विष्णु पुराण अध्याय नवाँ - Vishnu Purana Chapter 9

विष्णु पुराण अध्याय नवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 9 in Sanskrit and Hindi

  • श्रीपराशर उवाच
एवमुक्त्वा सुरान्सर्वान् ब्रह्मा लोकपितामहः । 
क्षीरोदस्योत्तरं तीरं तैरेव सहितो ययौ ॥ ३८ 
स गत्वा त्रिदशैः सर्वैः समवेतः पितामहः । 
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः परावरपतिं हरिम् ॥ ३९
  • श्रीपराशरजी बोले
हे मैत्रेय! सम्पूर्ण देवगणोंसे इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागरके उत्तरी तटपर गये वहाँ पहुँचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ परावरनाथ श्रीविष्णुभगवान्‌की अति मंगलमय वाक्योंसे स्तुति की ॥ ३८ - ३९ ॥
  • ब्रह्मोवाच

नमामि सर्वं सर्वेशमनन्तमजमव्ययम् । 
लोकधाम धराधारमप्रकाशमभेदिनम् ॥ ४०
नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम् । 
समस्तानां गरिष्ठं च भूरादीनां गरीयसाम् ॥ ४१
यत्र सर्वं यतः सर्वमुत्पन्नं मत्पुरःसरम् । 
सर्वभूतश्च यो देवः पराणामपि यः परः ॥ ४२
परः परस्मात्पुरुषात्परमात्मस्वरूपधृक् । 
योगिभिश्चिन्त्यते योऽसौ मुक्तिहेतोर्मुमुक्षुभिः ॥ ४३
सत्त्वादयो न सन्तीशे यत्र च प्राकृता गुणाः ।
स शुद्धः सर्वशुद्धेभ्यः पुमानाद्यः प्रसीदतु ॥ ४४
कलाकाष्ठामुहूर्त्तादिकालसूत्रस्य गोचरे। 
यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो विष्णुः प्रसीदतु ॥ ४५
प्रोच्यते परमेशो हि यः शुद्धोऽप्युपचारतः ।
प्रसीदतु स नो विष्णुरात्मा यः सर्वदेहिनाम् ॥ ४६ 

  • ब्रह्माजी कहने लगे

जो समस्त अणुओं से भी अणु और पृथिवी आदि समस्त गुरुओं (भारी पदार्थों)- से भी गुरु (भारी) हैं; उन निखिल लोक विश्राम, पृथिवी के आधार स्वरूप, अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त, अज और अव्यय नारायण को मैं नमस्कार करता हूँ मेरे सहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें स्थित है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर (प्रधानादि) से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है, मुक्ति-लाभके लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वरमें सत्त्वादि प्राकृतिक गुणोंका सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थोंसे भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हों जिस शुद्धस्वरूप भगवान्‌की शक्ति (विभूति) कला-काष्ठा और मुहूर्त आदि काल-क्रमका विषय नहीं है, वे भगवान् विष्णु हमपर प्रसन्न हों जो शुद्ध स्वरूप होकर भी उपचारसे परमेश्वर (परमा महालक्ष्मी ईश्वर-पति) अर्थात् लक्ष्मी पति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियों के आत्मा हैं वे श्री विष्णु भगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥ ४० - ४६ ॥

यः कारणं च कार्यं च कारणस्यापि कारणम्।
कार्यस्यापि च यः कार्य प्रसीदतु स नो हरिः ।। ४७
कार्यकार्यस्य यत्कार्यं तत्कार्यस्यापि यः स्वयम् । 
तत्कार्यकार्यभूतो यस्ततश्च प्रणताः स्म तम् ॥ ४८ 
कारणं कारणस्यापि तस्य कारणकारणम् ।
तत्कारणानां हेतुं तं प्रणताः स्म परेश्वरम् ॥ ४९
भोक्तारं भोग्यभूतं च स्रष्टारं सृज्यमेव च। 
कार्यकर्तृस्वरूपं तं प्रणताः स्म परं पदम् ॥ ५०
विशुद्धबोधवन्नित्यमजमक्षयमव्ययम् ।
अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ५१
न स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न विशेषणगोचरम् ।
तत्पदं परमं विष्णोः प्रणमामः सदाऽमलम् ॥ ५२
यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं स्थिता ।
परब्रह्मस्वरूपं यत्प्रणमामस्तमव्ययम् ॥ ५३
यद्योगिनः सदोद्युक्ताः पुण्यपापक्षयेऽक्षयम् । 
पश्यन्ति प्रणवे चिन्त्यं तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ५४
यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शङ्करः । 
जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ५५
शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाः ।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ५६ 
सर्वेश सर्वभूतात्मन्सर्व सर्वाश्रयाच्युत। 
प्रसीद विष्णो भक्तानां व्रज नो दृष्टिगोचरम् ॥ ५७

जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारणके भी कारण और कार्यके भी कार्य हैं वे श्रीहरि हमपर प्रसन्न हों जो कार्य (महत्तत्त्व) के कार्य (अहंकार)- का भी कार्य (तन्मात्रापंचक) है उसके कार्य (भूतपंचक)- का भी कार्य (ब्रह्माण्ड) जो स्वयं है और जो उसके कार्य (ब्रह्मा-दक्षादि) का भी कार्यभूत (प्रजापतियोंके पुत्र-पौत्रादि) है उसे हम प्रणाम करते हैं। तथा जो जगत्‌के कारण (ब्रह्मादि) का कारण (ब्रह्माण्ड) और उसके कारण (भूतपंचक) के कारण (पंचतन्मात्रा) के कारणों (अहंकार- महत्तत्त्वादि) का भी हेतु (मूलप्रकृति) है उस परमेश्वरको हम प्रणाम करते हैं जो भोक्ता और भोग्य, स्रष्टा और सृज्य तथा कर्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं जो विशुद्ध बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णुका परमपद (परस्वरूप) है जो न स्थूल है न सूक्ष्म और न किसी अन्य विशेषणका विषय है वही भगवान् विष्णुका नित्य-निर्मल परमपद है, हम उसको प्रणाम करते हैं जिसके अयुतांश (दस हजारवें अंश) के अयुतांशमें यह विश्वरचनाकी शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्ययको हम प्रणाम करते हैं नित्य-युक्त योगिगण अपने पुण्य-पापादिका क्षय हो जानेपर ॐ कारद्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पदका साक्षात्कार करते हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर और मैं कोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णुका परमपद है जिस अभूतपूर्व देवकी ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप शक्तियाँ हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन् ! हे सर्वरूप ! हे सर्वाधार! हे अच्युत ! हे विष्णो! हम भक्तोंपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये ॥ ४७ - ५७ ॥
  • श्रीपराशर उवाच

इत्युदीरितमाकर्ण्य ब्रह्मणस्त्रिदशास्ततः । 
प्रणम्योचुः प्रसीदेति व्रज नो दृष्टिगोचरम् ॥ ५८ 
यन्नायं भगवान् ब्रह्मा जानाति परमं पदम् । 
तन्नताः स्म जगद्धाम तव सर्वगताच्युत ॥ ५९
इत्यन्ते वचसस्तेषां देवानां ब्रह्मणस्तथा।
ऊचुर्देवर्षयस्सर्वे बृहस्पतिपुरोगमाः ॥ ६०
आद्यो यज्ञपुमानीड्यः पूर्वेषां यश्च पूर्वजः ।
तन्नताः स्म जगत्त्रष्टुः स्त्रष्टारमविशेषणम् ॥ ६१
भगवन्भूतभव्येश यज्ञमूर्त्तिधराव्यय।
प्रसीद प्रणतानां त्वं सर्वेषां देहि दर्शनम् ॥ ६२ 
एष ब्रह्मा सहास्माभिः सहरुद्रैस्त्रिलोचनः ।
सर्वादित्यैः समं पूषा पावकोऽयं सहाग्निभिः ॥ ६३ 
अश्विनी वसवश्चेमे सर्वे चैते मरुद्गणाः ।
साध्या विश्वे तथा देवा देवेन्द्रश्चायमीश्वरः ।। ६४ 
प्रणामप्रवणा नाथ दैत्यसैन्यैः पराजिताः । 
शरणं त्वामनुप्राप्ताः समस्ता देवतागणाः ॥ ६५

  • श्री पराशरजी बोले
ब्रह्माजी के इन उद्‌गारोंको सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले- 'प्रभो ! हमपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये  हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत ! जिसे ये भगवान् ब्रह्माजी भी नहीं जानते, आपके उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं' तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणोंके बोल चुकनेपर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे  'जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ-पुरुष हैं और पूर्वजोंके भी पूर्वपुरुष हैं उन जगत्‌के रचयिता निर्विशेष परमात्माको हम नमस्कार करते हैं हे भूत-भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन् ! हे अव्यय ! हम सब शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये हे नाथ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी, रुद्रोंके सहित भगवान् शंकर, बारहों आदित्योंके सहित भगवान् पूषा, अग्नियोंके सहित पावक और ये दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त मरुद्गण, साध्यगण, विश्वेदेव तथा देवराज इन्द्र ये सभी देवगण दैत्य-सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरणमें आये हैं' ॥ ५८ -६५ ॥
  • श्रीपराशर उवाच

एवं संस्तूयमानस्तु भगवाञ्छङ्खचक्रधृक् । 
जगाम दर्शनं तेषां मैत्रेय परमेश्वरः ॥ ६६ 
तं दृष्ट्वा ते तदा देवाः शङ्खचक्रगदाधरम् । 
अपूर्वरूपसंस्थानं तेजसां राशिमूर्जितम् ॥ ६७ 
प्रणम्य प्रणताः सर्वे संक्षोभस्तिमितेक्षणाः । 
तुष्टुवुः पुण्डरीकाक्षं पितामहपुरोगमाः ॥ ६८

  • श्री पराशरजी बोले

हे मैत्रेय! इस प्रकार स्तुति किये जानेपर शंख-चक्रधारी भगवान् परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए  तब उस शंख-चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्तिको देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोभवश चकित-नयन हो उन कमलनयन भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ ६६ - ६८॥

  • देवा ऊचुः

नमो नमोऽविशेषस्त्वं त्वं ब्रह्मा त्वं पिनाकधृक् । 
इन्द्रस्त्वमग्निः पवनो वरुणः सविता यमः ॥ ६९ 
वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवगणाः भवान् । 
योऽयं तवाग्रतो देव समीपं देवतागणः । 
स त्वमेव जगत्त्रष्टा यतः सर्वगतो भवान् ॥ ७० 
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्‌कारस्त्वमोङ्कारः प्रजापतिः । 
विद्या वेद्यं च सर्वात्मंस्त्वन्मयं चाखिलं जगत् ॥ ७१ 
त्वामार्त्ताः शरणं विष्णो प्रयाता दैत्यनिर्जिताः । 
वयं प्रसीद सर्वात्मंस्तेजसाप्याययस्व नः ॥ ७२ 
तावदार्त्तिस्तथा वाञ्छा तावन्मोहस्तथाऽसुखम् । 
यावन्न याति शरणं त्वामशेषाघनाशनम् ॥ ७३ 
त्वं प्रसादं प्रसन्नात्मन् प्रपन्नानां कुरुष्व नः । 
तेजसां नाथ सर्वेषां स्वशक्त्याप्यायनं कुरु ।। ७४

  • देवगण बोले- 

हे प्रभो! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा हैं, आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र, अग्नि, पवन, वरुण, सूर्य और यमराज हैं हे देव । वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही हैं तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है, हे जगत्स्रष्टा ! वह भी आप ही हैं क्यों कि आप सर्वत्र परिपूर्ण हैं आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषट्‌कार हैं तथा आप ही ओंकार और प्रजापति । हे सर्वात्मन् ! विद्या, वेद्य और सम्पूर्ण जगत् आपही का स्वरूप तो है हे विष्णो! दैत्यों से परास्त हुए हम आतुर होकर आपकी शरण में आये हैं; हे सर्व स्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेज से हमें सशक्त कीजिये हे प्रभो! जबतक जीव सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करने वाले आपकी शरण में नहीं जाता तभी तक उस में दीनता, इच्छा, मोह और दुःख आदि रहते हैं हे प्रसन्नात्मन् ! हम शरणागतों पर आप प्रसन्न होइये और हे नाथ! अपनी शक्ति से हम सब देवताओं के (खोये हुए तेज को फिर बढ़ाइये ॥ ६९ - ७४ ॥

  • श्रीपराशर उवाच

एवं संस्तूयमानस्तु प्रणतैरमरैर्हरिः ।
प्रसन्नदृष्टिर्भगवानिदमाह स विश्वकृत् ॥ ७५
तेजसो भवतां देवाः करिष्याम्युपबृंहणम् ।
वदाम्यहं यत्क्रियतां भवद्भिस्तदिदं सुराः ॥ ७६
आनीय सहिता दैत्यैः क्षीराब्धौ सकलौषधीः ।
प्रक्षिप्यात्रामृतार्थं ताः सकला दैत्यदानवैः ।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम् ॥ ७७
मध्यताममृतं देवाः सहाये मय्यवस्थिते ॥ ७८ 
सामपूर्वं च दैतेयास्तत्र साहाय्यकर्मणि ।
सामान्यफलभोक्तारो यूयं वाच्या भविष्यथ ॥ ७९
मध्यमाने च तत्राब्धौ यत्समुत्पत्स्यतेऽमृतम् ।
तत्पानाद्बलिनो यूयममराश्च भविष्यथ ॥ ८०
तथा चाहं करिष्यामि ते यथा त्रिदशद्विषः ।
न प्राप्स्यन्त्यमृतं देवाः केवलं क्लेशभागिनः ॥ ८१

श्रीपराशरजी बोले

विनीत देवताओं द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने पर विश्वकर्ता भगवान् हरि प्रसन्न होकर इस प्रकार बोले हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेज को फिर बढ़ाऊँगा; तुम इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो तुम दैत्योंके साथ सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृतके लिये क्षीर सागर में डालो और मन्दराचल को मथानी तथा वासुकि नाग को नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवोंके सहित मेरी सहायता से मथकर अमृत निकालो  तुम लोग साम नीति का अवलम्बन कर दैत्यों से कहो कि 'इस काम में सहायता करने से आप लोग भी इसके फल में समान भाग पायें गे ' समुद्र के मथने पर उस से जो अमृत निकलेगा उसका पान करने से तुम सबल और अमर हो जाओगे हे देवगण । तुम्हारे लिये में ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुम्हारे द्वेषी दैत्यों को अमृत न मिल सकेगा और उन के हिस्से में केवल समुद्र-मन्थन का क्लेश ही आयेगा ॥ ७५ - ८१ ॥

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