साधना सम्बन्धी नियम और उपयोगी बाते,Sadhana Sambandhee Niyam Aur Upayogee Baate

साधना सम्बन्धी नियम और उपयोगी बाते

साधना सम्बन्धी नियम श्रद्धा, धैर्य, मन शुद्धि, शरीर शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, क्रिया शुद्धि, आसन, उपयुक्त स्थान, प्राणायाम, इष्ट देवता, कुलाकुल चक्र, तत्व मैत्री चक्र, शाबर मन्त्र तथा साधना की उपयोगी बातें ! पिछले अध्याय में आपको इस विषय की प्रारम्भिक जानकारी दी गई। थी। और इस अध्याय में  हम सब से पहले मन्त्र साधना की शास्त्रोक्त विधि विस्तार से बताते हैं ।

Sadhana Sambandhee Niyam Aur Upayogee Baate

साधना सम्बन्धी नियम और उपयोगी बाते

हम सब से पहले मन्त्र साधना की शास्त्रोक्त विधि विस्तार से बताते हैं । मन्त्र किसी से लिया जाता है। यानी मन्त्र को कोई बताता हैं। यों ही किसी पुस्तक में से देखकर ले लेना ठीक नहीं होता। जो मन्त्र देता है या जिस से मन्त्र लिया जाता है उसे गुरु कहते हैं। गुरु भगवान के बराबर या कहीं-कहीं तो भगवान से भी बड़ी बताई गई है और गुरु की गरिमा को देखते हुए यह अत्युक्ति भी नहीं है। गुरु में श्रद्धा नहीं की पदवी होगी, तो उसके बताये मन्त्र में कैसे हो सकेगी ? परन्तु ऐसे श्रद्धास्पद व्यक्ति जिन्हें भगवान के समान पूज्य समझा जा सके, कहां मिलें ? बहुधा तो ऐसे व्यक्ति मिलते हैं जिन पर श्रद्धा होती ही नहीं और हो भी जाती है तो जल्दी घृणा में बदल जाती है। यों पृथ्वी बीज रहित तो कभी नहीं रहती और वास्तव में गुरु पद पर सुशोभित होने वाले महानुभाव भी होते हैं तथा श्रद्धा जिज्ञासु लोगों को भाग्य से मिल भी जाते हैं। आम लोग ज्यादा तो जानते समझते नहीं ऊपरी आडम्बर, पाखंड आदि को देखकर धोखेबाजों के चक्कर मे फंस जाते हैं ठगे जाते हैं व अपनी हानि करते हैं। परन्तु गुरु बनाने से पहिले इतनी बात तो अवश्य देख लेनी चाहिए कि गुरु लालची तो नहीं है। "लोभी गुरु लालची चेला - होय नरक में ठेलम ठेला" यह एक पुरानी लोकोक्ति है। गुरु के मन में शिष्य की कल्याण कामना ही होनी चाहिए।  डाक्टर, वकील, पुरोहित (शिक्षक गुरु या दीक्षा गुरु ) यह यदि लालची हो तो समझ तो कल्याण नहीं है, रोग, मुकदमा, झगड़ा, ग्रह, अरिष्ट पूजा कभी समाप्त नहीं होगी। तो दीक्षा गुरु भी लोभी, लालची हुआ तो शिष्य का धन ऐंठने की लालसा करेगा उसके कल्याण की नहीं। यों गुरु भी संसार में ही ता होगा, हिमालय की कन्दराओं वाले तो मिलेगे नहीं। और संसार मे दा जीवन बिताने के लिए धन व्यय भी आवश्यक होता है, इसलिए इसमे हायता देने के लिए उचित गुरु दक्षिणा तो अवश्य देनी चाहिए। गुरुलातची हीं होना चाहिए और सादा जीवन बिताने वाला हो और तीसरी बात इतनी वश्य देखो कि उसे अपने विषय का ज्ञान व अनुभव है कि नहीं। इतना 'होना ही चाहिए कि वह आपको लक्ष्य तक पहुँचा दे या कम से कम लक्ष्य दिखा कर उसका मार्ग बता सके। आपको साधना करने की लगन लगी हुई है और बहुत प्रयत्न करने पर आपको मनचाहा गुरु नहीं मिल रहा है, तो क्या किया जाए ? ऐसी हालत आपको सर्वव्यापक परमात्मा को जो आपके अन्तर में आपकी आत्मा में भी वास करता है अपना गुरु बनाना चाहिए और उनके निराकार या साकार रूप के ध्यान से या मूर्ति चित्र में पूजन करना चाहिए। उसके जिल भी रूप में स्वरूप में श्रद्धा हो उसी के अनुसार शास्त्र या ग्रन्थ को ही गुरु मानना चाहिए । फिर उस शास्त्र में बताई विधि से ही साधना के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए। इस मार्ग पर चलाने वाले कोई सज्जन यदि मिल जाएं तो उन से परामर्श, सलाद आदि करते रहना चाहिए। साधना के आरम्भ में बहुत सी कठिनाइयां आती हैं और ग्रन्य में शास्त्र में चाहे जितना लिखा हो फिर भी बहुत से अवसरों पर किसी अधिक जानने वाले का परामर्श आवश्यक हो जाता है । यदि ऐसा भी सत्संगी कोई न मिले, तो अपने अन्तर स्थित परमात्मा से ही प्रार्थना करनी चाहिए। सच्चे मन से अन्तर में की गई प्रार्थना सफल होती है और गुरु मिल जाता है।
यदि कोई महापुरुष व्यक्तिगत रूप से आपको गुरु रूप में मिल जाते हैं तब तो कोई बात नहीं। साधना की विधि उनके बताये अनुसार ही होगी। यदि नहीं मिलते और आप शास्त्र विधि से साधना करते हैं तो निराकार या साकार जिस विधि को चुनते हैं उसी शास्त्र के अनुसार अपनी साधना जारी रखे। यहां हम आपको ऐसी ही शास्त्रोक्त विधियों के बारे में बतायेगे - और अपनी विद्या बुद्धि अनुभव के आधार पर परामर्श भी देते रहेंगे। अब - यह बताते हैं कि साधना करते समय किन-किन बातों से आपको सहायता मिल सकती है। 
  • श्रद्धा :
सबसे पहले तो साधक में श्रद्धा की आवश्यकता है। जिस मन्त्र की साधना वह करने जा रहा है उसमें उसे पूरा विश्वास होना चाहिए तभी सफलता मिल सकती है नहीं तो साधन बीच मे ही छूट जायेगा और साधना अधूरी रह जायेगी। अच्छा तो यही है कि यदि मन्त्र में पूरी श्रद्धा नहीं है। तो साधना शुरू ही न की जायें। श्रद्धा की सबसे बड़ी शत्रु है 'शंका', सन्देह, भ्रम | मन मे शंका उठ सकती है कि साधना पूरी हो सकती है या नहीं ? फिर कार्य सिद्ध होगा या नहीं तथा अन्य लोग भी सन्देह उत्पन्न कर देते है । इसलिए साधना के रहस्य किसी को नहीं बताये जाते। मन की शंकाओ का निवारण पहले ही कर लेना चाहिए और फिर जब पूरा विश्वास जम जाये तभी साधना प्रारम्भ करनी चाहिए। "विश्वास फलति सर्वत्र' मन्त्र में श्रद्धा, मन्त्र के देवता भगवान में श्रद्धा, पूर्ण व अनन्य श्रद्धा, आवश्यक है । 
  • धैर्य : 
दूसरा गुण आपको अपने अन्दर पैदा करना होगा यह है धैर्य धीरज जल्दीबाजी उतावलापन नहीं । शान्ति व सन्तोष से देर तक काम करते रहना थकना था अपना नहीं। सिद्धि तत्काल प्राप्त नहीं होती तो मिराश या हतोत्साहित न हो कर धैर्य और विश्वास के साथ साधना में लगे रहने पर 'ही सिद्धि मिलती है। इस बात में पूरा विश्वास होना कि गुरु तथा शास्त्र ने बताया है कि इस मार्ग पर चलने से इस लक्ष्य पर पहुँच जाओगे यह वाक्य विल्कुल ठीक है और इस में मेरी श्रद्धा है इसको ध्यान में रखते हुए साधना में लगे रहना - धैर्य है और यह गुण, साधक में अवश्य होना चाहिए। शान्त मन से किए गये कार्य ही विधिपूर्वक सिद्ध होते हैं । 
  • शुद्धि  :
स्थान शुद्धि, शरीर शुद्धि, मन शुद्धि, द्रव्य शुद्धि और क्रिया शुद्धि । साधना के लिए जिस स्थान का प्रयोग करो वह शुद्ध हो, गन्दा या अपवित्र न हो । गोबर से पानी से या गुलाबजल छिड़क पर शुद्ध कर ले। धूपमती या अगरबत्ती जला लें। एकान्त तथा शान्त स्थान हो कोई भय या लटका न हो। किसी जीव जन्तु, पशु, पक्षी, दुष्ट जन का भय नहीं होना चाहिए। किसी प्रकार की बाहरी बाधा दिखाई दे तो स्थान बदल देना चाहिए।  
  • शरीर  शुद्धि:
इसके लिये शास्त्रों में पचगव्य का विधान है। परन्तु गंगाजल या यह भी न मिले तो किसी अन्य नदी का पवित्र जल या भगवान के चरणामृत का पान या फिर पाँच बार गुरु मन्त्र का जप करके अभिमन्त्रित किया जल इनमे से किसी भी जल को लेकर आचमन करना होता है। पहले तो नदी, कूप, तालाब या नल के पानी से जो शुद्ध बर्तन में रखा गया हो स्नान करना चाहिए और जप के लिए बैठने के समय पांच आचमन उपरोक्त गंगाजल आदि के करके जप आरम्भ करना चाहिए।
  • मन शुद्धि :
शुद्ध जल मन शुद्धि में विचारों की शुद्धता बताई गई है । जप करते समय मन में बुरे विचार नहीं रहने चाहिएं। यों तो विचारों की शुद्धता का ध्यान तो २४ घन्टे ही रखना पड़ेगा तभी जप के समय भी उन्हें दूर करने में सफलता मिलेगी। परन्तु शुरू-शुरू में जप के समय मन को अपवित्र विचारों से हीन करना पड़ेगा। यह कुछ कठिन अवश्य है भरन्तु असाध्य नहीं । मन बड़ा प्रबत होता है इसमें कुछ न कुछ विचार उठते ही रहते हैं। यह खाली नहीं बैठता। शास्त्रों में इसके अन्दर हजारों हाथियो का बल बताया गया है। इसको जीतने वाला इस पर काबू करने वाला इन्द्रियजित की पदवी पाता है, कुछ करके दिखा सकता है नहीं तो इन्द्रियों व मन के दास तो सभी होते हैं । बलपूर्वक खराब विचारों को हटाने के लिए मन में जबरन अच्छे विचार लाओ । जिनमें कुछ यहां दिए जा रहे हैं, कुछ आप अन्य महापुरुषों के विचार इनमें जोड़ सकते हैं। जो विचार यहां दिए जा रहे हैं ये भी महापुरुषों के व शास्त्रों के ही हैं। "मैं परम ब्रह्म परमात्मा का ही एक अंश आत्मा रूप हूं। और इस रूप में शुद्ध, बुद्धि, सन्तान हूँ । इन इन्द्रियों तथा मन की बातो में जाकर या कहिए माया के चक्कर में पड़कर मेरे ऊपर मल विक्षेष आवरण के मैल का परदा चढ़ गया है, जिसे में इस साधना के साबुन से साफ करना चाहता हूं । हे परम ब्रह्म परमात्मा (या जिस देवता का इष्ट हो उससे प्रार्थना करो कि ) मेरे इस मैले मन को निर्मल कर दे, ताकि इस में शुद्ध आत्मा का प्रतिबिम्ब साफ दिखाई दे सके। तुम्हारा प्रकाश प्रकाशित हो सके। मैं इस जप के द्वारा प्राप्त शक्ति को अपने तथा जन कल्याण के कामों में प्रयुक्त  करूंगा। किसी की हानि या अकल्याणं भावना से नहीं आदि आदि। इस प्रकार जप करते समय मत्र पर ध्यान रखो और अन्य फालतू विचार आ तो उनको हटाने का प्रयत्न करो, तो साधना ठीक मे आगे बढ़ती रहती है । यह संक्षेप मे मन की शुद्धि हुई ।
  • द्रव्य शुद्धि :
द्रव्य उचित साधनों से कमाया गया होना चाहिए। चोरी, ठगी, बेईमानी आदि अनुचित साधनो से कमाई गई रकम से साधना नहीं होती। साधना में उपयोग मे आने वाली वस्तुएं शुद्ध धन से खरीदी गई होनी चाहिएं। ताजा पुष्प, साजा दूध, ताजा फल आदि और पूजा के उपयोग में आने वाली सभी चीजें मंजी धुली साफ होनी चाहिएं।
  • क्रिया शुद्धि :
मन्त्र साधना करते समय जो क्रियायें की जाती हैं, वे सब शुद्ध रूप से की जानी चाहिए । मन्त्र से सम्बन्धित न्यास, ध्यान जप, प्रक्रिया, पुरश्चरण आदि विधिपूर्वक हो । यह क्रिया शुद्धि है ।
  • आसन :
जप करते समय जिस वस्तु पर बैठ कर जप किया जाता है उसे आसन कहते हैं। आसन कुशा का, मृगछाला का या ऊन का होता है। इसमें जिस आसन पर बैठकर काफी देर जप किया जा सके और शरीर में दर्द कष्ट न हो वह सुखासन होता है । तपस्वी जनों के लिये कुशा या मृगछाला का आसन ठीक है परन्तु हम जैसे गृहस्थ लोगों के लिये ऊन के कम्बल का आसन ही उपयुक्त है। आसन इतना गद्दा, तकिये वाला भी न हो कि उस पर नींद या आलस्य आने लगे । बैठने के ढंग को भी आसन कहा जाता है । जप करते समय सीधा तन कर बैठना चाहिए। रीढ़ की हड्डी सीधी हो, सीना तना हुआ हो, दृष्टि नासाग्र पर हो और इस के लिए पद्मासन की मुद्रा में बैठना सबसे अधिक उपयुक्त होता है। कुछ विशेष साधनाओ मे अन्य आसन भी निर्धरित किये गए हैं। अपने बैठने के आसन को जप के बाद उठाकर रख देना चाहिए, ताकि उस पर कोई अन्य नहीं बैठ जाए। आप मन मे सोचेंगे कि बैठने के लिए पद्मासन में ही क्यो बैठा जाए हम तो आराम से बिस्तर पर लेटकर भी जप कर सकते हैं तथा अपने आसन को उठाकर रखने और दूसरे को बैठने न देने का क्या अभिप्राय है। रीढ़ की हड्डी के मध्य इडा पिंगला तथा सुषुम्ना नाड़ियाँ हैं और जब तक सीधा तनकर नहीं बैठोगे प्राण का संचार ठीक से नहीं होगा। मन पर नियन्त्रण करने के लिए व मन को एकाग्र करने के लिए प्राणों का नियमन करना आवश्यक है । इस से कुण्डलिनी शीघ्र जागृत होती है और सिद्धि भी जल्दी मिलती है। प्रत्येक मनुष्य के अन्दर से उसके संस्कारों के अनुसार शरीर से गन्ध निकलती है। जो उसके पहनने के बैठने के इस्तेमाल करने के वस्त्रों में भी व्याप्त हो जाती है। यह उस पसीने की गन्ध से भिन्न है जिसका आभास जल्दी हो जाता है। उन्हें सस्कार लहरें या चरित्र लहरें कह सकते हैं। किसी सज्जन पुरुष के पास बैठने से आपके अन्दर उसके अच्छे सस्कार प्रवेश करते है और किसी बुरे आदमी के पास बैठने से उसके बुरे विचारों का प्रवेश होता है। इसलिये महापुरुषों के चरण स्पर्श का चलन है ताकि उनके अच्छे गुणों का प्रभाव हमारे अन्दर आ जाये । आपके आसन पर कोई साधक सन्त पुरुष बैठ जाय यह तो अच्छी बात होगी। परन्तु बुरे संस्कार वाला व्यक्ति बैठ गया तो उस आसन के द्वारा उसके जुरे संस्कारों के कीटाणु आपके मन मस्तिष्क में प्रवेश कर जायेंगे और आप की मन शुद्धि में बाधा डालेंगे । आपकी साधना में बाधक होंगे । इसलिये आसन को उठाकर रख दो ताकि दूसरा न बैठे ।
  • स्थान :
स्थान के बारे में हम ने इन्हीं अध्यायों में बताया है कि किस प्रकार का स्थान ठीक रहता है। एकान्त व शान्त वातावरण। यहां यह और बत कि जिन स्थानों पर पूर्व महापुरुषो ने बैठकर साधना की है वहां पर उनक अच्छी संस्कार लहरों का अभी तक प्रभाव मौजूद है, ऐसे पवित्र स्थलों में शान्त व एकान्त वातावरण मे साधना करने पर शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है 
  • प्राणायाम :  
कुछ सरल प्राणायाम क्रियाओं का भी अभ्यास करना चाहिए। इनसे मन पर नियन्त्रण करने में सहायता मिलती है। प्राणों से जप करने की विधि में तथा राज योग के अभ्यास में और स्वरोदय के साधन में भी यह बहु उपयोगी रहता है। इस प्रकार आपने देखा कि तंत्र साधना के लिये अपने आपको तैयार करने के लिए आपको क्या-क्या चाहिए। अटूट श्रद्धा, विश्वास, गुरु, देवता, मंत्र की भक्ति, शरीर, मन, स्थान, द्रव्य तथा क्रिया की शुद्धि और आसन माला आदि उपकरण पूजा की सामग्री । हमारे सनातन वैदिक प्राचीन धर्म शास्त्रो, वेद, उपनिषद, स्मृति पुराण आगम तथा तन्त्र शास्त्रों में असंख्य मन्त्र "थे, जिनमे अब कुछ के बारे में ही पूर्ण विधि का पता चलता है । मुख्य पांच देवता है, जिनके नाम पर अलग-अलग मत चते । गणेश, सूर्य, शिव, शक्ति व विष्णु । सरकार उपासना इन पांच मुख्य देवताओं को आधार बनाकर ही की जाती रही। ब्रह्म के निराकार प्रकाशपुंज रूप की भी अराधना का विधान है और गायत्री मंत्र मुख्य रूप से निराकार उपासना का मंत्र है। यों साकार उपासना करने वालों के लिए गायत्री देवी के ध्यान का भी स्वरूप निर्धारित है। गणेश जी की उपासना यों तो सामान्य रूप से समस्त भारत में प्रचलित है और प्रत्येक पूजा मंगल कार्य मे पहले श्री गणेश जी की पूजा की जाती है, परन्तु महाराष्ट्र में इनकी पूजा पूरे विधि विधान से की जाती है। सूर्य  पूजा इष्टदेव के रूप मे अब बहुत कम की जाती है। ग्रह-शांति के लिए ही कभी-कभी कहीं-कहीं होती है। वैसे सूर्य की विधिवत् आराधना करने से बल तेज पराक्रम व आत्मशक्ति का विकास बहुत शीघ्र होता है । शक्ति की उपासना का प्रचार व्यापक है और बंगाल में विशेष रूप से है । इसी प्रकार शिवं व विष्णु की उपासना भी व्यापक है तथा भारत ही नहीं भारत के बाहर के देशों में भी की जाती रही है। इन सभी देवताओ के मंत्रों की साधना का विशद वर्णन मंत ग्रंथों में मिलता है। इनमे से जिस देवता के मंत्र का साधन करना हो तत्सम्बन्धी ग्रंथों में बताई गई विधि से ही करना चाहिए। और गुरु का इष्ट भी उसी देवता का हो तभी ठीक रहता है वैसे उच्च कोटि के महापुरुष इन सभी देवताओं को एक ही परम ब्रह्म परमात्मा . के रूप समझते है और कोई भेद नहीं समझते। जैसे स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने सभी देवताओं की साधना की थी और निराकार ब्रह्म की भी साधना करने के बाद निर्विकल्प समाधि तक प्राप्त की थी। विष्णु भगवान के अवतार राम और कृष्ण की पूजा तथा आराधना भी भारत के बहुत से भागों में व्यापक रूप से की जाती है और इनके मंत्री की साधना की विधि भी पूर्ण रूप से  त है तथा धार्मिक ग्रंथो से मिल जाती है। यह सभी देवता सांसारिक को ऋद्धि सिद्धि द्वारा देने वाले तथा साधक को सुगति मोक्ष तक देने ले हैं। पूर्वोक्त पांचो देवों को मत देवता तथा अवतारो को आत्म देवता हा जाता है।
  • इष्ट देवता :
मत देवता या आत्म देवता के अवतार या अवतरण देवता को इष्ट देवताहा जाता है। परलोक सम्बन्धी ज्ञान देने के लिये, विपत्तियों से रक्षा करने लिये, शत्रुओं को दण्ड देने के लिए एवं अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए, न देवताओं की साधना की जाती है, उन्हें इष्ट देवता कहते हैं। इनमें परोक्त मत देवता व आत्म देवता के अतिरिक्त हनुमान जी, बटुक भैरवजी, क्ति के अनेक रूप महाकाली दुर्गा, महालक्ष्मी, महासरस्वती, बगलामुखी वी आदि आती हैं। कुल में जिस देवता की पूजा की जाती हो यह कुल देवता, घर में जिसकी जा होती हो, वह गृह देवता तथा ग्राम में पूजा जाने वाला ग्राम देवता कहलाता है। ब्रह्म, प्रजापति, इन्द्र, मरुद्गण, वरुण, अग्नि, वायु, नवग्रह आदि लोक देवता कहे जाते हैं।

मंत्र साधना की दो रीतियां हैं :  - वैदिक तथा तान्त्रिक।

इन अध्यायों में हम आपको वैदिक रीति से साधना की विधियां बतायेगे। अपने मन प्रकृति स्वभाव आदि को देखकर अपने अनुकूल देवता चयन कर लें और गुरु से सलाह करके उसका मंत्र ले लें। मंत्र दीक्षा संन्यासी को संख्यासी से, साधु को साधु से, वैष्णव को वैष्णव से, गृहस्थी को गृहस्थी । से, उदासी को उदासीन से, वानप्रस्थी को वानप्रस्थी से लेनी चाहिए। गुरु जो मंत्र दे वह उसे या तो सिद्ध होना चाहिए या वह देने से पहले उसका विधिवत् पुरश्चरण करे। गुरु नहीं मिले तो इष्टदेव की मूर्ति या चित्र के सामने बैठकर उन्हीं से मंत्र की दीक्षा ले लें। शुभ मुहूर्त देख कर नित्य कर्म से निवृत होकर मंत्र को भोजपत्र या ताड़पत्र पर लिखकर चांदी के पात्र में  इष्टदेव के सामने पाटी पर रखें उसकी पोईसोपचार से पूजा करें और इष्टदेव का ध्यान कर उनसे मंत्र ग्रहण करें। उसकी उसी समय एक माला जाप करें ।
मंत्र में जितने अक्षर होते हैं उसकी उतने ही लास की जप संख्या होती  है। कम से कम सवा लाख जप तो करना ही चाहिए। यह भी न हो सके तो ग्यारह हजार से कम में तो पुरश्चरण नहीं होता । जप का दशांश हवन उसका दशांश तर्पण उसका दशांश ब्राह्मण या साधु को भोजन कराना है । मन्त्र शास्त्रो मे साधक को परामर्श दिया गया है कि किसी मन्त्र की साधना करने से पूर्व यह निर्णय कर ले कि उस साधक के लिए वह मन्त्र उपयोगी हैं या नहीं। इसको देखने के लिए कुलाकुल चक्र का प्रयोग किया जाता है। साधक जिस मन्त्र की साधना करना चाहता है उस मन्त्र का प्रथम अक्षर और साधक के नाम का प्रथम अक्षर दोनों यदि एक ही कुल ( अर्थात् तत्व) के हो तो वह मन्त्र निश्चित रूप से फल देता है। क्योंकि मन्त्र और मन्त्र गृहीता इन दोनों की प्रकृति मे समानता होती है । यदि इन दोनो के प्रथम अक्षरों की एक ही प्रकृति न हो अर्थात् यह अलग-अलग प्रकृतिं (अर्थात् तत्व) के हों तो तत्व मैत्री चक्र में यह देखना चाहिए कि इन तत्वो मे आपस में शत्रुता तो नहीं है। यदि शत्रुता हो तो ऐसे मन्त्र की साधना नहीं करनी चाहिए। इसका फल अच्छा नहीं होगा। यहां यह स्मरण रखना चाहिए "ॐ" तो लगभग प्रत्येक मन्त्र के प्रारम्भ में होता ही है इसके बाद के वर्ण को मन्त्र का पहला अक्षर मानना चाहिए । कुलाकुल चक्र की रचना के लिए 'अ' से 'क्ष' तक के पचास वर्णों को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच तत्वों में बांटा गया है। आकाश तत्व के साथ सब तत्वो की मैत्री होती है। वायु की पृथ्वी तत्व से तथा अग्नि की जल व पृथ्वी तत्वं से शत्रुता है । शेष सब मित्र हैं । जिस प्रकार एक रोग के नाश के लिए अनेकों औषधियां होती है वैसे ही एक उद्देश्य की सिद्धि के लिए कई प्रकार के मन्त्र उपलब्ध हो जाते हैं। अतः इस बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि मन्त्र निर्णय कैसे होगा । इस सन्दर्भ मे यह बात भी याद रखने की है कि कुछ मन्त्र स्वयं सिद्ध कहे जाते हैं उनके बारे मे उपरोक्त कुलाकुल का विचार नहीं किया जाता है । आठो बीज मन्त्र ( जिनके सम्बन्ध मे आगे बताया गया है ), दस महाविद्याएं, आठ सिद्ध देविया (रक्तकाली, महिषमर्दिनी, त्रिपुरा, दुर्गा, प्रत्यगिरा, बाला, स्वप्नावती और मधुमती), 
  • शिवजी का पंचाक्षरी मन्त्र “ॐ  नमः शिवाय, 
  • भगवान राम का मन्त्र " राम रामाय नमः" ये सब स्वयं सिद्ध तथा शुभ फलदायक मन्त्र होते हैं । 

मंत्र दो प्रकार के होते हैं : 

आग्नेय व सौम्य । जिन मंत्रो में पृथ्वी, अग्नि व आकाश तत्व के वर्ण अधिक होते हैं वे आग्नेय मंत्र होते हैं और जिनमें जल तथा वायु तत्व के वर्णं अधिक होते हैं वे सौम्य बन जाते हैं तथा सौम्य मंत्र कहलाते हैं । आग्नेय मंत्रों के साथ नमः लगा देने से वे सौम्य बन जाते है तथा सौम्य मन्त्रो के साथ फट् लगा देने से वे आग्नेय बन जाते हैं। पुरुष देवता के या उम्र देवता के लिए आग्नेय मन्त्र व स्त्री देवता के लिए सौम्य मन्त्रों का व्यवहार किया जाता है। भारण, उच्चाटन, विद्वेषण, ऋतु दमन  आदि कर्मों के लिये आग्नेय मन्त्र तथा शान्त कर्मों के लिये सौम्य मन्त्र काम में लाये जाते हैं। जिन मन्त्रों मे अनेक वर्ण परस्पर मिले होते हैं उन्हें कूट मंत्र कहते हैं जैसे- 
  • ओम् ऐं ह्नीं वर्ती चामुण्डायै विच्चे। 
यदि शब्द रूपी दीपक का प्रकाश न हो तो यह विश्व अन्धकारमय हो जाये । शब्द ब्रह्म की महिमा अपार है। विज्ञान ने भी अनेक परीक्षणो द्वारा शब्द तत्व की महत्ता को स्वीकार किया है। जब कुछ विशेष शब्दों की वर्ण योजना किसी वैज्ञानिक पद्धति से की जाती है तब उन्हें मंत्र कहते हैं। प्रत्येक वर्ण की शक्ति तथा प्रभाव अलग-अलग होता है। नीचे प्रत्येक वर्ण के विषय में बताया जाता है :
  • (अ) मृत्युनाशक (वासुदेव स्वरूप, स्वर कण्ठ स्थान ह्रस्वाक्षर ) 
  • (आ) आकर्षण करने वाला (स्त्रीलिंग दीर्घ स्वर) 
  • (इ) पुष्टि कारक (नपुंसक लिंग हस्व स्वर) 
  • (ई) आकर्षण करने वाला 
  • (उ) बल देने वाला 
  • (ऊ) उच्चाटन करने वाला है। किसी व्यक्ति या वस्तु को उसके स्थान से विचलित कर देने है । 
  • (ऋ) लोभ तथा स्तम्भन करने वाला। 
  • (ऋ) मोहन करने वाला। 
  • (लृ ) विद्वेष पैदा करने वाला। 
  • (ए) वशीकरण-किसी व्यक्ति को अपने अनुकूल ' बनाने वाला। 
  • (ऐ) पुरुष वशीकरण । 
  • (ओ) लोक वश्य कारक 
  • (औ) राज वश्य कारक 
  • (अं) हाथी आदि वन्य जीवों को वश में करने के लिए 
  • (अ:) मृत्यु नाशक 
  • (क) विष बीज । 
  • (ख) स्तम्भन बीज । 
  • (ग) गणपति बीज ॥  
  • (घ) स्तम्भन चीज 
  • (ङ) असुर बीच 
  • (च) चन्द्रमा बीज 
  • (छ) लाभ बीज तथा मृत्यु नाशक 
  • (ज) ब्रह्म राक्षस बीज। 
  • (झ) चन्द्र बीज धर्मार्थ काम मोक्ष प्रद है। 
  • (ञ) मोहन बीज । 
  • (ट) क्षोभण बीज चित्त को चंचल करने वाला। 
  • (ठ) चन्द्र बीज, विष तथा अपमृत्यु नाशक है । 
  • (ड) गरुड का बीज है। 
  • (ढ) कुबेर का बीज है उत्तर दिशा मे मुख करके चार लाख जप करने से धनधान्य वृद्धि करता है । 
  • (ण) असुर बीज है । 
  • (त) आठ वसुओं का बीज है 
  • (थ) यम बीज मृत्यु के भय को मिटाता है। 
  • (द) दुर्गा बीज है। चाय एवं पुष्टि के लिए उत्तम है। 
  • (घ) सूर्य बीज है। यश व सुख की वृद्धि करता है। 
  • (न) ज्वर एकान्तर तिजारी को दूर करता है। (१) वीरभद्र और वरुण का बीज है । 
  • (फ) विष्णु बीज है। धन धान्य को बढ़ाने वाला है। 
  • (घ) बहर बीज है। वात पित्त लेष्म का नाश करता है। 
  • (भ) भद्रकाली का बीज है। भूतप्रेत,  पिशाच के भय को दूर कर है। 
  • (म) भाला, अग्नि, तथा रुद्र का बीज है, स्तम्भन, मोहन कर्म के लिए अष्ट महा सिद्धि का देने वाला है। 
  • (य) वायु बीज तथा उच्चाटन कारक है । 
  • (र) अग्नि बीज है उम्र कर्मों की सिद्धि देने वाला है । 
  • (ल) इन्द्र बीज है। धन धान्य सम्पत्ति बढ़ाता है। 
  • (व) वरुण बीज है, विष तथा मृत्यु का नाशक है । 
  • (श) लक्ष्मी बीज है। एक लाख जप करने से लक्ष्मी प्राप्त होती है। 
  • (ष) सूर्य बीज है। धर्म, अर्थ काम मोक्ष देने वाला है। 
  • (स) वाणी बीज है। ज्ञान सिद्धि तथा वाक् सिद्धि देता है। 
  • (ह) आकाश एवं शिव का बीज है। 
  • (क्ष) पृथ्वी बीज है, नृसिंह तथा भैरव का भी यही बीज है। 
उपरोक्त वर्णों में अनुस्वार लगाकर आरम्भ में ओम् और कोई आठ मुख्य बीज मंत्रों में से एक दो लगाकर नमः या फट् जौड़कर मंत्र बनाये गए हैं। आठ मुख्य बीज इस प्रकार हैं । आपने वट वृक्ष देखा होगा। बरगद का पेड़ कितना बड़ा होता है। और उसका बीज देखा है तिल और पोस्त जैसा। उसी छोटे से बीज में कितना बड़ा वृक्ष छिपा हुआ है। इसी प्रकार विभिन्न बीज अक्षरों में तत्सम्बन्धी देवताओं की महान शक्ति छिपी रहती है। सर्वप्रथम ईश्वर की इच्छा से जब सृष्टि की उत्पत्ति हुई सब परब्रह्म सेओंकार की ध्वनि पैदा हुई। फिर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश बने । मन, बुद्धि, अहंकार के तत्वों के मिश्रण से आठ मुख्य बीजाक्षरों की उत्पत्ति हुई इन्हें ही बीज मन्त्र कहते हैं। 
  1. (आ, ऐ म्) ऐं - गुरुबीज 
  2. (ह, र्, इ. मू.) ह्रीं शक्ति बीज, 
  3. (क, ल, इ. म, ) वली-काली का बीज मंत्र है । 
  4. (८, ८ इम) ट्री - तेजो बीज, 
  5. (स् त् र्इम् )  स्त्री-शांति बीज 
  6. (क, र ई, म.) क्रीं- योग बीज और 
  7. (श, द इ. म. ) श्री महालक्ष्मी का बीज है। 
  8. आठ मुख्य बीज हुए-ऐ, ह्रीं क्लीं, ट्री, स्त्री, क्रीं श्रीं ह्रीं ( हिलरीम) (द, तर, ई, म्) 'हिलरीम' रक्षाबीज है। 
सामान्य वर्ण योजना वाले वर्ण समुदाय को अकूट मंत्र कहते हैं। किसी निश्चित दृष्टि व उद्देश्य को लेकर जो वैज्ञानिक वर्ण योजना की गई हो वह अकूट मंत्र है। वैदिक संहिताओं में दिए गये मंत्र वैदिक मंत्र, शिव पार्वती संवाद, भैरव संवाद में बनाए गए मन्त्र तान्त्रिक मन्त्र, पुराणों में देवताओं की उपासना के लिए बताए गए मंत्र पौराणिक मंत्र होते हैं। बीस अक्षरों से बड़े मंत्र को माला मंत्र कहते हैं। सिद्ध पुरुषो द्वारा बताए गए मंत्र सिद्ध मत्र कहलाते हैं और बड़े मौभाग्य से मिलते है। सिद्ध पुरुषो को कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने पर अन्तर मे जो मत्र प्राप्त होते हैं वे सिद्ध मंत्र होते हैं। मत्र से लय और तय से राजयोग सिद्ध होता है। सिद्ध मंत्र सिद्ध गुरु के द्वारा प्राप्त होते हैं और या तो स्वत सिद्ध होते हैं या सरलता से सिद्ध हो जाते हैं। द्वितीय श्रेणी में वे मंत्र आते हैं, जो श्री चैतन्य महाप्रभु श्री रामानन्द जी, कबीर साहिब, स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसे धर्म गुरुओं ने लोकोपकार के लिए बताए हैं। इनका जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। तृतीय श्रेणी के मंत्र पुस्तकों में संग्रहीत है। क्योंकि इनमें गुरु के तप का प्रभाव नहीं होता, इसलिए ये निर्जीव कहे जाते हैं। सात्विक राजसिक तथा तामसिक नाम से भी मंत्रों के तीन भेद हैं :- 
सात्विक मंत्र आत्म शुद्धि, मोक्ष और निष्काम भाव से किये जाते हैं। राजसिक मंत्र यश, ऐश्वर्य, भोगादि इच्छित वस्तु प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं। और तामसिक मंत्र भारण, उच्चाटन, शत्रु दमन, संहार आदि के लिए तात्रिक क्रियाओं मे प्रयोग किए जाते हैं। 
  • शाबर मन्त्र : 
आधा शीशी, नेत्र पीडा, राग निवारण, प्रेत बाधा निवारण, नजर झाड़ने का मन्त्र, बवासीर दूर करने का, डाढ़ झाडने का, बिच्छू उतारने का, पीलिया का, पागल कुत्ते के विष उतारने का बहुत से ऐसे मन्त्र है जो बोलचाल की भाषा में हैं और उन्हें शाबर मंत्र कहा जाता है श्री मत्स्येन्द्रनाथजी के शिष्य तथा गोरखनाथ जी के गुरु भाई श्री शाबरनाथ जी के द्वारा इन मंत्रो को शक्ति प्रदान की जाने के कारण इन्हें शाबर मंत्र कहते हैं। इनमें हनुमान जी की हांक, लक्ष्मणकुमार की आन, गुरु की शक्ति, मेरी भक्ति फुरो मंत्र ईश्वरोवाचा आदि वाक्य प्राय होते हैं। इनके सिद्ध करने में कोई विशेष हवन आदि भी नहीं करना पड़ता और बहुत यम नियम भी पालन नहीं करनी पड़ता। भगवान शिव तथा पार्वतीजी ने जिस समय अर्जुन से किरात वेश मे युद्ध किया था उस समय शिवजी ने आगम चर्चा मे पार्वती जी के प्रश्नो के उत्तर में यह मंत्र बताये थे जो भिल्ल प्रदत्त होने से शाबर मंत्र कहलाने है। तंत्रों मे इनका वर्णन है। इन मे अन्य योगियो महासंतों के मंत्र यहां तक कि मुसलमान फकीरों के मंत्र भी शामिल हो गए। इनकी बताई गई  विधि से सिद्ध करने पर बहुत से लोकोपयोगी कार्य कुष्ट बाधा निवारण किए जा सकते हैं, क्योंकि इनमें तत्सम्बन्धी महापुरुषों संतों की शक्ति व आशीर्वाद मिला हुआ है । यह तत्काल सिद्ध होते हैं और प्रत्यक्ष फल देते हैं। साधक के लिए कुछ उपयोगी बातें : सूर्योदय से दो घण्टा पहले उठना, उठकर अपने दोनों हाथों को देखना चाहिए। 'कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करमूले स्थिति ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनन् ।" इसके बाद पृथ्वी को नमस्कार करके शैय्या त्याग देनी चाहिए । तत्पश्चात् मल मूत्र त्याग कर दातुन करे और नदी, तालाब, कुंआ, बावड़ी या घर ही शुद्ध जल से स्नान करें। स्नान के बाद धुले हुए वस्त्र पहने। धोती और दुपट्टा या चादर। ये कपड़े रेशमी या ऊनी हो तो उत्तम रहता है । सूती हों तो सिले हुए, नील या मांडी लगे हुए नहीं होने चाहिए। नया वस्त्र हो तो उसे एक बार धोकर ही पहनना चाहिए। जिस वस्त्र में गन्दगी लगी हो या जिसे पहन कर मल मूत्र त्याग कर लिया हो उसे धोकर ही पहनना  चाहिए। रेशमी या ऊनी वस्त्र सदैव पवित्र माने गए हैं। इसलिए सर्वोत्तम होते हैं । उत्तम कर्मों के लिए पीले वस्त्र तथा देवी की उपासना में लाल वस्त्र पहनने का विधान है। ठण्ड के दिनों में ऊनी स्वेटर आदि पहना जा सकता है। कोट, पैन्ट, पाजामा आदि पहनकर जप करना ठीक नहीं। पूजा, जप आदि के लिए एकान्त पवित्र और शुद्ध वायु वाला स्थान चुनना चाहिए। कोलाहल हो, स्थान की कमी हो, आसपास दुर्गन्धपूर्ण वस्तुएं हों, किसी प्रकार का भय हो, वहां मन मे स्थिरता नहीं आती। पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठने और जप पूजा करने से वशीकरण मंत्र, दक्षिण दिशा की ओर मुख करके जप करने से अभिचार मंत्र, मारण उच्चाटन आदि मंत्र, पश्चिम दिशा में सम्पत्ति लाभ मन्त्र और उत्तर दिशा में सुख शान्ति प्राप्त करने के मन्त्र शीघ्र सिद्ध होते हैं । सामान्यतः पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना ठीक रहता है। जिस आसन में शरीर बिना किसी कष्ट के साथ देता रहे, किसी प्रकार की बैचनी न हो वही सुखासन होता है। इसके लिए स्वास्तिकासन, वीरासन, सिद्धासन, या पद्मासन सबसे अच्छे बताये गये हैं । पालथी मारकर बैठने को स्वास्तिकासन कहते हैं और यह सबसे सरल व सुखप्रद है । आसन कुशा का, मृगछाला का या ऊनी कम्बल का उत्तम होता है। इसको लकड़ी के पटिए पर या तस्त पर फैला कर बैठा जा सकता है। शेर चीते के धर्म का आसन भी उत्तम होता है । परन्तु अन्य चमड़े के आसन पर नहीं बैठना चाहिए। पत्थर पर बैठ कर पूजा जप नहीं करना चाहिए। देवी की पूजा में लाल रंग का आसन, शिव की पूजा में श्वेत रंग का आन तथा मारण आदि अभिचार कर्म में काले रंग का आसन प्रयोग में लाया जाता है ।

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