जानिए मूल प्रकृति-रूपा भगवती दुर्गा,
श्रीदुर्गा सप्तशती में तीन चरितों
भगवती दुर्गा-वैष्णव और शैव आदि सभी के द्वारा नित्य उपासना करने योग्य हैं। ये मूल प्रकृति-रूपा हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाली इनका नवाक्षर मन्त्र, मन्त्रों में उत्तम 'नवार्ण- मन्त्र' कहलाता है।
श्रीदेवी भागवत, स्कन्ध ५ के 'श्रीदुर्गा-विधान' में कहा गया है कि श्रीदुर्गा-'सर्व- बुद्ध्यधि-देवी (सबकी बुद्धि की अधि-देवी') 'अन्तर्यामि-स्वरूपिणी' और 'मूल-प्रकृति- रूपा सा, सृष्टि-स्थित्यन्तकारिणी' - मूल प्रकृति-रूपा, सृष्टि करनेवाली, स्थिति और अन्त करनेवाली शक्ति है।'
'दुर्ग-सङ्कट-हंत्रीति, दुर्गेति प्रथिता भुवि' दुर्गा-विशाल सङ्कट को नाश करनेवाली हैं, अतः 'दुर्गा' नाम से ख्यात हैं।
'देवी-भागवत' में ही श्रीदुर्गा के लिए एक प्रसङ्ग और आया है। देखिए, स्कन्ध 1, अध्याय 2। यथा प्रकृति' नित्य है, जो 'ब्रह्म' की लीला और सनातनी है। जैसे अग्नि में जलानेवाली शक्ति, चन्द्रमा और कमल में शोभा-रूपा शक्ति, सूर्य में प्रभा निरन्तर युक्त रहती है-कभी भिन नहीं होती, वैसे ही 'ब्रह्म' में 'प्रकृति' सदा लीन रहती है। जैसे सुनार बिना सुवर्ण कुण्डलादि नहीं बना सकता, कुम्हार बिना मिट्टी घटादि नहीं बना सकता, वैसे ही 'प्रकृति' विना 'आत्मा' सृष्टि करने में समर्थ नहीं है। 'प्रकृति' - सर्व-शक्ति-स्वरूप है और उसी से 'आत्मा' - शक्तिमान् कहलाता है। 'श' शब्द ऐश्वर्य-वाचक और 'क्ति' शब्द पराक्रम-वाची है। ज्ञान-समृद्धि-सम्पत्ति-यश-बल आदि को 'भग' कहते हैं। जिसमें 'शक्ति' व 'भग' हो, उसको 'भगवती' कहते हैं। 'भगवती' ही 'शक्ति' कहलाती है और 'शक्ति' से युक्त आत्मा-भगवान् कहलाता है।
Mool Prakrti-Roopa Bhagavatee Durga |
'श्रीदेवी भागवत' के उपर्युक्त विवरण से यह प्रमाणित होता है कि श्रीदुर्गा-विष्णु- माया एवं सनातनी हैं। सम्पूर्ण देव-देवियाँ इन्हीं से प्रगट हैं। श्रीदुर्गा-बीज-रूपा मूल-प्रकृति ईश्वरी है।
अब श्रीदुर्गा के विषय में श्रीदुर्गा सप्तशती के आधार पर विवेचन करें। श्रीदुर्गा सप्तशती, एकादश अध्याय में भगवती द्वारा धूम्र-लोचन, चण्ड-मुण्ड, रक्त-बीज, निशुम्भ-शुम्भ आदि के मारने के बाद निष्कण्टक होने पर देवताओं ने उनकी स्तुति की।
स्तुति में देवताओं ने देवी से कहा- 'हे देवि! प्रसन्न होओ। जिस प्रकार इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हम लोगों की रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें असुरों के भय से बचाओ। देवी ने तब देवताओं से कहा-देवताओं! मैं वर देने को तैयार हूँ। तुम्हारे मन में जिस बात की कामना हो, वर माँगो। संसार के लिए उप-कारक वह वर मैं अवश्य दूँगी। देवताओं ने वर माँगा हे सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो। उत्तर में देवी ने (उस काल के) भविष्य के अनेक उपद्रवों तथा बाधाओं का उल्लेख कर बाधाओं के शमनार्थ विविध नामों से युक्त अपने प्रादुर्भाव का वर्णन किया।
श्रीदुर्गा सप्तशती में तीन चरितों
- महाकाली,
- महा-लक्ष्मी और
- महा-सरस्वती का वर्णन है। समग्र चरित को 'श्रीदुर्गा सप्तशती' कहा गया है क्योंकि ये सभी 'श्रीदुर्गा' के हो रूप है। श्रीदुर्गा सप्तशती के 2 से 4 अध्याय तक महा-लक्ष्मी चरित है। इस चरित में महिषासुर के देवी द्वारा मारे जाने पर देवताओं ने भगवती की 'दुर्गा' नाम से ही प्रार्थना की है। देखिए, प्रार्थना का 11 वाँ और 17याँ मन्त्र-
दुर्गाऽसि दुर्ग-भव-सागर-नौर-सङ्गा।
श्रीः कैटभारि-हृदयैक-कृताधिवासा,
गौरी त्वमेव शशि-मौलि-कृत-प्रतिष्ठा ।।
दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः,
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्र्य-दुःख-भय-हारिणि ! का त्वदन्या?
सर्वोपकार करणाय सदाऽऽर्द्र - चित्ता ॥
इसी प्रकार श्रीदुर्गा सप्तशती के अध्याय 5 से 11 तक महा-सरस्वती चरित है। इसमें भी निशुम्भ, शुम्भ आदि दैत्यों से त्राण पाने के लिए देवताओं ने भगवती की प्रार्थना में 'दुर्गा' नाम से प्रार्थना की है। देखिए, अध्याय 5, मन्त्र 12 वॉ और अध्याय ११, मन्त्र २४ वॉ- दुर्गायै दुर्ग-पारायै, सारायै सर्व-कारिण्यै। ख्यात्यै तथैव कृष्णायै, धूमायै सततं नमः ॥12
सर्व-स्वरूपे सर्वेशे, सर्व-शक्ति-समन्विते ! ।। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि ! दुर्गे देवि ! नमोऽस्तु ते । 24 'सप्तशती' के प्रथम चरित महा-काली-चरित में 'दुर्गा' का नाम नहीं आया है तथापि महा-काली या काली के लिए भी 'दुर्गा' का नाम आया है। मधु-कैटभ के मारनेवाले, योग-निद्रा- ' आश्रित भगवान् विष्णु के हृदय में निवास करनेवाली महा-माया-महा-काली भी 'दुर्गा' ही है।
अर्गला स्तोत्र' में भी 'काली' के लिए 'दुर्गा' नाम आया है। यथा-जयन्ती मङ्गला काली, भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री, स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते।।
संक्षेप में, श्रीदुर्गा के अनेक नाम हैं तथा अनेक रूप हैं, जिन्हें समय-समय पर उन्होंने धारण किया है। उपासक द्वि-भुजी, अष्टभुजी, दश-भुजी, अष्टादश-भुजी, सहस्त्र-भुजी, अपराजिता, चण्डिका, महा-माया एवं प्रकृति-रूपा आदि अनेक रूपों में इनकी उपासना करते हैं। इनकी उपासना, ध्यान-पूजार्चनादि विभिन्न तन्त्र-शास्त्रादि के आधार पर भिन्न-भिन्न क्रियाओं द्वारा की जाती है। साधारण स्तोत्रादि से भी आराधना होती है।
टिप्पणियाँ