अग्नि पुराण - एक सौ साठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 160 Chapter !
अग्नि पुराण एक सौ साठवाँ अध्याय वानप्रस्थ-आश्रम !
अग्नि पुराण - एक सौ साठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 160 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ साठवाँ अध्याय !
- पुष्कर उवाच
जटित्वमग्निहोत्रित्वं भूशय्याजिनधारणं ॥१
वने वासः पयोमूलनीवारफलवृत्तिता ।
प्रतिग्रहनिवृत्तिश्च त्रिःस्नानं ब्रह्मचारिता ॥ २
देवातिथीनां पूजा च धर्मोऽयं वनवासिनः ।
गृही ह्यपत्यापत्यञ्च दृष्ट्वारण्यं समाश्रयेत् ॥३
तृतीयमायुषो भागमेकाकी वा सभार्यकः ।
ग्रीष्मे पञ्चतपा नित्यं वर्षास्वभ्राविकाशिकः ॥४
आर्द्रवासाश्च हेमन्ते तपश्चोग्रञ्चरेद्बली ।
अपरावृत्तिमास्थाय व्रजेद्दिशमजिह्मगः ॥५
इत्याग्नेये महापुराणे वानप्रस्थाश्रमो नाम षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - एक सौ साठवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 160 Chapter!-In Hindi
पुष्कर कहते हैं- अब मैं वानप्रस्थ और संन्यासियोंके धर्मका जैसा वर्णन करता हूँ, सुनो। सिरपर जटा रखना, प्रतिदिन अग्निहोत्र करना, धरतीपर सोना और मृगचर्म धारण करना, वनमें रहना, फल, मूल, नीवार (तिन्त्री) आदिसे जीवन-निर्वाह करना, कभी किसीसे कुछ भी दान ने लेना, तीनों समय स्नान करना, ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें तत्पर रहना तथा देवता और अतिथियोंकी पूजा करना यह सब वानप्रस्थीका धर्म है। गृहस्थ पुरुषको उचित है कि अपनी संतानकी संतान देखकर वनका आश्रय ले और आयुका तृतीय भाग वनवासमें ही बितावे। उस आश्रममें वह अकेला रहे या पत्नीके साथ भी रह सकता है। (परंतु दोनों ब्रह्मचर्यका पालन करें। गर्मीक दिनोंमें पञ्चाग्निसेवन करे। वर्षाकालमें खुले आकाशके नीचे रहे। हेमन्त ऋतुमें रातभर भीगे कपड़े ओढ़कर रहे। (अथवा जलमें रहे।) शक्ति रहते हुए वानप्रस्थीको इसी प्रकार उग्र तपस्या करनी चाहिये। वानप्रस्थसे फिर गृहस्थ-आश्रममें न लौटे। विपरीत या कुटिल गतिका आश्रय न लेकर सामनेकी दिशाकी ओर जाय अर्थात् पीछे न लौटकर आगे बढ़ता रहे ॥ १-५॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'वानप्रस्थाश्रमका वर्णन' नामक एक सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६०॥
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