विष्णु पुराण अध्याय बीसवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 20 in Sanskrit and Hindi
बीसवाँ अध्याय प्रह्लादकृत भगवत्-स्तुति और भगवान्का आविर्भाव !
तन्मयत्वमवाप्याग्रयं मेने चात्मानमच्युतम् ॥ १
विसस्मार तथात्मानं नान्यत्किञ्चिदजानत।
अहमेवाव्ययोऽनन्तः परमात्मेत्यचिन्तयत् ॥ २
तस्य तद्भावनायोगात्क्षीणपापस्य वै क्रमात् ।
शुद्धेऽन्तःकरणे विष्णुस्तस्थौ ज्ञानमयोऽच्युतः ॥ ३
योगप्रभावात्प्रह्लादे जाते विष्णुमयेऽसुरे।
चलत्युरगबन्धैस्तैर्मैत्रेय त्रुटितं क्षणात् ॥ ४
भ्रान्तग्राहगणः सोर्मिर्ययौ क्षोभं महार्णवः ।
चचाल च मही सर्वा सशैलवनकानना ॥ ५
सच तं शैलसङ्घातं दैत्यैर्यस्तमथोपरि।
उत्क्षिप्य तस्मात्सलिलान्निश्चक्राम महामतिः ।॥ ६
दृष्ट्वा च स जगद्भ्यो गगनाद्युपलक्षणम् ।
प्रह्लादोऽस्मीति सस्मार पुनरात्मानमात्मनि ॥ ७
तुष्टाव च पुनर्धीमाननादिं पुरुषोत्तमम् ।
एकाग्रमतिरव्यग्रो यतवाक्कायमानसः ॥ ८
- श्रीपराशर उवाच
तन्मयत्वमवाप्याग्रयं मेने चात्मानमच्युतम् ॥ १
विसस्मार तथात्मानं नान्यत्किञ्चिदजानत।
अहमेवाव्ययोऽनन्तः परमात्मेत्यचिन्तयत् ॥ २
तस्य तद्भावनायोगात्क्षीणपापस्य वै क्रमात् ।
शुद्धेऽन्तःकरणे विष्णुस्तस्थौ ज्ञानमयोऽच्युतः ॥ ३
योगप्रभावात्प्रह्लादे जाते विष्णुमयेऽसुरे।
चलत्युरगबन्धैस्तैर्मैत्रेय त्रुटितं क्षणात् ॥ ४
भ्रान्तग्राहगणः सोर्मिर्ययौ क्षोभं महार्णवः ।
चचाल च मही सर्वा सशैलवनकानना ॥ ५
सच तं शैलसङ्घातं दैत्यैर्यस्तमथोपरि।
उत्क्षिप्य तस्मात्सलिलान्निश्चक्राम महामतिः ।॥ ६
दृष्ट्वा च स जगद्भ्यो गगनाद्युपलक्षणम् ।
प्रह्लादोऽस्मीति सस्मार पुनरात्मानमात्मनि ॥ ७
तुष्टाव च पुनर्धीमाननादिं पुरुषोत्तमम् ।
एकाग्रमतिरव्यग्रो यतवाक्कायमानसः ॥ ८
- प्रह्लाद उवाच
व्यक्ताव्यक्त कलातीत सकलेश निरञ्जन ॥ ९
गुणाञ्जन गुणाधार निर्गुणात्मन् गुणस्थित ।
मूर्त्तामूर्तमहामूर्ते सूक्ष्ममूर्ते स्फुटास्फुट ॥ १०
करालसौम्यरूपात्मन्विद्याऽविद्यामयाच्युत ।
सदसद्रूपसद्भाव सदसद्भावभावन ॥ ११
नित्यानित्यप्रपञ्चात्मन्निष्प्रपञ्चामलाश्रित।
एकानेक नमस्तुभ्यं वासुदेवादिकारण ॥ १२
श्रीपराशरजी बोले- हे द्विज! इस प्रकार भगवान् विष्णुको अपनेसे अभिन्न चिन्तन करते-करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जानेसे उन्होंने अपनेको अच्युत रूप ही अनुभव किया वे अपने-आपको भूल गये; उस समय उन्हें श्रीविष्णु भगवान् के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत न होता था। बस, केवल यही भावना चित्तमें थी कि मैं ही अव्यय और अनन्त परमात्मा हूँ उस भावनाके योगसे वे क्षीण-पाप हो गये और उनके शुद्ध अन्तःकरणमें ज्ञानस्वरूप अच्युत श्री विष्णु भगवान् विराजमान हुए हे मैत्रेय ! इस प्रकार योगबलसे असुर प्रह्लादजीके विष्णुमय हो जानेपर उनके विचलित होनेसे वे नागपाश एक क्षणभरमें ही टूट गये भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतरंगोंसे पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया, तथा पर्वत और वनोपवनोंसे पूर्ण समस्त पृथिवी हिलने लगी तथा महामति प्रह्लादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत-समूहको दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये तब आकाशादिरूप जगत्को फिर देखकर उन्हें चित्तमें यह पुनः भान हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ और उन महाबुद्धिमान्ने मन, वाणी और शरीरके संयमपूर्वक धैर्य धारण कर एकाग्रचित्तसे पुनः भगवान् अनादि पुरुषोत्तमकी स्तुति की प्रह्लादजी कहने लगे हे परमार्थ! हे अर्थ (दृश्यरूप) ! हे स्थूलसूक्ष्म (जाग्रत्-स्वप्नदृश्य- स्वरूप) ! हे क्षराक्षर (कार्य-कारणरूप)! हे व्यक्ता व्यक्त (दृश्या दृश्यस्व रूप) ! हे कलातीत! हे सकलेश्वर ! हे निरंजन देव ! आपको नमस्कार है हे गुणोंको अनुरंजित करनेवाले! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन् ! हे गुणस्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामूर्तिमन् ! हे सूक्ष्ममूर्ते ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरूप ! [आपको नमस्कार है] हे विकराल और सुन्दररूप! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत् (कार्यकारण) रूप जगत्के उद्भवस्थान और सदसज्ञ्जगत्के पालक ! [ आपको नमस्कार है] हे नित्यानित्य (आकाशघटादिरूप) प्रपंचात्मन् ! हे प्रपंचसे पृथक् रहनेवाले ! हे ज्ञानियोंके आश्रयरूप ! हे एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव ! [आपको नमस्कार है] ॥ १ - १२ ॥
यः स्थूलसूक्ष्मः प्रकटप्रकाशो यः सर्वभूतो न च सर्वभूतः
विश्वं यतश्चैतदविश्वहेतो- र्नमोऽस्तु तस्मै पुरुषोत्तमाय ॥ १३
- श्रीपराशर उवाच
आविर्बभूव भगवान् पीताम्बरधरो हरिः ॥ १४
ससम्भ्रमस्तमालोक्य समुत्थायाकुलाक्षरम् ।
नमोऽस्तु विष्णवेत्येतद् व्याजहारासकृद् द्विज ॥ १५
- प्रह्लाद उवाच
अवलोकनदानेन भूयो मां पावयाच्युत ॥ १६
- श्रीभगवानुवाच
यथाभिलषितो मत्तः प्रह्लाद ब्रियतां वरः ॥ १७
- प्रह्लाद उवाच
तेषु तेष्वच्युताभक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि ॥ १८
या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु ॥ १९
- श्रीभगवानुवाच
वरस्तु मत्तः प्रह्लाद व्रियतां यस्तवेप्सितः ॥ २०
- प्रह्लाद उवाच
मत्पितुस्तत्कृतं पापं देव तस्य प्रणश्यतु ॥ २१
शस्त्राणि पातितान्यङ्गे क्षिप्तो यच्चाग्निसंहतौ ।
दंशितश्चोरगैर्दत्तं यद्विषं मम भोजने ॥ २२
बद्धा समुद्रे यत्क्षिप्तो यच्चितोऽस्मि शिलोच्चयैः ।
अन्यानि चाप्यसाधूनि यानि पित्रा कृतानि मे ॥ २३
त्वयि भक्तिमतो द्वेषादर्घ तत्सम्भवं च यत्।
त्वत्प्रसादात्प्रभो सद्यस्तेन मुच्येत मे पिता ॥ २४
- श्रीभगवानुवाच
अन्यच्च ते वरं दद्मि व्रियतामसुरात्मज ॥ २५
जो स्थूल-सूक्ष्मरूप और स्फुट प्रकाशमय हैं, जो अधिष्ठानरूपसे सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुतः सम्पूर्ण भूतादिसे परे हैं, विश्वके कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है; उन पुरुषोत्तम भगवान्को नमस्कार है
श्री पराशरजी बोले- उनके इस प्रकार तन्मयता- पूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान् हरि प्रकट हुए हे द्विज ! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये और गद्गद वाणीसे 'विष्णुभगवान्को नमस्कार है! विष्णु भगवान् को नमस्कार है!' ऐसा बारम्बार कहने लगे प्रह्लादजी बोले- हे शरणागत-दुःखहारी श्रीकेशवदेव । प्रसन्न होइये। हे अच्युत ! अपने पुण्य-दर्शनोंसे मुझे फिर भी पवित्र कीजिये श्रीभगवान् बोले- हे प्रह्लाद! मैं तेरी अनन्यभक्ति से अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वरकी इच्छा हो माँग ले प्रह्लादजी बोले- हे नाथ! सहस्त्रों योनियोंमेंसे मैं जिस-जिसमें भी जाऊँ उसी उसीमें, हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे अविवेकी पुरुषोंकी विषयों में जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपक स्मरण करते हुए मेरे हृदयसे कभी दूर न हो श्रीभगवान् बोले- हे प्रह्लाद! मुझमें तो तेर्र भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी; किन् इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वरकी इच्छा है मुझसे माँग ले प्रह्लादजी बोले- हे देव! आपकी स्तुतिमें प्रवृत् होनेसे मेरे पिताके चित्तमें मेरे प्रति जो द्वेष हुआ है, उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय इसके अतिरिक्त [ उनकी आज्ञासे] मेरे शरीरपर जो शस्त्राधार किये गये- मुझे अग्निसमूहमें डाला गया, सर्पोंसे कटवाय गया, भोजनमें विष दिया गया, बाँधकर समुद्रमें डाल गया, शिलाओंसे दबाया गया तथा और भी जो-जो दुर्व्यवहा पिताजीने मेरे साथ किये हैं, वे सब आपमें भक्ति रखनेवाएं पुरुषके प्रति द्वेष होनेसे, उन्हें उनके कारण जो पाप लग है, हे प्रभो! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुत्त हो जायें श्री भगवान् बोले- हे प्रह्लाद! मेरी कृपासे तुम्हारी सब इच्छाएँ पूर्ण होंगी। हे असुरकुमार! मैं तुमको एव और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो ॥१३ - २५
- प्रह्लाद उवाच
भवित्री त्वत्प्रसादेन भक्तिरव्यभिचारिणी ॥ २६
धर्मार्थकामैः किं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता।
समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा त्वयि ॥ २७
- श्रीभगवानुवाच
तथा त्वं मत्प्रसादेन निर्वाणं परमाप्स्यसि ॥ २८
- श्रीपराशर उवाच
स चापि पुनरागम्य ववन्दे चरणौ पितुः ॥ २९
तं पिता मूर्युपाघ्घ्राय परिष्वज्य च पीडितम् ।
जीवसीत्याह वत्सेति बाष्यार्द्रनयनो द्विज ॥ ३०
प्रीतिमांश्चाऽभवत्तस्मिन्ननुतापी महासुरः ।
गुरुपित्रोश्चकारैवं शुश्रूषां सोऽपि धर्मवित् ॥ ३१
पितर्युपरतिं नीते नरसिंहस्वरूपिणा ।
विष्णुना सोऽपि दैत्यानां मैत्रेयाभूत्पतिस्ततः ॥ ३२
ततो राज्यद्युतिं प्राप्य कर्मशुद्धिकरीं द्विज।
पुत्रपौत्रांश्च सुबहूनवाप्यैश्वर्यमेव च ॥ ३३
क्षीणाधिकारः स यदा पुण्यपापविवर्जितः ।
तदा स भगवद्भयानात्परं निर्वाणमाप्तवान् ॥ ३४
एवंप्रभावो दैत्योऽसौ मैत्रेयासीन्महामतिः ।
प्रह्लादो भगवद्भक्तो यं त्वं मामनुपृच्छसि ॥ ३५
यस्त्वेतच्चरितं तस्य प्रह्लादस्य महात्मनः ।
शृणोति तस्य पापानि सद्यो गच्छन्ति सङ्क्षयम् ॥ ३६
अहोरात्रकृतं पापं प्रह्लादचरितं नरः।
शृण्वन् पठंश्च मैत्रेय व्यपोहति न संशयः ॥ ३७
पौर्णमास्याममावास्यामष्टम्यामथ वा पठन् ।
द्वादश्यां वा तदाप्नोति गोप्रदानफलं द्विज ।॥ ३८
प्रह्लादं सकलापत्सु यथा रक्षितवान्हरिः ।
तथा रक्षति यस्तस्य शृणोति चरितं सदा ॥ ३९
प्रह्लादजी बोले- हे भगवन्! मैं तो आपके इस वरसे ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आपमें मेरी निरन्तर अविचल भक्ति रहेगी हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत्के कारणरूप आपमें जिसकी निश्चल भक्ति है, मुक्ति भी उसकी मुट्ठीमें रहती है, फिर धर्म, अर्थ, कामसे तो उसे लेना ही क्या है ? श्रीभगवान् बोले- हे प्रह्लाद! मेरी भक्तिसे युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपासे परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय! ऐसा कह भगवान् उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये; और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिताके चरणोंकी वन्दना की हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकारसे पीड़ित किया था उस पुत्रका सिर सूंघकर, आँखोंमें आँसू भरकर कहा- 'बेटा, जीता तो है !' वह महान् असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रह्लादसे प्रेम करने लगा और इसी प्रकार धर्मज्ञ प्रह्लादजी भी अपने गुरु और माता-पिताकी सेवा-शुश्रूषा करने लगे हे मैत्रेय ! तदनन्तर नृसिंह रूप धारी भगवान् विष्णुद्वारा पिताके मारे जानेपर वे दैत्योंके राजा हुए हे द्विज ! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी, बहुत-से पुत्र-पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकारके क्षीण होनेपर पुण्य- पापसे रहित हो भगवान्का ध्यान करते हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया हे मैत्रेय ! जिनके विषयमें तुमने पूछा था वे परम भगवद्भक्त महामति दैत्यप्रवर प्रह्लादजी ऐसे प्रभावशाली हुए उन महात्मा प्रह्लादजीके इस चरित्रको जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं हे मैत्रेय ! इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य प्रह्लाद- चरित्रके सुनने या पढ़नेसे दिन-रातके (निरन्तर) किये हुए पापसे अवश्य छूट जाता है हे द्विज । पूर्णिमा, अमावास्या, अष्टमी अथवा द्वादशीको इसे पढ़नेसे मनुष्यको गोदानका फल मिलता है जिस प्रकार भगवान्ने प्रह्लादजीकी सम्पूर्ण आपत्तियोंसे रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता है॥२६ - ३९ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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