श्री गणेश-पुराण | परशुराम का प्रण पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने का, Shri Ganesh-Puraan | Parashuraam Ka Pran Prthvee Ko Kshatriyaviheen Karane Ka
श्रीगणेश-पुराण चतुर्थ खण्ड का तृतीय अध्याय !
श्रीगणेश-पुराण चतुर्थ खण्ड का तृतीय अध्याय ! नीचे दिए गए 2 शीर्षक के बारे में वर्णन किया गया है-
- परशुराम का प्रण पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने का
- परशुराम का शिवजी की आराधना वर्णन
परशुराम का प्रण पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने का
परशुराम के हृदय में प्रतिशोध की भावना जाग उठी, वे बोले- 'परन्तु, माता ! इन नराधम क्षत्रियों को जब तक दण्ड नहीं मिलेगा, तब तक इसी प्रकार अत्याचार करते रहेंगे। मैंने निश्चय कर लिया है कि इन क्षत्रियों को अवश्य दण्ड दूँगा, एक बार नहीं, इक्कीस बार इस पृथिवी को क्षत्रिय-विहीन कर डालूँगा। इन्हीं पुरुषों के रक्त से अपने पितरों को तृप्त करने के लिए मैं कटिबद्ध हो गया हूँ।' परन्तु परशुराम को संतोष नहीं हो रहा था। वे पितृवियोग में अत्यन्त शोकाकुल थे। माता एवं आश्रमवासियों के समझाने का भी उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। वे कह रहे थे माता! जो पुत्र पिता के हत्यारे को समर्थ होकर भी नहीं मारता, वह घोर नरक में पड़ता है। शास्त्रों में निम्न ग्यारह प्रकार के पापियों की चर्चा करते हुए उन्हें घोर नरकों का अधिकारी बताया है-
"अग्निदो गरलश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः ।
क्षेत्रदारापहारी च पितृबन्धुविहिंसकः ॥
एकादशैते पापिष्ठाः वधार्हा वेदसम्मताः ॥"
आग लगाने वाला, विष देने वाला, शस्त्र हाथ में धारण कर धन हरने वाला, खेत का हरणकर्त्ता, स्त्री का अपहारक, पिता का हत्यारा, भाई का हत्यारा, निरन्तर निन्द्य कार्य (बुरे कार्य) करने वाला, परनिन्दक और कटुवचन बोलने वाला, यह ग्यारह प्रकार के पापिष्ठों को वेदों ने भी वध के योग्य योग्य माने हैं।। हे माता ! ब्राह्मणों के धन या स्थान को छीन लेना, दिया हुआ दान वापस ले लेना, ब्राह्मणों को ताड़न करना आदि कर्म भी मनीषियों के मत में वध के ही समान हैं। इसलिए ऐसा कर्म करने वाला चाहे कोई भी क्यों न हो मार देने के योग्य है। इसलिए हे सति ! आप इस विषय में कुतर्क मत करो और मुझे अपने कर्त्तव्य पालन से मत फेरो।'
परशुराम और उनकी माता रेणुका के मध्य यह वार्ता चल ही रही थी कि तभी महर्षि भृगु, पुत्र शोक में व्याकुल हुए वहाँ आ गए। रेणुका और परशुराम ने उन्हें प्रणाम किया। तब उन दोनों को अधिक विह्वल देखकर महर्षि बोले- 'पुत्र परशुराम ! तू मेरे वंश में उत्पन्न हुआ और सभी विद्याओं में पारंगत है। फिर तेरा इस प्रकार विलाप करना उचित प्रतीत नहीं होता । वत्स ! संसार में जितने भी चर-अचर प्राणी हैं, वे सब मरणशील हैं। जब ब्रह्माजी को भी अपनी आयु पूर्ण करके विलीन होना पड़ता है तब बेचारे साधारण जीव की तो बात ही क्या हो सकती है ?
'पुत्र ! संसार में सभी कुछ नाशवान् है। यदि अविनाशी है तो केवल भगवान् श्रीकृष्ण का नाम। सत्य का सार और बीजभूत उन्हीं का चिन्तन है। क्योंकि उनकी इच्छा के बिना तो कभी भी कुछ नहीं होता। भूत, भविष्य, वर्तमान सभी के आश्रय वे ही प्रभु हैं। फिर तुम यह भी जानते हो कि जो भवितव्यता है, उसे कोई भी नहीं मिटा सकता। वह तो होकर ही रहता है इसलिए भवितव्य ही सत्य है। वही ईश्वर की इच्छा के रूप में स्थित रहता है।''वत्स ! सत्य का निवारण करने में कोई समर्थ नहीं है। भगवान् ने जो कुछ निरूपण कर दिया, वह होकर ही रहेगा। जमदग्नि को इसी प्रकार मरना था, वह मर गया और कार्त्तवीर्य को भी जब जिस प्रकार से मरना होगा, मरेगा ही। चाहे तुम्हारे हाथ से मरे या अन्य प्रकार से। किन्तु मरेगा तभी जब उसका अन्तकाल आ जायेगा ।
'देखो पुत्र ! क्षुधा, निद्रा, दया, शान्ति, कान्ति, क्षमा आदि सब एक आत्मा के चले जाने पर फिर नहीं ठहरते। क्योंकि आत्मा के साथ प्राण, ज्ञान और मन भी चले जाते हैं। मायावियों का मायाबीज शरीर पाञ्चभौतिक है तथा संकेतपूर्वक उस प्राणी का जो नाम है, वह प्रातःकालीन स्वप्न के समान ही है। अभिप्राय यह है कि दृश्यमान जगत् स्वप्नवत् ही है, जैसे स्वप्न के दूर होने पर उसमें देखे हुए पदार्थों का स्वतः लोप हो जाता है, वैसे होते ही अन्तकाल आने पर वह जगत् भी विलीन हो जाता है। विलीनीकरण वाली वह अवस्था सुषुप्ति कहलाती है। देह के नष्ट हो जाने पर जीवात्मा भी उसी सुषुप्ति में विद्यमान हो जाती है। वह भी कभी नष्ट नहीं होती। देह मरती है, जीव नहीं मरता। तुम स्वयं ज्ञानी हो, यह तथ्य तुमसे छिपा नहीं है।' 'अतएव, हे पुत्र ! अब शोक को त्याग दो और वेदों ने जो पारलौकिक कर्म निर्दिष्ट किए हैं, उनका अनुष्ठान करो। क्योंकि मृतक के परलोक की भलाई के लिए जो कर्म करता है, वही उसका पुत्र या बन्धु हो सकता है। अपने पिता का पारलौकिक कर्म करने के पश्चात् ही अन्य कर्म का निश्चय करना उचित होगा।'
परशुराम का शिवजी की आराधना वर्णन
अपने पितामह की आज्ञा मानकर परशुरामजी ने समस्त पारलौकिक कर्मों को विधिपूर्वक सम्पन्न किया और फिर सोचने लगे कि इन आततायी पामर क्षत्रियों को किस प्रकार दण्डित किया जाये ? जब कोई उपाय समझ में न आया तो उन्होंने भगवान् शंकर की कामना आरम्भ की । भगवान् शंकर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं, यह तथ्य संसारभर में प्रसिद्ध है। परशुराम जी की घोर तपस्या से सन्तुष्ट होकर उन्होंने इन्हें दर्शन दिया और बोले- 'मुनिकुमार ! मैं तुम्हारी उपासना से प्रसन्न हूँ। बोलो, क्या चाहते हो ? जो इच्छा हो वही माँग लो।'
परशुराम ने भगवान् आशुतोष को सम्मुख देखकर दण्डवत् प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर बोले- 'प्रभो! आप प्रसन्न हैं तो मेरे पिता के वधिक को परास्त करने का उपाय बताइये। हे नाथ! मैंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-विहीन करने का प्रण किया है, उसे पूर्ण कीजिए।' शिवजी बोले- 'वत्स ! तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी। यह भगवान् श्रीहरि का मन्त्र और कवच है, इसका अनुष्ठान कर लो तो शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जायेगी ।'
परशुरामजी ने मन्त्र और कवच प्राप्त कर शिवजी को पुनः प्रणाम किया और जब वे अन्तर्धान हो गये, तब समतल एवं सुखद पुण्यभूमि पर नर्मदा तट पर स्थित होकर अनुष्ठान करने लगे। अनुष्ठान की पूर्ति पर हवन एवं ब्राह्मण भोजन कराकर निश्चिन्त हुए । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल आह्निक कर्म करके परशुरामजी ने महर्षि भृगु आदि गुरुजनों और हितैषियों से विचार-विमर्श करके निश्चय किया कि राजा कार्त्तवीर्य के पास दूत भेजा जाये जो उसे युद्ध का निमन्त्रण दे। तदुपरान्त एक मुनि को दूत बनाकर वहाँ भेज दिया गया ।
टिप्पणियाँ