अग्नि पुराण - एक सौ तिरपनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 153 Chapter !
एक सौ तिरपनवाँ अध्याय संस्कारोंका वर्णन और ब्रह्मचारीके धर्म !
अग्नि पुराण - एक सौ तिरपनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 153 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ तिरपनवाँ अध्याय !
पुष्कर उवाच !
धर्माश्रमिणां वक्षये भुक्तिमुक्तिप्रदानं शृणु !
षोडशर्तुनिशा स्त्रीणामाद्यस्तिस्रस्तु गर्हितः || 1 ||
व्रजेद्यग्मासु पुत्रार्थी कर्मधानिकमिष्यते !
गर्भस्य स्पष्टताज्ञाने सावनं स्पंदनात्पुरा || 2 ||
षष्ठेऽष्टमे वा सीमन्तं पुत्रियं नमभं शुभम् !
अच्चिन्नान्यायं कर्त्तव्यं जातकर्म विक्षणैः || 3 ||
अशौसे तु व्यतिक्रांते नामकर्म विध्यते !
शरमन्तं ब्रह्मस्योक्तं वरमन्तं क्षत्रियस्य तु || 4 ||
गुप्तादसात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः !
शरमन्तं ब्राह्मणस्योक्तं वरमन्तं क्षत्रियस्य च || 5 ||
गुप्तादसात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः |
बालं निवेदयेद्भर्ते तव पुत्रोऽयमित्युता || 6 ||
यथाकुलन्तु चूड़ाक्रद्ब्राह्मणस्योपनायनं !
गर्भाष्टमेऽष्टमे वब्दे गर्भादेकादशे नृपे || 7 ||
गर्भत्तु द्वादशे वैश्ये षोडषशब्दादितो न हि !
मुञ्जानां वल्कलनन्तु क्रमान्मौज्ज्यः प्रकीर्तितः || 8 ||
मार्गवैयध्रवास्तानि कर्माणि व्रतचारिणाम् |
पर्णपिप्पलविल्वानां क्रमदण्डदाः प्रकीर्तिताः || 9 ||
केशदेशललतास्यतुल्यः प्रोक्तः क्रमेण तु !
अवक्राः सत्वचः सर्वे नाविप्लुष्टस्तु दण्डकाः || 10 ||
वासोपवीते करपासक्षौमोर्नानां यथाक्रमम् !
आदिमध्यवासनेषु भवच्चबदोपलक्षितम् || 11 ||
प्रथमं तत्र भिक्षेत यत्र भिक्षा ध्रुवं भवेत् |
स्त्रीणामन्त्रतस्तानि विवाहस्तु समन्त्रकः || 12 ||
उपनिय गुरुः शिष्यम् शिक्षायेच्चौचमादितः !
अकारमग्निकार्यं च संध्योपासनामेव च || 13 ||
आयुष्यं प्राण्मुखो भुन्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः !
श्रियं प्रत्यन्मुखी भुङ्कते ऋतं भुङ्कते उदंमुखः || 14 ||
सयं प्राप्तश्च जुहुयन्नामेध्यं व्यस्तहस्ताकं !
मधु मानस जनैः सार्धं गीतं नृत्यञ्च वै त्यजेत् || 15 ||
हिंसासम्पारपवादं च अशीलं च विशेषतः !
दण्डादि धारयेन्नष्टमप्सु क्षिप्त्वान्याधारणम् || 16 ||
वेदस्वीकरणं कृत्वा श्रेयाद्वै दत्तदक्षिणः !
नैष्ठिको ब्रह्मचारी वा देहान्तं निवसेद्गुरौ || 17 ||
धर्माश्रमिणां वक्षये भुक्तिमुक्तिप्रदानं शृणु !
षोडशर्तुनिशा स्त्रीणामाद्यस्तिस्रस्तु गर्हितः || 1 ||
व्रजेद्यग्मासु पुत्रार्थी कर्मधानिकमिष्यते !
गर्भस्य स्पष्टताज्ञाने सावनं स्पंदनात्पुरा || 2 ||
षष्ठेऽष्टमे वा सीमन्तं पुत्रियं नमभं शुभम् !
अच्चिन्नान्यायं कर्त्तव्यं जातकर्म विक्षणैः || 3 ||
अशौसे तु व्यतिक्रांते नामकर्म विध्यते !
शरमन्तं ब्रह्मस्योक्तं वरमन्तं क्षत्रियस्य तु || 4 ||
गुप्तादसात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः !
शरमन्तं ब्राह्मणस्योक्तं वरमन्तं क्षत्रियस्य च || 5 ||
गुप्तादसात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः |
बालं निवेदयेद्भर्ते तव पुत्रोऽयमित्युता || 6 ||
यथाकुलन्तु चूड़ाक्रद्ब्राह्मणस्योपनायनं !
गर्भाष्टमेऽष्टमे वब्दे गर्भादेकादशे नृपे || 7 ||
गर्भत्तु द्वादशे वैश्ये षोडषशब्दादितो न हि !
मुञ्जानां वल्कलनन्तु क्रमान्मौज्ज्यः प्रकीर्तितः || 8 ||
मार्गवैयध्रवास्तानि कर्माणि व्रतचारिणाम् |
पर्णपिप्पलविल्वानां क्रमदण्डदाः प्रकीर्तिताः || 9 ||
केशदेशललतास्यतुल्यः प्रोक्तः क्रमेण तु !
अवक्राः सत्वचः सर्वे नाविप्लुष्टस्तु दण्डकाः || 10 ||
वासोपवीते करपासक्षौमोर्नानां यथाक्रमम् !
आदिमध्यवासनेषु भवच्चबदोपलक्षितम् || 11 ||
प्रथमं तत्र भिक्षेत यत्र भिक्षा ध्रुवं भवेत् |
स्त्रीणामन्त्रतस्तानि विवाहस्तु समन्त्रकः || 12 ||
उपनिय गुरुः शिष्यम् शिक्षायेच्चौचमादितः !
अकारमग्निकार्यं च संध्योपासनामेव च || 13 ||
आयुष्यं प्राण्मुखो भुन्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः !
श्रियं प्रत्यन्मुखी भुङ्कते ऋतं भुङ्कते उदंमुखः || 14 ||
सयं प्राप्तश्च जुहुयन्नामेध्यं व्यस्तहस्ताकं !
मधु मानस जनैः सार्धं गीतं नृत्यञ्च वै त्यजेत् || 15 ||
हिंसासम्पारपवादं च अशीलं च विशेषतः !
दण्डादि धारयेन्नष्टमप्सु क्षिप्त्वान्याधारणम् || 16 ||
वेदस्वीकरणं कृत्वा श्रेयाद्वै दत्तदक्षिणः !
नैष्ठिको ब्रह्मचारी वा देहान्तं निवसेद्गुरौ || 17 ||
अग्नि पुराण - एक सौ तिरपनवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 153 Chapter!-In Hindi
पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी! अब मैं आश्रमी | पुरुषोंके धर्मका वर्णन करूंगा; सुनो! यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। स्त्रियोंके ऋतुधर्मकी सोलह रात्रियाँ होती हैं, उनमें पहलेकी तीन रातें निन्दित हैं। शेष रातोंमें जो युग्म अर्थात् चौथी, छठी, आठवीं और दसवीं आदि रात्रियाँ हैं, उनमें ही पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष स्त्री समागम करे। यह 'गर्भाधान-संस्कार' कहलाता है। 'गर्भ' रह गया- इस बातका स्पष्टरूपसे ज्ञान हो जानेपर गर्भस्थ शिशुके हिलने-डुलनेसे पहले ही 'पुंसवन संस्कार' होता है। तत्पश्चात् छठे या आठवें मासमें 'सीमन्तोन्नयन' किया जाता है। उस दिन पुँल्लिङ्ग नामवाले नक्षत्रका होना शुभ है। बालकका जन्म होनेपर नाल काटनेके पहले ही विद्वान् पुरुषोंको उसका 'जातकर्म-संस्कार' | करना चाहिये। सूतक निवृत्त होनेपर 'नामकरण संस्कार' का विधान है। ब्राह्मणके नामके अन्तमें 'शर्मा' और क्षत्रियके नामके अन्तमें 'वर्मा' होना चाहिये। वैश्य और शूद्रके नामोंके अन्तमें क्रमशः 'गुप्त' और 'दास' पदका होना उत्तम माना गया है। उक्त संस्कारके समय पत्नी स्वामीकी गोदमें पुत्रको दे और कहे- 'यह आपका पुत्र है' ॥१-५॥
फिर कुलाचारके अनुरूप 'चूडाकरण' करे। ब्राह्मण-बालकका 'उपनयन संस्कार' गर्भ अथवा जन्मसे आठवें वर्षमें होना चाहिये। गर्भसे ग्यारहवें वर्षमें क्षत्रिय बालकका तथा गर्भसे बारहवें वर्षमें वैश्य-बालकका उपनयन करना चाहिये। ब्राह्मण- बालकका उपनयन सोलहवें, क्षत्रिय बालकका बाईसवें और वैश्य-बालकका चौबीसवें वर्षसे आगे नहीं जाना चाहिये। तीनों वर्णोंके लिये क्रमशः मूँज, प्रत्यञ्चा तथा वल्कलकी मेखला बतायी गयी है। इसी प्रकार तीनों वर्षोंके ब्रह्मचारियोंके लिये क्रमशः मृग, व्याघ्र तथा बकरेके चर्म और पलाश, पीपल तथा बेलके दण्ड धारण करने योग्य बताये गये हैं। ब्राह्मणका दण्ड उसके केशतक, क्षत्रियका ललाटतक और वैश्यका मुखतक लंबा होना चाहिये। इस प्रकार क्रमशः दण्डोंकी लंबाई बतायी गयी है। ये दण्ड टेढ़े-मेढ़े न हों। इनके छिलके मौजूद हों तथा ये आगमें जलाये न गये हों ॥ ६-९ ॥
उक्त तीनों वर्षोंके लिये वस्त्र और यज्ञोपवीत क्रमशः कपास (रुई), रेशम तथा ऊनके होने चाहिये। ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा माँगते समय वाक्यके आदिमें 'भवत्' शब्दका प्रयोग करे। [जैसे माताके पास जाकर कहे- 'भवति भिक्षां मे देहि मातः ।' पूज्य माताजी ! मुझे भिक्षा दें। इसी प्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्यके मध्यमें तथा वैश्य ब्रह्मचारी वाक्यके अन्तमें 'भवत् शब्दका प्रयोग करे। यथा- क्षत्रिय - भिक्षां भवति मे देहि। वैश्य - भिक्षां मे देहि भवति ।) पहले वहीं भिक्षा माँगे जहाँ भिक्षा अवश्य प्राप्त होनेकी सम्भावना हो। स्त्रियोंके अन्य सभी संस्कार बिना मन्त्रके होने चाहिये; केवल विवाह- संस्कार ही मन्त्रोच्चारणपूर्वक होता है। गुरुको चाहिये कि वह शिष्यका उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करके पहले शौचाचार, सदाचार, अग्निहोत्र तथा संध्योपासनाकी शिक्षा दे ॥ १०-१२॥
जो पूर्वकी ओर मुँह करके भोजन करता है, वह आयुष्य भोगता है, दक्षिणकी ओर मुँह करके खानेवाला यशका, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करनेवाला लक्ष्मी (धन) का तथा उत्तरकी ओर मुँह करके अन्न ग्रहण करनेवाला पुरुष सत्यका उपभोग करता है। ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र करे। अपवित्र वस्तुका होम निषिद्ध है। होमके समय हाथकी अङ्गलियोंको परस्पर सटाये रहे। मधु, मांस, मनुष्योंके साथ विवाद, गाना और नाचना आदि छोड़ दे। हिंसा, परायी निन्दा तथा विशेषतः अश्लील चर्चा (गाली- गलौज आदि) का त्याग करे। दण्ड आदि धारण किये रहे। यदि वह टूट जाय तो जलमें उसका विसर्जन कर दे और नवीन दण्ड धारण करे। वेदोंका अध्ययन पूरा करके गुरुको दक्षिणा देनेके पश्चात् व्रतान्त-स्नान करे; अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर जीवनभर गुरुकुलमें ही निवास करता रहे ॥ १३-१६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'ब्रह्मचर्याश्रम-वर्णन' नामक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५३॥
click to read👇
[अग्नि पुराण अध्यायः १२६] [अग्नि पुराण अध्यायः १२७] [अग्नि पुराण अध्यायः १२८]
[अग्नि पुराण अध्यायः १२९] [अग्नि पुराण अध्यायः १३०] [अग्नि पुराण अध्यायः १३१]
[अग्नि पुराण अध्यायः १३२] [अग्नि पुराण अध्यायः १३३] [अग्नि पुराण अध्यायः १३४]
[अग्नि पुराण अध्यायः १३५] [अग्नि पुराण अध्यायः १३६] [अग्नि पुराण अध्यायः १३७]
[अग्नि पुराण अध्यायः १३८] [अग्नि पुराण अध्यायः १३९] [अग्नि पुराण अध्यायः १४०]
[अग्नि पुराण अध्यायः १४१] [अग्नि पुराण अध्यायः १४२] [अग्नि पुराण अध्यायः १४३]
[अग्नि पुराण अध्यायः १४४] [अग्नि पुराण अध्यायः १४५] [अग्नि पुराण अध्यायः १४६]
[अग्नि पुराण अध्यायः १४७] [अग्नि पुराण अध्यायः १४८] [अग्नि पुराण अध्यायः १४९]
टिप्पणियाँ