राम-कथा से श्रीदुर्गा-आराधना- तत्त्व' स्पष्ट होता है,Shridurga worship principle becomes clear from Ram Katha
राम-कथा से श्रीदुर्गा-आराधना- तत्त्व' स्पष्ट होता है
भगवान् राम ने भगवती दुर्गा की आराधना की थी। 'राम-कथा' से 'श्रीदुर्गा-आराधना- तत्त्व' भली-भाँति स्पष्ट होता है। अतएव यहाँ इस सन्दर्भ में 'राम-कथा' का सारांश प्रस्तुत है। यथा-
भगवान् राम ने भगवती दुर्गा-प्राण महा-शक्ति की आराधना करके ही 'रावण' आदि राक्षसों का वध किया था। वास्तव में देव, दानव, यक्ष, किन्नर, प्रेत आदि के स्थूल शरीर नहीं होते। ये आसुरी भावों के रूप में मनुष्यादि जीव-शरीर में रहकर आत्म-भाव को नष्ट करने का सतत प्रयत्न करते हैं और इन्द्रिय सुख- वाह्य भोगों में ही तत्पर रहते हैं। इसी उद्देश्य से ये देह-रूपी 'लङ्का' में अवस्थित हैं।
Shri durga worship principle becomes clear from Ram Katha |
'लङ्का' शब्द का, जो 'लकि' धातु से बना है और सुख पाने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, अर्थ है- सम्वेदन (यहाँ सुख-सम्वेदन) स्थान अर्थात् देह। इसी देव-रूप पुरी में महा-मोह या मूर्तिमान् अहङ्कार-स्वरूप दश-मस्तक 'रावण' रहता है। दशों इन्द्रियाँ ही महा-मोह या अहन्ता (अपराहन्ता) के दश मस्तक-स्वरूप है। उक्त अहन्ता-रूप रावण, इन्द्रिय-गण की वृत्तियों-रूप परिवार-गण सहित, मन्द-भावों के भाण्डार स्वरूप 'मन्दोदरी' (मन्दो भावो यस्या उदरे अस्ति सा) नाम की सह-धर्मिणी से युक्त इसी जीव-देह में अवस्थित है। वर्तमान जीव-देह ही राक्षस-पुरी है, ऐसा कहना अत्युक्ति नहीं है। कारण पाश-बद्ध जीव और राक्षस-भाव की प्रवृत्ति में पार्थक्य नहीं है। इस प्रकार जीव-भाव ही राक्षस-भाव है। अन्य राक्षसों का अस्तित्व कवि की कल्पना मात्र है।
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स्थिर प्राण-शक्ति से सम्पन्न आत्मा-राम स्व-विस्मृति भाव में जीव-देह में रहता है। 'राम'- शब्द से रमण करनेवाले का बोध होता है। इस पद से संसार के विषयों में रमण करनेवाले और आत्मा में रमण करनेवाले-दोनों का ज्ञान होता है। ये दोनों लक्षण जीव के हैं। तात्पर्य यह कि 'रमा' के सङ्ग रमण करनेवाले ही 'राम' हैं अर्थात् चञ्चला प्राण-शक्ति ही राम-रूपा प्रकृति है और स्थिर प्राण-रूप ही ईश्वर या पुरुष आत्मा-राम है। यही ईश्वर (राम) सब भूतों के अन्दर आत्म-विस्मृत्ति भाव में समान-भाव से रहते हैं। जिस प्रकार सुन्दर शरीर विशिष्ट 'सुरथ' ने प्राण-शक्ति-रूपा महा-माया दश-भुजा दुर्गा की आराधना से आसुर भावों को जीत कर 'मनु' अर्थात् पूर्ण ज्ञानी होने में सफलता पाई थी, उसी प्रकार श्री 'रामचन्द्र' ने भी तद्रूप भाव में साधन-समर-द्वारा निज-देह- स्थित आसुरी सगों को जीतकर आत्म-शक्ति-स्वरूपा 'सीता' को पुनः प्राप्त किया था।
रामचन्द्र ने धनुर्भङ्ग कर 'गुरु' रूपी जनक से 'विद्या' या 'ज्ञान' रूपिणी 'सीता' (आत्म-विद्या) को पाया था। धनुर्भङ्ग से क्रिया-योग का बोध होता है, जो प्राण-योग या प्राण- याग का एक अङ्ग है। यह ग्रन्थि भेद योग-क्रिया की पर्यायवाचक भङ्ग-क्रिया या त्रिभङ्ग-क्रिया-योग है। संक्षेप में इसका रूप है-मूलाधार-भङ्ग या ब्रह्म-ग्रन्थि-भेद, अनाहत भङ्ग या विष्णु-ग्रन्थि-भेद और आज्ञा-भङ्ग या रुद्र-ग्रन्थि-भेद। यहाँ शास्त्रों में मत-भेद है। एक मत है कि विशुद्ध चक्र-भेद होने से रुद्र-ग्रन्थि भेद होता है और दूसरा मत पूर्वोक्त है। श्रीकृष्ण भगवान् की त्रिभङ्गी छवि इसी भाव के आधार पर कही गई है। क्यों न हो? आप योगेश्वर जो थे। गुरु नानक का भी वचन है-'तीनों बन्ध लगाय के, सुनो अनाहत टङ्को। 'नानक' शून्य समाधि में, ना है भोर ना है सन्ध्या।' तात्पर्य यह है कि इन्हीं त्रिभङ्ग-स्थानों में आसुर भावों का नाश होता है। दुर्गा भगवती के एक ध्यान में इसी भाव की परिचायक उक्ति है- 'त्रिभङ्ग-संस्थानां महिषासुर- मर्दिनीम्' (प्राण-तोषिणी तन्त्र)।
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विदेह जनक ने भी 'क्षेत्र' का कर्षण कर 'विद्या' को पाया था, कवियों ने आलङ्कारिक शब्दों में कहा है कि दुर्भिक्ष होने पर राजर्षि जनक ने शस्य क्षेत्र को हल से जोतते समय 'सीता'- नाम की कन्या को पाया था। कवियों की इस प्रकार की कल्पनाओं और पुराण-कर्ताओं के रूपच्छलात्मक कथानकों की अपनी सार्थकता है। इस प्रकार के लेखों से अधमाधिकारी व्यक्तियों को, जिनके निमित्त ये लिखे गए हैं, प्राथमिक ज्ञान मिलता है और भगवत्-अनुरक्ति उनमें बढ़ती है। शाखों में स्पष्ट कहा है कि पुराण और इतिहासादि ग्रन्थ स्त्री और शूद्रों के लिए उपयोगी हैं। इस 'क्षेत्र' (खेत) के सम्बन्ध में कहा है कि वर्तमान जीव शरीर (ज्ञान की प्ररोह-भूमि) ही यथार्थ 'क्षेत्र' है। इसके तत्त्व-वेत्ता को 'क्षेत्रज्ञ' कहते हैं-" इदं शरीरं कौन्तेय! क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद् यो वेत्ति, तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः " १३।१। गीतोक्ति से ज्ञात होता है कि जीव के वर्तमान शरीरस्थ स्थिर प्राण-रूप महा-पुरुष अर्थात् छिन्न-पाश जीव अर्थात् शिव ही एक मात्र 'क्षेत्रज्ञ' पद से वाच्य है-
- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि, सर्व - क्षेत्रेषु भारत!
- क्षेत्र - क्षेत्रज्ञयोर्जानं, यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।- 'गीता', १३।२
यह शिव-अपर शिव अर्थात् जीवन्मुक्तात्मा है। यही 'जनक' थे। यह पद प्राण के द्वारा जीव-शरीर रूप क्षेत्र कर्षित करने से ज्ञान की प्राप्ति से मिलता है। यही यथार्थ कृषि कर्म है, जो क्रियोपयोग के अन्तर्गत केवल गुरूपदेश से समझ में आता है। यह पौस्तिकी ज्ञान से भिन्न यथार्थ विशेष ज्ञान है। अथवा ऐसा कहना अत्युक्ति न होगा कि पौस्तिकी ज्ञान विडम्बना मात्र है। कार्य- साधन करानेवाली एकमात्र गुरु-वाक् है-'मुक्तिदा गुरुवागेका, विद्या सर्वा विडम्बना' (कुलार्णव)। अस्तु, 'जनक'-रूपी गुरु ने इसी प्रकार की शरीर-कर्षण-रूप प्राणायामादि क्रिया-द्वारा विद्या- रूपिणी 'सीता' नाम्नी कन्या आत्म-विद्या का, जिससे आत्म-शक्ति की प्राप्ति होती है, लाभ किया था। इसी कृषि-कार्य को लक्ष्य में रखकर वङ्ग-देशीय सिद्ध साधक-वर रामप्रसाद सेन ने कविता लिखी है-'मन तुमि कृषि कार्य जानी नो' इत्यादि।
वस्तुतः जीवन्मुक्त 'जनक' ने स्थूल रूप से क्षेत्र-कर्षण कर कन्या-लाभ नहीं किया था। रामचन्द्र ने भी स्थूल धनुष नहीं तोड़ा था। इनका धनुष को तीन टुकड़ों में तोड़ना रहस्य-भाव से यह जताता है कि इन्होंने गुरु-परम्परा-क्रम से जनक-रूपी गुरु से त्रि-भङ्ग विद्या प्राप्त कर सीता-रूपी आत्म-विद्या लाभ की थी। इसी भाव की समर्थक यह शास्त्रोक्ति है-
- अथ मे कृषतः क्षेत्रं, लाङ्गलादुत्थिता ततः।
- क्षेत्रं शोधयता लब्धा, नाम्नी सीतेति विश्रुता ॥
तत्पश्चात् राम की वनवासावस्था में अर्थात् काल-वश आत्माकार-वृत्ति-मण्डल से हट जाने पर राम के शरीरस्य महा-मोह-रूप यद्वा अहङ्कार-रूप आसुर-सर्गापन्न रावण द्वारा इनकी आत्म-शक्ति-रूपिणी सीता हर ली गई अर्थात् यह आत्म-शक्ति- आवृता या आच्छन्ना हो गई। कथानकों में लिखा है कि चौदह वर्षों का वनवास हुआ। तात्पर्य यह कि चौदहों आवरणों में 'वृन् आवरणे-स उणादि' विचरण वा रमने का आदेश मिला अर्थात् वैसी चित्त-वृत्ति उत्पन्न हुई। यह कुवृत्ति 'दशरथ' अर्थात् दशों दिशाओं में जानेवाले अर्थात् मन की 'भौतिक' नाम की तीसरी शक्ति (कौशल्या और सुमित्रा क्रमशः 'पर-शक्ति' और 'सूक्ष्म शक्ति' की द्योतिका है) 'कैकेयी' की प्रेरणा से उत्पन्न हुई। इस पर राम आत्म-विस्मृत हो स्व-शरीर-रूप वन में आत्मानुसन्धान करने लगे। अनुसन्धान करते-करते राम-ऋष्यमूक अर्थात् आज्ञा चक्र (भू-मध्य) पर गए। यहाँ पर प्रधान दश प्राणों में प्रथम रुद्र-रूपी पवन-तनय हनुमान से इनका साक्षात्कार हुआ। इसके बाद अपर प्रधान प्राण-रूपी वायु-गण से साक्षात्कार हुआ।
दशों प्राण-वायु 'ऋष्यमूक' पर्वत पर इन्द्रिय-गण के अधिपति इन्द्र-रूपी वर्तमान मन के पुत्र 'बालि' अर्थात् कुपित वायु के डर से प्रच्छत्र भाव से (लुक-छिप कर) रहते थे। इसी कुपित वायु-रूपी 'बालि' को दशों प्राणों के उद्धार के हेतु, जिससे इनकी अपनी-अपनी क्रिया अबाधित रूप से हो सके, जीवात्मा-रूपी 'राम' ने कौशल से अर्थात् प्राणायाम-योग-रूप कौशल से मार डाला अर्थात् कुपित वायु को साम्यावस्था में ले आए। कथानकों में रूपक-स्थल में लिखा है कि सुग्रीव के गले में माला पहना कर उसे बालि से युद्ध करने को भेजा गया था। यह भी रहस्यार्थ से खाली नहीं है। 'सुग्रीव' से श्वसन-वायु का बोध होता है। इस श्वसन-वायु के सदा-शिव के आलय अर्थात् कण्ठ-देश में अजपा माला (माला से दीप्ति का बोध होता है) दी गई थी। यह स्वतः सिद्ध है कि बिना अजपा जप-माला-साधन के श्वसन वायु बलिष्ठ नहीं होता।
कथानक में यह भी लिखा है कि राम की शक्ति की जाँच पूर्व ही सप्त-दल-भेद से कर ली गई थी। अर्थात् राम ने सातों तालों अर्थात् सातों दुर्गासनों को एक ही शर से विद्ध किया था। सप्त-दुर्ग अर्थात् शरीर के सातों आसनों से-१ भूः (मूलाधार), २ भुवः (स्वाधिष्ठान), ३ स्वः (मणिपुर), ४ महः (अनाहत), ५ जनः (विशुद्ध), ६ तपः (आज्ञा) और ७ सत्यं (सहस्त्रार) इन सातों चक्रों का बोध होता है। इन सातों चक्र-रूपी तालों का भेदन एक ही शर अर्थात् एक ही प्राण-शक्ति की आरोहण-क्रिया से जो नहीं कर सकता, वह कुपित महा-बलिष्ठ 'बालि' को नहीं मार सकता। तात्पर्य यह कि जो सहस्त्रार में अजपा-जप-रूप गायत्री दुर्गा के आवास-स्थल में अजपा-जप-रूप काल की स्थिति अर्थात् श्वास-काल की अवस्थिति नहीं कर सकता है अर्थात् पर्याप्त काल-स्थित प्राण-शक्ति को स्थिर नहीं कर सकता, वह कुपित वायु को नष्ट नहीं कर सकता।
अब जब कुपित वायु (बालि) नष्ट हो गया, तब दशों प्राणों में से प्रधान श्वसन-वायु रूपी 'सुग्रीव'- शिव हो गया अर्थात् छिन्न-पाश हो गया। 'सुग्रीव' शब्द का अर्थ है- सुन्दर कन्धरवाला। कन्धर से क्रिया-योग प्रकरण में वायु धरनेवाला अर्थात् प्राणों का आयमन करनेवाला (श्वास- क्रिया को बन्द करनेवाला) 'कं वायुं धरतीति कन्धरः', ज्ञान-योग-प्रकरण में ब्रह्म या ब्रह्म-भाव के धारण करनेवाले कारण 'क' से ब्रह्मा का भी बोध होता है। (अनिर्वचनीय ब्रह्म को श्रुतियाँ 'कं ब्रह्म' कहतीं हैं।)
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रामचन्द्र ने इन्हीं दशों प्राण-रूपी और असंख्य वायु-रूपी अप्रधान बन्दर और भालू की सहायता से खोई हुई सीता-रूपिणी आत्म-शक्ति का पुनरुद्धार किया था। यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि वायु तो ४९ ही है, असंख्य किस प्रकार हुए? वायु असंख्य नहीं हैं वरन् ४९ ही है, परन्तु शरीर में धमनियाँ असंख्य है, जिनमें से प्रत्येक धमनी में वायु नाना भाव से नाना रूप से प्रवेश कर नाना रूप का कार्य करते हैं। अतएव क्रिया-गुण-वशतः वायु को असंख्य कहा है। इनकी सहायता से और सब आसुरी सर्ग तो नष्ट हो गए। अब बचा केवल 'रावण' अर्थात् द्वैत-भावापन्न 'अहप्ता-भाव'। इस 'रावण' को रामचन्द्र-'प्राण-महा-शक्ति' या 'महा-चिति-स्वरूपा' दुगां की आराधना अर्थात् सम्बर्द्धिनी क्रिया कर इसको प्रसन्न कर (प्रकर्ष-रूपेण सन्ना) अर्थात् पूर्ण रूप से प्राण-शक्ति को स्थिर कर 'प्राणायाम' द्वारा ही मार सके थे। यह तो हुई क्रिया वा कर्म-योग की बात। 'ज्ञान- योग' में प्राणायाम से तात्पर्य है-पूर्ण तादात्म्य। तात्पर्य यह कि अद्वैत-भाव के स्थिरत्व से हो द्वैत-भाव का नाश होता है।
'रावण'-मरा नहीं है। असंख्य रावण-हम सब में विद्यमान हैं। मनन करनेवाले ऐसा अवश्य ही जानते हैं और जान सकेंगे। तभी तो राधेश्याम ने कहा है-
मुनि बोले जग को अभी मिला नहीं विश्राम।
अभी हुआ ही है कहाँ, रावण का वध राम।।
माया का सागर चहुँ दिश है,
उसमें शरीर यह लङ्का है।
अभिमान का रावण बैठा है,
जो बजा रहा निज डङ्का है।
है स्वार्थ का इसमें मेघनाद,
आलस है कुम्भकर्ण भगवन्।
वध करो कृपा-शर से इनका,
तब हो भू-भार-हरण भगवन्।।
अस्तु! हम सब में विद्यमान असंख्य रावण को 'श्रीदुर्गा-आराधना' के द्वारा ही नष्ट किया जा सकता है। 'श्रीदुर्गा' की आराधना का यही मुख्य लक्ष्य है।
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