विष्णु पुराण अध्याय छठा संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 6 in Sanskrit and Hindi
छठा अध्याय - चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था, पृथिवी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्तिका वर्णन !अर्वाक्स्त्रोतास्तु कथितो भवता यस्तु मानुषः ।
ब्रह्मन्विस्तरतो ब्रूहि ब्रह्मा तमसृजद्यथा ।। १
यथा च वर्णानसृजद्यद्गुणांश्च प्रजापतिः ।
यच्च तेषां स्मृतं कर्म विप्रादीनां तदुच्यताम् ॥ २ हे भगवन् । आपने जो अर्वाक् स्रोता मनुष्योंके विषयमें कहा उनकी सृष्टि ब्रह्माजीने किस प्रकार की यह विस्तार पूर्वक कहिये श्रीप्रजापति ने ब्राह्मणादि वर्ण को जिन-जिन गुणों से युक्त और जिस प्रकार रचा तथा उनके जो-जो कर्तव्य- कर्म निर्धारित किये वह सब वर्णन कीजिये ॥१ - २॥
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विष्णु पुराण अध्याय छठा - Vishnu Purana Chapter 6 |
सत्याभिध्यायिनः पूर्वं सिसृक्षोर्ब्रह्मणो जगत् ।
अजायन्त द्विजश्रेष्ठ सत्त्वोद्रिक्ता मुखात्प्रजाः ॥ ३
वक्षसो रजसोद्रिक्तास्तथा वै ब्रह्मणोऽभवन् ।
रजसा तमसा चैव समुद्रिक्तास्तथोरुतः ॥ ४
पद्भयामन्याः प्रजा ब्रह्मा ससर्ज द्विजसत्तम ।
तमः प्रधानास्ताः सर्वाश्चातुर्वर्ण्यमिदं तत ॥ ५
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षःस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः ॥ ६
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद् ब्रह्मा चकार वै।
चातुर्वर्ण्य महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥ ७
यज्ञैराप्यायिता देवा वृष्ट्युत्सर्गेण वै प्रजाः ।
आप्याययन्ते धर्मज्ञ यज्ञाः कल्याणहेतवः ॥ ८
निष्पाद्यन्ते नरैस्तैस्तु स्वधर्माभिरतैस्सदा ।
विशुद्धाचरणोपेतैः सद्धिः सन्मार्गगामिभिः ॥ ९
स्वर्गापवर्गों मानुष्यात्प्राप्नुवन्ति नरा मुने।
यच्चाभिरुचितं स्थानं तद्यान्ति मनुजा द्विज । १०
प्रजास्ता ब्रह्मणा सृष्टाश्चातुर्वर्ण्यव्यवस्थिताः ।हे द्विजश्रेष्ठ ! जगत्-रचनाकी इच्छासे युक्त सत्यसंकल्प श्री ब्रह्मा जी के मुख से पहले सत्त्वप्रधान प्रजा उत्पन्न हुई तदनन्तर उन के वक्षःस्थल से रजः प्रधान तथा जंघाओंसे रज और तम विशिष्ट सृष्टि हुई हे द्विजोत्तम ! चरणोंसे ब्रह्माजीने एक और प्रकारकी प्रजा उत्पन्न की, वह तमःप्रधान थी। ये ही सब चारों वर्ण हुए इस प्रकार हे द्विजसत्तम! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों क्रमशः ब्रह्माजीके मुख, वक्षःस्थल, जानु और चरणोंसे उत्पन्न हुए हे महाभाग ! ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानके लिये ही यज्ञके उत्तम साधनरूप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्ण्यकी रचना की थी हे धर्मज्ञ ! यज्ञसे तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजाको तृप्त करते हैं; अतः यज्ञ सर्वथा कल्याणका हेतु है जो मनुष्य सदा स्वधर्मपरायण, सदाचारी, सज्जन और सुमार्गगामी होते हैं उन्हींसे यज्ञका यथावत् अनुष्ठान हो सकता है हे मुने ! [यज्ञके द्वारा] मनुष्य इस मनुष्य-शरीरसे ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं; तथा और भी जिस स्थानकी उन्हें इच्छा हो उसीको जा सकते हैं॥ ३ - १०॥
सम्यक्छूद्धासमाचारप्रवणा मुनिसत्तम ॥ ११
यथेच्छावासनिरताः सर्वबाधाविवर्जिताः ।
शुद्धान्तःकरणाः शुद्धाः कर्मानुष्ठाननिर्मलाः ॥ १२
शुद्धे च तासां मनसि शुद्धेऽन्तः संस्थिते हरौ।
शुद्धज्ञानं प्रपश्यन्ति विष्ण्वाख्यं येन तत्पदम् ॥ १३
ततः कालात्मको योऽसौ स चांशः कथितो हरेः ।
स पातयत्यधं घोरमल्पमल्पाल्पसारवत् ॥ १४
अधर्मबीजसमुद्भूतं तमोलोभसमुद्भवम् ।
प्रजासु तासु मैत्रेय रागादिकमसाधकम् ॥ १५
ततः सा सहजा सिद्धिस्तासां नातीव जायते ।
रसोल्लासादयश्चान्याः सिद्धयोऽष्टौ भवन्ति याः ।। १६
तासु क्षीणास्वशेषासु वर्द्धमाने च पातके ।
द्वन्द्वाभिभवदुःखार्तास्ता भवन्ति ततः प्रजाः ॥ १७
ततो दुर्गाणि ताश्चकुर्धान्वं पार्वतमौदकम् ।
कृत्रिमं च तथा दुर्गं पुरखर्वटकादिकम् ॥ १८
गृहाणि च यथान्यायं तेषु चक्रुः पुरादिषु।
शीतातपादिबाधानां प्रशमाय महामते ॥ १९
प्रतीकारमिमं कृत्वा शीतादेस्ताः प्रजाः पुनः ।
वार्तोपायं ततश्चक्रुर्हस्तसिद्धिं च कर्मजाम् ॥ २०
व्रीहयश्च यवाश्चैव गोधूमाश्चाणवस्तिलाः ।
हे मुनिसत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वर्ण्य- विभागमें स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त आचरणवाली, स्वेच्छानुसार रहनेवाली, सम्पूर्ण बाधाओंसे रहित, शुद्ध अन्तःकरणवाली, सत्कुलोत्पन्न और पुण्य कर्मोंके अनुष्ठानसे परम पवित्र थी उसका चित्त शुद्ध होनेके कारण उसमें निरन्तर शुद्धस्वरूप श्रीहरिके विराजमान रहनेसे उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवान्के उस 'विष्णु' नामक परम पदको देख पाते थे फिर (त्रेतायुगके आरम्भमें), हमने तुमसे भगवान्के जिस काल नामक अंशका पहले वर्णन किया है, वह अति अल्प सारवाले (सुखवाले) तुच्छ और घोर (दुःखमय) पापोंको प्रजामें प्रवृत्त कर देता है !
हे मैत्रेय ! उससे प्रजामें पुरुषार्थका विघातक तथा अज्ञान और लोभको उत्पन्न करनेवाला रागादि रूप अधर्म का बीज उत्पन्न हो जाता है तभीसे उसे वह विष्णु-पद-प्राप्ति-रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्ट सिद्धियाँ' नहीं मिलतीं उन समस्त सिद्धियोंके क्षीण हो जाने और पापके बढ़ जानेसे फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्द्व, ह्यस और दुःखसे आतुर हो गयी तब उसने मरुभूमि, पर्वत और जल आदिके स्वाभाविक तथा कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा खर्वट आदि स्थापित किये हे महामते ! उन पुर आदिकोंमें शीत और घाम आदि बाधाओं से बचनेके लिये उसने यथायोग्य घर बनाये इस प्रकार शीतोष्णादिसे बचनेका उपाय करके उस प्रजाने जीविकाके साधनरूप कृषि तथा कला-कौशल आदिकी रचना की ॥ ११ - २०॥
प्रियङ्गवो ह्युदाराश्च कोरदूषाः सतीनकाः ॥ २१
माषा मुद्गा मसूराश्च निष्पावाः सकुलत्थकाः ।
आढक्यश्चणकाश्चैव शणाः सप्तदश स्मृताः ॥ २२
इत्येता ओषधीनां तु ग्राम्यानां जातयो मुने।
ओषध्यो यज्ञियाश्चैव ग्राम्यारण्याश्चतुर्दश ॥ २३
व्रीहयस्सयवा माषा गोधूमाश्चाणवस्तिलाः ।
प्रियङ्गुसप्तमा होते अष्टमास्तु कुलत्थकाः ॥ २४
श्यामाकास्त्वथ नीवारा जर्तिलाः सगवेधुकाः ।
तथा वेणुयवाः प्रोक्तास्तथा मर्कटका मुने ॥ २५
ग्राम्यारण्याः स्मृता होता ओषध्यस्तु चतुर्दश।
यज्ञनिष्पत्तये यज्ञस्तथासां हेतुरुत्तमः ॥ २६
एताश्च सह यज्ञेन प्रजानां कारणं परम्।
परावरविदः प्राज्ञास्ततो यज्ञान्वितन्वते ॥ २७
अहन्यहन्यनुष्ठानं यज्ञानां मुनिसत्तम।
उपकारकरं पुंसां क्रियमाणाघशान्तिदम् ॥ २८
येषां तु कालसृष्टोऽसौ पापबिन्दुर्महामुने।
चेतःसु ववृधे चक्कुस्ते न यज्ञेषु मानसम् ॥ २९
वेदवादांस्तथा वेदान्यज्ञकर्मादिकं च यत्।
तत्सर्वं निन्दयामासुर्यज्ञव्यासेधकारिणः ॥ ३०
प्रवृत्तिमार्गव्युच्छित्तिकारिणो वेदनिन्दकाः ।
हे मुने ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी, ज्वार, कोदो, छोटी मटर, उड़द, मूग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथी, राई, चना और सन- ये सत्रह ग्राम्य ओषधियोंकी जातियाँ हैं। ग्राम्य और वन्य दोनों प्रकारकी मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक हैं। उनके नाम ये हैं-धान, जौ, उड़द, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी और कुलथी-ये आठ तथा श्यामाक (समाँ), नीबार, वनतिल, गवेधु, वेणुयव और मर्कट (मक्का) ये चौदह ग्राम्य और वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठान की सामग्री हैं और यज्ञ इनकी उत्पत्तिका प्रधान हेतु है यज्ञोंके सहित ये ओषधियाँ प्रजाकी वृद्धिका परम कारण हैं इसलिये इहलोक-परलोकके ज्ञाता पुरुष यज्ञोंका अनुष्ठान किया करते हैं हे मुनिश्रेष्ठ ! नित्यप्रति किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्योंका परम उपकारक और उनके किये हुए पापोंको शान्त करनेवाला है हे महामुने ! जिनके चित्तमें कालकी गतिसे पापका बीज बढ़ता है उन्हीं लोगोंका चित्त यज्ञमें प्रवृत्त नहीं होता उन यज्ञके विरोधियोंने वैदिक मत, वेद और यज्ञादि कर्म-सभीकी निन्दा की है॥ २१ - ३० ॥
दुरात्मानो दुराचारा बभूवुः कुटिलाशयाः ॥ ३१
संसिद्धायां तु वार्तायां प्रजाः सृष्टा प्रजापतिः ।
मर्यादां स्थापयामास यथास्थानं यथागुणम् ॥ ३२
वर्णानामाश्रमाणां च धर्मान्धर्मभृतां वर।
लोकांश्च सर्ववर्णानां सम्यग्धर्मानुपालिनाम् ॥ ३३
प्राजापत्यं ब्राह्मणानां स्मृतं स्थानं क्रियावताम्।
स्थानमैन्द्रं क्षत्रियाणां संग्रामेष्वनिवर्तिनाम् ॥ ३४
वैश्यानां मारुतं स्थानं स्वधर्ममनुवर्तिनाम् ।
गान्धर्वं शूद्रजातीनां परिचर्यानुवर्तिनाम् ॥ ३५
अष्टाशीतिसहस्त्राणि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।
स्मृतं तेषां तु यत्स्थानं तदेव गुरुवासिनाम् ।। ३६
सप्तर्षीणां तु यत्स्थानं स्मृतं तद्वै वनौकसाम् ।
प्राजापत्यं गृहस्थानां न्यासिनां ब्रह्मसंज्ञितम् ॥ ३७
वे लोग दुरात्मा, दुराचारी, कुटिलमति, वेद-विनिन्दक और प्रवृत्तिमार्गका उच्छेद करनेवाले ही थे हे धर्मवानोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय! इस प्रकार कृषि आदि जीविकाके साधनोंके निश्चित हो जानेपर प्रजापति ब्रह्माजीने प्रजाकी रचना कर उनके स्थान और गुणोंके अनुसार मर्यादा, वर्ण और आश्रमोंके धर्म तथा अपने धर्मका भली प्रकार पालन करनेवाले समस्त वणाँके लोक आदिकी स्थापना की कर्मनिष्ठ ब्राह्मणोंका स्थान पितृलोक है, युद्ध-क्षेत्रसे कभी न हटनेवाले क्षत्रियोंका इन्द्रलोक है तथा अपने धर्मका पालन करनेवाले वैश्योंका वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रोंका गन्धर्वलोक है अट्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता मुनि हैं; उनका जो स्थान बताया गया है वही गुरुकुलवासी ब्रह्मचारियोंका स्थान है इसी प्रकार वनवासी वानप्रस्थोंका स्थान सप्तर्षिलोक, गृहस्थोंका पितृलोक और संन्यासियोंका ब्रह्मलोक है तथा आत्मानुभव से तृप्त योगियों का स्थान अमरपद (मोक्ष) है॥ ३१ - ३७॥
योगिनाममृतं स्थानं स्वात्मसन्तोषकारिणाम् ॥ ३८
एकान्तिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनश्च ये।
तेषां तु परमं स्थानं यत्तत्पश्यन्ति सूरयः ॥ ३९
गत्वा गत्वा निवर्त्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः ।
अद्यापि न निवर्त्तन्ते द्वादशाक्षरचिन्तकाः ॥ ४०
तामिस्त्रमन्धतामिस्त्रं महारौरवरौरवौ ।
असिपत्रवनं घोरं कालसूत्रमवीचिकम् ।। ४१
विनिन्दकानां वेदस्य यज्ञव्याघातकारिणाम्।
स्थानमेतत्समाख्यातं स्वधर्मत्यागिनश्च ये ।। ४२
जो निरन्तर एकान्तसेवी और ब्रह्मचिन्तनमें मग्न रहनेवाले योगिजन हैं उनका जो परमस्थान है उसे पण्डितजन ही देख पाते हैं चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपने-अपने लोकोंमें जाकर फिर लौट आते हैं, किन्तु द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का चिन्तन करनेवाले अभीतक मोक्षपदसे नहीं लौटे तामिस्र, अन्धतामिल, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसूत्र और अवीचिक आदि जो नरक हैं, वे वेदोंकी निन्दा और यज्ञोंका उच्छेद करनेवाले तथा स्वधर्म-विमुख अन्धतामिल, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसूत्र पुरुषोंके स्थान कहे गये हैं॥ ३९-४२॥
इति श्री विष्णु पुराणे प्रथमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
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