विष्णु पुराण अध्याय नवाँ - Vishnu Purana Chapter 9

विष्णु पुराण अध्याय नवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 9 in Sanskrit and Hindi

नवाँ अध्याय दुर्वासाजीके शापसे इन्द्रका पराजय, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे प्रसन्न हुए भगवान्‌का प्रकट होकर देवताओंको समुद्र-मन्धनका उपदेश करना तथा देवता और दैत्योंका समुद्र-मन्धन !
  • श्रीपराशर उवाच

इदं च शृणु मैत्रेय यत्पृष्टोऽहमिह त्वया। 
श्रीसम्बन्धं मयाप्येतच्छ्रुतमासीन्मरीचितः ॥ १
दुर्वासाः शङ्करस्यांशश्चचार पृथिवीमिमाम् । 
स ददर्श स्त्रजं दिव्यामृषिर्विद्याधरीकरे ॥ २
सन्तानकानामखिलं यस्या गन्धेन वासितम् । 
अतिसेव्यमभूद्ब्रह्मन् तद्वनं वनचारिणाम् ॥ ३
उन्मत्तव्रतधृग्विप्रस्तां दृष्ट्वा शोभनां स्त्रजम् । 
तां ययाचे वरारोहां विद्याधरवधूं ततः ॥ ४
याचिता तेन तन्वङ्गी मालां विद्याधराङ्गना। 
ददौ तस्मै विशालाक्षी सादरं प्रणिपत्य तम् ॥ ५ 

विष्णु पुराण अध्याय नवाँ - Vishnu Purana Chapter 9

  • श्रीपराशरजी बोले- 
हे मैत्रेय! तुमने इस समय मुझ से जिस के विषय में पूछा है वह श्रीसम्बन्ध (लक्ष्मीजीका इतिहास) मैंने भी मरीचि ऋषि से सुना था, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ, [सावधान होकर] सुनो एक बार शंकर के अंशावतार श्री दुर्वासा जी पृथिवीतल में विचर रहे थे। घूमते-घूमते उन्हों ने एक विद्याधरीके हाथोंमें सन्तानक पुष्पोंकी एक दिव्य माला देखी। हे ब्रह्मन् ! उसकी गन्धसे सुवासित होकर वह वन वनवासियोंके लिये अति सेवनीय हो रहा था  तब उन उन्मत्तवृत्तिवाले विप्रवरने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर- सुन्दरीसे माँगा  उनके माँगनेपर उस बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरीने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी॥१ - ५॥

तामादायात्मनो मूर्ध्नि स्त्रजमुन्मत्तरूपधृक् !
कृत्वा स विप्रो मैत्रेय परिबभ्राम मेदिनीम् ॥ ६
स ददर्श तमायान्तमुन्मत्तैरावते स्थितम् । 
त्रैलोक्याधिपतिं देवं सह देवैः शचीपतिम् ॥ ७
तामात्मनः स शिरसः स्त्रजमुन्मत्तषट्पदाम् । 
आदायामरराजाय चिक्षेपोन्मत्तवन्मुनिः ॥ ८
गृहीत्वाऽमरराजेन स्त्रगैरावतमूर्द्धनि।
न्यस्ता रराज कैलासशिखरे जाह्नवी यथा ॥ 
मदान्धकारिताक्षोऽसौ गन्धाकृष्टेन वारणः । ९
करेणाघ्राय चिक्षेप तां स्त्रर्ज धरणीतले ॥ १०
ततश्चुक्रोध भगवान्दुर्वासा मुनिसत्तमः । 
मैत्रेय देवराजं तं कुद्धश्चैतदुवाच ह। ११

हे मैत्रेय ! उन उन्मत्तवेषधारी विप्रवरने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल लिया और पृथिवीपर विचरने लगे  इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढ़कर देवताओंके साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इन्द्र को देखा  उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासा ने उन्मत्त के समान वह मत वाले भौंराँ से गुंजाय मान माला अपने सिरपर से उतारकर देवराज इन्द्रके ऊपर फेंक दी  देवराजने उसे लेकर ऐरावतके मस्तकपर डाल दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हुई मानो कैलास पर्वतके शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हों  उस मदोन्मत्त हाथीने भी उस की गन्धसे आकर्षित हो उसे सूंडसे सूंघकर पृथिवीपर फेंक दिया  हे मैत्रेय! यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इन्द्रसे इस प्रकार बोले ॥ ६ -११॥ 

  • दुर्वासा उवाच

ऐश्वर्यमददुष्टात्मन्नतिस्तब्धोऽसि वासव।
श्रियो धाम स्त्रजं यस्त्वं मद्दत्तां नाभिनन्दसि ॥ १२ 
प्रसाद इति नोक्तं ते प्रणिपातपुरःसरम् ।
हर्षोत्फुल्लकपोलेन न चापि शिरसा धृता ॥ १३
मया दत्तामिमां मालां यस्मान्न बहु मन्यसे।
त्रैलोक्यश्रीरतो मूढ विनाशमुपयास्यति ॥ १४
मां मन्यसे त्वं सदृशं नूनं शक्रेतरद्विजैः । 
अतोऽवमानमस्मासु मानिना भवता कृतम् ॥ १५
मद्दत्ता भवता यस्मात्क्षिप्ता माला महीतले ।
तस्मात्प्रणष्टलक्ष्मीकं त्रैलोक्यं ते भविष्यति ॥ १६ 
यस्य सञ्जातकोपस्य भयमेति चराचरम्।
तं त्वं मामतिगर्वेण देवराजावमन्यसे ॥ १७

दुर्वासाजीने कहा- अरे ऐश्वर्यके मदसे दूषितचित्त इन्द्र ! तू बड़ा ढीठ है, तूने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभाकी धाम मालाका कुछ भी आदर नहीं किया !  अरे ! तूने न तो प्रणाम करके 'बड़ी कृपा की' ऐसा ही कहा और न हर्षसे प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा  रे मूढ़ ! तूने मेरी दी हुई मालाका कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जायगा  इन्द्र ! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणोंके समान ही समझता है, इसीलिये तुझ अति मानीने हमारा इस प्रकार अपमान किया है अच्छा, तूने मेरी दी हुई मालाको पृथिवीपर फेंका है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा रे देवराज ! जिसके क्रुद्ध होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् भयभीत हो जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्वसे इस प्रकार अपमान किया ! ॥  १२ - १७

  • श्री पराशर उवाच

महेन्द्रो वारणस्कन्धादवतीर्य त्वरान्वितः । 
प्रसादयामास मुनिं दुर्वाससमकल्मषम् ॥ १८ 
प्रसाद्यमानः स तदा प्रणिपातपुरःसरम् । 
इत्युवाच सहस्त्राक्षं दुर्वासा मुनिसत्तमः ॥ १९
दुर्वासा उवाच नाहं कृपालुहृदयो न च मां भजते क्षमा। 
अन्ये ते मुनयः शक्र दुर्वाससमवेहि माम् ॥ २०
गौतमादिभिरन्यैस्त्वं गर्वमारोपितो मुधा। 
अक्षान्तिसारसर्वस्वं दुर्वाससमवेहि माम् ॥ २१ 
वसिष्ठाद्यैर्दयासारैस्स्तोत्रं कुर्वद्भिरुच्चकैः । 
गर्वं गतोऽसि येनैवं मामप्यद्यावमन्यसे ॥ २२ 
ज्वलज्ञ्जटाकलापस्य भृकुटीकुटिलं मुखम् । 
निरीक्ष्य कस्त्रिभुवने मम यो न गतो भयम् ॥ २३ 
नाहं क्षमिष्ये बहुना किमुक्तेन शतक्रतो । 
विडम्बनामिमां भूयः करोष्यनुनयात्मिकाम् ॥ २४

  • श्रीपराशरजी बोले

तब तो इन्द्रने तुरन्त ही ऐरावत हाथीसे उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजीको [अनुनय-विनय करके] प्रसन्न किया तब उसके प्रणामादि करनेसे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी उससे इस प्रकार कहने लगे  दुर्वासाजी बोले- इन्द्र! मैं कृपालु चित्त नहीं हूँ, मेरे अन्तःकरणमें क्षमाको स्थान नहीं है। वे मुनिजन तो और ही हैं; तुम समझो, मैं तो दुर्वासा हूँ न ?  गौतमादि अन्य मुनिजनोंने व्यर्थ ही तुझे इतना मुँह लगा लिया है; पर याद रख, मुझ दुर्वासाका सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है दयामूर्ति वसिष्ठ आदिके बढ़- बढ़कर स्तुति करनेसे तू इतना गर्वीला हो गया कि आज मेरा भी अपमान करने चला हैअरे! आज त्रिलोकीमें ऐसा कौन है जो मेरे प्रज्वलित जटाकलाप और टेढ़ी भृकुटिको देखकर भयभीत न हो जाय ? रे शतक्रतो! तू बारम्बार अनुनय-विनय करनेका ढोंग क्यों करता है? तेरे इस कहने-सुननेसे क्या होगा? मैं क्षमा नहीं कर सकता ॥  १८ - २४॥

  • श्रीपराशर उवाच

इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रो देवराजोऽपि तं पुनः । 
आरुहौरावतं ब्रह्मन् प्रययावमरावतीम् ॥ २५ 
ततः प्रभृति निःश्रीकं सशक्रं भुवनत्रयम् । 
मैत्रेयासीदपध्वस्तं सङ्क्षीणौषधिवीरुधम् ॥ २६ 
न यज्ञाः समवर्त्तन्त न तपस्यन्ति तापसाः । 
न च दानादिधर्मेषु मनश्चक्रे तदा जनः ॥ २७ 
निःसत्त्वाः सकला लोका लोभाद्युपहतेन्द्रियाः । 
स्वल्पेऽपि हि बभूवुस्ते साभिलाषा द्विजोत्तम ॥ २८ 
यतः सत्त्वं ततो लक्ष्मीः सत्त्वं भूत्यनुसारि च । 
निःश्रीकाणां कुतः सत्त्वं विना तेन गुणाः कुतः ॥ २९
बलशौर्याद्यभावश्च पुरुषाणां गुणैर्विना।
लङ्घनीयः समस्तस्य बलशौर्यविवर्जितः ॥ ३०

  • श्रीपराशरजी बोले- 

हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार कह वे विप्रवर वहाँसे चल दिये और इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़कर अमरावतीको चले गये  हे मैत्रेय! तभीसे इन्द्रके सहित तीनों लोक वृक्ष-लता आदिके क्षीण हो जानेसे श्रीहीन और नष्ट भ्रष्ट होने लगे  तबसे यज्ञोंका होना बन्द हो गया, तपस्वियोंने तप करना छोड़ दिया तथा लोगोंका दान आदि धर्मोंमें चित्त नहीं रहा  हे द्विजोत्तम! सम्पूर्ण लोक लोभादिके वशीभूत हो जानेसे सत्त्वशून्य (सामर्थ्यहीन) हो गये और तुच्छ वस्तुओंके लिये भी लालायित रहने लगे  जहाँ सत्त्व होता है वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है। श्रीहीनोंमें भला सत्त्व कहाँ ? और बिना सत्त्वके गुण कैसे ठहर सकते हैं?  बिना गुणोंके पुरुषमें बल, शौर्य आदि सभीका अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभीसे अपमानित होता है ॥ २५ - ३० ॥

भवत्यपध्वस्तमतिर्लङ्घित्तः प्रथितः पुमान् ॥ ३१ 
एवमत्यन्तनिःश्रीके त्रैलोक्ये सत्त्ववर्जिते।
देवान् प्रति बलोद्योगं चक्रुर्दैतेयदानवाः ॥ ३२
लोभाभिभूता निःश्रीका दैत्याः सत्त्वविवर्जिताः । 
श्रिया विहीनैर्निः सत्त्वैर्देवैश्चक्रुस्ततो रणम् ॥ ३३
विजितास्त्रिदशा दैत्यैरिन्द्राद्याः शरणं ययुः ।
पितामहं महाभागं हुताशनपुरोगमाः ॥ ३४ 
यथावत्कथितो देवैर्ब्रह्मा प्राह ततः सुरान् ।
परावरेशं शरणं व्रजध्वमसुरार्दनम् ॥ ३५ 
उत्पत्तिस्थितिनाशानामहेतुं हेतुमीश्वरम् ।
प्रजापतिपतिं विष्णुमनन्तमपराजितम् ॥ ३६ 
प्रधानपुंसोरजयोः कारणं कार्यभूतयोः । 
प्रणतात्र्त्तिहरं विष्णुं स वः श्रेयो विधास्यति ॥ ३७

अपमानित होनेपर प्रतिष्ठित पुरुषकी बुद्धि बिगड़ जाती है इस प्रकार त्रिलोकीके श्रीहीन और सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढ़ाई कर दी  सत्त्व और वैभवसे शून्य होनेपर भी दैत्योंने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंसे घोर युद्ध ठाना  अन्तमें दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए। तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेवको आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजीकी शरण गये देवताओंसे सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर श्रीब्रह्माजीने उनसे कहा, 'हे देवगण ! तुम दैत्य-दलन परावरेश्वर भगवान् विष्णुकी शरण जाओ, जो [आरोपसे] संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके कारण हैं किन्तु [वास्तवमें] कारण भी नहीं हैं और जो चराचरके ईश्वर, प्रजापतियोंके स्वामी, सर्वव्यापक, अनन्त और अजेय हैं तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूपमें परिणत हुए प्रधान (मूलप्रकृति) और पुरुषके कारण हैं एवं शरणागतवत्सल हैं। [शरण जानेपर] वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे ' ॥३१ - ३७ ॥

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श्रीपराशर उवाच - ३८ 

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