विष्णु पुराण अध्याय तेरहवाँ - Vishnu Purana Chapter 13

विष्णु पुराण अध्याय तेरहवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 13 in Sanskrit and Hindi

तेरहवाँ अध्याय राजा वेन और पृथुका चरित्र !
  • श्रीपराशर उवाच
धुवाच्छिष्टिं च भव्यं च भव्याच्छम्भुर्व्यजायत ।
शिष्टेराधत्त सुच्छाया पञ्चपुत्रानकल्मषान् ॥ १
रिपुं रिपुञ्जयं विप्रं वृकलं वृकतेजसम् !
रिपोराधत्त बृहती चाक्षुषं सर्वतेजसम् ॥ २
अजीजनत्पुष्करिण्यां वारुण्यां चाक्षुषो मनुम् । 
प्रजापतेरात्मजायां वीरणस्य महात्मनः ॥ ३
मनोरजायन्त दश नड्वलायां महौजसः ।
कन्यायां तपतां श्रेष्ठ वैराजस्य प्रजापतेः ॥ ४
कुरुः पुरुः शतद्युम्नस्तपस्वी सत्यवाञ्छुचिः ।
अग्निष्टोमोऽतिरात्रश्च सुद्युम्नश्चेति ते नव।
अभिमन्युश्च दशमो नड्वलायां महौजसः ॥ ५
कुरोरजनयत्पुत्रान् षडाग्नेयी महाप्रभान् ।
अङ्गं सुमनसं ख्यातिं क्रतुमङ्गिरसं शिबिम् ॥ ६
अङ्गात्सुनीथापत्यं वै वेनमेकमजायत।
प्रजार्थमृषयस्तस्य ममन्धुर्दक्षिणं करम् ॥ ७
वेनस्य पाणौ मथिते सम्बभूव महामुने। 
वैन्यो नाम महीपालो यः पृथुः परिकीर्त्तितः ॥ ८
येन दुग्धा मही पूर्वं प्रजानां हितकारणात् ॥ ९

विष्णु पुराण अध्याय  तेरहवाँ  - Vishnu Purana Chapter 13
  • श्रीपराशरजी बोले
हे मैत्रेय! ध्रुवसे [ उसकी पत्नीने] शिष्टि और भव्यको उत्पन्न किया और भव्यसे शम्भुका जन्म हुआ तथा शिष्टिके द्वारा उसकी पत्नी सुच्छायाने रिपु, रिपुंजय, विप्र, वृकल और वृकतेजा नामक पाँच निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये। उनमेंसे रिपुके द्वारा बृहतीके गर्भसे महातेजस्वी चाक्षुषका जन्म हुआ  चाक्षुषने अपनी भार्या पुष्करणीसे, जो वरुण-कुलमें उत्पन्न और महात्मा वीरण प्रजापतिकी पुत्री थी, मनुको उत्पन्न किया [जो छठे मन्वन्तरके अधिपति हुए तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मनुसे वैराज प्रजापतिकी पुत्री नड्वलाके गर्भमें दस महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुए नड्वलासे कुरु, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवान्, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र तथा नवाँ सुद्युम्न और दसवाँ अभिमन्यु इन महातेजस्वी पुत्रोंका जन्म हुआ  कुरुके द्वारा उसकी पत्नी आग्नेयीने अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और शिबि इन छः परम तेजस्वी पुत्रोंको उत्पन्न किया अंगसे सुनीथाके वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ऋषियोंने उस (वेन) के दाहिने हाथका सन्तानके लिये मन्थन किया था हे महामुने ! वेनके हाथका मन्थन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपाल उत्पन्न हुए जो पृथु नामसे विख्यात हैं और जिन्होंने प्रजाके हितके लिये पूर्वकालमें पृथिवीको दुहा था ॥ १ - ९ ॥
  • श्रीमैत्रेय उवाच
किमर्थं मथितः पाणिर्वेनस्य परमर्षिभिः ।
यत्र जज्ञे महावीर्यः स पृथुर्मुनिसत्तम ॥ १०
  • श्रीमैत्रेयजी बोले
हे मुनिश्रेष्ठ! पर मर्षियों ने वेन के हाथ को क्यों मथा जिस से महापरा क्रमी पृथु का जन्म हुआ ? ॥ १०॥
  • श्रीपराशर उवाच
सुनीथा नाम या कन्या मृत्योः प्रथमतोऽभवत् । 
अङ्गस्य भार्या सा दत्ता तस्यां वेनो व्यजायत । ११
स मातामहदोषेण तेन मृत्योः सुतात्मजः । 
निसर्गादेष मैत्रेय दुष्ट एव व्यजायत ॥ १२
अभिषिक्तो यदा राज्ये स वेनः परमर्षिभिः । 
घोषयामास स तदा पृथिव्यां पृथिवीपतिः ॥ १३
न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं कथञ्चन। 
भोक्ता यज्ञस्य कस्त्वन्यो ह्यहं यज्ञपतिः प्रभुः ।। १४
ततस्तमृषयः पूर्वं सम्पूज्य पृथिवीपतिम् । 
ऊचुः सामकलं वाक्यं मैत्रेय समुपस्थिताः ॥ १५
  • श्रीपराशरजी बोले
हे मुने। मृत्युकी सुनीथा नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अंगको पत्नीरूपसे दी (व्याही) गयी थी। उसीसे वेनका जन्म हुआ हे मैत्रेय ! वह मृत्युकी कन्याका पुत्र अपने मातामह (नाना)- के दोषसे स्वभावसे ही दुष्ट प्रकृति हुआ उस वेनका जिस समय महर्षियोंद्वारा राजपदपर अभिषेक हुआ उसी समय उस पृथिवी पति ने संसारभर में यह घोषणा कर दी कि 'भगवान्, यज्ञपुरुष मैं ही हूँ, मुझसे अतिरिक्त यज्ञ का भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है? इसलि ये कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करे हे मैत्रेय! तब ऋषियोंने उस पृथिवीपतिके पास उपस्थित हो पहले उसकी खूब प्रशंसा कर सान्त्वनायुक्त मधुर वाणीसे कहा ॥११ - १५ ॥
  • ऋषय ऊचुः
भो भो राजन् शृणुष्व त्वं यद्वदाम महीपते। 
राज्यदेहोपकाराय प्रजानां च हितं परम् ॥ १६
दीर्घसत्रेण देवेशं सर्वयज्ञेश्वरं हरिम् । 
पूजयिष्याम भद्रं ते तस्यांशस्ते भविष्यति ॥ १७
यज्ञेन यज्ञपुरुषो विष्णुः सम्प्रीणितो नृप। 
अस्माभिर्भवतः कामान्सर्वानेव प्रदास्यति ॥ १८
यज्ञैर्यज्ञेश्वरो येषां राष्ट्रे सम्पूज्यते हरिः । 
तेषां सर्वेप्सितावाप्तिं ददाति नृप भूभृताम् ॥ १९
  • ऋषिगण बोले
हे राजन् ! हे पृथिवीपते! तुम्हारे राज्य और देहके उपकार तथा प्रजाके हितके लिये हम जो बात कहते हैं, सुनो तुम्हारा कल्याण हो; देखो, हम बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा जो सर्व-यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान् हरिका पूजन करेंगे उसके फलमेंसे तुमको भी [छठा] भाग मिलेगा हे नृप ! इस प्रकार यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर हमलोगोंके साथ तुम्हारी भी सकल कामनाएँ पूर्ण करेंगे  हे राजन् जिन राजाओंके राज्यमें यज्ञेश्वर भगवान् हरिका यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है, वे उनकी सभी कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं॥ १६ - १९॥
  • वेन उवाच
मत्तः कोऽभ्यधिकोऽन्योऽस्ति कश्चाराध्यो ममापरः ।
कोऽयं हरिरिति ख्यातो यो वो यज्ञेश्वरो मतः ॥ २०
ब्रह्मा जनार्दनः शम्भुरिन्द्रो वायुर्यमो रविः । 
हुतभुग्वरुणो धाता पूषा भूमिर्निशाकरः ॥ २१ 
एते चान्ये च ये देवाः शापानुग्रहकारिणः । 
नृपस्यैते शरीरस्थाः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २२
एवं ज्ञात्वा मयाज्ञप्तं यद्यथा क्रियतां तथा।
न दातव्यं न यष्टव्यं न होतव्यं च भो द्विजाः ॥ २३
भर्तृशुश्रूषणं धर्मो यथा स्त्रीणां परो मतः ।
ममाज्ञापालनं धर्मो भवतां च तथा द्विजाः ॥ २४

  • वेन बोला- 
मुझ से भी बढ़कर ऐसा और कौन है जो मेरा भी पूजनीय है? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वह 'हरि' कहलानेवाला कौन है?  ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, पूषा, पृथिवी और चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और कृपा करनेमें समर्थ हैं वे सभी राजाके शरीरमें निवास करते हैं, इस प्रकार राजा सर्वदेवमय है हे ब्राह्मणो! ऐसा जानकर मैंने जैसी जो कुछ आज्ञा की है वैसा ही करो। देखो, कोई भी दान, यज्ञ और हवन आदि न करे हे द्विजगण ! स्त्रीका परमधर्म जैसे अपने पतिकी सेवा करना ही माना गया है वैसे ही आपलोगोंका धर्म भी मेरी आज्ञाका पालन करना ही है॥ २० - २४॥
  • ऋषय ऊचुः
देह्यनुज्ञां महाराज मा धर्मो यातु सङ्क्षयम्। 
हविषां परिणामोऽयं यदेतदखिलं जगत् ॥ २५
  • ऋषिगण बोले 
महाराज! आप ऐसी आज्ञा दीजिये, जिस से धर्म का क्षय न हो। देखिये, यह सारा जगत् हवि (यज्ञमें हवन की हुई सामग्री) का ही परिणाम है॥ २५ ॥
  • श्रीपराशर उवाच
इति विज्ञाप्यमानोऽपि स वेनः परमर्षिभिः ।
यदा ददाति नानुज्ञां प्रोक्तः प्रोक्तः पुनः पुनः ॥ २६
ततस्ते मुनयः सर्वे कोपामर्षसमन्विताः ।
हन्यतां हन्यतां पाप इत्यूचुस्ते परस्परम् ॥ २७
यो यज्ञपुरुषं विष्णुमनादिनिधनं प्रभुम् ।
विनिन्दत्यधमाचारो न स योग्यो भुवः पतिः ॥ २८
इत्युक्त्वा मन्त्रपूतैस्तैः कुशैर्मुनिगणा नृपम् ।
निजघ्नुर्निहतं पूर्व भगवन्निन्दनादिना ॥ २९
ततश्च मुनयो रेणुं ददृशुः सर्वतो द्विज।
किमेतदिति चासन्नान्पप्रच्छुस्ते जनांस्तदा ॥ ३०
आख्यातं च जनैस्तेषां चोरीभूतैरराजके ।
राष्ट्रे तु लोकैरारब्धं परस्वादानमातुरैः ॥ ३१
तेषामुदीर्णवेगानां चोराणां मुनिसत्तमाः ।
सुमहान् दृश्यते रेणुः परवित्तापहारिणाम् ॥ ३२
ततः सम्मन्त्र्य ते सर्वे मुनयस्तस्य भूभृतः ।
ममन्धुरूरुं पुत्रार्थमनपत्यस्य यत्नतः ॥ ३३
  • श्रीपराशरजी बोले
महर्षियोंके इस प्रकार बारम्बार समझाने और कहने-सुननेपर भी जब वेनने ऐसी आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यन्त क्रुद्ध और अमर्षयुक्त होकर आपसमें कहने लगे 'इस पापीको मारो, मारो ! जो अनादि और अनन्त यज्ञपुरुष प्रभु विष्णुकी निन्दा करता है वह अनाचारी किसी प्रकार पृथिवीपति होनेके योग्य नहीं है'  ऐसा कह मुनिगणोंने, भगवान्‌की निन्दा आदि करनेके कारण पहले ही मरे हुए उस राजाको मन्त्रसे पवित्र किये हुए कुशाओंसे मार डाला  हे द्विज ! तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने सब ओर बड़ी धूलि उठती देखी, उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती लोगोंसे पूछा- "यह क्या है?" उन पुरुषोंने कहा- "राष्ट्रके राजाहीन हो जानेसे दीन-दुखिया लोगोंने चोर बनकर दूसरोंका धन लूटना आरम्भ कर दिया है हे मुनिवरो ! उन तीव्र वेगवाले परधनहारी चोरोंके उत्पातसे ही यह बड़ी भारी धूलि उड़ती दीख रही है"  तब उन सब मुनीश्वरोंने आपसमें सलाह कर उस पुत्रहीन राजाकी जंघाका पुत्रके लिये यत्नपूर्वक मन्थन किया ॥ २६ - ३३ ॥

मध्यमानात्समुत्तस्थौ तस्योरोः पुरुषः किल ।
दग्धस्थूणाप्रतीकाशः खर्बाटास्योऽतिह्रस्वकः ।। ३४
किं करोमीति तान्सर्वान्स विप्रानाह चातुरः ।
निषीदेति तमूचुस्ते निषादस्तेन सोऽभवत् ॥ ३५
ततस्तत्सम्भवा जाता विन्ध्यशैलनिवासिनः ।
निषादा मुनिशार्दूल पापकर्मोपलक्षणाः ॥ ३६
तेन द्वारेण तत्पापं निष्क्रान्तं तस्य भूपतेः ।
निषादास्ते ततो जाता वेनकल्मषनाशनाः ॥ ३७
तस्यैव दक्षिणं हस्तं ममन्थुस्ते ततो द्विजाः ॥ ३८
मध्यमाने च तत्राभूत्पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् ।
दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिव ज्वलन् ॥ ३९
आद्यमाजगवं नाम खात्पपात ततो धनुः ।
शराश्च दिव्या नभसः कवचं च पपात ह ॥ ४०


उसकी जंघाके मथनेपर उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो जले दूँठके समान काला, अत्यन्त नाटा और छोटे मुखवाला था उसने अति आतुर होकर उन सब ब्राह्मणोंसे कहा- 'मैं क्या करूँ?" उन्होंने कहा- "निषीद (बैठ)" अतः वह 'निषाद' कहलाया  इसलिये हे मुनिशार्दूल ! उससे उत्पन्न हुए लोग विन्ध्याचलनिवासी पाप-परायण निषादगण हुए उस निषादरूप द्वारसे राजा वेनका सम्पूर्ण पाप निकल गया। अतः निषादगण वेनके पापोंका नाश करनेवाले हुए  फिर उन ब्राह्मणोंने उसके दायें हाथका मन्धन किया। उसका मन्थन करनेसे परम प्रतापी वेनसुवन पृथु प्रकट हुए, जो अपने शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्यमान थे  इसी समय आजगव नामक आद्य (सर्वप्रथम) धनुष और दिव्य बाण तथा कवच आकाशसे गिरे ॥ ३४ - ४० ॥

तस्मिन् जाते तु भूतानि सम्प्रहृष्टानि सर्वशः ॥ ४१
सत्पुत्रेणैव जातेन वेनोऽपि त्रिदिवं ययौ।
पुन्नाम्नो नरकात् त्रातः सुतेन सुमहात्मना ।। ४२
तं समुद्राश्च नद्यश्च रत्नान्यादाय सर्वशः ।
तोयानि चाभिषेकार्थ सर्वाण्येवोपतस्थिरे ।। ४३
पितामहश्च भगवान्देवैराङ्गिरसैः सह।
स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि च सर्वशः ।
समागम्य तदा वैन्यमभ्यसिञ्चन्नराधिपम् ॥ ४४
हस्ते तु दक्षिणे चक्रं दृष्ट्वा तस्य पितामहः ।
विष्णोरंशं पृथु मत्वा परितोषं परं ययौ ।। ४५
विष्णुचक्रं करे चिह्नं सर्वेषां चक्रवर्तिनाम् ।
भवत्यव्याहतो यस्य प्रभावस्त्रिदशैरपि ॥ ४६
महता राजराज्येन पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
सोऽभिषिक्तो महातेजा विधिवद्धर्मकोविदैः ॥ ४७

उनके उत्पन्न होनेसे सभी जीवोंको अति आनन्द हुआ और केवल सत्पुत्रके ही जन्म लेनेसे वेन भी स्वर्गलोक को चला गया। इस प्रकार महात्मा पुत्रके कारण ही उसकी पुम् अर्थात् नरकसे रक्षा हुई  महाराज पृथुके अभिषेकके लिये सभी समुद्र और नदियाँ सब प्रकारके रत्न और जल लेकर उपस्थित हुए  उस समय आंगिरस देवगणोंके सहित पितामह ब्रह्माजीने और समस्त स्थावर जंगम प्राणियोंने वहाँ आकर महाराज वैन्य (वेनपुत्र) का राज्याभिषेक किया उनके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न देखकर उन्हें विष्णुका अंश जान पितामह ब्रह्माजीको परम आनन्द हुआ  यह श्रीविष्णुभगवान्‌के चक्रका चिह्न सभी चक्रवर्ती राजाओंके हाथमें हुआ करता है। उनका प्रभाव कभी देवताओंसे भी कुण्ठित नहीं होता इस प्रकार महातेजस्वी और परम प्रतापी वेनपुत्र धर्मकुशल महानुभावोंद्वारा विधिपूर्वक अति महान् राजराजेश्वरपदपर अभिषिक्त हुए ॥ ४१ - ४७ ॥

पित्राऽपरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनानुरञ्जिताः । 
अनुरागात्ततस्तस्य नाम राजेत्यजायत ।॥ ४८
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः । 
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ ४९ 
अकृष्टपच्या पृथिवी सिद्धयन्त्यन्नानि चिन्तया। 
सर्वकामदुधा गावः पुटके पुटके मधु ॥ ५० 
तस्य वै जातमात्रस्य यज्ञे पैतामहे शुभे। 
सूतः सूत्यां समुत्पन्नः सौत्येऽहनि महामतिः ।॥ ५१ 
तस्मिन्नेव महायज्ञे जज्ञे प्राज्ञोऽथ मागधः । 
प्रोक्तौ तदा मुनिवरैस्तावुभौ सूतमागधौ ।। ५२
स्तूयतामेष नृपतिः पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् । 
कर्मैतदनुरूपं वां पात्रं स्तोत्रस्य चापरम् ॥ ५३ 
ततस्तावूचतुर्विप्रान्सर्वानेव कृताञ्जली। 
अद्य जातस्य नो कर्म ज्ञायतेऽस्य महीपतेः ॥ ५४ 
गुणा न चास्य ज्ञायन्ते न चास्य प्रथितं यशः । 
स्तोत्रं किमाश्रयं त्वस्य कार्यमस्माभिरुच्यताम् ।। ५५

जिस प्रजाको पिताने अपरक्त (अप्रसन्न) किया था उसीको उन्होंने अनुरंजित (प्रसन्न) किया, इसलिये अनुरंजन करनेसे उनका नाम 'राजा' हुआ  जब वे समुद्रमें चलते थे तो जल बहनेसे रुक जाता था, पर्वत उन्हें मार्ग देते थे और उनकी ध्वजा कभी भंग नहीं हुई  पृथिवी बिना जोते-बोये धान्य पकानेवाली थी; केवल चिन्तनमात्रसे ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गौएँ कामधेनुरूपा थीं और पत्ते-पत्तेमें मधु भरा रहता था राजा पृथुने उत्पन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया; उससे सोमाभिषव के दिन सूति (सोमाभिषवभूमि) से महामति सूत की उत्पत्ति हुई  उसी महायज्ञ में बुद्धिमान् मागधका भी जन्म हुआ। तब मुनिवरों ने उन दोनों सूत और मागधोंसे कहा- 'तुम इन प्रतापवान् वेनपुत्र महाराज पृथुकी स्तुति करो। तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्तुतिके ही योग्य हैं' तब उन्होंने हाथ जोड़कर सब ब्राह्मणोंसे कहा- "ये महाराज तो आज ही उत्पन्न हुए हैं, हम इनके कोई कर्म तो जानते ही नहीं हैं अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए हैं और न यश ही विख्यात हुआ है; फिर कहिये, हम किस आधारपर इनकी स्तुति करें" ॥ ४८ - ५५ ॥
  • ऋषय ऊचुः
करिष्यत्येष यत्कर्म चक्रवर्ती महाबलः । 
गुणा भविष्या ये चास्य तैरयं स्तूयतां नृपः ॥ ५६

  • ऋषिगण बोले
ये महाबली चक्रवर्ती महाराज भविष्यमें जो-जो कर्म करेंगे और इनके जो-जो भावी गुण होंगे उन्हींसे तुम इन का स्तवन करो ॥ ५६ ॥ 
  • श्रीपराशर उवाच
ततः स नृपतिस्तोषं तच्छ्रुत्वा परमं ययौ।
सद्गुणैः श्लाध्यतामेति तस्माल्लभ्या गुणा मम ॥ ५७
तस्माद्यदद्य स्तोत्रेण गुणनिर्वर्णनं त्विमौ ।
करिष्येते करिष्यामि तदेवाहं समाहितः ।। ५८
यदिमौ वर्जनीयं च किञ्चिदत्र वदिष्यतः । 
तदहं वर्जयिष्यामीत्येवं चक्रे मतिं नृपः ॥ ५९
अथ तौ चक्रतुः स्तोत्रं पृथोर्वैन्यस्य धीमतः ।
भविष्यैः कर्मभिः सम्यक् सुस्वरौ सूतमागधौ ।। ६०
सत्यवाग्दानशीलोऽयं सत्यसन्धो नरेश्वरः ।
ह्रीमान्मैत्रः क्षमाशीलो विक्रान्तो दुष्टशासनः ।। ६१ 
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च दयावान् प्रियभाषकः ।
मान्यान्मानयिता यज्वा ब्रह्मण्यः साधुसम्मतः ।। ६२
समः शत्रौ च मित्रे च व्यवहारस्थितौ नृपः ।। ६३
सूतेनोक्तान् गुणानित्थं स तदा मागधेन च।
चकार हृदि तादृक् च कर्मणा कृतवानसौ ।। ६४
ततस्तु पृथिवीपालः पालयन्पृथिवीमिमाम्। 
इयाज विविधैर्यज्ञैर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः ।। ६५
तं प्रजाः पृथिवीनाथमुपतस्थुः क्षुधार्दिताः ।
ओषधीषु प्रणष्टासु तस्मिन्काले ह्यराजके। 
तमूचुस्ते नताः पृष्टास्तत्रागमनकारणम् ॥ ६६
  • श्रीपराशरजी बोले
यह सुनकर राजाको भी परम सन्तोष हुआ; उन्होंने सोचा 'मनुष्य सद्‌गुणोंके कारण ही प्रशंसाका पात्र होता है; अतः मुझको भी गुण उपार्जन करने चाहिये इसलिये अब स्तुतिके द्वारा ये जिन गुणोंका वर्णन करेंगे मैं भी सावधानता पूर्वक वैसा ही करूँगा यदि यहाँपर ये कुछ त्याज्य अवगुणोंको भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागूँगा।' इस प्रकार राजाने अपने चित्तमें निश्चय किया तदनन्तर उन (सूत और मागध) दोनोंने परम बुद्धिमान् वेननन्दन महाराज पृथुका, उनके भावी कमर्मोंके आश्रयसे स्वरसहित भली प्रकार स्तवन किया  [उन्होंने कहा- 'ये महाराज सत्यवादी, दानशील, सत्य मर्यादावाले, लज्जाशील, सुहृद्, क्षमाशील, पराक्रमी और दुष्टोंका दमन करनेवाले हैं॥ ६१॥ ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान्, प्रिय भाषी, माननीयों को मान देनेवाले, यज्ञपरायण, ब्रह्मण्य, साधुसमाजमें सम्मानित और शत्रु तथा मित्रके साथ समान व्यवहार करनेवाले हैं' इस प्रकार सूत और मागधके कहे हुए गुणोंको उन्होंने अपने चित्तमें धारण किया और उसी प्रकारके कार्य किये  तब उन पृथिवीपतिने पृथिवीका पालन करते हुए बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले अनेकों महान् यज्ञ किये  अराजकताके समय ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे भूखसे व्याकुल हुई प्रजा पृथिवीनाथ पृथुके पास आयी और उनके पूछनेपर प्रणाम करके उनसे अपने आनेका कारण निवेदन किया ॥ ५७ - ६६॥
प्रजा ऊचुः
अराजके नृपश्रेष्ठ धरित्र्या सकलौषधीः । 
ग्रस्तास्ततः क्षयं यान्ति प्रजाः सर्वाः प्रजेश्वर ।। ६७ 
त्वन्नो वृत्तिप्रदो धात्रा प्रजापालो निरूपितः ।
देहि नः श्रुत्परीतानां प्रजानां जीवनौषधीः ॥ ६८
  • प्रजाने कहा
हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकताके समय पृथिवीने समस्त ओषधियाँ अपनेमें लीन कर ली हैं, अतः आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही हैविधाताने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है; अतः क्षुधारूप महारोगसे पीड़ित हम प्रजाजनों को आप जीवनरूप ओषधि दीजिये ॥ ६७ - ६८ ॥ 
  • श्रीपराशर उवाच
ततस्तु नृपतिर्दिव्यमादायाजगवं धनुः । 
शरांश्च दिव्यान्कुपितः सोन्वधावद्वसुन्धराम् ॥ ६९
ततो ननाश त्वरिता गौर्भूत्वा च वसुन्धरा। 
सा लोकान्ब्रह्मलोकादीन्सन्त्रासादगमन्मही ॥ ७०
यत्र यत्र ययौ देवी सा तदा भूतधारिणी।
तत्र तत्र तु सा वैन्यं ददृशेऽभ्युद्यतायुधम् ॥ ७१ 
  • श्रीपराशरजी बोले
यह सुनकर महाराज पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्य बाण लेकर भयसे अत्यन्त व्याकुल हुई पृथिवी गौका रूप धारणकर भागी और ब्रह्मलोक आदि सभी लोकोंमें गयी अत्यन्त क्रोधपूर्वक पृथिवीके पीछे दौड़े  तब समस्त भूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी जहाँ-जहाँ भी गयी वहीं-वहीं उसने वेनपुत्र पृथुको शस्त्र-सन्धान किये अपने पीछे आते देखा ॥ ७० - ७१ ॥

ततस्तं प्राह वसुधा पृथु पृथुपराक्रमम् । 
प्रवेपमाना तद्वाणपरित्राणपरायणा ॥ ७२

तब उन प्रबल पराक्रमी महाराज पृथुसे, उनके वाणप्रहारसे बचनेकी कामनासे काँपती हुई पृथिवी इस प्रकार बोली ॥ ७२ ॥
  • पृथिव्युवाच 
स्त्रीवधे त्वं महापापं किं नरेन्द्र न पश्यसि ।
येन मां हन्तुमत्यर्थ प्रकरोषि नृपोद्यमम् ॥ ७३

  • पृथिवीने कहा
हे राजेन्द्र ! क्या आपको स्त्री- वधका महापाप नहीं दीख पड़ता, जो मुझे मारनेपर आप ऐसे उतारू हो रहे हैं? ॥ ७३॥
  • पृथुरुवाच 
एकस्मिन् यत्र निधनं प्रापिते दुष्टकारिणि । 
बहूनां भवति क्षेमं तस्य पुण्यप्रदो वधः ॥ ७४
  • पृथु बोले
जहाँ एक अनर्थकारीको मार देनेसे बहुतोंको सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पुण्यप्रद है ॥ ७४॥
  • पृथिव्युवाच 

प्रजानामुपकाराय यदि मां त्वं हनिष्यसि । 
आधारः कः प्रजानां ते नृपश्रेष्ठ भविष्यति ।। ७५

  • पृथिवी बोली- 
हे नृपश्रेष्ठ ! यदि आप प्रजाके हितके लिये ही मुझे मारना चाहते हैं तो [ मेरे मर जानेपर ] आपकी प्रजाका आधार क्या होगा ? ॥ ७५ ॥
  • पृथुरुवाच 

त्वां हत्वा वसुधे बाणैर्मच्छासनपराङ्मुखीम् । 
आत्मयोगबलेनेमा धारयिष्याम्यहं प्रजाः ॥ ७६

  • पृथुने कहा
अरी वसुधे ! अपनी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली तुझे मारकर मैं अपने योगबलसे ही इस प्रजाको धारण करूँगा ॥ ७६ ॥
  • श्रीपराशर उवाच
ततः प्रणम्य वसुधा तं भूयः प्राह पार्थिवम् । 
प्रवेपिताङ्गी परमं साध्वसं समुपागता ॥ ७७

  • श्रीपराशरजी बोले
तब अत्यन्त भयभीत एवं काँपती हुई पृथिवीने उन पृथिवीपतिको पुनः प्रणाम करके कहा ॥ ७७ ॥
  • पृथिव्युवाच
उपायतः समारब्धाः सर्वे सिद्धयन्त्युपक्रमाः ।
तस्माद्वदाम्युपायं ते तं कुरुष्व यदीच्छसि ॥ ७८
समस्ता या मया जीर्णा नरनाथ महौषधीः ।
यदीच्छसि प्रदास्यामि ताः क्षीरपरिणामिनीः ॥ ७९
तस्मात्प्रजाहितार्थाय मम धर्मभृतां वर।
तं तु वत्सं कुरुष्व त्वं क्षरेयं येन वत्सला ॥ ८०
समां च कुरु सर्वत्र येन क्षीरं समन्ततः ।
वरौषधीबीजभूतं बीजं सर्वत्र भावये ॥ ८१

  • पृथिवी बोली- 
हे राजन् ! यत्नपूर्वक आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। अतः मैं भी आपको एक उपाय बताती हूँ; यदि आपकी इच्छा हो तो वैसा ही करें हे नरनाथ! मैंने जिन समस्त ओषधियोंको पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूपसे मैं दे सकती हूँ अतः हे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज! आप प्रजाके हितके लिये कोई ऐसा वत्स (बछड़ा) बनाइये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूपसे निकाल सकूँ और मुझको आप सर्वत्र समतल कर दीजिये जिससे मैं उत्तमोत्तम ओषधियोंके बीजरूप दुग्धको सर्वत्र उत्पन्न कर सकूँ ॥ ७८ - ८१ ॥ 
  • श्रीपराशर उवाच
तत उत्सारयामास शैलान् शतसहस्त्रशः । 
धनुष्कोट्या तदा वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः ॥ ८२
 न हि पूर्वविसर्गे वै विषमे पृथिवीतले। 
प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा पुराऽभवत् ॥ ८३ 
न सस्यानि न गोरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः ।
वैन्यात्प्रभृति मैत्रेय सर्वस्यैतस्य सम्भवः ॥ ८४

  • श्रीपराशरजी बोले
तब महाराज पृथुने अपने धनुपकी कोटिसे सैकड़ों-हजारों पर्वतोंको उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर इकट्ठा कर दिया  इससे पूर्व पृथिवीके समतल न होनेसे पुर और ग्राम आदिका कोई नियमित विभाग नहीं था हे मैत्रेय ! उस समय अन्न, गोरक्षा, कृषि और व्यापारका भी कोई क्रम न था। यह सब तो वेनपुत्र पृथुके समयसे ही आरम्भ हुआ है॥ ८२ - ८४॥

यत्र यत्र समं त्वस्या भूमेरासीद्विजोत्तम । 
तत्र तत्र प्रजाः सर्वा निवासं समरोचयन् ॥ ८५
आहारः फलमूलानि प्रजानामभवत्तदा। 
कृच्छ्रेण महता सोऽपि प्रणष्टास्वोषधीषु वै ॥ ८६ 
स कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुम् ।
स्वपाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः । 
सस्यजातानि सर्वाणि प्रजानां हितकाम्यया ।। ८७ 
तेनान्नेन प्रजास्तात वर्तन्तेद्यापि नित्यशः ॥ ८८
प्राणप्रदाता स पृथुर्यस्माद्भूमेरभूत्पिता । 
ततस्तु पृथिवीसंज्ञामवापाखिलधारिणी ॥ ८९
ततश्च देवैर्मुनिभिर्दैत्यै रक्षोभिरद्रिभिः । 
गन्धर्वैरुरगैर्यक्षैः पितृभिस्तरुभिस्तथा ।। ९०
तत्तत्पात्रमुपादाय तत्तदुग्धं मुने पयः । 
वत्सदोग्धृविशेषाश्च तेषां तद्योनयोऽभवन् ॥ ९१ 
सैषा धात्री विधात्री च धारिणी पोषणी तथा।
सर्वस्य तु ततः पृथ्वी विष्णुपादतलोद्भवा ॥ ९२ 
एवं प्रभावस्स पृथुः पुत्रो वेनस्य वीर्यवान्। 
जज्ञे महीपतिः पूर्वी राजाभूज्ञ्जनरञ्जनात् ॥ ९३
य इदं जन्म वैन्यस्य पृथोः संकीर्त्तयेन्नरः । 
न तस्य दुष्कृतं किञ्चित्फलदायि प्रजायते ॥ ९४ 
दुस्स्वप्नोपशमं नृणां शृण्वतामेतदुत्तमम् । 
पृथोर्जन्म प्रभावश्च करोति सततं नृणाम् ॥ ८५ - ९५

हे द्विजोत्तम! जहाँ-जहाँ भूमि समतल थी वहीं- वहींपर प्रजाने निवास करना पसन्द किया उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल मूलादि ही था; वह भी ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे बड़ा दुर्लभ हो गया था  तब पृथिवीपति पृथुने स्वायम्भुवमनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें ही पृथिवीसे प्रजाके हितके लिये समस्त धान्योंको दुहा। हे तात! उसी अन्नके आधारसे अब भी सदा प्रजा जीवित रहती है महाराज पृथु प्राणदान करनेके कारण भूमिके पिता हुए, इसलिये उस सर्वभूतधारिणीको 'पृथिवी' नाम मिला हे मुने! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत, गन्धर्व, सर्प, यक्ष और पितृगण आदिने अपने-अपने पात्रोंमें अपना अभिमत दूध दुहा तथा दुहनेवालों के  अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए इसीलिये विष्णुभगवान्‌के चरणोंसे प्रकट हुई यह पृथिवी ही सबको जन्म देनेवाली, बनानेवाली तथा धारण और पोषण करनेवाली है  इस प्रकार पूर्वकालमें वेनके पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली और वीर्यवान् हुए। प्रजाका रंजन करनेके कारण वे राजा' कहलाये जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता है उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नहीं होता पृथु का यह अत्युत्तम जन्म-वृत्तान्त और उनका प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषोंके दुःस्वप्नोंको सर्वदा शान्त कर देता है॥ ८५ - ९५ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

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