विष्णु पुराण अध्याय पन्द्रहवाँ - Vishnu Purana Chapter 15

विष्णु पुराण अध्याय पन्द्रहवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 1 in Sanskrit and Hindi

पन्द्रहवाँ अध्याय प्रचेताओंका मारिषा नामक कन्याके साथ विवाह, दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति एवं दक्ष की साठ कन्याओं के वंशका वर्णन !
  • श्रीपराशर उवाच

तपश्चरत्सु पृथिवीं प्रचेतःसु महीरुहाः । 
अरक्ष्यमाणामाववुर्बभूवाथ प्रजाक्षयः ॥ १
नाशकन्मरुतो वातुं वृतं खमभवद्द्रुमैः । 
दशवर्षसहस्त्राणि न शेकुश्चेष्टितुं प्रजाः ॥ २
तान्दृष्ट्वा जलनिष्क्रान्ताः सर्वे क्रुद्धाः प्रचेतसः । 
मुखेभ्यो वायुमग्निं च तेऽसृजन् जातमन्यवः ।। ३
उन्मूलानथ तान्वृक्षान्कृत्वा वायुरशोषयत् । 
तानग्निरदहृद्घोरस्तत्राभूद्रुमसङ्क्षयः ॥४
द्रुमक्षयमथो दृष्ट्वा किञ्चिच्छिष्टेषु शाखिषु । 
उपगम्याब्रवीदेतान् राजा सोमः प्रजापतीन् ॥ ५

  • श्रीपराशरजी बोले
प्रचेताओं के तपस्या में लगे रहने से [कृषि आदिद्वारा किसी प्रकारकी रक्षा न होने के कारण पृथिवी को वृक्षों ने ढँक लिया और प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो गयी आकाश वृक्षोंसे भर गया था। इसलिये दस हजार वर्षतक न तो वायु ही चला और न प्रजा ही किसी प्रकारकी चेष्टा कर सकी जलसे निकलने पर उन वृक्षों को देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अग्निको छोड़ा वायुने वृक्षों को उखाड़-उखाड़कर सुखा दिया और प्रचण्ड अग्निने उन्हें जला डाला। इस प्रकार उस समय वहाँ वृक्षोंका नाश होने लगा तब वह भयंकर वृक्ष-प्रलय देखकर थोड़े-से वृक्षोंके रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रचेताओं के पास जाकर कहा- ॥१ - ५॥

कोपं यच्छत राजानः शृणुध्वं च वचो मम। 
सन्धानं वः करिष्यामि सह क्षितिरुहैरहम् ॥ ६
रत्नभूता च कन्येयं वाक्षेयी वरवर्णिनी।
भविष्यञ्जानता पूर्व मया गोभिर्विवर्द्धिता ॥ ७
मारिषा नाम नाम्नैषा वृक्षाणामिति निर्मिता । 
भार्या वोऽस्तु महाभागा ध्रुवं वंशविवर्द्धिनी ॥ ८
युष्माकं तेजसोऽर्द्धन मम चार्द्धन तेजसः । 
अस्यामुत्पत्स्यते विद्वान्दक्षो नाम प्रजापतिः ॥ ९
मम चांशेन संयुक्तो युष्मत्तेजोमयेन वै। 
तेजसाग्निसमो भूयः प्रजाः संवर्द्धयिष्यति ॥ १०
कण्डुर्नाम मुनिः पूर्वमासीद्वेदविदां वरः । 
सुरम्ये गोमतीतीरे स तेपे परमं तपः ॥ ११
तत्क्षोभाय सुरेन्द्रेण प्रम्लोचाख्या वराप्सराः । 
प्रयुक्ता क्षोभयामास तमृषिं सा शुचिस्मिता ।। १२

"हे नृपतिगण ! आप क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनिये। मैं वृक्षोंके साथ आपलोगोंकी सन्धि करा दूँगा वृक्षोंसे उत्पन्न हुई इस सुन्दर वर्णवाली रत्नस्वरूपा कन्याका मैंने पहलेसे ही भविष्यको जानकर अपनी [अमृतमयी] किरणों से पालन-पोषण किया है वृक्षोंकी यह कन्या मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, यह महाभागा इसलिये ही उत्पन्न की गयी है कि निश्चय ही तुम्हारे वंशको बढ़ानेवाली तुम्हारी भार्या हो मेरे और तुम लोगोंके आधे-आधे तेजसे इसके परम विद्वान् दक्ष नामक प्रजापति उत्पन्न होगा वह तुम लोगोंके तेजके सहित मेरे अंशसे युक्त होकर अपने तेजके कारण अग्निके समान होगा और प्रजाकी खूब वृद्धि करेगा पूर्वकालमें वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ एक कण्डु नामक मुनीश्वर थे। उन्होंने गोमती नदीके परम रमणीक तटपर घोर तप किया तब इन्द्रने उन्हें तपोभ्रष्ट करनेके लिये प्रम्लोचा नामकी उत्तम अप्सराको नियुक्त किया। उस मंजुहासिनीने उन ऋषिश्रेष्ठको विचलित कर दिया ॥ ६ -१२ ॥ 

क्षोभितः स तया सार्द्ध वर्षाणामधिकं शतम् । 
अतिष्ठन्मन्दरद्रोण्यां विषयासक्तमानसः ॥ १३
तं सा प्राह महाभाग गन्तुमिच्छाम्यहं दिवम् ।
प्रसादसुमुखो ब्रह्मन्ननुज्ञां दातुमर्हसि ॥ १४
तयैवमुक्तः स मुनिस्तस्यामासक्तमानसः ।
दिनानि कतिचिद्भद्रे स्थीयतामित्यभाषत ॥ १५ 
एवमुक्ता ततस्तेन साग्रं वर्षशतं पुनः ।
बुभुजे विषयांस्तन्वी तेन साकं महात्मना ॥ १६
अनुज्ञां देहि भगवन् व्रजामि त्रिदशालयम् ।
उक्तस्तथेति स पुनः स्थीयतामित्यभाषत ॥ १७
पुनर्गते वर्षशते साधिके सा शुभानना।
यामीत्याह दिवं ब्रह्मन्प्रणयस्मितशोभनम् ॥ १८
उक्तस्तयैवं स मुनिरुपगुह्यायतेक्षणाम्।
इहास्यतां क्षणं सुध्रु चिरकालं गमिष्यसि ॥ १९
सा क्रीडमाना सुश्रोणी सह तेनर्षिणा पुनः । 
शतद्वयं किञ्चिदूनं वर्षाणामन्वतिष्ठत ॥ २० 
गमनाय महाभाग देवराजनिवेशनम् । 
प्रोक्तः प्रोक्तस्तया तन्व्या स्थीयतामित्यभाषत ॥ २१

उसके द्वारा क्षुब्ध होकर वे सौसे भी अधिक वर्षतक विषयासक्त-चित्तसे मन्दराचलकी कन्दारामें रहे  तब, हे महाभाग! एक दिन उस अप्सराने कण्डु ऋषिसे कहा- "हे ब्रह्मन् ! अब मैं स्वर्गलोकको जाना चाहती हूँ, आप प्रसन्नता पूर्वक मुझे आज्ञा दीजि ये"  उसके ऐसा कहने पर उसमें आसक्तचित्त हुए मुनिने कहा- "भद्रे ! अभी कुछ दिन और रहो" उनके ऐसा कहनेपर उस सुन्दरीने महात्मा कण्डुके साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना प्रकारके भोग भोगे  तब भी, उसके यह पूछनेपर कि 'भगवन्! मुझे स्वर्गलोकको जानेकी आज्ञा दीजिये' ऋषिने यही कहा कि 'अभी और ठहरो' तदनन्तर सौ वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखीने प्रणययुक्त मुसकानसे सुशोभित वचनोंमें फिर कहा- "ब्रह्मन् ! अब मैं स्वर्गको जाती हूँ" यह सुनकर मुनिने उस विशालाक्षीको आलिंगनकर कहा- 'अयि सुध्रु ! अब तो तू बहुत दिनोंके लिये चली जायगी इसलिये क्षणभर तो और ठहर" तब वह सुश्रोणी (सुन्दर कमरवाली) उस ऋषिके साथ क्रीड़ा करती हुई दो सौ वर्षसे कुछ कम और रही  हे महाभाग ! इस प्रकार जब-जब वह सुन्दरी देवलोकको जानेके लिये कहती तभी तभी कण्डु ऋषि उससे यही कहते कि 'अभी ठहर जा' ॥ १३ - २१ ॥

तस्य शापभयाद्भीता दाक्षिण्येन च दक्षिणा। 
प्रोक्ता प्रणयभङ्गार्त्तिवेदिनी न जहौ मुनिम् ॥ २२
तया च रमतस्तस्य परमर्षेरहर्निशम् । 
नवं नवमभूत्प्रेम मन्मथाविष्टचेतसः ॥ २३
एकदा तु त्वरायुक्तो निश्चक्रामोटजान्मुनिः । 
निष्क्रामन्तं च कुत्रेति गम्यते प्राह सा शुभा ॥ २४
इत्युक्तः स तया प्राह परिवृत्तमहः शुभे। 
सन्ध्योपास्तिं करिष्यामि क्रियालोपोऽन्यथा भवेत् ॥ २५
ततः प्रहस्य सुदती तं सा प्राह महामुनिम् ।
किमद्य सर्वधर्मज्ञ परिवृत्तमहस्तव ॥ २६
बहूनां विप्र वर्षाणां परिवृत्तमहस्तव । 
गतमेतन्न कुरुते विस्मयं कस्य कथ्यताम् ॥ २७

मुनिके इस प्रकार कहनेपर, प्रणयभंगकी पीड़ाको जाननेवाली उस दक्षिणाने अपने दाक्षिण्यवश तथा मुनिके शापसे भयभीत होकर उन्हें न छोड़ा तथा उन महर्षि महोदयका भी कामासक्तचित्तसे उसके साथ अहर्निश रमण करते-करते, उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया एक दिन वे मुनिवर बड़ी शीघ्रतासे अपनी कुटीसे निकले। उनके निकलते समय वह सुन्दरी बोली- आप कहाँ जाते हैं " उसके इस प्रकार पूछनेपर मुनिने कहा- "हे शुभे ! दिन अस्त हो चुका है, इसलिये मैं सन्ध्योपासना करूँगा; नहीं तो नित्य-क्रिया नष्ट हो जायगी" तब उस सुन्दर दाँतोंवालीने उन मुनीश्वरसे हँसकर कहा- "हे सर्वधर्मज्ञ ! क्या आज ही आपका दिन अस्त हुआ है? है विप्र ! अनेकों वर्षोंके पश्चात् आज आपका दिन अस्त हुआ है; इससे कहिये, किसको आश्चर्य न होगा?" ॥ २२ - २७ ॥
  • मुनिरुवाच
प्रातस्त्वमागता भद्रे नदीतीरमिदं शुभम् । 
मया दृष्टासि तन्वङ्गि प्रविष्टासि ममाश्रमम् ॥ २८
 इयं च वर्तते सन्ध्या परिणाममहर्गतम् । 
उपहासः किमर्थोऽयं सद्भावः कथ्यतां मम ॥ २९

  • प्रम्लोचोवाच
प्रत्यूषस्यागता ब्रह्मन् सत्यमेतन्न तन्मृषा। 
नन्वस्य तस्य कालस्य गतान्यब्दशतानि ते ॥ ३०

  • सोम उवाच
ततस्ससाध्वसो विप्रस्तां पप्रच्छायतेक्षणाम् । 
कथ्यतां भीरु कः कालस्त्वया मे रमतः सह । ३१
  • प्रम्लोचोवाच 
सप्तोत्तराण्यतीतानि नववर्षशतानि ते। 
मासाश्च षट्तथैवान्यत्समतीतं दिनत्रयम् ॥ ३२
  • ऋषिरुवाच 
सत्यं भीरु वदस्येतत्परिहासोऽथ वा शुभे। 
दिनमेकमहं मन्ये त्वया सार्द्धमिहासितम् ॥ ३३


  • मुनि बोले
भद्रे ! नदीके इस सुन्दर तटपर तुम आज सबेरे ही तो आयी हो। [ मुझे भली प्रकार स्मरण है मैंने आज ही तुमको अपने आश्रममें प्रवेश करते देखा था अब दिनके समाप्त होनेपर यह सन्ध्याकाल हुआ है। फिर, सच तो कहो, ऐसा उपहास क्यों करती हो ? प्रम्लोचा बोली- ब्रह्मन् ! आपका यह कथन कि 'तुम सबेरे ही आयी हो' ठीक ही है, इसमें झूठ नहीं; परन्तु उस समय को तो आज सैकड़ों वर्ष बीत चुके  सोमने कह्य-तब उन विप्रवरने उस विशालाक्षीसे कुछ घबड़ाकर पूछा- "अरी भीरु ! ठीक-ठीक बता, तेरे साथ रमण करते मुझे कितना समय बीत गया ?"प्रम्लोचाने कहा- अबतक नौ सौ सात वर्ष, छः महीने तथा तीन दिन और भी बीत चुके हैं ऋषि बोले- अयि भीरु ! यह तू ठीक कहती है, या हे शुभे ! मेरी हँसी करती है? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन रहा हूँ ॥२८ - ३३॥
  • प्रम्लोचोवाच
वदिष्याम्यनृतं ब्रह्मन्कथमत्र तवान्तिके । 
विशेषेणाद्य भवता पृष्टा मार्गानुवर्तिना ॥ ३४

  • सोम उवाच
निशम्य तद्वचः सत्यं स मुनिनृपनन्दनाः । 
धिग्धिङ्‌ मामित्यतीवेत्थं निनिन्दात्मानमात्मना ।। ३५

  • मुनिरुवाच
तपांसि मम नष्टानि हतं ब्रह्मविदां धनम् । 
हतो विवेकः केनापि योषिन्मोहाय निर्मिता ।। ३६
ऊर्मिषट्‌कातिगं ब्रह्म ज्ञेयमात्मजयेन मे। 
मतिरेषा हृता येन धिक् तं कामं महाग्रहम् ॥ ३७
व्रतानि वेदवेद्याप्तिकारणान्यखिलानि च। 
नरकग्राममार्गेण सङ्गेनापहृतानि मे ॥ ३८
विनिन्द्येत्थं स धर्मज्ञः स्वयमात्मानमात्मना।
तामप्सरसमासीनामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३९ 
गच्छ पापे यथाकामं यत्कार्यं तत्कृतं त्वया। 
देवराजस्य मत्क्षोभं कुर्वन्त्या भावचेष्टितैः ॥ ४०
न त्वां करोम्यहं भस्म क्रोधतीव्रण वह्निना। 
सतां सप्तपदं मैत्रमुषितोऽहं त्वया सह ॥ ४१
यया शक्रप्रियार्थिन्या कृतो मे तपसो व्ययः । 
त्वया धिक्तां महामोहमञ्जूषां सुजुगुप्सिताम् ॥ ४३
  • प्रम्लोचा बोली- 
हे ब्रह्मन् ! आपके निकट मैं झूठ कैसे बोल सकती हूँ? और फिर विशेषतया उस समय जब कि आज आप अपने धर्म-मार्गका अनुसरण करनेमें तत्पर होकर मुझसे पूछ रहे हैं सोमने कहा- हे राजकुमारो ! उसके ये सत्य वचन सुनकर मुनिने 'मुझे धिक्कार है! मुझे धिक्कार है!' ऐसा कहकर स्वयं ही अपनेको बहुत कुछ भला-बुरा कहा  मुनि बोले- ओह! मेरा तप नष्ट हो गया, जो ब्रह्मवेत्ताओंका धन था वह लुट गया और विवेकबुद्धि मारी गयी। अहो! स्त्रीको तो किसीने मोह उपजानेके लिये ही रचा है 'मुझे अपने मनको जीतकर छहों ऊर्मियों से अतीत परब्रह्मको जानना चाहिये'- जिसने मेरी इस प्रकारकी बुद्धिको नष्ट कर दिया, उस कामरूपी महाग्रहको धिक्कार है नरकग्रामके मार्गरूप इस स्त्रीके संगसे वेदवेद्य भगवान्‌की प्राप्तिके कारणरूप मेरे समस्त व्रत नष्ट हो गये  इस प्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवरने अपने-आप ही अपनी निन्दा करते हुए वहाँ बैठी हुई उस अप्सरा से कहा- "अरी पापिनि ! अब तेरी जहाँ इच्छा हो चली जा, तूने अपनी भावभंगीसे मुझे मोहित करके इन्द्रका जो कार्य था वह पूरा कर लिया मैं अपने क्रोधसे प्रज्वलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं करता हूँ, क्योंकि सज्जनोंकी मित्रता सात पग साथ रहनेसे हो जाती है और मैं तो [इतने दिन] तेरे साथ निवास कर चुका हूँ अथवा इसमें तेरा दोष भी क्या है, जो मैं तुझपर क्रोध करूँ ? दोष तो सारा मेरा ही है, क्योंकि मैं बड़ा ही अजितेन्द्रिय हूँ। तू महामोहकी पिटारी और अत्यन्त निन्दनीया है। हाय! तूने इन्द्रके स्वार्थ के लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी !! तुझे धिक्कार है!!! ॥ ३४ - ४३ ॥ 
  • सोम उवाच
यावदित्थं स विप्रर्षिस्तां ब्रवीति सुमध्यमाम् । 
तावद्गलत्स्वेदजला सा बभूवातिवेपथुः ॥ ४४
प्रवेपमानां सततं स्विन्नगात्रलतां सतीम्। 
गच्छ गच्छेति सक्रोधमुवाच मुनिसत्तमः ॥ ४५
सा तु निर्भत्सिता तेन विनिष्क्रम्य तदाश्रमात् ।
आकाशगामिनी स्वेदं ममार्ज तरुपल्लवैः ॥ ४६
  • सोमने कहा- 
वे ब्रह्मर्षि उस सुन्दरीसे जबतक ऐसा कहते रहे तबतक वह [भयके कारण] पसीनेमें सराबोर होकर अत्यन्त काँपती रही इस प्रकार जिसका समस्त शरीर पसीनेमें डूबा हुआ था और जो भयसे थर-थर काँप रही थी उस प्रम्लोचासे मुनिश्रेष्ठ कण्डुने क्रोधपूर्वक कहा- 'अरी ! तू चली जा! चली जा!! तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रम से निकली और आकाश-मार्ग से जाते हुए उसने अपना पसीना वृक्षके पत्तोंसे पोंछा ॥ ४४ - ४६ ॥ 

निर्मार्जमाना गात्राणि गलत्स्वेदजलानि वै। 
वृक्षावृक्षं ययौ बाला तदग्रारुणपल्लवैः ॥ ४७ 
ऋषिणा यस्तदा गर्भस्तस्या देहे समाहितः ।
निर्जगाम स रोमाञ्चस्वेदरूपी तदङ्गतः ॥ ४८ 
तं वृक्षा जगृहुर्गर्भमेकं चक्रे तु मारुतः । 
मया चाप्यायितो गोभिः स तदा ववृधे शनैः ॥ ४९
वृक्षाग्रगर्भसम्भूता मारिषाख्या वरानना। 
तां प्रदास्यन्ति वो वृक्षाः कोप एष प्रशाम्यताम् ॥ ५०
कण्डोरपत्यमेवं सा वृक्षेभ्यश्च समुद्गता। 
ममापत्यं तथा वायोः प्रम्लोचातनया च सा ॥ ५१
  • श्रीपराशर उवाच
स चापि भगवान् ‌कण्डुः क्षीणे तपसि सत्तमः । 
पुरुषोत्तमाख्यं मैत्रेय विष्णोरायतनं ययौ ।। ५२
तत्रैकाग्रमतिर्भूत्वा चकाराराधनं हरेः।
ब्रह्मपारमयं कुर्वञ्जपमेकाग्रमानसः । 
ऊर्ध्वबाहुर्महायोगी स्थित्वासौ भूपनन्दनाः ॥ ५३

  • प्रचेतस ऊचुः
ब्रह्मपारं मुनेः श्रोतुमिच्छामः परमं स्तवम् । 
जपता कण्डुना देवो येनाराध्यत केशवः ॥ ५४

  • सोम उवाच
पारं परं विष्णुरपारपारः परः परेभ्यः परमार्थरूपी ।
स ब्रह्मपारः परपारभूतः ! परः पराणामपि पारपारः ॥ ५५
स कारणं कारणतस्ततोऽपि ! तस्यापि हेतुः परहेतुहेतुः ।
कार्येषु चैवं सह कर्मकर्तृ- रूपैरशेषैरवतीह सर्वम् ॥ ५६
ब्रह्म प्रभुर्ब्रह्म स सर्वभूतो ब्रह्म प्रजानां पतिरच्युतोऽसौ ।
ब्रह्माव्ययं नित्यमजं स विष्णु-रपक्षयाद्यैरखिलैरसङ्गि ॥ ५७


वह बाला वृक्षोंके नवीन लाल-लाल पत्तोंसे अपने पसीनेसे तर शरीरको पोंछती हुई एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर चलती गयी उस समय ऋषिने उसके शरीरमें जो गर्भ स्थापित किया था; वह भी रोमांचसे निकले हुए पसीनेके रूपमें उसके शरीरसे बाहर निकल आया उस गर्भको वृक्षोंने ग्रहण कर लिया, उसे वायुने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी किरणोंसे उसे पोषित करने लगा। इससे वह धीरे-धीरे बढ़ गया  वृक्षाग्रसे उत्पन्न हुई वह मारिषा नामकी सुमुखी कन्या तुम्हें वृक्षगण समर्पण करेंगे। अतः अब यह क्रोध शान्त करो  इस प्रकार वृक्षोंसे उत्पन्न हुई वह कन्या प्रम्लोचाकी पुत्री है तथा कण्डु मुनिकी, मेरी और वायुकी भी सन्तान हैश्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय! [तब यह सोचकर कि प्रचेतागण योगभ्रष्टकी कन्या होनेसे मारिषाको अग्राह्य न समझें सोमदेवने कहा- साधुश्रेष्ठ भगवान् कण्डु भी तपके क्षीण हो जानेसे पुरुषोत्तमक्षेत्र नामक भगवान् विष्णुकी निवास-भूमिको गये और हे राजपुत्रो ! वहाँ वे महायोगी एकनिष्ठ होकर एकाग्रचित्तसे ब्रह्मपार- मन्त्रका जप करते हुए ऊर्ध्वबाहु रहकर श्रीविष्णुभगवान्‌की आराधना करने लगे ॥प्रचेतागण बोले- हम कण्डु मुनिका ब्रह्मपार नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए उन्होंने श्रीकेशवकी आराधना की थी  सोमने कहा- [हे राजकुमारो! वह मन्त्र इस प्रकार है-] 'श्रीविष्णुभगवान् संसार-मार्गकी अन्तिम अवधि हैं, उनका पार पाना कठिन है, वे पर (आकाशादि)- से भी पर अर्थात् अनन्त हैं, अतः सत्यस्वरूप हैं। तपोनिष्ठ महात्माओंको ही वे प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे पर (अनात्म-प्रपंच) से परे हैं तथा पर (इन्द्रियों)- के अगोचर परमात्मा हैं और [भक्तोंके] पालक एवं [उनके अभीष्टको] पूर्ण करनेवाले हैं  वे कारण (पंचभूत) के कारण (पंचतन्मात्रा) के हेतु (तामस- अहंकार) और उसके भी हेतु (महत्तत्त्व) के हेतु (प्रधान)- के भी परम हेतु हैं और इस प्रकार समस्त कर्म और कर्ता आदिके सहित कार्यरूपसे स्थित सकल प्रपंचका पालन करते हैं ब्रह्म ही प्रभु है, ब्रह्म ही सर्व जीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजाका पति (रक्षक) तथा अविनाशी है। वह ब्रह्म अव्यय, नित्य और अजन्मा है तथा वही क्षय आदि समस्त विकारोंसे शून्य विष्णु है॥४७ - ५७॥

ब्रह्माक्षरमजं नित्यं यथाऽसौ पुरुषोत्तमः ।
तथा रागादयो दोषाः प्रयान्तु प्रशमं मम ॥ ५८
एतद्ब्रह्मपराख्यं वै संस्तवं परमं जपन् । 
अवाप परमां सिद्धिं स तमाराध्य केशवम् ॥ ५९
[ इमं स्तवं यः पठति शृणुयाद्वापि नित्यशः । 
स कामदोषैरखिलैर्मुक्तः प्राप्नोति वाञ्छितम् ॥]
इयं च मारिषा पूर्वमासीद्या तां ब्रवीमि वः । 
कार्यगौरवमेतस्याः कथने फलदायि वः ॥ ६०
अपुत्रा प्रागियं विष्णुं मृते भर्त्तरि सत्तमा।
भूपपत्नी महाभागा तोषयामास भक्तितः ॥ ६१
आराधितस्तया विष्णुः प्राह प्रत्यक्षतां गतः । 
वरं वृणीष्वेति शुभे सा च प्राहात्मवाञ्छितम् ॥ ६२
भगवन्बालवैधव्याद् वृथाजन्माहमीदृशी । 
मन्दभाग्या समुद्भूता विफला च जगत्पते ॥ ६३ 
भवन्तु पतयः श्लाघ्या मम जन्मनि जन्मनि। 
त्वत्प्रसादात्तथा पुत्रः प्रजापतिसमोऽस्तु मे ॥ ६४ 
कुलं शीलं वयः सत्यं दाक्षिण्यं क्षिप्रकारिता। 
अविसंवादिता सत्त्वं वृद्धसेवा कृतज्ञता ॥ ६५ 
रूपसम्पत्समायुक्ता सर्वस्य प्रियदर्शना। 
अयोनिजा च जायेयं त्वत्प्रसादादधोक्षज ॥ ६६

क्योंकि वह अक्षर, अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु हैं, इसलिये [ उनका नित्य अनुरक्त भक्त होनेके कारण] मेरे राग आदि दोष शान्त हों' इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्रका जप करते हुए श्रीकेशवकी आराधना करनेसे उन मुनीश्वरने परमसिद्धि प्राप्त की  [जो पुरुष इस स्तवको नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषोंसे मुक्त होकर अपना मनोवांछित फल प्राप्त करता है।] अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि यह मारिषा पूर्वजन्ममें कौन थी। यह बता देनेसे तुम्हारे कार्यका गौरव सफल होगा। [अर्थात् तुम प्रजा-वृद्धिरूप फल प्राप्त कर सकोगे]  यह साध्वी अपने पूर्व जन्ममें एक महारानी थी। पुत्रहीन अवस्थामें ही पतिके मर जानेपर इस महाभागाने अपने भक्तिभावसे विष्णुभगवान्‌को सन्तुष्ट किया  इसकी आराधनासे प्रसन्न हो विष्णुभगवान्ने प्रकट होकर कहा- "हे शुभे! वर माँग।" तब इसने अपनी मनोभिलाषा इस प्रकार कह सुनायी "भगवन् ! बाल-विधवा होनेके कारण मेरा जन्म व्यर्थ ही हुआ। हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी हूँ कि फलहीन (पुत्रहीन) ही उत्पन्न हुई अतः आपकी कृपासे जन्म-जन्ममें मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हों और प्रजापति (ब्रह्माजी) के समान पुत्र हो और हे अधोक्षज ! आपके प्रसादसे मैं भी कुल, शील, अवस्था, सत्य, दाक्षिण्य (कार्य- कुशलता), शीघ्रकारिता, अविसंवादिता (उलटा न कहना), सत्त्व, वृद्धसेवा और कृतज्ञता आदि गुणोंसे तथा सुन्दर रूपसम्पत्तिसे सम्पन्न और सबको प्रिय लगनेवाली अयोनिजा (माताके गर्भसे जन्म लिये बिना) ही उत्पन्न होऊँ' ॥ ५८-६६ ॥

सोम उवाच
तयैवमुक्तो देवेशो हृषीकेश उवाच ताम् । 
प्रणामनम्रामुत्थाप्य वरदः परमेश्वरः ॥ ६७
देव उवाच
भविष्यन्ति महावीर्या एकस्मिन्नेव जन्मनि । 
प्रख्यातोदारकर्माणो भवत्याः पतयो दश ॥ ६८
पुत्रं च सुमहावीर्यं महाबलपराक्रमम् । 
प्रजापतिगुणैर्युक्तं त्वमवाप्स्यसि शोभने ॥ ६९
वंशानां तस्य कर्तृत्वं जगत्यस्मिन्भविष्यति । 
त्रैलोक्यमखिला सूतिस्तस्य चापूरयिष्यति ॥ ७०
  • सोम बोले- 
उसके ऐसा कहने पर वरदायक परमेश्वर देवाधि देव श्री हृषीकेशने प्रणाम के लिये झुकी हुई उस बाला को उठा कर कहा भगवान् बोले- तेरे एक ही जन्ममें बड़े पराक्रमी और विख्यात कर्मवीर दस पति होंगे और हे शोभने ! उसी समय तुझे प्रजापतिके समान एक महावीर्यवान् एवं अत्यन्त बल-विक्रमयुक्त पुत्र भी प्राप्त होगा  वह इस संसार में कितने ही वंशोंको चलाने वाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिलोकी में फैल जायगी ॥ ६७ - ७० ॥
 
त्वं चाप्ययोनिजा साध्वी रूपौदार्यगुणान्विता । 
मनःप्रीतिकरी नृणां मत्प्रसादाद्भविष्यसि ॥ ७१ 
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवस्तां विशालविलोचनाम् । 
सा चेयं मारिषा जाता युष्मत्पत्नी नृपात्मजाः ॥ ७२
  • श्रीपराशर उवाच
ततः सोमस्य वचनाज्ञ्जगृहुस्ते प्रचेतसः ।
संहृत्य कोपं वृक्षेभ्यः पत्नीधर्मेण मारिषाम् ॥ ७३ 
दशभ्यस्तु प्रचेतोभ्यो मारिषायां प्रजापतिः । 
जज्ञे दक्षो महाभागो यः पूर्वं ब्रह्मणोऽभवत् ॥ ७४ 
स तु दक्षो महाभागस्सृष्ट्यर्थं सुमहामते । 
पुत्रानुत्पादयामास प्रजासृष्ट्यर्थमात्मनः ।॥ ७५
अवरांश्च वरांश्चैव द्विपदोऽथ चतुष्पदान् । 
आदेशं ब्रह्मणः कुर्वन् सृष्ट्यर्थ समुपस्थितः ॥ ७६ 
स सृष्ट्वा मनसा दक्षः पश्चादसृजत स्त्रियः । 
ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश। 
कालस्य नयने युक्ताः सप्तविंशतिमिन्दवे ॥ ७७ 
तासु देवास्तथा दैत्या नागा गावस्तथा खगाः । 
गन्धर्वाप्सरसश्चैव दानवाद्याश्च जज्ञिरे ॥ ७८
ततः प्रभृति मैत्रेय प्रजा मैथुनसम्भवाः । 
सङ्कल्पाद्दर्शनात्स्पर्शात्पूर्वेषामभवन् प्रजाः । 
तपोविशेषैः सिद्धानां तदात्यन्ततपस्विनाम् ॥ ७९
  • श्रीमैत्रेय उवाच
अङ्गुष्ठाद्दक्षिणाद्दक्षः पूर्वं जातो मया श्रुतः । 
कथं प्राचेतसो भूयः समुत्पन्नो महामुने ॥ ८० 
एष मे संशयो ब्रह्मन्सुमहान्हृदि वर्त्तते। 
यद्दौहित्रश्च सोमस्य पुनः श्वशुरतां गतः ॥ ८१
  • श्रीपराशर उवाच
उत्पत्तिश्च निरोधश्च नित्यो भूतेषु सर्वदा। 
ऋषयोऽत्र न मुह्यन्ति ये चान्ये दिव्यचक्षुषः ॥ ८२ 
युगे युगे भवन्त्येते दक्षाद्या मुनिसत्तम। 
पुनश्चैवं निरुद्धयन्ते विद्वांस्तत्र न मुह्यति ॥ ८३ 
कानिष्ठ्यं ज्यैष्ठ्यमप्येषां पूर्व नाभूद्विजोत्तम । 
तप एव गरीयोऽभूत्प्रभावश्चैव कारणम् ॥ ८४


तथा तू भी मेरी कृपासे उदाररूप-गुणसम्पन्ना, सुशीला और मनुष्योंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही उत्पन्न होगी  हे राजपुत्रो ! उस विशालाक्षीसे ऐसा कह भगवान् अन्तर्धान हो गये और वही यह मारिषाके रूपसे उत्पन्न हुई तुम्हारी पत्नी है श्रीपराशरजी बोले- तब सोमदेवके कहनेसे प्रचेताओंने अपना क्रोध शान्त किया और उस मारिषाको वृक्षोंसे पत्नीरूपमें ग्रहण किया  उन दसों प्रचेताओंसे मारिषाके महाभाग दक्ष प्रजापतिका जन्म हुआ, जो पहले ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुए थे  हे महामते ! उन महाभाग दक्षने, ब्रह्माजीकी आज्ञा पालते हुए सर्ग-रचनाके लिये उद्यत होकर उनकी अपनी सृष्टि बढ़ाने और सन्तान उत्पन्न करनेके लिये नीच-ऊँच तथा द्विपद-चतुष्पद आदि नाना प्रकारके जीवोंको पुत्ररूपसे उत्पन्न किया  प्रजापति दक्षने पहले मनसे ही सृष्टि करके फिर स्त्रियोंकी उत्पत्ति की। उनमेंसे दस धर्मको और तेरह कश्यपको दीं तथा काल-परिवर्तन में  नियुक्त [अश्विनी आदि] सत्ताईस चन्द्रमाको विवाह दीं  उन्हींसे देवता, दैत्य, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा और दानव आदि उत्पन्न हुए  हे मैत्रेय ! दक्षके समयसे ही प्रजाका मैथुन (स्त्री-पुरुष सम्बन्ध) द्वारा उत्पन्न होना आरम्भ हुआ है। उससे पहले तो अत्यन्त तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषोंके तपोबलसे उनके संकल्प, दर्शन अथवा स्पर्शमात्रसे ही प्रजा उत्पन्न होती थी  श्रीमैत्रेयजी बोले- हे महामुने ! मैंने तो सुना था कि दक्षका जन्म ब्रह्माजीके दायें अँगूठेसे हुआ था, फिर वे प्रचेताओंके पुत्र किस प्रकार हुए ?  हे ब्रह्मन् ! मेरे हृदयमें यह बड़ा सन्देह है कि सोमदेवके दौहित्र (धेवते) होकर भी फिर वे उनके श्वशुर हुए !  श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय! प्राणियोंके उत्पत्ति और नाश [प्रवाहरूपसे] निरन्तर हुआ करते हैं। इस विषयमें ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्टि-पुरुषोंको कोई मोह नहीं होता  हे मुनिश्रेष्ठ। ये दक्षादि युग- युगमें होते हैं और फिर लीन हो जाते हैं; इसमें विद्वान्‌को किसी प्रकारका सन्देह नहीं होता  हे द्विजोत्तम! इनमें पहले किसी प्रकारकी ज्येष्ठता अथवा कनिष्ठता भी नहीं थी। उस समय तप और प्रभाव ही उनकी ज्येष्ठताका कारण होता था॥ ७१ - ८४ ॥ 
  • श्रीमैत्रेय उवाच 
देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम्। 
उत्पत्तिं विस्तरेणेह मम ब्रह्मन्प्रकीर्त्तय ।। ८५

  • श्रीपराशर उवाच
प्रजाः सृजेति व्यादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयम्भुवा । 
यथा ससर्ज भूतानि तथा शृणु महामुने ।॥ ८६
मानसान्येव भूतानि पूर्व दक्षोऽसृजत्तदा। 
देवानृषीन्सगन्धर्वानसुरान्पन्नगांस्तथा ॥८७
यदास्य सृजमानस्य न व्यवर्धन्त ताः प्रजाः । 
ततः सञ्चिन्त्य स पुनः सृष्टिहेतोः प्रजापतिः ॥ ८८
मैथुनेनैव धर्मेण सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । 
असिक्नीमावहत्कन्यां वीरणस्य प्रजापतेः ।
सुतां सुतपसा युक्तां महतीं लोकधारिणीम् ॥ ८९
अथ पुत्रसहस्त्राणि वैरुण्यां पञ्च वीर्यवान् । 
असिक्यां जनयामास सर्गहतोः प्रजापतिः ॥ ९०
  • श्रीमैत्रेयजी बोले-
हे ब्रह्मन् ! आप मुझसे देव, दानव, गन्धर्व, सर्प और राक्षसोंकी उत्पत्ति विस्तारपूर्वक कहिये  श्रीपराशरजी बोले- हे महामुने ! स्वयम्भू-भगवान् ब्रह्माजीकी ऐसी आज्ञा होनेपर कि 'तुम प्रजा उत्पन्न करो' दक्षने पूर्वकालमें जिस प्रकार प्राणियोंकी रचना की थी वह सुनो उस समय पहले तो दक्षने ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियोंको ही उत्पन्न किया इस प्रकार रचना करते हुए जब उनकी वह प्रजा और न बढ़ी तो उन प्रजापतिने सृष्टिकी वृद्धिके लिये मनमें विचारकर मैथुनधर्मसे नाना प्रकारकी प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छासे वीरण प्रजापतिकी अति तपस्विनी और लोकधारिणी पुत्री असिक्नीसे विवाह किया  तदनन्तर वीर्यवान् प्रजापति दक्षने सर्ग की वृद्धि के लिये वीरणसुता असिक्नीसे पाँच सहस्र पुत्र उत्पन्न किये ॥ ८५ - ९० ॥ 

तान्दृष्ट्वा नारदो विप्र संविवर्द्धयिषून्प्रजाः । 
सङ्गम्य प्रियसंवादो देवर्षिरिदमब्रवीत् ॥ ९१ 
हे हर्यश्वा महावीर्याः प्रजा यूयं करिष्यथ । 
ईदृशो दृश्यते यत्नो भवतां श्रूयतामिदम् ॥ ९२
बालिशा बत यूयं वै नास्या जानीत वै भुवः । 
अन्तरूर्ध्वमधश्चैव कथं सृक्ष्यथ वै प्रजाः ॥ ९३
ऊर्ध्वं तिर्यगधश्चैव यदाऽप्रतिहता गतिः । 
तदा कस्माद्भुवो नान्तं सर्वे द्रक्ष्यथ बालिशाः ॥ ९४
ते तु तद्वचनं श्रुत्वा प्रयाताः सर्वतो दिशम् । 
अद्यापि नो निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ॥ ९५
हर्यश्वेष्वथ नष्टेषु दक्षः प्राचेतसः पुनः । 
वैरुण्यामथ पुत्राणां सहस्त्रमसृजत्प्रभुः ॥ ९६
विवर्द्धयिषवस्ते तु शबलाश्वाः प्रजाः पुनः । 
पूर्वोक्तं वचनं ब्रह्मन्नारदेनैव नोदिताः ॥ ९७

उन्हें प्रजा-
वृद्धि के इच्छुक देख प्रियवादी देवर्षि नारदने उनके निकट जाकर इस प्रकार कहा- "हे महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगोंकी ऐसी चेष्टा प्रतीत होती है कि आप प्रजा उत्पन्न करेंगे, सो मेरा यह कथन सुनो खेदकी बात है, तुमलोग अभी निरे अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथिवीका मध्य, ऊर्ध्व (ऊपरी भाग) और अधः (नीचेका भाग) कुछ भी नहीं जानते, फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो तुम्हारी गति इस ब्रह्माण्डमें ऊपर-नीचे और इधर-उधर सब ओर अप्रतिहत (बे-रोक-टोक) है; अतः हे अज्ञानियो ! तुम सब मिलकर इस पृथिवीका अन्त क्यों नहीं देखते ?"नारदजीके ये वचन सुनकर वे सब भिन्न- भिन्न दिशाओंको चले गये और समुद्रमें जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटतीं उसी प्रकार वे भी आजतक नहीं लौटे  हर्यश्वोंके इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओंके पुत्र दक्षने वैरुणीसे एक सहस्त्र पुत्र और उत्पन्न किये  वे शबलाश्वगण भी प्रजा बढ़ानेके इच्छुक हुए, किन्तु हे ब्रह्मन् ! उनसे नारदजीने ही फिर पूर्वोक्त बातें कह दीं। ९१ - ९७ !!

अन्योऽन्यमूचुस्ते सर्वे सम्यगाह महामुनिः । 
भ्रातॄणां पदवी चैव गन्तव्या नात्र संशयः ॥ ९८
ज्ञात्वा प्रमाणं पृथ्याश्च प्रजास्स्त्रक्ष्यामहे ततः । 
तेऽपि तेनैव मार्गेण प्रयाताः सर्वतोमुखम् ।
अद्यापि न निवर्त्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ॥ ९९ 
ततः प्रभृति वै भ्राता भ्रातुरन्वेषणे द्विज। 
प्रयातो नश्यति तथा तन्न कार्य विजानता ॥ १००
तांश्चापि नष्टान् विज्ञाय पुत्रान् दक्षः प्रजापतिः । 
क्रोधं चक्रे महाभागो नारदं स शशाप च ॥ १०१ 
सर्गकामस्ततो विद्वान्स मैत्रेय प्रजापतिः ।
षष्टिं दक्षोऽसृजत्कन्या वैरुण्यामिति नः श्रुतम् ॥ १०२ 
ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश।
सप्तविंशति सोमाय चतस्त्रोऽरिष्टनेमिने ॥ १०३
द्वे चैव बहुपुत्राय द्वे चैवाङ्गिरसे तथा। 
द्वे कृशाश्वाय विदुषे तासां नामानि मे शृणु ॥ १०४ 
अरुन्धती वसुर्यामिर्लम्बा भानुर्मरुत्वती । 
सङ्कल्पा च मुहूर्ता च साध्या विश्वा च तादृशी। 
धर्मपल्यो दश त्वेतास्तास्वपत्यानि मे शृणु ॥ १०५
विश्वेदेवास्तु विश्वायाः साध्या साध्यानजायत।
मरुत्वत्यां मरुत्वन्तो वसोश्च वसवः स्मृताः । 
भानोस्तु भानवः पुत्रा मुहूर्तायां मुहूर्तजाः ॥ १०६
लम्बायाश्चैव घोषोऽथ नागवीथी तु यामिजा ॥ १०७
पृथिवीविषयं सर्वमरुन्धत्यामजायत ।
सङ्कल्पायास्तु सर्वात्मा जज्ञे सङ्कल्प एव हि ॥ १०८
ये त्वनेकवसुप्राणदेवा ज्योतिः पुरोगमाः ।
वसवोऽष्टौ समाख्यातास्तेषां वक्ष्यामि विस्तरम् ॥ १०९
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धर्मश्चैवानिलोऽनलः ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवो नामभिः स्मृताः ॥ ११०
आपस्य पुत्रो वैतण्डः श्रमः शान्तो ध्वनिस्तथा ।
ध्रुवस्य पुत्रो भगवान्कालो लोकप्रकालनः ॥ १११ 
सोमस्य भगवान्वर्चा वर्चस्वी येन जायते ॥ ११२ 
धर्मस्य पुत्रो द्रविणो हुतहव्यवहस्तथा। 
मनोहरायां शिशिरः प्राणोऽथ वरुणस्तथा ॥ ११३ 

तब वे सब आपसमें एक-दूसरेसे कहने लगे- 'महामुनि नारदजी ठीक कहते हैं; हमको भी, इसमें सन्देह नहीं, अपने भाइयोंके मार्गका ही अवलम्बन करना चाहिये। हम भी पृथिवीका परिमाण जानकर ही सृष्टि करेंगे।' इस प्रकार वे भी उसी मार्गसे समस्त दिशाओंको चले गये और समुद्रगत नदियोंके समान आजतक नहीं लौटे  हे द्विज! तबसे ही यदि भाईको खोजनेके लिये भाई ही जाय तो वह नष्ट हो जाता है अतः विज्ञ पुरुषको ऐसा न करना चाहिये  महाभाग दक्ष प्रजापतिने उन पुत्रोंको भी गये जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया हे मैत्रेय ! हमने सुना है कि फिर उस विद्वान् प्रजापतिने सर्गवृद्धिकी इच्छासे वैरुणीसे साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस सोम (चन्द्रमा) को और चार अरिष्टनेमिको दीं तथा दो बहुपुत्र, दो अंगिरा और दो कृशाश्वको विवाहीं। अब उनके नाम सुनो अरुन्धती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और विश्वा- ये दस धर्मकी पत्नियाँ थीं; अब तुम इनके पुत्रोंका विवरण सुनो  विश्वाके पुत्र विश्वेदेवा थे, साध्यासे साध्यगण हुए, मरुत्वतीसे मरुत्वान् और वसुसे वसुगण हुए तथा भानुसे भानु और मुहूर्तासे मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए  लम्बासे घोष, यामीसे नागवीथी और अरुन्धतीसे समस्त पृथिवी-विषयक प्राणी हुए तथा संकल्पासे सर्वात्मक संकल्पकी उत्पत्ति हुई  नाना प्रकारका वसु (तेज अथवा धन) ही जिनका प्राण है ऐसे ज्योति आदि जो आठ वसुगण विख्यात हैं, अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ  उनके नाम आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल (वायु), अनल (अग्नि), प्रत्यूष और प्रभास कहे जाते हैंआपके पुत्र वैतण्ड, श्रम, शान्त और ध्वनि हुए तथा ध्रुवके पुत्र लोक-संहारक भगवान् काल हुए भगवान् वर्चा सोमके पुत्र थे जिनसे पुरुष वर्चस्वी (तेजस्वी) हो जाता है और धर्मके उनकी भार्या मनोहरासे द्रविण, हुत एवं हव्यवह तथा शिशिर, प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए ॥ ९८ - ११३ ॥

अनिलस्य शिवा भार्या तस्याः पुत्रो मनोजवः । 
अविज्ञातगतिश्चैव द्वौ पुत्रावनिलस्य तु ॥ ११४
अग्निपुत्रः कुमारस्तु शरस्तम्बे व्यजायत । 
तस्य शाखो विशाखश्च नैगमेयश्च पृष्ठजाः ॥ ११५ 
अपत्यं कृत्तिकानां तु कार्त्तिकेय इति स्मृतः ॥ ११६ 
प्रत्यूषस्य विदुः पुत्रं ऋषि नाम्नाथ देवलम् । 
द्वौ पुत्रौ देवलस्यापि क्षमावन्तौ मनीषिणौ ।। ११७ 
बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी। 
योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता विचरत्युत । 
प्रभासस्य तु सा भार्या वसूनामष्टमस्य तु ॥ ११८ 
विश्वकर्मा महाभागस्तस्यां जज्ञे प्रजापतिः ।
कर्ता शिल्पसहस्त्राणां त्रिदशानां च वर्द्धकी ॥ ११९ 
भूषणानां च सर्वेषां कर्ता शिल्पवतां वरः । 
यः सर्वेषां विमानानि देवतानां चकार ह। 
मनुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः ।। १२०
तस्य पुत्रास्तु चत्वारस्तेषां नामानि मे शृणु। 
अजैकपादहिर्बुध्यस्त्वष्टा रुद्रश्च वीर्यवान्। 
त्वष्टुश्चाप्यात्मजः पुत्रो विश्वरूपो महातपाः ।। १२१
हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्चापराजितः ।
वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दी रैवतः स्मृतः ॥ १२२ 
मृगव्याधश्च शर्वश्च कपाली च महामुने। 
एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः । 
शतं त्वेकं समाख्यातं रुद्राणाममितौजसाम् ॥ १२३ 
कश्यपस्य तु भार्या यास्तासां नामानि मे शृणु। 
अदितिर्दितिर्दनुश्चैवारिष्टा च सुरसा खसा ॥ १२४ 
सुरभिर्विनता चैव ताम्रा क्रोधवशा इरा। 
कद्रुर्मुनिश्च धर्मज्ञ तदपत्यानि मे शृणु ॥ १२५ 
पूर्वमन्वन्तरे श्रेष्ठा द्वादशासन्सुरोत्तमाः ।
तुषिता नाम तेऽन्योऽन्यमूचुर्वैवस्वतेऽन्तरे ॥ १२६ 
उपस्थितेऽतियशसश्चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
समवायीकृताः सर्वे समागम्य परस्परम् ॥ १२७ 

अनिलकी पत्नी शिवा थी; उससे अनिलके मनोजव और अविज्ञातगति- ये दो पुत्र हुए अग्निके पुत्र कुमार शरस्तम्ब (सरकण्डे) से उत्पन्न हुए थे, ये कृत्तिकाओंके पुत्र होनेसे कार्तिकेय कहलाये। शाख, विशाख और नैगमेय इनके छोटे भाई थे  देवल नामक ऋषिको प्रत्यूषका पुत्र कहा जाता है। इन देवलके भी दो क्षमाशील और मनीषी पुत्र हुए बृहस्पतिजीकी बहिन वरस्त्री, जो ब्रह्मचारिणी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त भावसे समस्त भूमण्डलमें विचरती थी, आठवें वसु प्रभासकी भार्या हुई उससे सहस्रों शिल्पों (कारीगरियों) के कर्ता और देवताओंके शिल्पी महाभाग प्रजापति विश्वकर्माका जन्म हुआ जो समस्त शिल्पकारोंमें श्रेष्ठ और सब प्रकारके आभूषण बनानेवाले हुए तथा जिन्होंने देवताओंके सम्पूर्ण विमानोंकी रचना की और जिन महात्माकी [ आविष्कृता] शिल्पविद्याके आश्रयसे बहुत-से मनुष्य जीवन-निर्वाह करते हैं उन विश्वकर्माक चार पुत्र थे; उनके नाम सुनो। वे अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और परम पुरुषार्थी रुद्र थे। उनमेंसे त्वष्टाके पुत्र महातपस्वी विश्वरूप थे हे महामुने ! हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली- ये त्रिलोकीके अधीश्वर ग्यारह रुद्र कहे गये हैं। ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रुद्र प्रसिद्ध हैं। जो [ दक्षकन्याएँ] कश्यपजीकी स्त्रियाँ हुईं उनके नाम सुनो-वे अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा इरा, कद्रु और मुनि थीं। हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनकी सन्तानका विवरण श्रवण करो   पूर्व (चाक्षुष) मन्वन्तर में तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देवगण थे। वे यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर के पश्चात् वैवस्वत मन्वन्तर के उपस्थित होने पर एक- दूसरे के पास जाकर मिले और परस्पर कहने लगे - ॥११४ - १२७ ॥

आगच्छत द्रुतं देवा अदितिं सम्प्रविश्य वै । 
मन्वन्तरे प्रसूयामस्तन्नः श्रेयो भवेदिति ॥ १२८ 
एवमुक्त्वा तु ते सर्वे चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
मारीचात्कश्यपाञ्जाता अदित्या दक्षकन्यया ॥ १२९
तत्र विष्णुश्च शक्रश्च जज्ञाते पुनरेव हि। 
अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा तथैव च ॥ १३०
विवस्वान्सविता चैव मित्रो वरुण एव च । 
अंशुर्भगश्चातितेजा आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ १३१ 
चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वमासन्ये तुषिताः सुराः । 
वैवस्वतेऽन्तरे ते वै आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ १३२
याः सप्तविंशतिः प्रोक्ताः सोमपत्न्योऽथ सुव्रताः ।
सर्वा नक्षत्रयोगिन्यस्तन्नाम्न्यश्चैव ताः स्मृताः ॥ १३३
तासामपत्यान्यभवन्दीप्तान्यमिततेजसाम् । 
अरिष्टनेमिपत्नीनामपत्यानीह षोडश ॥ १३४ 
बहुपुत्रस्य विदुषश्चतस्त्रो विद्युतः स्मृताः ॥ १३५ 
प्रत्यङ्गिरसजाः श्रेष्ठा ऋचो ब्रह्मर्षिसत्कृताः ।
कृशाश्वस्य तु देवर्षेर्देवप्रहरणाः स्मृताः ॥ १३६
एते युगसहस्त्रान्ते जायन्ते पुनरेव हि। 
सर्वे देवगणास्तात त्रयस्त्रिंशत्तु छन्दजाः ॥ १३७
तेषामपीह सततं निरोधोत्पत्तिरुच्यते ॥ १३८
यथा सूर्यस्य मैत्रेय उदयास्तमनाविह। 
एवं देवनिकायास्ते सम्भवन्ति युगे युगे ॥ १३९
दित्या पुत्रद्वयं जज्ञे कश्यपादिति नः श्रुतम् । 
हिरण्यकशिपुश्चैव हिरण्याक्षश्च दुर्जयः ॥ १४० 
सिंहिका चाभवत्कन्या विप्रचित्तेः परिग्रहः ॥ १४१ 
हिरण्यकशिपोः पुत्राश्चत्वारः प्रथितौजसः ।
अनुद्वादश्च ह्लादश्च प्रह्लादश्चैव बुद्धिमान् ।
संह्लादश्च महावीर्या दैत्यवंशविवर्द्धनाः ॥ १४२


"हे देवगण! आओ, हमलोग शीघ्र ही अदितिके गर्भमें प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तरमें जन्म लें, इसीमें हमारा हित है"  इस प्रकार चाक्षुष-मन्वन्तरमें निश्चयकर उन सबने मरीचिपुत्र कश्यपजीके यहाँ दक्षकन्या अदितिके गर्भसे जन्म लिया  वे अति तेजस्वी उससे उत्पन्न होकर विष्णु, इन्द्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान्, सविता, मैत्र, वरुण, अंशु और भग नामक द्वादश आदित्य कहलाये इस प्रकार पहले चाक्षुष-मन्वन्तरमें जो तुषित नामक देवगण थे वे ही वैवस्वत मन्वन्तरमें द्वादश आदित्य हुए  सोमकी जिन सत्ताईस सुव्रता पत्नियोंके विषयमें पहले कह चुके हैं वे सब नक्षत्रयोगिनी हैं और उन नामों से ही विख्यात हैं उन अति तेज स्विनियों से अनेक प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न हुए। अरिष्टनेमिकी पत्नियोंके सोलह पुत्र हुए। बुद्धिमान् बहुपुत्रकी भार्या [ कपिला, अतिलोहिता, पीता और अशिता "नामक चार प्रकारकी विद्युत् कही जाती हैं ब्रह्मर्षियोंसे सत्कृत ऋचाओंके अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यंगिरासे उत्पन्न हुए हैं तथा शास्त्रोंके अभिमानी देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाश्वकी सन्तान कहे जाते हैं हे तात ! [ आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, प्रजापति और वषट्‌कार] ये तैंतीस वेदोक्त देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले हैं। कहते हैं, इस लोकमें इनके उत्पत्ति और निरोध निरन्तर हुआ करते हैं। ये एक हजार युगके अनन्तर पुनः पुनः उत्पन्न होते रहते हैं  हे मैत्रेय ! जिस प्रकार लोकमें सूर्यके अस्त और उदय निरन्तर हुआ करते हैं उसी प्रकार ये देवगण भी युग-युगमें उत्पन्न होते रहते हैं हमने सुना है दितिके कश्यपजीके वीर्यसे परम दुर्जय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हुई जो विप्रचित्तिको विवाही गयी हिरण्यकशिपुके अति तेजस्वी और महापराक्रमी अनुह्लाद, ह्लाद, बुद्धिमान् प्रह्लाद और संह्लाद नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यवंशको बढ़ानेवाले थे ॥  १२८ - १४२ ॥

तेषां मध्ये महाभाग सर्वत्र समदृग्वशी। 
प्रह्लादः परमां भक्तिं य उवाच जनार्दने ।॥ १४३ 
दैत्येन्द्रदीपितो वह्निः सर्वाङ्गोपचितो द्विज । 
न ददाह च यं विप्र वासुदेवे हृदि स्थिते ॥ १४४ 
महार्णवान्तः सलिले स्थितस्य चलतो मही। 
चचाल सकला यस्य पाशबद्धस्य धीमतः ।। १४५  
न भिन्नं विविधैः शस्त्रैर्यस्य दैत्येन्द्रपातितैः । 
शरीरमद्रिकठिनं सर्वत्राच्युतचेतसः ।। १४६ 
विषानलोज्ज्वलमुखा यस्य दैत्यप्रचोदिताः । 
नान्ताय सर्पपतयो बभूवुरुरुतेजसः ॥ १४७ 
शैलैराक्रान्तदेहोऽपि यः स्मरन्पुरुषोत्तमम् ।
तत्याज नात्मनः प्राणान् विष्णुस्मरण दंशितः ॥ १४८
पतन्तमुच्चादवनिर्यमुपेत्य महामतिम् । 
दधार दैत्यपतिना क्षिप्तं स्वर्गनिवासिना ॥ १४९ 
यस्य संशोषको वायुर्देहे दैत्येन्द्रयोजितः । 
अवाप सङ्क्षयं सद्यश्चित्तस्थे मधुसूदने ॥ १५०
विषाणभङ्गमुन्मत्ता मदहानिं च दिग्गजाः ।
यस्य वक्षःस्थले प्राप्ता दैत्येन्द्रपरिणामिताः ॥ १५१ 
यस्य चोत्पादिता कृत्या दैत्यराजपुरोहितैः ।
बभूव नान्ताय पुरा गोविन्दासक्तचेतसः ॥ १५२ 
शम्बरस्य च मायानां सहस्त्रमतिमायिनः ।
यस्मिन्प्रयुक्तं चक्रेण कृष्णस्य वितथीकृतम् ॥ १५३
दैत्येन्द्रसूदोपहृतं यस्य हालाहलं विषम् ।
जरयामास मतिमानविकारममत्सरी ॥ १५४
समचेता जगत्यस्मिन्यः सर्वेष्वेव जन्तुषु ।
यथात्मनि तथान्येषां परं मैत्रगुणान्वितः ॥ १५५
धर्मात्मा सत्यशौर्यादिगुणानामाकरः परः । 
उपमानमशेषाणां साधूनां यः सदाभवत् ॥ १५६

हे महाभाग ! उनमें प्रह्लादजी सर्वत्र समदर्शी और जितेन्द्रिय थे, जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान्‌की परम भक्तिका वर्णन किया था जिनको दैत्यराजद्वारा दीप्त किये हुए अग्निने उनके सर्वांगमें व्याप्त होकर भी, हृदयमें वासुदेव भगवान्‌के स्थित रहनेसे नहीं जला पाया जिन महाबुद्धिमान्‌के पाशबद्ध होकर समुद्रके जलमें पड़े-पड़े इधर-उधर हिलने-डुलनेसे सारी पृथिवी हिलने लगी थी जिनका पर्वतके समान कठोर शरीर, सर्वत्र भगवच्चित्त रहनेके कारण दैत्यराजके चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रोंसे भी छिन्न-भिन्न नहीं हुआ  दैत्यराजद्वारा प्रेरित विषाग्निसे प्रज्वलित मुखवाले सर्प भी जिन महातेजस्वीका अन्त नहीं कर सके  जिन्होंने भगवत्स्मरणरूपी कवच धारण किये रहनेके कारण पुरुषोत्तम भगवान्‌का स्मरण करते हुए पत्थरोंकी मार पड़नेपर भी अपने प्राणोंको नहीं छोड़ा  स्वर्गनिवासी दैत्यपतिद्वारा ऊपरसे गिराये जानेपर जिन महामतिको पृथिवीने पास जाकर बीचहीमें अपनी गोदमें धारण कर लिया चित्तमें श्रीमधुसूदनभगवान्के स्थित रहनेसे दैत्यराजका नियुक्त किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीरमें लगनेसे शान्त हो गया दैत्येन्द्रद्वारा आक्रमणके लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजोंके दाँत जिनके वक्षःस्थलमें लगनेसे टूट गये और उनका सारा मद चूर्ण हो गया पूर्वकालमें दैत्यराजके पुरोहितोंकी उत्पन्न की हुई कृत्या भी जिन गोविन्दा सक्तचित्त भक्तराज के अन्तका कारण नहीं हो सकी जिनके ऊपर प्रयुक्त की हुई अति मायावी शम्बरासुर की हजारों मायाएँ श्रीकृष्णचन्द्रके चक्रसे व्यर्थ हो गयीं  जिन मतिमान् और निर्मत्सरने दैत्यराजके रसोइयों के लाये हुए हलाहल विषको निर्विकार-भावसे पचा लिया जो इस संसारमें समस्त प्राणियोंके प्रति समान चित्त और अपने समान ही दूसरोंके लिये भी परमप्रेमयुक्त थे और जो परम धर्मात्मा महापुरुष, सत्य एवं शौर्य आदि गुणोंकी खानि तथा समस्त साधु-पुरुषोंके लिये उपमानस्वरूप हुए थे ॥ १४३  - १५६ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

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