विष्णु पुराण अध्याय ग्यारहवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 11 in Sanskrit and Hindi
ग्यारहवाँ अध्याय ध्रुव का वनगमन और मरीचि आदि ऋषियों से भेंट !प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायंभुवस्य तु।
द्वौ पुत्रौ तु महावीर्यों धर्मज्ञौ कथितौ तव ॥ १
तयोरुत्तानपादस्य सुरुच्यामुत्तमः सुतः ।
अभीष्टायामभूद्ब्रह्मन्पितुरत्यन्तवल्लभः ॥ २
सुनीतिर्नाम या राज्ञस्तस्यासीन्महिषी द्विज ।
स नातिप्रीतिमांस्तस्यामभूद्यस्या ध्रुवः सुतः ॥ ३
राजासनस्थितस्याङ्क पितुर्भातरमाश्रितम् ।
दृष्ट्वोत्तमं ध्रुवश्चक्रे तमारोढुं मनोरथम् ॥ ४
प्रत्यक्षं भूपतिस्तस्याः सुरुच्या नाभ्यनन्दत ।
प्रणयेनागतं पुत्रमुत्सङ्गारोहणोत्सुकम् ॥ ५
सपत्नीतनयं दृष्ट्वा तमङ्कारोहणोत्सुकम् ।
स्वपुत्रं च तथारूढं सुरुचिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ६
क्रियते किं वृथा वत्स महानेष मनोरथः ।
अन्यस्त्रीगर्भजातेन ह्यसम्भूय ममोदरे ॥ ७
उत्तमोत्तममप्राप्यमविवेको हि वाञ्छसि।
सत्यं सुतस्त्वमप्यस्य किन्तु न स्वं मया धृतः ॥ ८
एतद्राजासनं सर्वभूभृत्संश्रयकेतनम् ।
योग्यं ममैव पुत्रस्य किमात्मा क्लिश्यते त्वया ॥ ९
उच्चैर्मनोरथस्तेऽयं मत्पुत्रस्येव किं वृथा।
सुनीत्यामात्मनो जन्म किं त्वया नावगम्यते ॥ १०
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विष्णु पुराण अध्याय ग्यारहवाँ - Vishnu Purana Chapter 11 |
हे मैत्रेय! मैंने तुम्हें स्वायम्भुवमनुके प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान् और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे हे ब्रह्मन् ! उनमेंसे उत्तानपादकी प्रेयसी पत्नी सुरुचिसे पिताका अत्यन्त लाडला उत्तम नामक पुत्र हुआ हे द्विज ! उस राजाकी जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था। उसका पुत्र ध्रुव हुआ एक दिन राजसिंहासनपर बैठे हुए पिताकी गोदमें अपने भाई उत्तमको बैठा देख ध्रुवकी इच्छा भी गोदमें बैठनेकी हुई किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचिके सामने, गोदमें चढ़नेके लिये उत्कण्ठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्रका आदर नहीं किया अपनी सौतके पुत्रको गोदमें चढ़नेके लिये उत्सुक और अपने पुत्रको गोदमें बैठा देख सुरुचि इस प्रकार कहने लगी "अरे लल्ला! बिना मेरे पेटसे उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्रीका पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है? तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकी इच्छा करता है। यह ठीक है कि तू भी इन्हीं राजाका पुत्र है, तथापि मैंने तो तुझे अपने गर्भमें धारण नहीं किया ! समस्त चक्रवर्ती राजाओंका आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्रके योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्तको सन्ताप देता है ? मेरे पुत्रके समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है? क्या तू नहीं जानता कि तेरा जन्म सुनीतिसे हुआ है?" ॥ १ - १० ॥
उत्सृज्य पितरं बालस्तच्छ्रुत्वा मातृभाषितम्
जगाम कुपितो मातुर्निजाया द्विज मन्दिरम् ॥ ११
तं दृष्ट्वा कुपितं पुत्रमीषत्प्रस्फुरिताधरम् ।
सुनीतिरङ्कमारोप्य मैत्रेयेदमभाषत ॥ १२
वत्स कः कोपहेतुस्ते कश्च त्वां नाभिनन्दति ।
कोऽवजानाति पितरं वत्स यस्तेऽपराध्यति ॥ १३
हे द्विज! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोड़कर अपनी माताके महलको चल दिया हे मैत्रेय ! जिसके ओष्ठ कुछ-कुछ काँप रहे थे-ऐसे अपने पुत्रको क्रोधयुक्त देख सुनीतिने उसे गोदमें बिठाकर पूछा- "बेटा! तेरे क्रोधका क्या कारण है? तेरा किसने आदर नहीं किया? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजीका अपमान करने चला है?" ॥ ११ - १३ ॥
इत्युक्तः सकलं मात्रे कथयामास तद्यथा ।
सुरुचिः प्राह भूपालप्रत्यक्षमतिगर्विता ॥ १४
विनिःश्वस्येति कथिते तस्मिन्पुत्रेण दुर्मनाः ।
श्वासक्षामेक्षणा दीना सुनीतिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १५
ऐसा पूछनेपर ध्रुवने अपनी मातासे वे सब बातें कह दीं जो अति गर्वीली सुरुचिने उससे पिताके सामने कही थीं अपने पुत्रके सिसक- सिसककर ऐसा कहनेपर दुःखिनी सुनीतिने खिन्नचित्त और दीर्घ निःश्वासके कारण मलिननयना होकर कहा ॥ १४ - १५ ॥
सुरुचिः सत्यमाहेदं मन्दभाग्योऽसि पुत्रक ।
न हि पुण्यवतां वत्स सपत्नैरेवमुच्यते ॥ १६
नोद्वेगस्तात कर्त्तव्यः कृतं यद्भवता पुरा।
तत्कोऽपहत्तुं शक्नोति दातुं कश्चाकृतं त्वया ॥ १७
तत्त्वया नात्र कर्त्तव्यं दुःखं तद्वाक्यसम्भवम् ॥ १८
राजासनं राजच्छत्रं वराश्ववरवारणाः ।
यस्य पुण्यानि तस्यैते मत्वैतच्छाम्य पुत्रक ॥ १९
अन्यजन्मकृतैः पुण्यैः सुरुच्यां सुरुचिर्नृपः ।
भार्येति प्रोच्यते चान्या मद्विधा पुण्यवर्जिता ।। २०
पुण्योपचयसम्पन्नस्तस्याः पुत्रस्तथोत्तमः ।
मम पुत्रस्तथा जातः स्वल्पपुण्यो ध्रुवो भवान् ॥ २१
तथापि दुःखं न भवान् कर्तुमर्हति पुत्रक ।
यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति मानवः ॥ २२
यदि ते दुःखमत्यर्थं सुरुच्या वचसाभवत् ।
तत्पुण्योपचये यत्नं कुरु सर्वफलप्रदे ॥ २३
सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः ।
निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः ॥ २४
बेटा! सुरुचिने ठीक ही कहा है, अवश्य ही तू मन्दभाग्य है। हे वत्स! पुण्यवानोंसे उनके विपक्षी ऐसा नहीं कह सकते बच्चा ! तू व्याकुल मत हो, क्योंकि तूने पूर्व-जन्मोंमें जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है? और जो नहीं किया वह तुझे दे भी कौन सकता है? इसलिये तुझे उसके वाक्योंसे खेद नहीं करना चाहिये हे वत्स ! जिसका पुण्य होता है उसीको राजासन, राजच्छत्र तथा उत्तम उत्तम घोड़े और हाथी आदि मिलते हैं- ऐसा जानकर तू शान्त हो जा अन्य जन्मोंमें किये हुए पुण्य-कर्मोंके कारण ही सुरुचिमें राजाकी सुरुचि (प्रीति) है और पुण्यहीना होनेसे ही मुझ जैसी स्त्री केवल भार्या (भरण करनेयोग्य) ही कही जाती है उसी प्रकार उसका पुत्र उत्तम भी बड़ा पुण्यपुंज-सम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान् है तथापि बेटा ! तुझे दुःखी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्यको जितना ि मलता है वह अपनी ही पूँजीमें मग्न रहता है और यदि सुरुचिके वाक्योंसे तुझे अत्यन्त दुःख ही हुआ है तो सर्व फलदायक पुण्यके संग्रह करनेका प्रयत्न कर तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियोंका हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमिकी ओर ढलकता हुआ जल अपने-आप ही पात्रमें आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्यके पास स्वतः ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती हैं ॥ १६ - २४ ॥
अम्ब यत्त्वमिदं प्रात्थ प्रशमाय वचो मम।
नैतहुर्वचसा भिन्ने हृदये मम तिष्ठति ॥ २५
सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोत्तमोत्तमम् ।
स्थानं प्राप्स्याम्यशेषाणां जगतामभिपूजितम् ॥ २६
सुरुचिर्दयिता राज्ञस्तस्या जातोऽस्मि नोदरात्।
प्रभावं पश्य मेऽम्ब त्वं वृद्धस्यापि तवोदरे ।। २७
उत्तमः स मम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तया।
स राजासनमाप्नोतु पित्रा दत्तं तथास्तु तत् ॥ २८
नान्यदत्तमभीप्सामि स्थानमम्ब स्वकर्मणा।
इच्छामि तदहं स्थानं यन्न प्राप पिता मम ॥ २९
माताजी ! तुमने मेरे चित्तको शान्त करनेके लिये जो वचन कहे हैं वे दुर्वाक्योंसे बिंधे हुए मेरे हृदयमें तनिक भी नहीं ठहरते इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकोंसे आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ राजाकी प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदरसे जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता! अपने गर्भमें बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भमें धारण किया है, मेरा भाई ही है। पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे। [ भगवान् करें ऐसा ही हो माताजी ! मैं किसी दूसरेके दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थसे ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजीने भी नहीं प्राप्त किया है॥ २५ - २९ ॥
निर्जगाम गृहान्मातुरित्युक्त्वा मातरं ध्रुवः ।
पुराच्च निर्गम्य ततस्तद्वाह्योपवनं ययौ ॥ ३०
स ददर्श मुनींस्तत्र सप्त पूर्वागतान्धुवः ।
कृष्णाजिनोत्तरीयेषु विष्टरेषु समास्थितान् ॥ ३१
स राजपुत्रस्तान्सर्वान्प्रणिपत्याभ्यभाषत ।
प्रश्नयावनतः सम्यगभिवादनपूर्वकम् ॥ ३२
मातासे इस प्रकार कह ध्रुव उसके महलसे निकल पड़ा और फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवनमें पहुँचा वहाँ ध्रुवने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरों को कृष्ण मृग-चर्मके बिछौनोंसे युक्त आसनोंपर बैठे देखा उस राजकुमारने उन सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा ॥ ३० - ३२ ॥
उत्तानपादतनयं मां निबोधत सत्तमाः ।
जातं सुनीत्यां निर्वेदाद्युष्माकं प्राप्तमन्तिकम् ॥ ३३
ध्रुवने कहा- हे महात्माओ ! मुझे आप सुनीति से उत्पन्न हुआ राजा उत्तानपादका पुत्र जानें। मैं आत्म- ग्लानिके कारण आपके निकट आया हूँ ॥ ३३ ॥
चतुः पञ्चाब्दसम्भूतो बालस्त्वं नृपनन्दन।
निर्वेदकारणं किञ्चित्तव नाद्यापि वर्त्तते ।। ३४
न चिन्त्यं भवतः किञ्चिद्भियते भूपतिः पिता ।
न चैवेष्टवियोगादि तव पश्याम बालक ॥ ३५
शरीरे न च ते व्याधिरस्माभिरुपलक्ष्यते ।
निर्वेदः किन्निमित्तस्ते कथ्यतां यदि विद्यते ॥ ३६
राजकुमार! अभी तो तू चार-पाँच वर्षका ही बालक है। अभी तेरे निर्वेदका कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता तुझे कोई चिन्ताका विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नहीं देता तथा हमें तेरे शरीरमें भी कोई व्याधि नहीं दीख पड़ती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है ? ॥३४ - ३६ ॥
ततः स कथयामास सुरुच्या यदुदाहृतम् ।
तन्निशम्य ततः प्रोचुर्मुनयस्ते परस्परम् ॥ ३७
अहो क्षात्रं परं तेजो बालस्यापि यदक्षमा ।
सपल्या मातुरुक्तं यद् हृदयान्नापसर्पति ।। ३८
भो भो क्षत्रियदायाद निर्वेदाद्यत्त्वयाधुना।
कर्तुं व्यवसितं तन्नः कथ्यतां यदि रोचते ॥ ३९
यच्च कार्यं तवास्माभिः साहाय्यममितद्युते ।
तदुच्यतां विवक्षुस्त्वमस्माभिरुपलक्ष्यसे ।। ४०
तब सुरुचिने उससे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया। उसे सुनकर वे ऋषिगण आपस में इस प्रकार कहने लगे'अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालकमें भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाता का कथन उसके हृदयसे नहीं टलता' हे क्षत्रियकुमार! इस निर्वेदके कारण तूने जो कुछ करनेका निश्चय किया है, यदि तुझे रुचे तो, वह हमलोगोंसे कह दे और हे अतुलित तेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तू कुछ कहना चाहता है ॥३७ - ४० ॥
नाहमर्थमभीप्सामि न राज्यं द्विजसत्तमाः ।
तत्स्थानमेकमिच्छामि भुक्तं नान्येन यत्पुरा ।। ४१
एतन्मे क्रियतां सम्यक् कथ्यतां प्राप्यते यथा।
स्थानमग्रयं समस्तेभ्यः स्थानेभ्यो मुनिसत्तमाः ।॥ ४२
हे द्विजश्रेष्ठ ! मुझे न तो धनकी इच्छा है और न राज्यकी; मैं तो केवल एक उसी स्थानको चाहता हूँ जिस को पहले कभी किसीने न भोगा हो हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भली प्रकार यह बता दें कि क्या करनेसे वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है ॥ ४१ - ४२ ॥
अनाराधितगोविन्दैर्नरैः स्थानं नृपात्मज।
न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम् ॥ ४३
हे राजपुत्र ! बिना गोविन्दकी आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता; अतः तू श्रीअच्युतकी आराधना कर ॥ ४३ ॥
परः पराणां पुरुषो यस्य तुष्टो जनार्दनः ।
स प्राप्नोत्यक्षयं स्थानमेतत्सत्यं मयोदितम् ॥ ४४
अत्रि बोले- जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे सन्तुष्ट होते हैं उसीको वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ ॥ ४४॥
यस्यान्तः सर्वमेवेदमच्युतस्याव्ययात्मनः ।
तमाराधय गोविन्दं स्थानमग्रयं यदीच्छसि ।। ४५
यदि तू अग्र्यस्थानका इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युतमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है, उन गोविन्दकी ही आराधना कर ॥ ४५ ॥
परं ब्रह्म परं धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम् ।
तमाराध्य हरिं याति मुक्तिमप्यतिदुर्लभाम् ॥ ४६
पुलस्त्य बोले- जो परब्रह्म, परमधाम और परस्वरूप हैं, उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता है॥ ४६ ॥
ऐन्द्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम् ।
प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुव्रत ॥ ४७हे सुव्रत ! जिन जगत्पतिकी आराधनासे इन्द्रने अत्युत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया है, तू उन यज्ञपति भगवान् विष्णुकी आराधना कर ॥ ४७॥
यो यज्ञपुरुषो यज्ञो योगेशः परमः पुमान्।
तस्मिंस्तुष्टे यदप्राप्यं किं तदस्ति जनार्दने ।॥ ४८
क्रतु बोले- जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दनके सन्तुष्ट होनेपर कौन-सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है? ॥ ४८ ॥
प्राप्नोष्याराधिते विष्णौ मनसा यद्यदिच्छसि ।
त्रैलोक्यान्तर्गतं स्थानं किमु वत्सोत्तमोत्तमम् ॥ ४९
हे वत्स ! विष्णु भगवान्की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकीके उत्तमोत्तम स्थानकी तो बात ही क्या है?॥ ४९॥
आराध्यः कथितो देवो भवद्भिः प्रणतस्य मे।
मया तत्परितोषाय यज्ञ्जप्तव्यं तदुच्यताम् ॥ ५०
यथा चाराधनं तस्य मया कार्यं महात्मनः ।
प्रसादसुमुखास्तन्मे कथयन्तु महर्षयः ॥ ५१
हे महर्षिगण ! मुझ विनीतको आपने आराध्यदेव तो बता दिया। अब उसको प्रसन्न करनेके लिये मुझे क्या जपना चाहिये- यह बताइये। उस महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये ॥ ५०-५१॥
राजपुत्र यथा विष्णोराराधनपरैर्नरैः ।
कार्यमाराधनं तन्नो यथावच्छ्रोतुमर्हसि ।। ५२
बाह्यार्थादखिलाच्चित्तं त्याजयेत्प्रथमं नरः ।
तस्मिन्नेव जगद्धाम्नि ततः कुर्वीत निश्चलम् ॥ ५३
एवमेकाग्रचित्तेन तन्मयेन धृतात्मना।
जप्तव्यं यन्निबोधैतत्तन्नः पार्थिवनन्दनः ॥ ५४
हिरण्यगर्भपुरुषप्रधानाव्यक्तरूपिणे ।
ॐ नमो वासुदेवाय शुद्धज्ञानस्वरूपिणे ॥ ५५
एतञ्जजाप भगवान् जप्यं स्वायम्भुवो मनुः ।
पितामहस्तव पुरा तस्य तुष्टो जनार्दनः ॥ ५६
ददौ यथाभिलषितां सिद्धिं त्रैलोक्यदुर्लभाम् ।
तथा त्वमपि गोविन्दं तोषयैतत्सदा जपन् ॥ ५७
हे राजकुमार ! विष्णुभगवान्की आराधनामें तत्पर पुरुषोंको जिस प्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत् श्रवण कर मनुष्य को चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे चित्तको हटावे और उसे एक मात्र उन जगदा धार में ही स्थिर कर दे हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मयभावसे जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन 'ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्ध ज्ञानस्वरूप वासुदेवको नमस्कार है' इस (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्रको पूर्वकालमें तेरे पितामह भगवान् स्वायम्भुव मनुने जपा था। तब उनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनार्दनने उन्हें त्रिलोकीमें दुर्लभ मनोवांछित सिद्धि दी थी। उसी प्रकार तू भी इसका निरन्तर जप करता हुआ श्रीगोविन्दको प्रसन्न कर ॥ ५२-५७ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
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