अग्नि पुराण - एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 151 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 151 Chapter !

 अग्नि पुराण 151 वर्ण और आश्रमके सामान्य धर्म, वर्णों तथा विलोमज जातियोंके विशेष धर्म !

अग्नि पुराण - एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 151 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय !

अग्निरुवाच !

मानवादयो भुक्तिमुक्तिधर्मन्चिर्त्वाप्नुवंति यान |
प्रोसे परशुरामाय वरुणोक्तंतु पुष्करः ॥ १॥ 

पुष्कर उवाच !
वर्णाश्रमेतरनान्ते धर्मान्वक्ष्यामि सर्वदन् |
मन्वादिभिर्निगादितां वासुदेवादितुष्टिदान ॥ २॥ 

अहिंसा सत्यवचनन्दया भूतेष्वनुग्रहः |
तीर्थानुशरणं दानं ब्रह्मचर्यमत्सरः || 3 ||

देवद्विजतिशुश्रुषा गुरुणाञ्च भृगुत्तम |
श्रवणं सर्वधर्मानां पित्णां पूजनं तथा || 4 ||

भक्तिश्च नृपतौ नित्यं तथा सच्चरनेत्रता |
अंशाश्यन्तितिक्षा च तथा चास्तिक्यमेव च || 5 ||

वर्णाश्रमणं सामान्यं धर्मधर्मं समिरितम् |
यजनं यजनं दानं वेदाद्यध्यापनक्रिया || 6 ||

प्रतिग्रहाञ्चध्यायनं विप्रकर्माणि निर्देशितेत् |
दानमध्ययानश्चैव यज्ञान्च यथाविधिः || 7 ||

क्षत्रियस्य सवैष्यस्य कर्मेदं परिकीर्तितम् |
क्षत्रियस्य विशेषेण पालनं दुष्टनिग्रहः || 8 ||

कृशिगोराक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितम् |
शूद्रस्य द्विजशुश्रुषा सर्वशिल्पाणि वाप्यथा ॥ ९॥ 

मौन्जीबन्धनतो जन्म विप्रदेशश्च द्वितीयकम् |
अनुलोम्येन वर्णानां जातिर्मत्सम स्मृता || 10 ||

चाण्डालो ब्राह्मणीपुत्रः शूद्रच्च प्रतिलोमतः |
सुतस्तु क्षत्रियज्जतो वैश्याद्वै देवलस्तथा || 11 ||

पुक्कसः क्षत्रियपुत्रः शूद्रत्स्यत्प्रतिलोमजः |
मागधः स्यात्तथा वैश्यच्चूद्रयोगवो भवेत् || 12 ||

वैश्यायं प्रतिलोमेभ्यः प्रतिलोमः सहस्रशः |
विवाहः सदृशैस्टेषां नोत्तमैर्नाधमैस्तथा || 13 ||

चांडालकर्म निर्देशितं बध्यानां घटानां तथा |
स्त्रीजीवन्तु तद्रक्षप्रोक्तं वैदेहकस्य च || 14 ||

सुतानामश्वसारथ्यं पुक्कसनाञ्च व्याधता |
स्तुतिक्रिया माघधानं तथा चयोगशस्य च || 15 ||

रंगावतारं प्रोक्तं तथा शिल्पैश्च जीवनं |
वैहिरग्रामनिवासश्च मृतसेलस्य धारणाम् || 16 ||

न संस्पर्शस्तथैवण्यैश्चण्डालस्य विधीयते |
ब्राह्मणार्थे गावार्थे वा देहत्यागोत्र यः कृतः || 17 ||

स्त्रीबलाद्युपापतो वा वाह्याणां सिद्धिकारणम् |
शंकरे जातायो ज्ञेयः पितुर्मातुश्च कर्मतः || 18 ||

अग्नि पुराण - एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 151 Chapter!-In Hindi

अग्निदेव कहते हैं- मनु आदि राजर्षि जिन  धर्मोंका अनुष्ठान करके भोग और मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनका वरुण देवताने पुष्करको उपदेश किया था और पुष्करने श्रीपरशुरामजीसे उनका वर्णन किया था ॥ १॥ 
पुष्करने कहा- परशुरामजी! मैं वर्ण, आश्रम तथा इनसे भिन्न धर्मोका आपसे वर्णन करूँगा। वे धर्म सब कामनाओंको देनेवाले हैं। मनु आदि धर्मात्माओंने भी उनका उपदेश किया है तथा वे भगवान् वासुदेव आदिको संतोष प्रदान करनेवाले हैं। भृगुश्रेष्ठ ! अहिंसा, सत्य-भाषण, दया, सम्पूर्ण प्राणियोंपर अनुग्रह, तीर्थोंका अनुसरण, दान, ब्रह्मचर्य, मत्सरताका अभाव, देवता, गुरु और ब्राह्मणोंकी सेवा, सब धर्मोंका श्रवण, पितरोंका पूजन, मनुष्योंके स्वामी श्रीभगवान्‌में सदा भक्ति रखना, उत्तम शास्त्रोंका अवलोकन करना, क्रूरताका अभाव, सहनशीलता तथा आस्तिकता (ईश्वर और परलोकपर विश्वास रखना)- ये वर्ण और आश्रम दोनोंके लिये 'सामान्य धर्म' बताये गये हैं। जो इसके विपरीत है, वही 'अधर्म' है यज्ञ करना और कराना, दान देना, वेद पढ़ानेका कार्य करना, उत्तम प्रतिग्रह लेना तथा स्वाध्याय करना- ये ब्राह्मणके कर्म हैं। दान देना, वेदोंका अध्ययन करना और विधिपूर्वक यज्ञानुष्ठान करना-ये क्षत्रिय और वैश्यके सामान्य कर्म हैं। प्रजाका पालन करना और दुष्टोंको दण्ड देना ये क्षत्रियके विशेष धर्म हैं। खेती, गोरक्षा और व्यापार-ये वैश्यके विशेष कर्म बताये गये हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन द्विजोंकी सेवा तथा सब प्रकारकी शिल्प-रचना- ये शूद्रके कर्म हैं॥ २-९॥ 
मौञ्जी-बन्धन (यज्ञोपवीत-संस्कार) होनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-बालकका द्वितीय जन्म होता है; इसलिये वे 'द्विज' कहलाते हैं। यदि अनुलोम-क्रमसे वर्णोंकी उत्पत्ति हो तो माताके समान बालककी जाति मानी गयी है ॥ १० ॥
विलोम-क्रमसे अर्थात् शूद्रके वीर्यसे उत्पन्न हुआ ब्राह्मणीका पुत्र 'चाण्डाल' कहलाता है, क्षत्रियके वीर्यसे उत्पन्न होनेवाला ब्राह्मणीका पुत्र 'सूत' कहा गया है और वैश्यके वीर्यसे उत्पन्न होनेपर उसकी 'वैदेहक' संज्ञा होती है। क्षत्रिय जातिकी स्त्रीके पेटसे शूद्रके द्वारा उत्पन्न हुआ विलोमज पुत्र 'पुक्कस' कहलाता है। वैश्य और शूद्रके वीर्यसे उत्पन्न होनेपर क्षत्रियाके पुत्रकी क्रमशः 'मागध' और 'अयोगव' संज्ञा होती है। वैश्य जातिकी स्त्रीके गर्भसे शूद्र एवं विलोमज जातियोंद्वारा उत्पन्न विलोमज संतानोंके हजारों भेद हैं। इन सबका परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध समान जातिवालोंके साथ ही होना चाहिये; अपनेसे ऊँची और नीची जातिके लोगोंके साथ नहीं ॥ ११-१३॥ 
वधके योग्य प्राणियोंका वध करना-यह चाण्डालका कर्म बताया गया है। स्त्रियोंके उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंके निर्माणसे जीविका चलाना तथा स्त्रियोंकी रक्षा करना- यह 'वैदेहक' का कार्य है। सूतोंका कार्य है-घोड़ोंका सारथिपना, 'पुक्कस' व्याध-वृत्तिसे रहते हैं तथा 'मागध' का कार्य है- स्तुति करना, प्रशंसाके गीत गाना। 'अयोगव'का कर्म है- रङ्गभूमिमें उतरना और शिल्पके द्वारा जीविका चलाना। 'चाण्डाल 'को गाँवके बाहर रहना और मुर्देसे उतारे हुए वस्त्रको धारण करना चाहिये। चाण्डालको दूसरे वर्णके लोगोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये। ब्राह्मणों तथा गौओंकी रक्षाके लिये प्राण त्यागना अथवा स्त्रियों एवं बालकोंकी रक्षाके लिये देह त्याग करना वर्ण-बाह्य चाण्डाल आदि जातियोंकी सिद्धिका (उनकी आध्यात्मिक उन्नति) का कारण माना गया है। वर्णसंकर व्यक्तियोंकी जाति उनके पिता-माता तथा जातिसिद्ध कर्मोंसे जाननी चाहिये ॥ १४-१८॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'वर्णान्तर-धर्मोका वर्णन' नामक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५१ ॥

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