विष्णु पुराण अध्याय इक्कीसवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 21 in Sanskrit and Hindi
इक्कीसवाँ अध्याय कश्यपजी की अन्य स्त्रियों के वंश एवं मरुद्गण की उत्पत्ति का वर्णन !
विरोचनस्तु प्राह्लादिर्बलिर्जज्ञे विरोचनात् ॥ १
बलेः पुत्रशतं त्वासीद्वाणज्येष्ठं महामुने।
हिरण्याक्षसुताश्चासन्सर्व एव महाबलाः ॥
उत्कुरः शकुनिश्चैव भूतसन्तापनस्तथा।
महानाभो महाबाहुः कालनाभस्तथापरः ॥ ३
अभवन्दनुपुत्राश्च द्विमूर्द्धा शम्बरस्तथा।
अयोमुखः शङ्कुशिराः कपिलः शङ्करस्तथा ॥ ४
एकचक्रो महाबाहुस्तारकश्च महाबलः ।
स्वर्भानुर्वृषपर्वा च पुलोमश्च महाबलः ॥ ५
एते दनोः सुताः ख्याता विप्रचित्तिश्च वीर्यवान् ॥ ६
स्वर्भानोस्तु प्रभा कन्या शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।
उपदानी हयशिराः प्रख्याता वरकन्यकाः ॥ ७
वैश्वानरसुते चोभे पुलोमा कालका तथा।
उभे सुते महाभागे मारीचेस्तु परिग्रहः ॥ ८
- श्रीपराशर उवाच
विरोचनस्तु प्राह्लादिर्बलिर्जज्ञे विरोचनात् ॥ १
बलेः पुत्रशतं त्वासीद्वाणज्येष्ठं महामुने।
हिरण्याक्षसुताश्चासन्सर्व एव महाबलाः ॥
उत्कुरः शकुनिश्चैव भूतसन्तापनस्तथा।
महानाभो महाबाहुः कालनाभस्तथापरः ॥ ३
अभवन्दनुपुत्राश्च द्विमूर्द्धा शम्बरस्तथा।
अयोमुखः शङ्कुशिराः कपिलः शङ्करस्तथा ॥ ४
एकचक्रो महाबाहुस्तारकश्च महाबलः ।
स्वर्भानुर्वृषपर्वा च पुलोमश्च महाबलः ॥ ५
एते दनोः सुताः ख्याता विप्रचित्तिश्च वीर्यवान् ॥ ६
स्वर्भानोस्तु प्रभा कन्या शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।
उपदानी हयशिराः प्रख्याता वरकन्यकाः ॥ ७
वैश्वानरसुते चोभे पुलोमा कालका तथा।
उभे सुते महाभागे मारीचेस्तु परिग्रहः ॥ ८
विष्णु पुराण अध्याय इक्कीसवाँ - Vishnu Purana Chapter 21 |
ताभ्यां पुत्रसहस्त्राणि षष्टिर्दानवसत्तमाः ।
पौलोमाः कालकेयाश्च मारीचतनयाः स्मृताः ॥ ९
ततोऽपरे महावीर्या दारुणास्त्वतिनिघृणाः ।
सिंहिकायामथोत्पन्ना विप्रचित्तेः सुतास्तथा ।। १०
व्यंशः शल्यश्च बलवान् नभश्चैव महाबलः !
वातापी नमुचिश्चैव इल्वलः खसृमस्तथा ॥ ११
अन्धको नरकश्चैव कालनाभस्तथैव च।
स्वर्भानुश्च महावीर्यो वक्त्रयोधी महासुरः ॥ १२
एते वै दानवाः श्रेष्ठा दनुवंशविवर्द्धनाः ।
एतेषां पुत्रपौत्राश्च शतशोऽथ सहस्त्रशः ॥ १३
प्रह्लादस्य तु दैत्यस्य निवातकवचाः कुले।
समुत्पन्नाः सुमहता तपसा भावितात्मनः ॥ १४
षट् सुताः सुमहासत्त्वास्ताम्रायाः परिकीर्त्तिताः ।
शुकी श्येनी च भासी च सुग्रीवीशुचिगृद्धिकाः ॥ १५
श्रीपराशरजी बोले- संह्लादके पुत्र आयुष्मान् शिबि और बाष्कल थे तथा प्रह्लादके पुत्र विरोचन थे और विरोचनसे बलिका जन्म हुआ हे महामुने ! बलिके सौ पुत्र थे जिनमें बाणासुर सबसे बड़ा था। हिरण्याक्षके पुत्र उत्कुर, शकुनि, भूतसन्तापन, महानाभ, महाबाहु तथा कालनाभ आदि सभी महाबलवान् थे (कश्यपजीकी एक दूसरी स्त्री) दनुके पुत्र द्विमूर्धा, शम्बर, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और परमपराक्रमी विप्रचित्ति थे। ये सब दनुके पुत्र विख्यात हैं स्वर्भानुकी कन्या प्रभा थी तथा शर्मिष्ठा, उपदानी और हयशिरा ये वृषपर्वाकी परम सुन्दरी कन्याएँ विख्यात हैं वैश्वानरकी पुलोमा और कालका दो पुत्रियाँ थीं। हे महाभाग ! वे दोनों कन्याएँ मरीचिनन्दन कश्यपजीकी भार्या हुईं उनके पुत्र साठ हजार दानव-श्रेष्ठ हुए। मरीचिनन्दन कश्यपजीके वे सभी पुत्र पौलोम और कालकेय कहलाये इनके सिवा विप्रचित्तिके सिंहिकाके गर्भसे और भी बहुत-से महाबलवान्, भयंकर और अतिक्रूर पुत्र उत्पन्न हुए वे व्यंश, शल्य, बलवान् नभ, महाबली वातापी, नमुचि, इल्वल, खसूम, अन्धक, नरक, कालनाभ, महावीर, स्वर्भानु और महादैत्य वक्त्र योधी थे ये सब दानवश्रेष्ठ दनुके वंशको बढ़ानेवाले थे। इनके और भी सैकड़ों-हजारों पुत्र-पौत्रादि हुए महान् तपस्याद्वारा आत्मज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रह्लादजीके कुलमें निवातकवच नामक दैत्य उत्पन्न हुए कश्यपजीकी स्त्री ताम्राकी शुकी, श्येनी, भासी, सुग्रीवी, शुचि और गृद्धिका- ये छः अति प्रभावशालिनी कन्याएँ कही जाती हैं॥ १ - १५॥
शुकी शुकानजनयदुलूकप्रत्युलूकिकान् ।
श्येनी श्येनांस्तथा भासी भासान्गृद्धांश्च गृद्ध्यपि ॥ १६
शुच्यौदकान्यक्षिगणान्सुग्रीवी तु व्यजायत ।
अश्वानुष्ट्रान्गर्दभांश्च ताम्रावंशः प्रकीर्त्तितः ॥ १७
विनतायास्तु द्वौ पुत्रौ विख्यातौ गरुडारुणौ।
सुपर्णः पततां श्रेष्ठो दारुणः पन्नगाशनः ॥ १८
सुरसायां सहस्त्रं तु सर्पाणाममितौजसाम्।
अनेकशिरसां ब्रह्मन् खेचराणां महात्मनाम् ॥ १९
काद्रवेयास्तु बलिनः सहस्त्रममितौजसः ।
सुपर्णवशगा ब्रह्मन् जज्ञिरे नैकमस्तकाः ॥ २०
तेषां प्रधानभूतास्तु शेषवासुकितक्षकाः ।
शङ्खश्वेतो महापद्मः कम्बलाश्वतरौ तथा ।। २१
एलापुत्रस्तथा नागः कर्कोटकधनञ्जयौ।
एते चान्ये च बहवो दन्दशूका विषोल्बणाः ॥ २२
गणं क्रोधवशं विद्धि तस्याः सर्वे च दंष्ट्रिणः ।
स्थलजाः पक्षिणोऽब्जाश्च दारुणाः पिशिताशनाः ॥ २३
क्रोधा तु जनयामास पिशाचांश्च महाबलान् ।
गास्तु वै जनयामास सुरभिर्महिषांस्तथा।
इरावृक्षलतावल्लीस्तृणजातीश्च सर्वशः ॥ २४
खसा तु यक्षरक्षांसि मुनिरप्सरसस्तथा।
अरिष्टा तु महासत्त्वान् गन्धर्वान्समजीजनत् ॥ २५
एते कश्यपदायादाः कीर्त्तिताः स्थाणुजङ्गमाः ।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च शतशोऽथ सहस्त्रशः ॥ २६
एष मन्वन्तरे सर्गों ब्रह्मन्स्वारोचिषे स्मृतः ॥ २७
वैवस्वते च महति वारुणे वितते कृतौ।
जुह्वानस्य ब्रह्मणो वै प्रजासर्ग इहोच्यते ॥ २८
पूर्वं यत्र तु सप्तर्षीनुत्पन्नान्सप्तमानसान् ।
पितृत्वे कल्पयामास स्वयमेव पितामहः ।
गन्धर्वभोगिदेवानां दानवानां च सत्तम ॥ २९
दितिर्विनष्टपुत्रा वै तोषयामास काश्यपम् ।
तया चाराधितः सम्यक् काश्यपस्तपतां वरः ॥ ३०
वरेणच्छन्दयामास सा च वने ततो वरम् ।
पुत्रमिन्द्रवधार्थाय समर्थममितौजसम् ॥ ३१
शुकीसे शुक, उलूक एवं उलूकोंके प्रतिपक्षी काक आदि उत्पन्न हुए तथा श्येनीसे श्येन (बाज), भासीसे भास और गृद्धिकासे गृद्धोंका जन्म हुआ शुचिसे जलके पक्षिगण और सुग्रीवीसे अश्व, उष्ट्र और गर्दभोंकी उत्पत्ति हुई। इस प्रकार यह ताम्राका वंश कहा जाता है विनताके गरुड और अरुण ये दो पुत्र विख्यात हैं। इनमें पक्षियोंमें श्रेष्ठ सुपर्ण (गरुडजी) अति भयंकर और सर्पोंको खानेवाले हैं हे ब्रह्मन् ! सुरसासे सहस्रों सर्प उत्पन्न हुए जो बड़े ही प्रभावशाली, आकाशमें विचरनेवाले, अनेक शिरोंवाले और बड़े विशालकाय थे और कद्रूके पुत्र भी महाबली और अमित तेजस्वी अनेक सिरवाले सहस्रों सर्प ही हुए जो गरुडजीके वशवर्ती थे उनमेंसे शेष, वासुकि, तक्षक, शंखश्वेत, महापद्म, कम्बल, अश्वतर, एलापुत्र, नाग, कर्कोटक, धनंजय तथा और भी अनेक उग्र विषधर एवं काटनेवाले सर्प प्रधान हैं क्रोधवशाके पुत्र क्रोधवशगण हैं। वे सभी बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले, भयंकर और कच्चा मांस खानेवाले जलचर, स्थलचर एवं पक्षिगण हैं महाबली पिशाचोंको भी क्रोधाने ही जन्म दिया है। सुरभिसे गौ और महिष आदिकी उत्पत्ति हुई तथा इरासे वृक्ष, लता, बेल और सब प्रकारके तृण उत्पन्न हुए हैं खसाने यक्ष और राक्षसोंको, मुनिने अप्सराओंको तथा अरिष्टाने अति समर्थ गन्धर्वोको जन्म दिया ये सब स्थावर जंगम कश्यपजीकी सन्तान हुए। इनके और भी सैकड़ों-हजारों पुत्र- पौत्रादि हुए हे ब्रह्मन् ! यह स्वारोचिष-मन्वन्तरकी सृष्टिका वर्णन कहा जाता है वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में महान् वारुण यज्ञ हुआ, उसमें ब्रह्माजी होता थे, अब मैं उनकी प्रजाका वर्णन करता हूँ हे साधुश्रेष्ठ ! पूर्व-मन्वन्तरमें जो सप्तर्षिगण स्वयं ब्रह्माजीके मानस पुत्र रूप से उत्पन्न हुए थे, उन्हींको ब्रह्माजीने इस कल्पमें गन्धर्व, नाग, देव और दानवादिके पितृरूपसे निश्चित किया पुत्रों के नष्ट हो जानेपर दितिने कश्यपजीको प्रसन्न किया। उसकी सम्यक् आराधनासे सन्तुष्ट हो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ कश्यपजीने उसे वर देकर प्रसन्न किया। उस समय उसने इन्द्रके वध करनेमें समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्रका वर माँगा ॥ १६ - ३१॥
स च तस्मै वरं प्रादाद्भार्यायै मुनिसत्तमः ।
दत्त्वा च वरमत्युग्रं कश्यपस्तामुवाच ह।॥ ३२
शक्रं पुत्रो निहन्ता ते यदि गर्भ शरच्छतम् ।
समाहितातिप्रयता शौचिनी धारयिष्यसि ।। ३३
इत्येवमुक्त्वा तां देवीं सङ्गतः कश्यपो मुनिः ।
दधार सा च तं गर्भ सम्यक्छौचसमन्विता ॥ ३४
गर्भमात्मवधार्थाय ज्ञात्वा तं मघवानपि।
शुश्रूषुस्तामथागच्छद्विनयादमराधिपः ॥ ३५
तस्याश्चैवान्तरप्रेप्सुरतिष्ठत्पाकशासनः ।
ऊने वर्षशते चास्या ददर्शान्तरमात्मना ॥ ३६
अकृत्वा पादयोः शौचं दितिः शयनमाविशत् !
निद्रा चाहारयामास तस्याः कुक्षिं प्रविश्य सः ॥ ३७
वज्रपाणिर्महागर्भ चिच्छेदाथ स सप्तधा ।
सम्पीड्यमानो वज्रेण स रुरोदातिदारुणम् ॥ ३८
मा रोदीरिति तं शक्रः पुनः पुनरभाषत ।
सोऽभवत्सप्तधा गर्भस्तमिन्द्रः कुपितः पुनः ॥ ३९
एकैकं सप्तधा चक्रे वज्रेणारिविदारिणा।
मरुतो नाम देवास्ते बभूवुरतिवेगिनः ॥ ४०
यदुक्तं वै भगवता तेनैव मरुतोऽभवन् ।
देवा एकोनपञ्चाशत्सहाया वज्रपाणिनः ॥ ४१
मुनिश्रेष्ठ कश्यपजी ने अपनी भार्या दिति को वह वर दिया और उस अति उग्र वर को देते हुए वे उस से बोले "यदि तुम भगवान्के ध्यानमें तत्पर रहकर अपना गर्भ शौच और संयमपूर्वक सौ वर्षतक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इन्द्रको मारनेवाला होगा" ऐसा कहकर मुनि कश्यपजीने उस देवीसे संगमन किया और उसने बड़े शौचपूर्वक रहते हुए वह गर्भ धारण किया उस गर्भको अपने वधका कारण जान देवराज इन्द्र भी विनयपूर्वक उसकी सेवा करनेके लिये आ गये उसके शौचादिमें कभी कोई अन्तर पड़े- यही देखनेकी इच्छासे इन्द्र वहाँ हर समय उपस्थित रहते थे। अन्तमें सौ वर्षमें कुछ ही कमी रहनेपर उन्होंने एक अन्तर देख ही लिया एक दिन दिति बिना चरण-शुद्धि किये ही अपनी शय्यापर लेट गयी। उस समय निद्राने उसे घेर लिया। तब इन्द्र हाथमें वज्र लेकर उसकी कुक्षिमें घुस गये और उस महागर्भके सात टुकड़े कर डाले। इस प्रकार वज्रसे पीड़ित होने से वह गर्भ जोर-जोरसे रोने लगा इन्द्रने उससे पुनः पुनः कहा कि 'मत रो'। किन्तु जब वह गर्भ सात भागोंमें विभक्त हो गया, [और फिर भी न मरा] तो इन्द्रने अत्यन्त कुपित हो अपने शत्रु-विनाशक वज्र से एक-एकके सात-सात टुकड़े और कर दिये। वे ही अति वेगवान् मरुत् नामक देवता हुए भगवान् इन्द्रने जो उससे कहा था कि 'मा रोदीः' (मत रो) इसीलिये वे मरुत् कहलाये। ये उनचास मरुद्गण इन्द्रके सहायक देवता हुए ॥ ३२ - ४१ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
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