्रुति तो नित्य है, ये तो उसके विकल्पमात्र हैं हे मैत्रेय! वेदके सम्बन्धमें तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था वह मैंने सुना दिया; अब और क्या कहूँ ? ॥ २१ - ३३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
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