विष्णु पुराण अध्याय बाईसवाँ - Vishnu Purana Chapter 22

विष्णु पुराण अध्याय बाईसवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 22 in Sanskrit and Hindi

बाईसवाँ अध्याय विष्णुभगवान्‌की विभूति और जगत्‌की व्यवस्थाका वर्णन !
  • श्रीपराशर उवाच
यदाभिषिक्तः स पृथुः पूर्वं राज्ये महर्षिभिः ।
ततः क्रमेण राज्यानि ददौ लोकपितामहः ॥ १
नक्षत्रग्रहविप्राणां वीरुधां चाप्यशेषतः ।
सोमं राज्ये दधद्ब्रह्मा यज्ञानां तपसामपि ॥ २
राज्ञां वैश्रवणं राज्ये जलानां वरुणं तथा ।
आदित्यानां पतिं विष्णुं वसूनामथ पावकम् ॥ ३
प्रजापतीनां दक्षं तु वासवं मरुतामपि।
दैत्यानां दानवानां च प्रह्लादमधिपं ददौ ॥ ४
पितॄणां धर्मराजं तं यमं राज्येऽभ्यषेचयत् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणामशेषाणां पतिं ददौ ॥ ५
पतत्त्रिणां तु गरुडं देवानामपि वासवम् ।
उच्चैःश्रवसमश्वानां वृषभं तु गवामपि ॥ ६
मृगाणां चैव सर्वेषां राज्ये सिंहं ददौ प्रभुः ।
शेषं तु दन्दशूकानामकरोत्पतिमव्ययः ॥ ७
हिमालयं स्थावराणां मुनीनां कपिलं मुनिम् ।
नखिनां दंष्ट्रिणां चैव मृगाणां व्याघ्घ्रमीश्वरम् ॥ ८
वनस्पतीनां राजानां प्लक्षमेवाभ्यषेचयत् ।
एवमेवान्यजातीनां प्राधान्येनाकरोत्प्रभून् ॥ ९

विष्णु पुराण अध्याय बाईसवाँ - Vishnu Purana Chapter 22

श्रीपराशरजी बोले - पूर्वकालमें महर्षियोंने जब महाराज पृथुको राज्यपदपर अभिषिक्त किया तो लोक-पितामह श्रीब्रह्माजीने भी क्रमसे राज्योंका बँटवारा किया ब्रह्माजीने नक्षत्र, ग्रह, ब्राह्मण, सम्पूर्ण वनस्पति और यज्ञ तथा तप आदिके राज्यपर चन्द्रमाको नियुक्त किया इसी प्रकार विश्रवाके पुत्र कुबेरजीको राजाओंका, वरुणको जलोंका, विष्णुको आदित्योंका और अग्निको वसुगणोंका अधिपति बनाया दक्ष को प्रजापतियों का, इन्द्र को मरुद्गण का तथा प्रह्लादजीको दैत्य और दानवोंका आधिपत्य दिया पितृगणके राज्यपदपर धर्मराज यमको अभिषिक्त किया और सम्पूर्ण गजराजोंका स्वामित्व ऐरावतको दिया गरुडको पक्षियोंका, इन्द्रको देवताओंका, उच्चैः श्रवाको घोड़ोंका और वृषभको गौओंका अधिपति बनाया प्रभु ब्रह्माजीने समस्त मृगों (वन्यपशुओं) का राज्य सिंहको दिया और सर्पोका स्वामी शेषनागको बनाया स्थावरोंका स्वामी हिमालयको, मुनिजनोंका कपिलदेवजीको और नख तथा दाढ़वाले मृगगणका राजा व्याघ्र (बाघ)- को बनाया तथा प्लक्ष (पाकर) को वनस्पतियोंका राजा किया। इसी प्रकार ब्रह्माजीने और और जातियोंके प्राधान्यकी भी व्यवस्था की ॥  १ - ९ ॥

एवं विभज्य राज्यानि दिशां पालाननन्तरम् ।
प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा स्थापयामास सर्वतः ॥ १०
पूर्वस्यां दिशि राजानं वैराजस्य प्रजापतेः ।
दिशापालं सुधन्वानं सुतं वै सोऽभ्यषेचयत् ॥ ११
दक्षिणस्यां दिशि तथा कर्दमस्य प्रजापतेः ।
पुत्रं शङ्खपदं नाम राजानं सोऽभ्यषेचयत् ॥ १२
पश्चिमस्यां दिशि तथा रजसः पुत्रमच्युतम् ।
केतुमन्तं महात्मानं राजानं सोऽभ्यषेचयत् ॥ १३
तथा हिरण्यरोमाणं पर्जन्यस्य प्रजापतेः ।
उदीच्यां दिशि दुर्द्धर्षं राजानमभ्यषेचयत् ॥ १४
तैरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।
यथाप्रदेशमद्यापि धर्मतः परिपाल्यते ॥ १५


इस प्रकार राज्योंका विभाग करनेके अनन्तर प्रजापतियोंके स्वामी ब्रह्माजीने सब ओर दिक्पालोंकी स्थापना की  उन्होंने पूर्व दिशामें वैराज प्रजापतिके पुत्र राजा सुधन्वाको दिक्पालपदपर अभिषिक्त किया तथा दक्षिण दिशामें कर्दम प्रजापतिके पुत्र राजा शंखपदकी नियुक्ति की  कभी च्युत न होने वाले रजस पुत्र महात्मा केतु मान्‌ को उन्होंने पश्चिम - दिशा में स्थापित किया और पर्जन्य प्रजापति के पुत्र अति दुर्द्धर्ष राजा हिरण्यरोमाको उत्तर-दिशा में अभिषिक्त किया वे आजतक सात द्वीप और अनेकों नगरोंसे युक्त इस सम्पूर्ण पृथिवीका अपने- अपने विभागानुसार धर्मपूर्वक पालन करते हैं॥ १० - १५ ॥

एते सर्वे प्रवृत्तस्य स्थितौ विष्णोर्महात्मनः ।
विभूतिभूता राजानो ये चान्ये मुनिसत्तम ॥ १६ 
ये भविष्यन्ति ये भूताः सर्वे भूतेश्वरा द्विज ।
ते सर्वे सर्वभूतस्य विष्णोरंशा द्विजोत्तम ॥ १७ 
ये तु देवाधिपतयो ये च दैत्याधिपास्तथा।
दानवानां च ये नाथा ये नाथाः पिशिताशिनाम् ॥ १८
पशूनां ये च पतयः पतयो ये च पक्षिणाम् । 
मनुष्याणां च सर्पाणां नागानामधिपाश्च ये ॥ १९
वृक्षाणां पर्वतानां च ग्रहाणां चापि येऽधिपाः ।
अतीता वर्त्तमानाश्च ये भविष्यन्ति चापरे। 
ते सर्वे सर्वभूतस्य विष्णोरंशसमुद्भवाः ॥ २० 
न हि पालनसामर्थ्यमृते सर्वेश्वरं हरिम् । 
स्थितं स्थितौ महाप्राज्ञ भवत्यन्यस्य कस्यचित् ॥ २१ 
सृजत्येष जगत्सृष्टौ स्थितौ पाति सनातनः ।
हन्ति चैवान्तकत्वेन रजः सत्त्वादिसंश्रयः ॥ २२

हे मुनिसत्तम ! ये तथा अन्य भी जो सम्पूर्ण राजालोग हैं वे सभी विश्वके पालनमें प्रवृत्त परमात्मा श्री विष्णु भगवान्‌ के विभूतिरूप हैं हे द्विजोत्तम ! जो-जो भूताधिपति पहले हो गये हैं और जो-जो आगे होंगे वे सभी सर्वभूत भगवान् विष्णुके अंश हैं जो-जो भी देवताओं, दैत्यों, दानवों और मांसभोजियोंके अधिपति हैं, जो-जो पशुओं, पक्षियों, मनुष्यों, सर्पों और नागोंके अधिनायक हैं, जो-जो वृक्षों, पर्वतों और ग्रहोंके स्वामी हैं तथा और भी भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान कालीन जितने भूतेश्वर हैं वे सभी सर्वभूत भगवान् विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए हैं हे महाप्राज्ञ ! सृष्टिके पालन-कार्यमें प्रवृत्त सर्वेश्वर श्रीहरिको छोड़कर और किसीमें भी पालन करनेकी शक्ति नहीं है रजः और सत्त्वादि गुणों के आश्रयसे वे सनातन प्रभु ही जगत्‌की रचना के समय रचना करते हैं, स्थिति के समय पालन करते हैं और अन्तसमय में काल रूप से संहार करते हैं॥ १६ - २२ ॥

चतुर्विभागः संसृष्टौ चतुर्धा संस्थितः स्थितौ ।
प्रलयं च करोत्यन्ते चतुर्भेदो जनार्दनः ॥ २३
एकेनांशेन ब्रह्मासौ भवत्यव्यक्तमूर्त्तिमान् ।
मरीचिमिश्राः पतयः प्रजानां चान्यभागशः ॥ २४
कालस्तृतीयस्तस्यांशः सर्वभूतानि चापरः ।
इत्थं चतुर्धा संसृष्टौ वर्त्ततेऽसौ रजोगुणः ॥ २५
एकांशेनास्थितो विष्णुः करोति प्रतिपालनम्।
मन्वादिरूपश्चान्येन कालरूपोऽपरेण च ॥ २६
सर्वभूतेषु चान्येन संस्थितः कुरुते स्थितिम् । 
सत्त्वं गुणं समाश्रित्य जगतः पुरुषोत्तमः ॥ २७
आश्रित्य तमसो वृत्तिमन्तकाले तथा पुनः । 
रुद्रस्वरूपो भगवानेकांशेन भवत्यजः ॥ २८
अग्न्यन्तकादिरूपेण भागेनान्येन वर्त्तते। 
कालस्वरूपो भागो यस्सर्वभूतानि चापरः ॥ २९
विनाशं कुर्वतस्तस्य चतुर्दैवं महात्मनः । 
विभागकल्पना ब्रह्मन् कथ्यते सार्वकालिकी ।॥ ३०
ब्रह्मा दक्षादयः कालस्तथैवाखिलजन्तवः ।
विभूतयो हरेरेता जगतः सृष्टिहेतवः ॥ ३१

वे जनार्दन चार विभागसे सृष्टिके और चार विभागसे ही स्थितिके समय रहते हैं तथा चार रूप धारण करके ही अन्त में प्रलय करते हैं एक अंश से वे अव्यक्त स्वरूप ब्रह्मा होते हैं, दूसरे अंशसे मरीचि आदि प्रजापति होते हैं, उनका तीसरा अंश काल है और चौथा सम्पूर्ण प्राणी। इस प्रकार वे रजोगुणविशिष्ट होकर चार प्रकारसे सृष्टिके समय स्थित होते हैं  फिर वे पुरुषोत्तम सत्त्वगुणका आश्रय लेकर जगत्की स्थिति करते हैं। उस समय वे एक अंशसे विष्णु होकर पालन करते हैं, दूसरे अंशसे मनु आदि होते हैं तथा तीसरे अंशसे काल और चौथेसे सर्वभूतोंमें स्थित होते हैं तथा अन्तकालमें वे अजन्मा भगवान् तमोगुणकी वृत्तिका आश्रय ले एक अंशसे रुद्ररूप, दूसरे भागसे अग्नि और अन्तकादि रूप, तीसरे से कालरूप और चौथेसे सम्पूर्ण भूत स्वरूप हो जाते हैं  हे ब्रह्मन् ! विनाश करनेके लिये उन महात्माकी यह चार प्रकारकी सार्वकालिक विभागकल्पना कही जाती है ब्रह्मा, दक्ष आदि प्रजापति गण, काल तथा समस्त प्राणी- ये श्रीहरिकी विभूतियों जगत्‌की सृष्टिकी कारण हैं।॥ २३ - ३१॥

विष्णुर्मन्वादयः कालः सर्वभूतानि च द्विज ।
स्थितेर्निमित्तभूतस्य विष्णोरेता विभूतयः ॥ ३२
रुद्रः कालान्तकाद्याश्च समस्ताश्चैव जन्तवः । 
चतुर्धा प्रलयायैता जनार्दनविभूतयः ॥ ३३
जगदादौ तथा मध्ये सृष्टिराप्रलयाद् द्विज।
धात्रा मरीचिमिनैश्च क्रियते जन्तुभिस्तथा ॥ ३४
ब्रह्मा सृजत्यादिकाले मरीचिप्रमुखास्ततः ।
उत्पादयन्त्यपत्यानि जन्तवश्च प्रतिक्षणम् ॥ ३५ 
कालेन न विना ब्रह्मा सृष्टिनिष्पादको द्विज।
न प्रजापतयः सर्वे न चैवाखिलजन्तवः ॥ ३६ 
एवमेव विभागोऽयं स्थितावप्युपदिश्यते । 
चतुर्धा तस्य देवस्य मैत्रेय प्रलये तथा ॥ ३७ 
यत्किञ्चित्सृज्यते येन सत्त्वजातेन वै द्विज। 
तस्य सृज्यस्य सम्भूतौ तत्सर्वं वै हरेस्तनुः ॥ ३८
हन्ति यावच्च यत्किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
जनार्दनस्य तद्रौद्रं मैत्रेयान्तकरं वपुः ॥ ३९
एवमेष जगत्त्रष्टा जगत्पाता तथा जगत् ।
जगद्भक्षयिता देवः समस्तस्य जनार्दनः ॥ ४०
सृष्टिस्थित्यन्तकालेषु त्रिधैवं सम्प्रवर्तते।
गुणप्रवृत्त्या परमं पदं तस्यागुणं महत् ॥ ४१
तच्च ज्ञानमयं व्यापि स्वसंवेद्यमनौपमम् । 
चतुष्प्रकारं तदपि स्वरूपं परमात्मनः ॥ ४२

हे द्विज ! विष्णु, मनु आदि, काल और समस्त भूतगण - ये जगत्‌की स्थितिके कारणरूप भगवान् विष्णुकी विभूतियाँ हैं तथा रुद्र, काल, अन्तकादि और सकल जीव- श्रीजनार्दनकी ये चार विभूतियाँ प्रलयकी कारणरूप हैं  हे द्विज ! जगत्के आदि और मध्यमें तथा प्रलय- पर्यन्त भी ब्रह्मा, मरीचि आदि तथा भिन्न-भिन्न जीवोंसे ही सृष्टि हुआ करती है सृष्टिके आरम्भमें पहले ब्रह्माजी रचना करते हैं, फिर मरीचि आदि प्रजापतिगण और तदनन्तर समस्त जीव क्षण-क्षणमें सन्तान उत्पन्न करते रहते हैं हे द्विज! कालके बिना ब्रह्मा, प्रजापति एवं अन्य समस्त प्राणी भी सृष्टि-रचना नहीं कर सकते [ अतः भगवान् कालरूप विष्णु ही सर्वदा सृष्टिके कारण हैंहे मैत्रेय! इसी प्रकार जगत्की स्थिति और प्रलयमें भी उन देवदेवके चार- चार विभाग बताये जाते हैं हे द्विज ! जिस किसी जीवद्वारा जो कुछ भी रचना की जाती है उस उत्पन्न हुए जीवकी उत्पत्तिमें सर्वथा श्रीहरिका शरीर ही कारण है हे मैत्रेय! इसी प्रकार जो कोई स्थावर-जंगम भूतोंमेंसे किसीको नष्ट करता है, वह नाश करनेवाला भी श्रीजनार्दनका अन्तकारक रौद्ररूप ही है इस प्रकार वे जनार्दनदेव ही समस्त संसारके रचयिता, पालनकर्ता और संहारक हैं तथा वे ही स्वयं जगत्-रूप भी हैं जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और अन्तके समय वे इसी प्रकार तीनों गुणोंकी प्रेरणासे प्रवृत्त होते हैं, तथापि उनका परमपद महान् निर्गुण है परमात्माका वह स्वरूप ज्ञानमय, व्यापक, स्वसंवेद्य (स्वयं-प्रकाश) और अनुपम है तथा वह भी चार प्रकारका ही है॥ ३२ - ४२ ॥
  • श्रीमैत्रेय उवाच
चतुष्प्रकारतां तस्य ब्रह्मभूतस्य हे मुने। 
ममाचक्ष्व यथान्यायं यदुक्तं परमं पदम् ॥ ४३ 

  • श्रीपराशर उवाच
मैत्रेय कारणं प्रोक्तं साधनं सर्ववस्तुषु। 
साध्यं च वस्त्वभिमतं यत्साधयितुमात्मनः ॥ ४४ 
योगिनो मुक्तिकामस्य प्राणायामादिसाधनम्। 
साध्यं च परमं ब्रह्म पुनर्नावर्त्तते यतः ॥ ४५


श्रीमैत्रेयजी बोले- हे मुने! आपने जो भगवान्‌का परम पद कहा, वह चार प्रकारका कैसे है? यह आप मुझ से विधि पूर्वक कहिये श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! सब वस्तुओंका जो कारण होता है वही उनका साधन भी होता है और जिस अपनी अभिमत वस्तुकी सिद्धि की जाती है वही साध्य कहलाती है मुक्तिकी इच्छावाले योगिजनोंके लिये प्राणायाम आदि साधन हैं और परब्रह्म ही साध्य है, जहाँसे फिर लौटना नहीं पड़ता ॥४३ - ४५॥ 

साधनालम्बनं ज्ञानं मुक्तये योगिनां हि यत् । 
स भेदः प्रथमस्तस्य ब्रह्मभूतस्य वै मुने ॥ ४६ 
युञ्जतः क्लेशमुक्त्यर्थं साध्यं यद्ब्रह्म योगिनः । 
तदालम्बनविज्ञानं द्वितीयोंऽशो महामुने ।॥ ४७
उभयोस्त्वविभागेन साध्यसाधनयोर्हि यत् ।
विज्ञानमद्वैतमयं तद्भागोऽन्यो मयोदितः ॥ ४८
ज्ञानत्रयस्य वै तस्य विशेषो यो महामुने।
तन्निराकरणद्वारा दर्शितात्मस्वरूपवत् ॥ ४९
निर्व्यापारमनाख्येयं व्याप्तिमात्रमनूपमम् ।
आत्मसम्बोधविषयं सत्तामात्रमलक्षणम् ॥ ५०
प्रशान्तमभयं शुद्धं दुर्विभाव्यमसंश्रयम् ।
विष्णोर्ज्ञानमयस्योक्तं तज्ज्ञानं ब्रह्मसंज्ञितम् ॥ ५१
तत्र ज्ञाननिरोधेन योगिनो यान्ति ये लयम् ।
संसारकर्षणोप्तौ ते यान्ति निर्बीजतां द्विज ॥ ५२

हे मुने ! जो योगीकी मुक्तिका कारण है, वह 'साधनालम्बन-ज्ञान' ही उस ब्रह्मभूत परमपदका प्रथम भेद है क्लेश-बन्धनसे मुक्त होनेके लिये योगाभ्यासी योगीका साध्यरूप जो ब्रह्म है, हे महामुने! उसका ज्ञान ही 'आलम्बन-विज्ञान' नामक दूसरा भेद है  इन दोनों साध्य-साधनोंका अभेदपूर्वक जो' अद्वैतमय ज्ञान' है उसीको मैं तीसरा भेद कहता हूँ और हे महामुने ! उक्त तीनों प्रकार के ज्ञानकी विशेषता का निराकरण करनेपर अनुभव हुए आत्मस्वरूपके समान ज्ञानस्वरूप भगवान् विष्णुका जो निर्व्यापार अनिर्वचनीय, व्याप्तिमात्र, अनुपम, आत्मबोधस्वरूप, सत्तामात्र,अलक्षण, शान्त, अभय, शुद्ध, भावनातीत और आश्रयहीन रूप है, वह 'ब्रह्म' नामक ज्ञान [ उसका चौथा भेद ] है  हे द्विज ! जो योगिजन अन्य ज्ञानोंका निरोधकर इस (चौथे भेद) में ही लीन हो जाते हैं वे इस संसार-क्षेत्रके भीतर बीजारोपणरूप कर्म करनेमें निर्बीज (वासनारहित) होते हैं। [अर्थात् वे लोकसंग्रहके लिये कर्म करते भी रहते हैं तो भी उन्हें उन कर्मोंका कोई पाप-पुण्यरूप फल प्राप्त नहीं होता ॥ ४६  - ५२ ॥

एवंप्रकारममलं नित्यं व्यापकमक्षयम् ।
समस्तहेयरहितं विष्ण्वाख्यं परमं पदम् ॥ ५३
तद्ब्रह्म परमं योगी यतो नावर्त्तते पुनः ।
श्रयत्यपुण्योपरमे क्षीणक्लेशोऽतिनिर्मलः ॥ ५४
द्वे रूपे ब्रह्मणस्तस्य मूर्त्त चामूर्तमेव च।
क्षराक्षरस्वरूपे ते सर्वभूतेष्ववस्थिते ॥ ५५
अक्षरं तत्परं ब्रह्म क्षरं सर्वमिदं जगत्।
एकदेशस्थितस्याग्नेज्र्योत्स्ना विस्तारिणी यथा।
परस्य ब्रह्मणः शक्तिस्तथेदमखिलं जगत् ॥ ५६
तत्राप्यासन्नदूरत्वाद्बहुत्वस्वल्पतामयः । 
ज्योत्स्नाभेदोऽस्ति तच्छक्तेस्तद्वन्मैत्रेय विद्यते ।। ५७
ब्रह्मविष्णुशिवा ब्रह्मन्प्रधाना ब्रह्मशक्तयः ।
ततश्च देवा मैत्रेय न्यूना दक्षादयस्ततः ॥ ५८
ततो मनुष्याः पशवो मृगपक्षिसरीसृपाः ।
न्यूनान्न्यूनतराश्चैव वृक्षगुल्मादयस्तथा ।। ५९
तदेतदक्षरं नित्यं जगन्मुनिवराखिलम्। 
आविर्भावतिरोभावजन्मनाशविकल्पवत् ॥ ६०


इस प्रकारका वह निर्मल, नित्य, व्यापक, अक्षय और समस्त हेय गुणोंसे रहित विष्णु नामक परमपद है पुण्य-पापका क्षय और क्लेशोंकी निवृत्ति होनेपर जो अत्यन्त निर्मल हो जाता है वही योगी उस परब्रह्मका आश्रय लेता है जहाँसे वह फिर नहीं लौटता  उस ब्रह्मके मूर्त और अमूर्त दो रूप हैं, जो क्षर और अक्षररूपसे समस्त प्राणियोंमें स्थित हैं अक्षर ही वह परब्रह्म है और क्षर सम्पूर्ण जगत् है। जिस प्रकार एकदेशीय अग्निका प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् परब्रह्मकी ही शक्ति है हे मैत्रेय ! अग्निकी निकटता और दूरताके भेदसे जिस प्रकार उसके प्रकाश में भी अधिकता और न्यूनताका भेद रहता है उसी प्रकार ब्रह्मकी शक्तिमें भी तारतम्य है हे ब्रह्मन् ! ब्रह्मा, विष्णु और शिव ब्रह्मकी प्रधान शक्तियाँ हैं, उनसे न्यून देवगण हैं तथा उनके अनन्तर दक्ष आदि प्रजापतिगण हैं उनसे भी न्यून मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग और सरीसृपादि हैं तथा उनसे भी अत्यन्त न्यून वृक्ष, गुल्म और लता आदि हैं अतः हे मुनिवर ! आविर्भाव (उत्पन्न होना), तिरोभाव (छिप जाना), जन्म और नाश आदि विकल्पयुक्त भी यह सम्पूर्ण जगत् वास्तवमें नित्य और अक्षय ही है॥ ५३ - ६० ॥

सर्वशक्तिमयो विष्णुः स्वरूपं ब्रह्मणः परम् ।
मूर्त्त यद्योगिभिः पूर्वं योगारम्भेषु चिन्त्यते ।। ६१
सालम्बनो महायोगः सबीजो यत्र संस्थितः । 
मनस्यव्याहते सम्यग्युञ्जतां जायते मुने ॥ ६२
स परः परशक्तीनां ब्रह्मणः समनन्तरम् । 
मूर्त्त ब्रह्म महाभाग सर्वब्रह्ममयो हरिः ॥ ६३
तत्र सर्वमिदं प्रोतमोतं चैवाखिलं जगत्। 
ततो जगज्ञ्जगत्तस्मिन्स जगच्चाखिलं मुने ॥ ६४
क्षराक्षरमयो विष्णुर्बिभत्र्त्यखिलमीश्वरः । 
पुरुषाव्याकृतमयं भूषणास्त्रस्वरूपवत् ॥ ६५

सर्वशक्तिमय विष्णु ही ब्रह्मके पर-स्वरूप तथा मूर्तरूप हैं जिनका योगिजन योगारम्भके पूर्व चिन्तन करते हैं हे मुने ! जिनमें मनको सम्यक् प्रकारसे निरन्तर एकाग्र करनेवालोंको आलम्बनयुक्त सबीज (सम्प्रज्ञात) महायोगकी प्राप्ति होती है, हे महाभाग ! हे सर्वब्रह्ममय श्रीविष्णुभगवान् समस्त परा शक्तियोंमें प्रधान और ब्रह्मके अत्यन्त निकटवर्ती मूर्त-ब्रह्मस्वरूप हैं हे मुने ! उन्हींमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है, उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, उन्हींमें स्थित है और स्वयं वे ही समस्त जगत् हैं क्षराक्षरमय (कार्य- कारण-रूप) ईश्वर विष्णु ही इस पुरुष-प्रकृतिमय सम्पूर्ण जगत्को अपने आभूषण और आयुधरूपसे धारण करते हैं॥ ६१ - ६५ ॥
  • श्रीमैत्रेय उवाच
भूषणास्त्रस्वरूपस्थं यच्चैतदखिलं जगत् ।
बिभर्त्ति भगवान्विष्णुस्तन्ममाख्यातुमर्हसि ।। ६६
  • श्रीपराशर उवाच
नमस्कृत्याप्रमेयाय विष्णवे प्रभविष्णवे ।
कथयामि यथाख्यातं वसिष्ठेन ममाभवत् ॥ ६७
आत्मानमस्य जगतो निर्लेपमगुणामलम् । 
बिभर्त्ति कौस्तुभमणिस्वरूपं भगवान्हरिः ॥ ६८
श्रीवत्ससंस्थानधरमनन्तेन समाश्रितम् । 
प्रधानं बुद्धिरप्यास्ते गदारूपेण माधवे ॥ ६९
भूतादिमिन्द्रियादिं च द्विधाहङ्कारमीश्वरः । 
बिभर्त्ति शङ्खरूपेण शार्ङ्गरूपेण च स्थितम् ॥ ७०
चलत्स्वरूपमत्यन्तं जवेनान्तरितानिलम् । 
चक्रस्वरूपं च मनो धत्ते विष्णुकरे स्थितम् ॥ ७१
पञ्चरूपा तु या माला वैजयन्ती गदाभृतः । 
सा भूतहेतुसङ्घाता भूतमाला च वै द्विज ॥ ७२
यानीन्द्रियाण्यशेषाणि बुद्धिकर्मात्मकानि वै। 
शररूपाण्यशेषाणि तानि धत्ते जनार्दनः ॥ ७३
बिभर्त्ति यच्चासिरत्नमच्युतोऽत्यन्तनिर्मलम् । 
विद्यामयं तु तज्ज्ञानमविद्याकोशसंस्थितम् ।। ७४
इत्थं पुमान्प्रधानं च बुद्धयहङ्कारमेव च। 
भूतानि च हृषीकेशे मनः सर्वेन्द्रियाणि च। 
विद्याविद्ये च मैत्रेय सर्वमेतत्समाश्रितम् ॥ ७५


श्रीमैत्रेयजी बोले- भगवान् विष्णु इस संसारको भूषण और आयुधरूपसे किस प्रकार धारण करते हैं यह आप मुझसे कहिये  श्रीपराशरजी बोले- हे मुने ! जगत्का पालन करनेवाले अप्रमेय श्रीविष्णुभगवान्‌ को नमस्कार कर अब मैं, जिस प्रकार वसिष्ठजीने मुझसे कहा था वह तुम्हें सुनाता हूँ इस जगत्के निर्लेप तथा निर्गुण और निर्मल आत्माको अर्थात् शुद्ध क्षेत्रज्ञ-स्वरूपको श्रीहरि कौस्तुभमणिरूपसे धारण करते हैं श्रीअनन्तने प्रधानको श्रीवत्सरूपसे आश्रय दिया है और बुद्धि श्रीमाधवकी गदारूपसे स्थित है भूतोंके कारण तामस अहंकार और इन्द्रियोंके कारण राजस अहंकार इन दोनोंको वे शंख और शार्ङ्ग धनुषरूपसे धारण करते हैं  अपने वेगसे पवनको भी पराजित करनेवाला अत्यन्त चंचल, सात्त्विक अहंकाररूप मन श्रीविष्णुभगवान्‌के कर-कमलोंमें स्थित चक्रका रूप धारण करता है हे द्विज ! भगवान् गदाधरकी जो [ मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील और हीरकमयी पंचरूपा वैजयन्ती माला है वह पंचतन्मात्राओं और पंचभूतोंका ही संघात है जो ज्ञान और कर्ममयी इन्द्रियाँ हैं उन सबको श्रीजनार्दन भगवान् बाणरूपसे धारण करते हैं भगवान् अच्युत जो अत्यन्त निर्मल खड्ग धारण करते हैं वह अविद्यामय कोशसे आच्छादित विद्यामय ज्ञान ही है  हे मैत्रेय! इस प्रकार पुरुष, प्रधान, बुद्धि, अहंकार, पंचभूत, मन, इन्द्रियाँ तथा विद्या और अविद्या सभी श्रीहृषीकेशमें आश्रित हैं॥६६ - ७५ ॥

अस्त्रभूषणसंस्थानस्वरूपं रूपवर्जितः । 
बिभर्त्ति मायारूपोऽसौ श्रेयसे प्राणिनां हरिः ॥ ७६ 
सविकारं प्रधानं च पुमांसमखिलं जगत् ।
बिभर्त्ति पुण्डरीकाक्षस्तदेवं परमेश्वरः ॥ ७७
याविद्या या तथाविद्या यत्सद्यच्चासदव्ययम् । 
तत्सर्वं सर्वभूतेशे मैत्रेय मधुसूदने ॥ ७८
कलाकाष्ठानिमेषादिदिनर्वयनहायनैः । 
कालस्वरूपो भगवानपापो हरिरव्ययः ॥ ७९
भूर्लोकोऽथ भुवर्लोकः स्वर्लोको मुनिसत्तम ।
महर्जनस्तपः सत्यं सप्त लोका इमे विभुः ॥ ८०
लोकात्ममूर्त्तितः सर्वेषां पूर्वेषामपि पूर्वजः । 
आधारः सर्वविद्यानां स्वयमेव हरिः स्थितः ॥ ८१
देवमानुषपश्वादिस्वरूपैर्बहुभिः स्थितः ।
ततः सर्वेश्वरोऽनन्तो भूतमूर्तिरमूर्त्तिमान् ॥ ८२
ऋचो यजूंषि सामानि तथैवाथर्वणानि वै।
इतिहासोपवेदाश्च वेदान्तेषु तथोक्तयः ॥ ८३
वेदाङ्गानि समस्तानि मन्वादिगदितानि च।
शास्त्राण्यशेषाण्याख्यानान्यनुवाकाश्च ये क्वचित् ।। ८४
काव्यालापाश्च ये केचिद्गीतकान्यखिलानि च ।
शब्दमूर्तिधरस्यैतद्वपुर्विष्णोर्महात्मनः ॥ ८५
यानि मूर्त्तन्यमूर्त्तानि यान्यत्रान्यत्र वा क्वचित् ।
सन्ति वै वस्तुजातानि तानि सर्वाणि तद्वपुः ॥ ८६ 
अहं हरिः सर्वमिदं जनार्दनो नान्यत्ततः कारणकार्यजातम् । 
ईदृङ्मनो यस्य न तस्य भूयो भवोद्भवा द्वन्द्वगदा भवन्ति ॥ ८७
इत्येष तेंऽशः प्रथमः पुराणस्यास्य वै द्विज । 
यथावत्कथितो यस्मिञ्छ्रुते पापैः प्रमुच्यते ॥ ८८
कार्त्तिक्यां पुष्करस्नाने द्वादशाब्देन यत्फलम् ।
तदस्य श्रवणात्सर्वं मैत्रेयाप्नोति मानवः ।। ८९
देवर्षिपितृगन्धर्वयक्षादीनां च सम्भवम्।
भवन्ति शृण्वतः पुंसो देवाद्या वरदा मुने ॥ ९०


श्रीहरि रूपरहित होकर भी मायामयरूपसे प्राणियोंके कल्याणके लिये इन सबको अस्त्र और भूषणरूपसे धारण करते हैं इस प्रकार वे कमलनयन परमेश्वर सविकार प्रधान [ निर्विकार], पुरुष तथा सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करते हैं जो कुछ भी विद्या-अविद्या, सत्-असत् तथा अव्ययरूप है, हे मैत्रेय ! वह सब सर्वभूतेश्वर श्रीमधुसूदन में ही स्थित है कला, काष्ठा, निमेष, दिन, ऋतु,अयन और वर्षरूपसे वे कालस्वरूप निष्पाप अव्यय श्रीहरि ही विराजमान हैं हे मुनिश्रेष्ठ ! भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वोंक तथा मह, जन, तप और सत्य आदि सातों लोक भी सर्वव्यापक भगवान् ही हैं  सभी पूर्वजोंके पूर्वज तथा समस्त विद्याओंके आधार श्रीहरि ही स्वयं लोकमयस्वरूपसे स्थित हैं  निराकार और सर्वेश्वर श्रीअनन्त ही भूतस्वरूप होकर देव, मनुष्य और पशु आदि नानारूपोंसे स्थित हैं ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद, इतिहास (महाभारतादि), उपवेद (आयुर्वेदादि), वेदान्तवाक्य, समस्त वेदांग, मनु आदि कथित समस्त धर्मशास्त्र, पुराणादि सकल शास्त्र, आख्यान, अनुवाक (कल्पसूत्र) तथा समस्त काव्य-चर्चा और राग-रागिनी आदि जो कुछ भी हैं वे सब शब्दमूर्तिधारी परमात्मा विष्णुका ही शरीर हैं इस लोकमें अथवा कहीं और भी जितने मूर्त, अमूर्त पदार्थ हैं, वे सब उन्हींका शरीर हैं 'मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत् जनार्दन श्रीहरि ही हैं; उनसे भिन्न और कुछ भी कार्य कारणादि नहीं है'- जिसके चित्तमें ऐसी भावना है उसे फिर देहजन्य राग-द्वेषादि द्वन्द्वरूप रोगकी प्राप्ति नहीं होती हे द्विज ! इस प्रकार तुमसे इस पुराणके पहले अंशका यथावत् वर्णन किया। इसका श्रवण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता हैहे मैत्रेय ! बारह वर्षतक कार्तिक मासमें पुष्करक्षेत्रमें स्नान करनेसे जो फल होता है; वह सब मनुष्यको इसके श्रवणमात्रसे मिल जाता है हे मुने ! देव, ऋषि, गन्धर्व, पितृ और यक्ष आदिकी उत्पत्तिका श्रवण करनेवाले पुरुषको वे देवादि वरदायक हो जाते हैं॥७६ - ९०॥ 

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे प्रथमोंऽशः समाप्तः ॥

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