अग्नि पुराण - एक सौ इकसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 161 Chapter !
अग्नि पुराण एक सौ इकसठवाँ अध्याय संन्यासीके धर्म !अग्नि पुराण - एक सौ इकसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 161 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ इकसठवाँ अध्याय !-हिन्दी मे
- पुष्कर उवाच !
चतुर्दमायुषो भगं प्राप्य संगतपरिवर्जयत् || 1 ||
यदाहनि विराजेद्धिरस्तादाहनि च परिव्राजेत् !
प्रजापत्यं निरूप्येष्टिं सर्वदेवसदक्षिणां || 2 ||
आत्मन्याग्नि समारोप्य प्रव्रजेब्राह्मणो गृहात !
एक एव कैरेन्नित्यं ग्रासमन्नाथमाश्रयेत् || 3 ||
उपेक्षकोऽसिंचायिको मुनिर्ज्यानासमन्वितः !
कपालं वृक्षमूलञ्च कुचेलमसहयता || 4 ||
समता चैव सर्वस्मिन्नेतनमुक्तस्य लक्षणम् !
नाभिनन्देन मरणं नाभिनन्देत जीवनम् || 5 ||
कालमेव प्रतिक्षिते निदेशं भृतको यथा !
दृष्टीपुतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिवेत् || 6 ||
सत्यपूतं वदेद्वचं मनःपूतं समाचरेत् !
अलावुदारूपत्राणि मृण्मयं वैष्णवं यतेः || 7 ||
विधुमे न्यस्तमुषाले व्यंगरे भुक्तवज्जने !
वृत्ते शरवसंपते भिक्षां नित्यं यतिश्चरेत् || 8 ||
मधुकर्मसंक्लिप्तं प्राकप्रणितमयचितं !
तत्कालिकाञ्कोपन्नं भिक्षां पंचविधं स्मृतम् || 9 ||
पाणिपात्री भवेद्वापि पात्रे पात्रसमाचरेत् !
अवेक्षित गतिं नानां कर्मदोषसमुद्भवं || 10 ||
शुद्धभावश्चरेद्भर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः !
समः सर्वेषु भूतेषु न लिंगं धर्मकारणं || 11 ||
फलं कटकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकं !
न नामग्रहणदेव तस्य वारि प्रसीदति || 12 ||
अजिहमः पण्डकः पंगुरान्धो बधिरा एव च !
सदभिश्च मुच्यते मद्भिरज्ञानात्संस्त्रो द्विजः || 13 ||
अहनि रात्रिञ्च यं जंतुं हिनस्त्यज्ञानतो यतिः !
तेषां स्नात्व विशुद्धयर्थं प्राणायामन षादाचरेत् || 14 ||
अस्थिस्थूणां स्नायुयुतं मानसशोणितलेपनं !
कर्मवानद्धं दुर्गन्धं पूर्णं मूत्रपुरिशयोः || 15 ||
जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम् !
रजस्वलामनित्यञ्च भूतावासमीमन्त्यजेत || 16 ||
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः !
हृविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् || 17 ||
चतुर्विधं भैक्षवस्तु कुटीरकवाहुदके !
हंसः परमहंसश्च यो यः पाश्चत्स उत्तमः || 18 ||
एकादण्डी त्रिदण्डी वा योगी मुच्यते बंधनात् !
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रहौ || 19 ||
यमः पंचाथ नियमः शौकं सन्तोषनन्तपः !
स्वाध्यायेश्वरपूजा च पद्मकाद्यासनं यतेः || 20 ||
प्राणायामस्तु द्विविधः स गर्भोऽगर्भ एव च !
जपध्यानयुतो गर्भो विपरीतस्त्वगर्भकः || 21 ||
प्रत्यक्षं त्रिविधं सोपि पूर्णकुंभकेरेकैः !
पूर्णात्पूरको वायोर्निश्कालत्वच कुम्भकः || 22 ||
रेकानाड्रेचकाः प्रोक्तो मातृभेदेन च त्रिधा !
द्वादशत्तु चतुर्विंशः षस्त्रीण्मात्रिकोऽपराः || 23 ||
तालो लघ्वाक्षरो मात्रा प्रणवदि कैरेच्छनैः !
प्रत्याहारो जपकाणां ध्यानामिश्वरचिन्तनम् || 24 ||
मनोधृतिधारणा स्यात्समाधिरब्राह्मणि स्थितिः !
अयमात्मा परं ब्रह्म सत्यं ज्ञानमनन्तकम् || 25 ||
विज्ञानानन्दं ब्रह्म तत्वमस्य। अहमस्मि तत् !
परं ब्रह्म ज्योतिरात्मा वासुदेवो विमुक्त ॐ || 26 ||
देहेन्द्रियामानोबुद्धिप्राणाहंकारवर्जितम् !
जाग्रत्स्वापनासुसुप्त्यादिमुक्तं ब्रह्म तुरोयकं || 27 ||
नित्यशुद्धबुद्धयुक्तसत्यमानन्दमाद्वयम् !
अहं ब्रह्म परं ज्योतिरक्षरं सर्वगं हरिः || 28 ||
सोऽसावदित्यपुरुषः सोऽसावाहमखण्ड ॐ !
सर्वारंभपरित्यागी समदुःखसुखं क्षमि || 29 ||
भावशुद्धश्च ब्रह्माण्डं भित्त्वा ब्रह्म भवेन्नरः !
आषाढ्यं पौर्णमास्याञ्च चातुर्मास्यं व्रतान्चरेत् || 30 ||
ततो ज्रजेत्नवम्यादौ ह्यरुतुसंधिषु वापयेत !
प्रायश्चित्तं यतिनाञ्च ध्यानं वायुयमस्तथा || 31 ||
अग्नि पुराण - एक सौ इकसठवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 161 Chapter!-In Hindi
पुष्कर कहते हैं- अब मैं ज्ञान और मोक्ष आदिका साक्षात्कार करानेवाले संन्यास-धर्मका वर्णन करूँगा। आयुके चौथे भागमें पहुँचकर, सब प्रकारके सङ्गसे दूर हो संन्यासी हो जाय। जिस दिन वैराग्य हो, उसी दिन घर छोड़कर चल दे संन्यास ले ले। प्राजापत्य इष्टि (यज्ञ) करके सर्वस्वकी दक्षिणा दे दे तथा आहवनीयादि अग्नियोंको अपने-आपमें आरोपित करके ब्राह्मण घरसे निकल जाय। संन्यासी सदा अकेला ही विचरे। भोजनके लिये ही गाँवमें जाय। शरीरके प्रति उपेक्षाभाव रखे। अन्न आदिका संग्रह न करे। मननशील रहे। ज्ञान-सम्पन्न होवे। कपाल (मिट्टी आदिका खप्पर) ही भोजनपात्र हो, वृक्षकी जड़ ही निवास-स्थान हो, लँगोटीके लिये मैला कुचैला वस्त्र हो, साथमें कोई सहायक न हो तथा सबके प्रति समताका भाव हो यह जीवन्मुक्त पुरुषका लक्षण है। न तो मरनेकी इच्छा करे, न जीनेकी- जीवन और मृत्युमेंसे किसीका अभिनन्दन न करे ॥ १-५ ॥
जैसे सेवक अपने स्वामीकी आज्ञाकी प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार वह प्रारब्धवश प्राप्त होनेवाले काल (अन्तसमय) की प्रतीक्षा करता रहे। मार्गपर दृष्टिपात करके पाँव रखे अर्थात् रास्तेमें कोई कीड़ा-मकोड़ा, हड्डी, केश आदि तो नहीं है, यह भलीभाँति देखकर पैर रखे। पानीको कपड़ेसे छानकर पीये। सत्यसे पवित्र की हुई वाणी बोले। मनसे दोष-गुणका विचार करके कोई कार्य करे। लौकी, काठ, मिट्टी तथा बाँस- ये ही संन्यासीके पात्र हैं। जब गृहस्थके घरसे धूआँ निकलना बंद हो गया हो, मुसल रख दिया गया हो, आग बुझ गयी हो, घरके सब लोग भोजन कर चुके हों और जूठे शराव (मिट्टीके प्याले) फेंक दिये गये हों, ऐसे समयमें संन्यासी प्रतिदिन भिक्षाके लिये जाय। भिक्षा पाँच प्रकारकी मानी गयी है- मधुकरी (अनेक घरोंसे थोड़ा-थोड़ा अत्र माँग लाना), असंक्लृप्त (जिसके विषयमें पहलेसे कोई संकल्प या निश्चय न हो, ऐसी भिक्षा), प्राक्प्रणीत (पहलेसे तैयार रखी हुई भिक्षा), अयाचित (बिना माँगे जो अन्न प्राप्त हो जाय, वह) और तत्काल उपलब्ध (भोजनके समय स्वतः प्राप्त)। अथवा करपात्री होकर रहे- अर्थात् हाथहीमें लेकर भोजन करे और हाथमें ही पानी पीये। दूसरे किसी पात्रका उपयोग न करे। पात्रसे अपने हाथरूपी पात्रमें भिक्षा लेकर उसका उपयोग करे। मनुष्योंकी कर्मदोषसे प्राप्त होनेवाली यमयातना और नरकपात आदि गतिका चिन्तन करे ॥ ६-१०॥
जिस किसी भी आश्रममें स्थित रहकर मनुष्यको शुद्धभावसे आश्रमोचित धर्मका पालन करना चाहिये। सब भूतोंमें समान भाव रखे। केवल आश्रम-चिह्न धारण कर लेना ही धर्मका हेतु नहीं है (उस आश्रमके लिये विहित कर्तव्यका पालन करनेसे ही धर्मका अनुष्ठान होता है)। निर्मलीका फल यद्यपि पानीमें पड़नेपर उसे स्वच्छ बनानेवाला है, तथापि केवल उसका नाम लेनेमात्रसे जल स्वच्छ नहीं हो जाता। इसी प्रकार आश्रमके लिङ्ग धारणमात्रसे लाभ नहीं होता, विहित धर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। अज्ञानवश संसार-बन्धनमें बँधा हुआ द्विज लँगड़ा, लूला, अंधा और बहरा क्यों न हो, यदि कुटिलतारहित संन्यासी हो जाय तो वह सत् और असत्- सबसे मुक्त हो जाता है। संन्यासी दिन या रातमें बिना जाने जिन जीवोंकी हिंसा करता है, उनके वधरूप पापसे शुद्ध होनेके लिये वह स्नान करके छः बार प्राणायाम करे। यह शरीररूपी गृह हड्डीरूपी खंभोंसे युक्त है, नाडीरूप रस्सियोंसे बँधा हुआ है, मांस तथा रक्तसे लिपा हुआ और चमड़ेसे छाया गया है। यह मल और मूत्रसे भरा हुआ होनेके कारण अत्यन्त दुर्गन्धपूर्ण है। इसमें बुढ़ापा तथा शोक व्याप्त हैं। यह अनेक रोगोंका घर और भूख-प्याससे आतुर रहनेवाला है। इसमें रजोगुणका प्रभाव अधिक है। यह अनित्य विनाशशील एवं पृथिवी आदि पाँच भूतोंका निवास-स्थान है; विद्वान् पुरुष इसे त्याग दे- अर्थात् ऐसा प्रयत्न करे, जिससे फिर देहके बन्धनमें न आना पड़े ॥ ११-१६ ॥
धृति, क्षमा, दम (मनोनिग्रह), चोरी न करना, बाहर-भीतरसे पवित्र रहना, इन्द्रियोंको वशमें रखना, लज्जा, विद्या, सत्य तथा अक्रोध (क्रोध न करना) - ये धर्मके दस लक्षण हैं। संन्यासी चार प्रकारके होते हैं- कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस। इनमें जो-जो पिछला है, वह पहलेकी अपेक्षा उत्तमः है। योगयुक्त संन्यासी पुरुष एकदण्डी हो या त्रिदण्डी, वह बन्धनसे मुक्त हो जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न रखना)- ये पाँच 'यम' हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरकी आराधना- ये पाँच 'नियम' हैं। योगयुक्त संन्यासीके लिये इन सबका पालन आवश्यक है। पद्मासन आदि आसनोंसे उसको बैठना चाहिये ॥ १७-२० ॥
प्राणायाम दो प्रकारका है-एक 'सगर्भ' और दूसरा 'अगर्भ'। मन्त्रजप और ध्यानसे युक्त प्राणायाम 'सगर्भ' कहलाता है और इसके विपरीत जप-ध्यानरहित प्राणायामको 'अगर्भ' कहते हैं। पूरक, कुम्भक तथा रेचकके भेदसे प्राणायाम तीन प्रकारका होता है। वायुको भीतर भरनेसे 'पूरक' प्राणायाम होता है, उसे स्थिरतापूर्वक रोकनेसे 'कुम्भक' होता है और फिर उस वायुको बाहर निकालनेसे 'रेचक' प्राणायाम कहा गया है। मात्राभेदसे भी वह तीन प्रकारका है- बारह मात्राका, चौबीस मात्राका तथा छत्तीस मात्राका। इसमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है। ताल या हस्व अक्षरको 'मात्रा' कहते हैं। प्राणायाममें 'प्रणव' आदि मन्त्रका धीरे-धीरे जप करे। इन्द्रियोंके संयमको 'प्रत्याहार' कहा गया है। जप करनेवाले साधकोंद्वारा जो ईश्वरका चिन्तन किया जाता है, उसे 'ध्यान' कहते हैं; मनको धारण करनेका नाम 'धारणा' है; ब्रह्ममें स्थितिको 'समाधि' कहते हैं॥ २१-२४॥
'यह आत्मा परब्रह्म है; ब्रह्म-सत्य, ज्ञान और अनन्त है; ब्रह्म विज्ञानमय तथा आनन्दस्वरूप है; वह ब्रह्म तू है; वह ब्रह्म मैं हूँ; परब्रह्म परमात्मा प्रकाशस्वरूप है; वही आत्मा है, वासुदेव है, नित्यमुक्त है; वही 'ओ३म्' शब्दवाच्य सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है; देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और अहंकारसे रहित तथा जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति आदिसे मुक्त जो तुरीय तत्त्व है, वही ब्रह्म है; वह नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप है; सत्य, आनन्दमय तथा अद्वैतरूप है; सर्वत्र व्यापक, अविनाशी ज्योतिः स्वरूप परब्रह्म ही श्रीहरि है और वह मैं हूँ; आदित्यमण्डलमें जो वह ज्योतिर्मय पुरुष है, वह अखण्ड प्रणववाच्य परमेश्वर मैं हूँ'- इस प्रकारका सहज बोध ही ब्रह्ममें स्थितिका सूचक है॥ २५-२८ ॥
जो सब प्रकारके आरम्भका त्यागी है- अर्थात् जो फलासक्ति एवं अहंकारपूर्वक किसी कर्मका आरम्भ नहीं करता-कर्तृत्वाभिमानसे शून्य होता है, दुःख-सुखमें समान रहता है, सबके प्रति क्षमाभाव रखनेवाला एवं सहनशील होता है, वह भावशुद्ध ज्ञानी मनुष्य ब्रह्माण्डका भेदन करके साक्षात् ब्रह्म हो जाता है। यतिको चाहिये कि वह आषाढ़की पूर्णिमाको चातुर्मास्यव्रत प्रारम्भ करे। फिर कार्तिक शुक्ला नवमी आदि तिथियोंसे विचरण करे। ऋतुओंकी संधिके दिन मुण्डन करावे। संन्यासियोंके लिये ध्यान तथा प्राणायाम ही प्रायश्चित्त है ॥ २९-३१ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'यतिधर्मका वर्णन' नामक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६१ ॥
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