मन्त्र तन्त्र साधना की आरम्भिक का विश्लेषण
विषय प्रवेश मन्त्र तन्त्र साधना की आरम्भिक आवश्यक बातें, मन्त्र शक्ति का वैज्ञानिक आधार, भूत प्रेत साधना, श्मशान साधना, वाम मार्ग साधना का विश्लेषण ।
मन्त्र तन्त्र साधना
मन्त्र तन्त्र का बिगड़ा हुआ रूप मन्तर जन्तर तन्तर है और इन शब्दों से आम जनता मे जन्तर मन्तर जानने वाले जिन ओझा, सयानो, सेबड़ों, तान्त्रिक अघोरी काला जादू या इन्द्रजाल जानने वाले की जो तस्वीर सामने आती है वह कोई अच्छी तस्वीर नहीं होती। लोग कुछ भव- मिश्रित कौतुहल से इन लोगों को देखते हैं और इस विद्या के जानने वाले या ज्ञान से हीन परन्तु पाखण्ड तथा दम्भ का सहारा लेकर भूत प्रेत न्याधा उतारने, मारण मोहन वशीकरण के नाम पर अनाचार अभिचार करने वालों की काली करतूतों से इस विद्या पर किसी की भी श्रद्धा नहीं रही है। दूसरों के अज्ञान से लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करने वालों के कारण ही हमारे धर्म कर्म और जिन प्राचीन विद्याओं की हानि हुई है उसमें ज्योतिष, सामुद्रिक के साथ-साथ ही यह मन्त्र तन्त्र विद्या भी है। इन विद्याओं की उत्पत्ति जन कल्याण, समाज कल्याण जैसी उच्च महती भावनाओ को लेकर हुई थी, परन्तु कालान्तर में इसे स्वार्थी जनों ने अपनी कुचेष्टा की पूर्ति का साधन बना लिया।
Mantr Tantr Saadhana Kee Aarambhik Ka Vishleshan |
परमाणु शक्ति की खोज आज के विज्ञान की चरम उपलब्धि है परन्तु यदि इसे जन कल्याण के कार्यों में न लगाकर विध्वंस के लिये प्रयोग किया जाय तो इसमें विज्ञान क्या दोष ?" वैदिक काल में हमारे ऋषि मुनि महर्षियों ने सूर्य चन्द्र आदि ग्रहों, अग्नि वायु जल के देवता वरुण आदि की विश्व कल्याण में उपादेयता को जान कर उनकी स्तुति मे मन्त्रो की रचना की। सूर्य के तेज व प्रकाश के बिना जीवन का कोई कान नहीं चल सकता। इससे हमें गरमी मिलती है मिलता है वनस्पतियों को जीवन मिलता है। अग्नि तथा बायु हमारे के लिये परम आवश्यक तत्व है। प्राण के बिना जीवन नहीं रहता । इन्हीं सब बातों का सूक्ष्म अन्देषण करके हमारे पूर्वजो ने इनको प्रसन्न करने या अपने अनुकूल बनाने के लिये स्तुति मंत्र बनाये। यह तो आप जानते हैं कि अग्नि हमारे लिये कितनी उपयोगी है परन्तु यदि प्रतिकूल हो जाये तो सर्वनाश का कैसा भीषण दृश्य उपस्थित कर सकती है। जल या वर्षा के देवता इन्द्र यदि कुपित हो जायं तो बाढ़ या जल प्लावन के कैसे-कैसे अनर्थ और सर्वनाश कर सकते हैं। वायु देवता यदि कुपित हो जायं तो आंधी तूफान बवंडर से नाश भी कर देते हैं। दैवी विपत्तियों से युद्ध महामारी जननाश होते रहते हैं। इन सब से रक्षा के लिये जो उपाय हमारे पूर्वजो ने निश्चित किये ये सबै तन्त्र मन्त्र शास्त्रो में लिखे हुये हैं और काफी समय तक सफलता पूर्वक प्रयोग में भी लाये जाते रहे हैं। यह सब उपाय वैज्ञानिक सिद्धान्तो पर आधारित है और जब तक इनके जानने वाले रहे और इन को विधिवत किया जाता रहा इनके परिणाम भी निश्चित रूप से ठीक निकलते रहे। आज भी. जब भी जहां कहीं भी इनका विधिवत अनुष्ठान किया जाता है तो सफलता अवश्य मिलती है। इन अनुष्ठानो की प्रामाणिकता में किसी को संदेह नहीं करना चाहिये। यह हो सकता है कि इनके जानकार निस्वार्थ ज्ञानी महर्षियों का दिन प्रति दिन अभाव होता जा रहा है। पुराने जमाने में आजकल की तरह छापेखाने तो थे नहीं । प्राचीन विद्यायें गुरु के मुख से शिष्य को मुखाग्र कराई जाती थीं और जुबानी याद करने में आसानी हो इसलिये कम से कम शब्दो में अधिक से अधिक भाव आ जाएं ऐसे सूत्र बनाये जाते थे और उन सूत्रो व श्लोको को भोजपत्र पर तिल लिया जाता था। विद्या का महत्वपूर्ण भाग गुप्त ही रखा जाता था और उसे गुरु शिष्य को जवानी बताता था और उसको गुप्तं ही रखने का आदेश देता था ।
मन्त्र का मतलब गुप्त सलाह होता है और इसी कारण मन्त्र को गुप्त से गुप्त रखा जाता था। इस कारण हमारा बहुत सा महत्वपूर्ण साहित्य और विद्यायें लुप्त होती गई। इसी कारण हमारे बहुत से प्राचीन ग्रन्थ हमारे यहां उपलब्ध नहीं हैं। विदेशी पुस्तकालयों व संग्रहालयो मे मिल जाते हैं । तात्पर्य यह कि मन्त्र बहुत ही महत्वपूर्ण तथा गुप्त वस्तु है और गुप्त उसी को रखा जाता है जो सबसे अधिक कीमती समझी जाती है। आप जिन वस्तुओ को सबसे अधिक मूल्यवान समझते हैं उनको प्राणों से भी अधिक प्यारी समझ कर सबसे अधिक सुरक्षित स्थान में रखते हैं। मन्त्र भी सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु है। अपने गुरु मन्त्र को कोई भी बताना पसन्द नहीं करेगा। 'फुरे मन्त्र जो करे दुराऊ' वाली उक्ति के अनुसार मन्त्र तभी तक फलदायक होता है जब तक उसको छिपाया जाय और बताया न जाय। बताने से उसकी शक्ति नष्ट या कम हो जाती है। दान वही कर सकता है जिसके पास देने के लिये काफी सम्पत्ति हो । निर्धन देगा ही क्या | और देगा तो उसके पास रहेगा क्या । इसी सिद्धान्त के अनुसार मन्त्र देने की योग्यता उसी की समझी जाती है जिसके पास मन्त्र शक्ति का इतना भण्डार | इकट्ठा हो गया हो कि वह उसमें से बिना अपने को नुकसान पहुँचाये या शक्तिहीन बने दूसरों को दे सके देने वाला निस्वार्थ भाव से, लेने वाले की कल्याण भावना से दे और लेने वाला श्रद्धापूर्वक अपने तथा औरो के लिये निस्वार्थ कल्याण भावना से ले और मन्त्र को सिद्धि तक पहुँचाये ।
प्रत्येक मंत्र मे आदि में ओंकार का होना आवश्यक व निश्चित होता है । इसके बाद कुछ देवताओं तथा विशेष शक्तियों के बीज अक्षर होते हैं और अन्त मे नमः या नमस्कार वन्दना के शब्द होते हैं। हमारे विश्वास तथा मान्यता के अनुसार इस सृष्टि की रचना के आरम्भ में उस पूर्ण ब्रह्म ज्योतिर्पिण्ड के अन्दर से ओंकार की ध्वनि का उदय हुआ था और अ उ म तथा अनुस्वार की बिन्दु से अन्य सभी स्वरों तथा व्यंजनो की उत्पत्ति हुई। इन सबका विस्तार से व्यौरेवार वर्णन हमारे मन्त्र तथा अन्य शास्त्रों में किया गया है। प्रत्येक स्वर तथा व्यंजन की अलग-अलग शक्तियां हैं और इनसे भिन्न-भिन्न प्रभाव उत्पन्न होते हैं। इसी कारण इनके विभिन्न स्वभाव गुण. धर्म के अनुसार इनके स्वामी देवता गण भी निर्धारित किये गये हैं। कुछ रबर ऐसे हैं जिनके उच्चारण करने से शान्त रस का आविर्भाव होता तो कुछ स्वर ऐसे हैं जिनसे रौद्र रस का प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। देवताओं या शक्तियों के गुण स्वभाव के अनुसार जिन स्वर तथा व्यंजनो " का सबसे अधिक मेल खाना है, इसका ज्ञान प्राप्त करके उन विशेष अक्षरों को लेकर उन देवताओं के मन्त्रों के बीच में मिला कर मन्त्रों की रचना नापियो ने की । " अतिशय रगड़ करे जो कोई अनल प्रगढ़ चन्दन ते होई । " चन्दन जैसे शीतल काठ को भी अधिक रगड़ने से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। अब तो माचिस की तीली को घिसने से तुरन्त अग्नि पैदा हो जाती है। माचिस के आविष्कार से पहले चकमक पत्थर को रगड़ कर अग्नि पैदा की जाती थी । परन्तु इससे भी पहले वैदिक युग में काठ की अरणियो को रगड़ कर ही यज्ञो मे अग्नि उत्पन्न की जाती थी। इसी प्रकार मंत्रो के बारम्बार लगातार उच्चारण यानी बहुत अधिक संख्या मे जप करने से वाछित प्रभाव की उत्पत्ति होती है। वनों में वृक्षों के हवा के प्रभाव से बार बार रगड़ने से अब भी ' कभी-कभी आग लग जाती है और जंगल का जंगल पूरा स्वाहा हो जाता है। वनो मे लगने वाली इस अग्नि को दावानल कहते हैं। मन्त्रों को भी बार-बार कहने से एक निश्चित संख्या पूरी हो जाने पर वह सिद्ध हो जाता है । यानि तब वह मन्त्र ५-१० बार कहने मात्र से ही इच्छित प्रभाव या जो प्रभाव उससे उत्पन्न किया जा सकता है या जो करने की क्षमता रखता है, उत्पन्न हो जाता है। अग्नि उत्पन्न करने के भी मन्त्र होते थे और ऋषियों को वे सिद्ध होते थे। यज्ञ के समय वे उन्हीं मन्त्रों से अग्नि उत्पन्न कर देते थे। किसी माचिस चकमक या अरणी की वह सहायता नहीं लेते थे। किस मन्त्र के सिद्ध होने की संख्या कितनी है यह शास्त्रों में बताई गई है। ज्यादातर मन्त्र सवा लाख जपने के उपरान्त सिद्ध होते हैं । आप आज यदि अंग्रेजी के या गणित के या संस्कृत के या किसी अन्य विद्या के पंडित है और उस पर आपका पूर्ण अधिकार है तो क्या यह पांडित्य आपको आसानी से प्राप्त हो गया है ? आपने बाल्यकाल से लेकर युवावस्था तक कितना कठोर परिश्रम किया है। प्रत्येक शब्द को उसके अर्थ को गिनती पहाड़े से लेकर फार्मूलो और सूत्रों को कितनी बार रहा है, तब जाकर कहीं आज इस योग्य हुये हैं कि उनको अधिकारपूर्वक प्रयुक्त कर सकते हैं। इसी प्रकार किसी मन्त्र की कम से कम लाख सवा लाख आवृत्ति करना बहुत जरूरी है। जिस प्रकार एक योग्य अभिभावक यह देखता है कि उसका बच्चा किस तरह की पढ़ाई के अधिक योग्य है और फिर वह उसको उसी तरह की शिक्षा दिलवाता है।
डाक्टरी में रुचि है तो डाक्टरी पढ़ायेगा, इंजीनियरिंग में रुचि है तो यही पढायेगा । इसी तरह योग्य गुरु भी देखता है कि अमुक शिष्य को किस प्रकार का मन्त्र दिया जाना चाहिये। वह निराकार मे अनुरक्त है। साकार विग्रह में। साकार में भी वह सौम्य विग्रहों की ओर आकृष्ट है रौद्र स्वरूपों की ओर और गुरु शिष्य के इष्ट को देखकर ही उसी इष्ट हे अनुसार गुरुमन्त्र देता है, जिससे शीघ्र सिद्धि प्राप्त हो सके। सामयिक, उपद्रवों, समस्याओं तथा ग्रहों के कुप्रभाव को शान्त करने के लिये मन्त्र तथा अनुष्ठान अलग-अलग निर्धारित है। जिन महानुभावो ने गुरु के दिये गये मन्त्र को विधिवत् जप करके सिद्ध किया उनमें अपार शक्ति उत्पन्न हुई और वे परम सन्त हो गये। उनकी मन्त्र शक्ति का प्रदर्शन जन भी परिस्थितिवश हो गया, तभी किसी न किसी चमत्कार की सृष्टि हुई। ऐसे लोग अपनी मन्त्र शक्ति का प्रदर्शन कभी नहीं करते परन्तु कभी-कभी दयावश, करुणावश वह लोगो के प्रकाश में आ जाती है। प्रकृति के नियमों के विरुद्ध काम हो तो उसे चमत्कार समझा जाता है और सन्तो ने मुर्दे तक को जीवित कर दिया है। ऐसे कई उदाहरण हैं । हमारे देश में प्राचीन समय से आज तक अनेको ऐसे सन्त महात्मा हो गये हैं जिनकी मन्त्रशक्ति अपार थी। जिन्होंने अपनी मन्त्रशक्ति आत्मशक्ति से एक प्रदेश ही नहीं, सारे देश को और देशान्तरो तक को हिला दिया था। यहां यदि में उन सबके चमत्कारों का वर्णन न कर केवल नाम ही गिनाने गूं तो भी बहुत स्थान चाहिए। परन्तु उनमें से कुछ का नाम बताना शुभ ही होगा । हमारे राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधी परम संत थे। उन्होने सत्य, अहिंसा के मन्त्र को सिद्ध किया था और अपार आत्मशक्ति अर्जित की थी। सारे संसार को हिला दिया था और जिसकी कम्पन अभी तक बाकी है। उनका इदमन्त्र राम था। इससे कुछ पहले बंगाल में भगवान रामकृष्ण परमहंस अवतीर्ण हुये, जिनके मुख्य शिष्य स्वामी विवेकानन्दजी ने समस्त विश्व में . हिंदू धर्म की पताका फहराई थी। महाराष्ट्र में सन्त तुकाराम, सन्त ज्ञानेश्वर और नामदेवजी तथा राष्ट्रप्रेमी सन्त समर्थ गुरु रामदासजी उल्लेखनीय हैं। इन सब तथा अनेकानेक अन्य सन्तों के पास मन्त्र शक्ति का ही तो खजाना था जो आज तक भी बंटता चला आ रहा है और चुकता नहीं। वैसे तो मानव सदा से ही शंकाशील रहा है और उसने सरलता से किसी 'पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं किया। यों भोली भाली अपढ़ अज्ञान जनता को लोग झूठे आडम्बरों पाखण्डों से ठगते भी रहे हैं। परन्तु पढ़े लिखे लोग तो सदैव से ही शंकाशीत रहे हैं। फिर आज के वैज्ञानिक युग मे तो जब तक पूरे प्रमाण न मिलें विश्वास कोई नहीं करता और करना भी नहीं चाहिये ।
इस तरह चौकन्ने रहने से ठगों से तो बचा ही जा सकता है । मन्त्र शक्ति का यथार्थ धनी कभी भी अपना विज्ञापन प्रदर्शन नहीं करता, ढोल नहीं पीटता । अनायास ही कभी किसी का कोई चमत्कार प्रकाश में आ जाता है। और तब लोग जैसे चौंक कर जागते हैं। आज भी ऐसे महानुभाव अवश्य विद्यमान होगे, क्योंकि पृथ्वी कभी बीजरहित - बीजहीन नहीं होती। और किसी भी विद्या का कभी नितान्त अभाव नहीं होता। जब आपको आपकी रुचि के अनुरूप मन्त्र मिल जाय तो सबसे पहिले आप उसको सिद्ध कीजिये । इसकी निर्धारित संख्या में आवृत्तियां कर लेने पर वह सिद्ध होगा तब आप अपने में पर्याप्त आत्मशक्ति का अनुभव करने लगेंगे आपको अपने पर अपने अन्तर की अपार शक्तियों पर विश्वास उत्पन्न होगा। आपकी आत्मशक्ति जागृत होगी।
आप अपने विद्यार्थी जीवन को याद कीजिये। तब आप अपने अध्ययन के लिये एकान्त स्थान खोजते थे, पार्कों मे जाते थे। सुबह चार बजे के शांत वातावरण में या रात को सब के सो जाने पर पढ़ते थे। इसी प्रकार मन्त्र साधना के आरम्भ मे आपको शोर शराबे से दूर एकान्त या शान्त वातावरण की जरूरत होगी । प्रातः ब्राह्म मुहूर्त में या रात के ११-१२ बजे के समय अर्ध रात्रि मे घर की छत या एकांत कोने में बैठ कर जप करने से शीघ्र सफलता मिलती है । बस्ती से दूर जंगल पहाड़, किसी भग्न मन्दिर या खण्डहर में भी अच्छा रहता है । परन्तु वहां पर चींटी तथा दीमक या कीड़े जमीन पर न हो किसी हिंस्र पशु का खटका नहीं होना चाहिये। घर में भी साधना की जा सकती है । परन्तु आपके मन्त्र जाप से और लोगों की नींद में बाघा पहुँच सकती है। इसका ध्यान रखना होगा। किसी भी विषय की पढ़ाई करते समय यदि आपका मन एकाग्र नहीं होता था, तो वह विषय आपकी समझ मे नहीं आता था और इसलिये आप मन को एकाग्र करके ही अध्ययन करते थे। इसलिये इस साधना में भी मन की एकाग्रता बहुत जरूरी है। शुरू-शुरू मैं इसके लिये प्रयत्न करना पड़ेगा परन्तु धीरे-धीरे आपको मन पर नियंत्रण करना सरल हो जायेगा। इससे आपकी यह आदत बन जायेगी कि आप प्रत्येक विषयं को एकाग्र मन से अध्ययन करने लगेगे और प्रत्येक विषय को आसानी से समझने लगेगे। मन्त्र का जाप करने की चार प्रमुख विधिया हैं। इससे पहिले कि नह बताई जाए एक बात याद रखिये कि आपको जो मन्त्र मिला है और जो साधना आप कर रहे हैं उसको किसी को न बताइये।
अपने प्रगाढ प्रेमी तक को नहीं। तभी उसमें सिद्धि होती है। इसका कारण यह है कि कोई उसे 'गलत बतायेगा कोई उसमे अपनी बुद्धि के अनुसार कमियां बतायेगा, कोई संशोधन पेश करेगा और इन सबसे उत्पन्न होने वाली कल्पित बाधाओं तथा दुष्परिणामों का भय दिखाकर आपकी श्रद्धा, आपके विश्वास को हिलाने का प्रयत्न करेगा। इसलिये यह आदेश शास्त्रों में दिया गया है कि फुरै मन्त्र जो करे दुराऊ । अपने मन्त्र तथा साधन को गुप्त रखो। हां तो मन्त्र का जाप प्रारम्भ में कण्ठ से करना चाहिये वाणी से और यह ऐसे स्थान में हो जहां बाहर का व्यक्ति सुनने वाला न हो तो अच्छा है। यदि आपने अपने' घर मे कोई पूजा स्थान बनाया हुआ है तो वहां कीजिये और कर सको तो दरवाजा आदि बन्द करके केवल इतनी ऊँची आवाज में कीजिये कि घर के अन्य लोग ध्वनि तो सुनें परन्तु मन्त्र को सुन समझ न सके। इन मन्त्र का उच्चारण ठीक हो जायेगा, वह पक्का याद हो जायेगा और ये जल्दी-जल्दी कहने पर भी उसके कहने में भूल नहीं होगी। छा करते समय आप स्नान करके शुद्ध पवित्र वस्त्रों में होति में चिन्ता या उद्वेग न हो और हो तो उसे कुछ देर के लि करो। शुरू में ऐसा न हो पाये तो भी आप जो आप प्रारम्भ कर दो। सभी दुश्चिन्तायें अपने आप दूर होडी गर्न गणिती । कुछ दिन तक, कहिये कि एक हफ्ते १५ हजार की जप संख्या न हो जाय तब तक इस प्राणीने जप चालू रखें। इससे बाद मुख के अन्दर जिल्हा से इनमें ध्वनि निकलती रहती है और के बीच में मन्त्र का रहता है। इसके कुछ दिन के द भी बन्द हो जाती है करती रहती है आ जाय तब मन्त्रक सकता है। जैसे सुखासन, पदमासन अर्थात् आरामदेय बैठक हो, स्नानादि से शरीर पवित्र हो, वस्त्र स्वच्छ हो तो अति उत्तम है ही एकांत स्थान और शोर रहित शान्त वातावरण भी होना चाहिये । परंतु जिला से जाप करने के लिये इन सबकी कोई बंदिश नहीं है। चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-लेटे कहीं भी किसी भी स्थिति में इस प्रकार का जाप किया जा सकता है । हां आरम्भ मे गिनती रखने की समस्या अवश्य रहती है। इसे जेब मे माता रख कर या ऊंगली के पौरवों पर गिनती रख कर हल किया जा सकता है | इसके बाद का जाप स्वांस से प्राणों का आधार बना कर किया जाता है और यह मन्त्र सिद्ध होने के बाद ही किया जाता है और फिर सुरति से ध्यान से चित्तवृत्ति से किया जाता है। अब आपके मन मे यह प्रश्न उठ सकता है कि इतनी सब मेहनत व साधना करने से क्या लाभ होगा ?
क्यों बेकार समय नष्ट किया जाय और ज्योतिष से इसका क्या सम्बन्ध है तथा ज्योतिष मे इससे क्या सहायता मिलती है ? पहला लाभ तो यह होगा कि आपको अपने मन पर नियन्त्रण करना आ जायेगा और यदि भन् पर नियंत्रण हो गया तो इन्द्रियो पर नियंत्रण स्वयंमेव हो जाता है। इसी को प्रबल आत्मशक्ति तथा दृढ़ इच्छा शक्ति कहते हैं। आप जो सोचेंगे उसे कार्यरूप में परिणत करने का पूरा प्रयत्न करेगे। काम को बीच में अधूरा नहीं छोड़ेगे। आपका आचार व्यवहार ठीक होगा। जीवन के उच्च सिद्धान्त बनेंगे। मन को एकाग्र करना आ जाने से आप जिस विषय. को भी पढ़ेगे या सोचेंगे उसे सम्पूर्ण मन बुद्धि से सोचेगे और विषय जल्दी समझ में आ जायेगा । समस्याओं के समाधान तुरन्त निकलेंगे। चाहे कितना ही शोर शराबा हो रहा हो, आप गहन से गहन विषय पर विचार करने मे या उसका अध्ययन करने में समर्थ होगे और सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि, आपकी बुद्धि प्रखर यानी तेज हो जायेगी तथा स्मरण शक्ति बहुत अच्छी हो जायेगी। वाणी मधुर तथा स्वर मीठा हो जायेगा। सांसारिक व्यवहार मे ये सब गुण आपकी उन्नति में बहुत सहायक होंगे। ज्योतिष भी एक गहन व गम्भीर विषय है। इसमें निपुण होने के लिये अच्छी स्मरण शक्ति, तीव्र बुद्धि तथा गहन अन्तर दृष्टि की जरूरत है। यदि ज्योतिषी की स्मरण शक्ति अच्छी नहीं है, ग्रहों के शुभाशुभ का विचार करके निर्णय लेने की उसकी विवेक शक्ति ठीक नहीं है, तो वह एक सफल ज्योतिपी नहीं हो सकता और यह सब गम्भीर निर्णय मन की एकाग्रता के बिना नहीं लिये जा सकते। एक डाक्टर वर्षों तक बड़े-बड़े वृहत ग्रन्थों का अध्ययन करता है, क्रियात्मक अनुभव भी प्राप्त करता है परन्तु यदि उसकी स्मरण शक्ति अच्छी -नहीं है या उसका निर्णय या रोग निदान ठीक नहीं है, तो वह अपने पेशे मे सफल नहीं हो सकता। इसी प्रकार डाक्टर, वकील और इन्जीनियर तो पास होकर बहुत निकलते हैं, परन्तु सफल वही थोड़े से होते हैं जिनकी बुद्धि निर्णयात्मक शक्ति स्मरणशक्ति अधिक प्रखर होती है तो उपरोक्त साधना से प्राप्त विशेषताएं आपकी हर क्षेत्र व व्यवसाय में सहायक होंगी और औसत से आपको ऊपर उठायेंगी। ज्योतिष विद्या, हस्त रेखा, सामुद्रिक, अंक विद्या आदि के सिद्धान्तों को समझने, उन्हें हृदयंगम करने, याद रखने और निर्भयात्मक फलादेश कहने में मन की एकाग्रता, निर्णय लेने की शक्ति विवेक बहुत आवश्यक होता है।
कुछ ज्योतिषियों के बारे में कहा जाता है कि वह फलादेश कहने में कर्णपिशाच जैसी किसी प्रेत सिद्धि का सहारा लेते है। यहां इस विषय पर भी कुछ बता देना जरूरी है। ऊपर जिन ओझा, सेवड़े, सयाने आदि का वर्णन किया है और आज के जमाने में जो काफी संख्या में मिल जाते हैं वे मन्त्रों द्वारा भूत प्रेत आदि सिद्ध करने वाले होते हैं। इनमें भी बहुत से तो पाखण्डी च होते हैं। और उन्हें कोई भूत प्रेत की भी सिद्धि नहीं होती, परन्तु जिन्होंने सचमुच ही इस प्रकार की आत्माओं को सिद्ध किया होता है, वे निम्न स्तर के मन्त्रवेता कहे जा सकते हैं। हमारी मान्यताओं तथा विश्वासों के अनुसार, जिन जीवों की व्यक्तियों की अकाल मृत्यु हो जाती है, आत्महत्या से, हत्या से, जल में डूबकर आग से जलकर बड़े कष्ट से जिनके प्राण निकलते हैं और जिनकी आत्माएं अतृप्त रह जाती हैं, उनकी गति नहीं होती यानी वे वायुमंडल में अपने सूक्ष्म शरीर को लिये अपनी अतृप्त वासनाये लिये मंडराती रहती है और उनका पुनर्जन्म नहीं हो पाता। इनको भूतप्रेत योनि की संज्ञा दी गई है। आज के वैज्ञानिक युग में भी बहुत सी ऐसी घटनायें प्रकाश में आ चुकी हैं जिनमे इनका अस्तित्व प्रमाणित हो चुका है। सूक्ष्म 'शरीर होने के कारण ये दिखाई नहीं देतीं परन्तु कभी-कभी कोई अधिक मनोबल वाली प्रेतात्मा छायारूप में दिखाई देकर अपने अस्तित्व का आभास करा देती हैं और ऐन-फेन प्रकारेण कुछ हानि-लाभ करने में भी सफल हो जाती हैं । बहुधा यह कमजोर मनोबल याते पुरुषों, स्त्रियो या बच्ची के शरीर प्रवेश करके उस शरीर के द्वारा अपनी अतृप्त वासनाओं की तृप्ति करती भी पाई गयी है। क्योकि यह सब समय सब जगह अबाध रूप से जा सकती हैं इसलिए भूत तथा वर्तमान का इन्हें पूरा ज्ञान रहता है और इनमें भी जो अधिक मनोबल पाती होती हैं उनमें इतनी शक्ति भी होती है कि वह छाया शरीर धारण कर लें और वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानान्तर कर सकें।
इस प्रकार की भूत प्रेत आत्माओं का सिद्ध करना अपेक्षाकृत अधिक सरत होता है। कोई भी साहसी या थोड़ा सा भी दु.साहसी व्यक्ति इसे बहुत थोड़े समय में पूरी कर सकता है। निर्जन शमशान भूमि में जहां इस प्रकार की प्रेतात्माओ का होना निश्चित होता है, रात के १२ बजे के लगभग जाकर पूर्णतया नग्न होकर मदिरा, मांस और इसी प्रकार के अन्य तामसिक पदार्थों की भेंट लेकर साधक जाता है और पात्र को वहां रख देता है और अपना तान्त्रिक साधन आरम्भ कर देता है। देखते-देखते वह पात्र किसी भी ऊंचे वृक्ष की ओर या आकाश में उड़कर गायब हो जाता है और साधक की भेंट प्रेतात्माओ तक पहुंच कर स्वीकृत हो जाती है। या पात्र के वहां खसे रखले ही उसका सारा मद्य मास गायब हो जाता है। इसी प्रकार कुछ दिनो के साधन के बाद वह प्रेतात्मा जिसे मद्य मांस की भेंट लेने की आदत पड़ चुकी होती है उस साधक के वश में हो जाती है और इन तामसी पदार्थों के लालच मे उनकी उचित अनुचित आज्ञा मानने को तत्पर रहती है और अपनी शक्ति भर उसका पालन भी करती है। साधक इस प्रकार की विशेष भेंट उस प्रेतात्मा को अक्सर देता रहता है। होली दिवाली शिवरात्रि प्रति अमावश्या और अन्य विशेष अवसरों पर और यदि किसी कारण नहीं दे पाता तो वह प्रेतात्मा उस साधक की भी बुरी हालत कर देती है। इस भूत प्रेत साधन में बहुत से व्यक्ति भय से या साधन में अन्य कोई भूल या कभी रह जाने के कारण पागल हो चुके हैं और कितने ही अपनी जान तक खो चुके हैं। इस तरह भूत प्रेत सिद्ध करने से इतना ही लाभ होता है कि साधक उसके द्वारा दूरदराज से बेमौसम के फल या अन्य वस्तुएँ मंगवाकर लोगो को दिखा सकता है, उन्हें प्रयोग मे नहीं ला सकता । केवल बाजीगरी दिखाकर चमत्कृत कर सकता है, इनकी सहायता से वह हर किसी की भूत काल की घटनाओं की जानकारी दे सकता है और वर्तमान को भी जान सकता है। इसीलिए कुछ ज्योतिषी कपिशाच की सहायता से जातक की भूतकाल की तथा वर्तमान की सही बातें बताकर उसे प्रभावित कर देते हैं और उससे पर्याप्त धन ऐंठने मे सफल हो जाते हैं। परन्तु उनका बताया गया भविष्य सम्बन्धी फलादेश बिलकुल गलत निकलता है। इस प्रकार चमत्कार दिखा कर वे लोग अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं, पर इससे ज्योतिष का या उस साधक का कितना अपकार होता है। इसकी उन्हें चिन्ता नहीं होती । इस प्रकार के भूत-प्रेत साधको की आँखों की पलकों के बाल जिन्हें बिन्नी कहते हैं-नहीं होती और अन्तिम समय पर भरते समय उनके मुस मे से बिधा भरी हुई निकलती है तथा वे भूत प्रेत उस व्यक्ति को अपनी ही योनि मे ले जाते हैं और अपने जीवन काल में जिन-जिन भूत प्रेतों को उन्होंने तय किया होता है वे गिन-गिन कर उससे बदला लेते हैं। इसलिए अच्छे सात्विक जनो को जो इस लोक मे तथा परलोक में अपनी सुगति चाहते हैं इस प्रकार की निम्न प्रेत साधना व मन्त्र साधना से दूर ही रहना चाहिए और अपने को उन्नति की ओर ले जाने वाली सात्विक साधना ही करनी चाहिए चाहे उसमे कितना ही परिश्रम क्यो न करना पड़े। सात्विक मन्त्र साधना करने वाला कभी किसी को हानि पहुंचाने वाले अनुष्ठान, मारण आदि अनाचार अन्याय के कर्म नहीं करता । ज्योतिषी के पास बहुधा वे ही लोग आते है जो किसी ग किसी दुख कष्ट या विपत्ति में होते हैं या अपने किसी कार्य की सफलता शीघ्र चाहते हैं। ज्योतिथी उसकी कुंडली, ग्रह गोचर देख कर यह निर्णय लेता है कि उसका वर्तमान दुस कष्ट या विपत्ति किस के कुप्रभाव के कारण है अथवा कौन-सा ग्रह उसके काम के होने में बाधा डाल रहा है ? ग्रहो की शान्ति के उपाय व अनुष्ठान उनकी विधि सब कुछ शास्त्रों में दी गई है। ज्योतिषी की बुद्धि इस निर्णय में काम देती है कि वह उस ग्रह का ठीक पता लगा ले जिसके कारण जावक पर दुख कष्ट है । यदि रोग का निदान ठीक हो गया, तो दवा भी फायदा करेगी, नहीं तो अनुष्ठान चाहे विधि पूर्वक ही किया जाय लाभ नहीं करेगा।
अनुष्ठानों में यन्त्र मन्त्र तन्त्र सभी का मिश्रण होता है। अब यहां हम आपको संक्षेप में यह बताने का प्रयत्न करेगे कि किस प्रकार ग्रहो का कुप्रभाव हम पर पड़ता है और मन्त्रो या अनुष्ठानों से किस प्रकार उनको शान्त किया जा सकता है। सूर्य सब ग्रहों का राज है और इसकी किरणों का प्रभाव सभी को सब . समय महसूस होता है। प्रातः काल इसकी किरणों में वह तेज नहीं होता जो दुपहर १२ बजे होता है। और फिर जैसे-जैसे समय बीतता जाता है संध्या तक वे किरणें निस्तेज होती जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि सूर्य की किरणें सबसे अधिक प्रखर दुपहर १२ बजे के समय होती है। रात के समय केवल उनका आभास रह जाता है। इसी प्रकार सूर्य १३ अप्रैल को मेष राशि पर आता है और २५ जून के लगभग मेद के १० अंश पर होता है। उस समय सूर्य की किरणें अपनी सबसे अधिक तेजी पर होती हैं और यही गरमी की ऋतु का सबसे अधिक गरम दिन होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य की किरणें अपनी प्रखरता व तेज के हिसाब से सब समय एक सी नहीं होतीं और इसलिये उनका प्रभाव भी एकसा नहीं होता । सूर्य के उत्तरायण व दक्षिणायण होने से भी अलग-अलग देशों में सूर्य की किरणों का प्रभाव भिन्न-भिन्न प्रकार का पड़ता है। अतएव भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न स्थानों में उत्पन्न हुए व्यक्तियों का शरीर मस्तिष्क व्यक्तित्व भाग्य | भिन्न-भिन्न प्रकार का बनता है। अन्य ग्रह चन्द्रमा मंगल बुध गुरू शुक्र शनि इनमें अपनी कोई रोशनी नहीं होती और सूर्य की ही किरणे इनसे टकरा कर लौटती हैं और यह सब सूर्य के ही प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। यह ग्रह अपना स्थान बदलते रहते हैं और किरणों के प्रतिबिम्बित होने का कोण बदलता रहता है। किसी समय विशेष पर इन सब ग्रहों के किरण समूह का सम्मिलित प्रभाव अलग-अलग स्थानों पर भिन्न प्रकार का होता है और उन के मिश्रित प्रभाव से ही उस समय, उत्पन्न हुये व्यक्ति की प्रारब्ध बनती है । यह सब ग्रह निरन्तर चलते रहते हैं और अपना स्थान भी बदलते रहते हैं । इनसे प्रतिबिम्बित हुई किरणें भी अपने कोण बदलती रहती हैं और भिन्न प्रकार के व्यक्तियों पर उनकी प्रतिक्रिया भी अलग-अलग होती है। किसी पर अच्छी किसी पर बुरी, किसी पर बहुत अच्छी या कम अच्छी और किसी पर बहुत बुरी या कम बुरी आदि-आदि । गरमी के दिनो में मध्यान्ह काल में धूप बहुत तेज होती है और सूर्य की किरणे असह्य होती है। परन्तु यदि आप एक छतरी लगाते तो उनकी प्रखरता से काफी रक्षा हो सकती है । वातानुकूलित कमरे में बैठ कर भी गरमी की प्रखरता से बचा जा सकता है। सूर्य की गरमी मे कोई अंतर नहीं आया है परन्तु आपने कुछ उपाय करके अपने को उसकी प्रखरता के बुरे प्रभाव से बचा लिया है। शास्त्रों में वर्णित अनुष्ठान भी कुछ इसी प्रकार से रक्षा करते हैं । इसी प्रकार सामूहिक यज्ञ अनुष्ठान करने से किसी राष्ट्र या देश पर आने वाली देवी विपत्तियों से रक्षा की जा सकती है। सूर्य की तेज किरणों से ही समुद्र का जल वाष्प बन कर मानसून बनता है और वर्षा करता है। वायु के कम्पन में परिवर्तन होने से आंधी तूफान आते हैं। चन्द्रमा के प्रभाव से ज्वार भाटे आते हैं। सूर्य की गरमी से ही बर्फ पिघल कर नदियों में बहती है और वर्षा अधिक होने से बाढ़ आती है। ग्रहो की किरणों के प्रभाव से की प्रकृति के समस्त क्रिया कलाप नियन्त्रित होते हैं। युद्ध महामारी आदि ग्रहों के योग विशेष से होते हैं और इन सब का पता हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले लगा लिया था और उनके उपाय भी निर्धारित कर दिये थे ।
एक अच्छा ज्योतिपी अपने ज्ञान से यह पता लगाता है कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए किस समय कौन-सा ग्रह प्रतिकूल पड़ रहा है और फिर वह उसी का उपाय कराने के लिए कहता है। अब यह दूसरी बात है कि वह उस उपाय कोकरे या न करे, और जातक से इस बहाने घन ऐठ ते परन्तु यदि जातक विधिवत् अपनी देख-रेख में वह शास्त्रोक्त उपाय कराये तो इच्छित फल अवश्य प्राप्त होगा और इन सब अनुष्ठानों को करने के लिए यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र का केवल होना ही काफी नहीं, इनका सिद्ध होना भी जरूरी है। क्योकि सिद्ध मन्त्रवेत्ता कम मिलते हैं और अनुष्ठान भी विधिवत् नहीं हो पाते इसलिए तोगों का विश्वास इस विद्या पर से उठ गया है। आपने देखा होगा कि बड़ी-बड़ी ऊँची इमारतों पर आकाशीय बिजली को पकड़ने वाला एक यन्त्र लगा रहता है, जिसे लाइटनिंग अरेस्टर कहते हैं। जब कभी बिजली उस भवन पर गिरती है तो वह उस यन्त्र की नोक पर ही गिरती है और उससे जुड़े हुये तार के जरिये पृथ्वी के अंदर चली जाती है। उस भवन को कोई हानि नहीं हो पाती। देवी विपत्ति से उसकी रक्षा हो जाती है । इसी आधार पर प्रतिकूल ग्रहों के कुप्रभाव से बचने के लिए रत्न धारण करना बताया जाता है। उस ग्रह विशेष की किरणें रत्न के अंदर से होकर शरीर में प्रवेश करती है और उनकी प्रतिकूलता समाप्त हो जाती है तथा वे अनुकूल भी बन जाती हैं।
आप यह भी प्रश्न कर सकते हैं कि अन्य ग्रहों की किरणें उस में से क्यों नहीं जातीं। तो इसका उत्तर यह है कि वायुमंडल में सभी रेडियो स्टेशनों की वाणी तरंगें प्रवाहित होती है परन्तु आप अपना रेडियो सेट जिस स्टेशन से मिला देते हैं उसी की आवाज आपके सेट मे आती है दूसरों की नहीं। इसलिए प्रत्येक ग्रह के लिए अलग-अलग रत्नों की व्यवस्था की गई है। होती, दीवाली, शिवरात्रि इनको शास्त्रों में कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि के नाम से बताया गया है और इन रात्रियों में गुणीजन भोजपत्र पर अनार की कलम से, अष्टगन्ध की स्याही बनाकर यन्त्र, मन्त्र लिखकर ताबीज, रक्षा कवच या यन्त्र बनाते हैं। किसी भूत बाधा ग्रस्त मकान के दरवाजे पर या किसी भूत बाधा ग्रस्त व्यक्ति के शरीर पर यह कवच बांध दिया जाय तो बाधा हट जाती है। इनको धारण करने से इस प्रकार की कोई बाधा कभी असर नहीं करती। जिस घर में पाठ पूजन यज्ञ हवन होता हो या जो व्यक्ति पाठ पूजन यज्ञ हवन करता हो उस पर यह निम्न स्तर दुरात्मायें अपना प्रभाव नहीं डाल पातीं । यह कपोल कल्पित नहीं अनुभव जन्य प्रामाणिक राज्य है ।'
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