विष्णु पुराण अध्याय 9 - Vishnu Purana Chapter 9

विष्णु पुराण अध्याय नवाँ संस्कृत और हिंदी में - Vishnu Puran Chapter 9 in Sanskrit and Hindi

  • श्रीपराशर उवाच

इत्युक्ता देवदेवेन सर्व एव तदा सुराः । 
सन्धानमसुरैः कृत्वा यत्नवन्तोऽमृतेऽभवन् ॥ ८२
नानौषधीः समानीय देवदैतेयदानवाः । 
क्षिप्त्वा क्षीराब्धिपयसि शरदभ्रामलत्विषि ।। ८३
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम् । 
ततो मथितुमारब्धा मैत्रेय तरसाऽमृतम् ॥ ८४
विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः कृताः । 
कृष्णेन वासुकेर्दैत्याः पूर्वकाये निवेशिताः ॥ ८५
ते तस्य मुखनिश्वासवह्नितापहतत्विषः । 
निस्तेजसोऽसुराः सर्वे बभूवुरमितौजसः ॥ ८६
तेनैव मुखनिश्वासवायुनास्तबलाहकैः । 
पुच्छप्रदेशे वर्षद्भिस्तदा चाप्यायिताः सुराः ॥ ८७
क्षीरोदमध्ये भगवान्कूर्मरूपी स्वयं हरिः । 
मन्थनाद्रेरधिष्ठानं भ्रमतोऽभून्महामुने ।॥ ८८
रूपेणान्येन देवानां मध्ये चक्रगदाधरः । 
चकर्ष नागराजानं दैत्यमध्येऽपरेण च ॥ ८९

विष्णु पुराण अध्याय 9 -  Vishnu Purana Chapter 9

श्रीपराशरजी बोले

तब देवदेव भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि करके अमृतप्राप्तिके लिये यत्न करने लगे हे मैत्रेय! देव, दानव और दैत्योंने नाना प्रकारकी ओषधियाँ लाकर उन्हें शरद् ऋतुके आकाशकी-सी निर्मल कान्तिवाले क्षीर सागरके जलमें डाला और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेगसे अमृत मथना आरम्भ किया भगवान्ने जिस ओर वासुकिकी पूँछ थी उस ओर देवताओंको तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्योंको नियुक्त किया महातेजस्वी वासुकिके मुखसे निकलते हुए निःश्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्यगण निस्तेज हो गये और उसी श्वास-वायुसे विक्षिप्त हुए मेघोंके पूँछकी ओर बरसते रहनेसे देवताओंकी शक्ति बढ़‌ती गयी हे महामुने ! भगवान् स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीर-सागरमें घूमते हुए मन्दराचलके आधार हुए और वे ही चक्र गदाधर भगवान् अपने एक अन्य रूपसे देवताओं में और एक रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने लगे थे 
८२ - ८९

उपर्याक्रान्तवाञ्च्छैलं बृहद्रूपेण केशवः ।
तथापरेण मैत्रेय यन्न दृष्टं सुरासुरैः ॥ ९०
तेजसा नागराजानं तथाप्यायितवान्हरिः ।
अन्येन तेजसा देवानुपबृंहितवान्प्रभुः ॥ ९१
मध्यमाने ततस्तस्मिन्क्षीराब्धौ देवदानवैः ।
हविर्धामाऽभवत्पूर्वं सुरभिः सुरपूजिता ॥ ९२
जग्मुर्मुदं ततो देवा दानवाश्च महामुने।
व्याक्षिप्तचेतसश्चैव बभूवुः स्तिमितेक्षणाः ॥ ९३
किमेतदिति सिद्धानां दिवि चिन्तयतां ततः ।
बभूव वारुणी देवी मदाघूर्णितलोचना । ९४
कृतावर्तात्ततस्तस्मात्क्षीरोदाद्वासयञ्जगत् ।
गन्धेन पारिजातोऽभूद्देवस्त्रीनन्दनस्तरुः ॥ ९५

तथा हे मैत्रेय! एक अन्य विशाल रूप से जो देवता और दैत्यों को दिखायी नहीं देता था श्री केशव ने ऊपर से पर्वत को दबा रखा था भगवान् श्रीहरि अपने तेज से नाग राज वासुकि में बलका संचार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओंका बल बढ़ा रहे थे इस प्रकार, देवता और दानवों द्वारा क्षीर-समुद्र के मथे जाने पर पहले हवि (यज्ञ-सामग्री) की आश्रय रूपा सुरपूजिता कामधेनु उत्पन्न हुई हे महामुने ! उस समय देव और दानवगण अति आनन्दित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी फिर स्वर्गलोकमें 'यह क्या है? यह क्या है?' इस प्रकार चिन्ता करते हुए सिद्धों के समक्ष मद से घूमते हुए नेत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई और पुनः मन्थन करने पर उस क्षीर-सागरसे, अपनी गन्धसे त्रिलोकी को सुगन्धित करनेवाला तथा सुर-सुन्दरियों का आनन्दवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ ॥ ९० - ९५ ॥

रूपौदार्यगुणोपेतस्तथा चाप्सरसां गणः ।
क्षीरोदधेः समुत्पन्नो मैत्रेय परमाद्भुतः ॥ ९६
ततः शीतांशुरभवञ्जगृहे तं महेश्वरः । 
जगृहुश्च विषं नागाः क्षीरोदाब्धिसमुत्थितम् ॥ ९७
ततो धन्वन्तरिर्देवः श्वेताम्बरधरस्स्वयम् । 
बिभ्रत्कमण्डलुं पूर्णममृतस्य समुत्थितः ॥ ९८
ततः स्वस्थमनस्कास्ते सर्वे दैतेयदानवाः ।
बभूवुर्मुदिताः सर्वे मैत्रेय मुनिभिः सह ॥ ९९
ततः स्फुरत्कान्तिमती विकासिकमले स्थिता।
श्रीर्देवी पयसस्तस्मादुद्भूता धृतपङ्कजा ॥ १००

हे मैत्रेय ! तत्पश्चात् क्षीर-सागरसे रूप और उदारता आदि गुणोंसे युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुई  फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिसे महादेवजीने ग्रहण कर लिया। इसी प्रकार क्षीर सागरसे उत्पन्न हुए विषको नागोंने ग्रहण किया फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात् भगवान् धन्वन्तरिजी अमृतसे भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए  हे मैत्रेय ! उस समय मुनिगणके सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ-चित्त होकर अति प्रसन्न हुए उसके पश्चात् विकसित कमलपर विराजमान स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथोंमें कमल-पुष्प धारण किये क्षीर-समुद्रसे प्रकट हुई ॥ ९६ - १०० ॥

तां तुष्टुवुर्मुदा युक्ताः श्रीसूक्तेन महर्षयः ॥ १०१
विश्वावसुमुखास्तस्या गन्धर्वाः पुरतो जगुः ।
घृताचीप्रमुखास्तत्र ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १०२
गङ्गाद्याः सरितस्तोयैः स्नानार्थमुपतस्थिरे।
दिग्गजा हेमपात्रस्थमादाय विमलं जलम् ।
स्नापयाञ्चक्रिरे देवीं सर्वलोकमहेश्वरीम् ॥ १०३
क्षीरोदो रूपधृक्तस्यै मालामम्लानपङ्कजाम् । 
ददौ विभूषणान्यङ्गे विश्वकर्मा चकार ह ॥ १०४
दिव्यमाल्याम्बरधरा स्नाता भूषणभूषिता ।
पश्यतां सर्वदेवानां ययौ वक्षःस्थलं हरेः ॥ १०५

उस समय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसूक्तद्वारा उनकी स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगीं उन्हें अपने जलसे स्नान करानेके लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं पस्थित हुईं और दिग्ग जोंने सुवर्ण-कलशोंमें भरे हुए उनके निर्मल जलसे सर्वलोक-महेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवीको स्नान कराया  क्षीर सागर ने मूर्ति मान् होकर उन्हें विकसित कमल-पुष्पों की माला दी तथा विश्वक र्माने उनके अंग- प्रत्यंगमें विविध आभूषण पहनाये इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर, दिव्य जलसे स्नान कर, दिव्य आभूषणों से विभूषित हो श्री लक्ष्मी जी सम्पूर्ण देवताओं के देखते-देखते श्री विष्णु भगवान्‌ के वक्षःस्थलमें विराजमान हुईं ॥१०१ - १०५ ॥

तया विलोकिता देवा हरिवक्षः स्थलस्थया। 
लक्ष्म्या मैत्रेय सहसा परां निर्वृतिमागताः ॥ १०६ 
उद्वेगं परमं जग्मुर्दैत्या विष्णुपराङ्मुखाः ।
त्यक्ता लक्ष्या महाभाग विप्रचित्तिपुरोगमाः ॥ १०७
ततस्ते जगृहुर्दैत्या धन्वन्तरिकरस्थितम् । 
कमण्डलुं महावीर्या यत्रास्तेऽमृतमुत्तमम् ॥ १०८
मायया मोहयित्वा तान्विष्णुः स्त्रीरूपसंस्थितः । 
दानवेभ्यस्तदादाय देवेभ्यः प्रददौ प्रभुः ॥ १०९
ततः पपुः सुरगणाः शक्राद्यास्तत्तदाऽमृतम् । 
उद्यतायुधनिस्त्रिंशा दैत्यास्तांश्च समभ्ययुः ॥ ११०
पीतेऽमृते च बलिभिर्देवैर्दैत्यचमूस्तदा । 
बध्यमाना दिशो भेजे पातालं च विवेश वै ॥ १११

हे मैत्रेय ! श्रीहरि के वक्षःस्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजीका दर्शन कर देवताओंको अकस्मात् अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई और हे महाभाग ! लक्ष्मीजीसे परित्यक्त होनेके कारण भगवान् विष्णुके विरोधी विप्रचित्ति आदि दैत्यगण परम उद्विग्न (व्याकुल) हुए तब उन महाबलवान् दैत्योंने श्रीधन्वन्तरिजीके हाथसे वह कमण्डलु छीन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था अतः स्त्री (मोहिनी) रूपधारी भगवान् विष्णुने अपनी मायासे दानवोंको मोहित कर उनसे वह कमण्डलु लेकर देवताओंको दे दिया तब इन्द्र आदि देवगण उस अमृतको पी गये; इससे दैत्यलोग अति तीखे खड्ग आदि शस्त्रोंसे सुसज्जित हो उनके ऊपर टूट पड़े किन्तु अमृत-पानके कारण बलवान् हुए देवताओंद्वारा मारी- काटी जाकर दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना दिशा-विदिशाओंमें भाग गयी और कुछ पाताललोकमें भी चली गयी ॥१०६ - १११ ॥

ततो देवा मुदा युक्ताः शङ्खचक्रगदाधृतम् । 
प्रणिपत्य यथापूर्वमाशासत्तत्त्रिविष्टपम् ॥ ११२
ततः प्रसन्नभाः सूर्यः प्रययौ स्वेन वर्त्मना। 
ज्योतींषि च यथामार्गं प्रययुर्मुनिसत्तम ॥ ११३
जज्वाल भगवांश्चोच्चैश्चारुदीप्तिर्विभावसुः । 
धर्मे च सर्वभूतानां तदा मतिरजायत । ११४
त्रैलोक्यं च श्रिया जुष्टं बभूव द्विजसत्तम 
शक्रश्च त्रिदशश्रेष्ठः पुनः श्रीमानजायत ॥ ११५
सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य त्रिदिवं पुनः । 
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां ततः ॥ ११६

फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख-चक्र-गदा-धारी भगवान्‌को प्रणाम कर पहलेहीके समान स्वर्गका शासन करने लगे  हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समयसे प्रखर तेजोयुक्त भगवान् सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने-अपने मार्ग से चलने लगे  सुन्दर दीप्तिशाली भगवान् अग्निदेव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे और उसी समयसे समस्त प्राणियों की धर्ममें प्रवृत्ति हो गयी हे द्विजोत्तम । त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी और देवताओंमें श्रेष्ठ इन्द्र भी पुनः श्रीमान् हो गये  तदनन्तर इन्द्रने स्वर्ग लोक में जाकर फिर से देवराज्यपर अधिकार पाया और राज सिंहा सन पर आरूढ़ हो पद्महस्ता श्री लक्ष्मीजी की इस प्रकार स्तुति की ॥ ११२ - ११६ ॥
  • इन्द्र उवाच

नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम् । 
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम् ॥ ११७
पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्। 
वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियामहम् ॥ ११८
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाह्य सुधा त्वं लोकपावनी।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥ ११९
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने। 
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥ १२०
आन्वीक्षिकी त्रयीवार्त्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च। 
सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम् ॥ १२१ 
का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः ।
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥ १२२
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम्। 
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम् ॥ १२३
दाराः पुत्रास्तथागारसुहृद्धान्यधनादिकम् । 
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम् ।। १२४

  • इन्द्र बोले-
सम्पूर्ण लोकोंकी जननी, विकसित कमलके सदृश नेत्रोंवाली, भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें विराज मान कमलोद्भवा श्री लक्ष्मी देवी को मैं नमस्कार करता हूँ  कमल ही जिनका निवासस्थान है, कमल ही जिन के कर कमलों में सुशोभित है, तथा कमल-दल के समान ही जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी कमल नाभ-प्रिया श्री कमला देवी की मैं वन्दना करता हूँ हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकीको पवित्र करने वाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धाऔर सरस्वती हो हे शोभने! यज्ञ-विद्या (कर्म-काण्ड), महाविद्या(उपासना) और गुह्य‌विद्या (इन्द्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि ! तुम्हीं मुक्ति-फलदायिनी आत्मविद्या हो हे देवि! आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता शिल्प वाणि ज्यादि) और दण्डनीति (राजनीति) भी तुम्हीं हो। तुम्हींने अपने शान्त और उग्र रूपोंसे यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान् गदाधरके योगिजनचिन्तित सर्वयज्ञमय शरीरका आश्रय पा सके हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; अब तुम्हींने उसे पुनः जीवन-दान दिया है हे महाभागे! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहृद् ये सब सदा आपहीके दृष्टिपातसे मनुष्योंको मिलते हैं हे देवि ! तुम्हारी कृपा दृष्टिके पात्र पुरुषोंके लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रु-पक्षका नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं॥ ११७ - १२५ ॥

शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम् ।
देवि त्वदृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम् ॥ १२५ 
त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरिः पिता ।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम् ॥ १२६ 
मा नः कोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम् ।
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि ॥ १२७ 
मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्ग मा पशून्मा विभूषणम् । 
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षः स्थलालये ।। १२८ 
सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः । 
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥ १२९ 
त्वया विलोकिताः सद्यः शीलाहौरखिलैर्गुणैः । 
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥ १३० 
स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् । 
स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ॥ १३१ 
सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः । 
पराङ्‌मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥ १३२ 
न ते वर्णयितुं शक्ता गुणाञ्जिह्वह्यपि वेधसः । 
प्रसीद देवि पद्माक्षि मास्मांस्त्याक्षीः कदाचन ॥ १३३

तुम सम्पूर्ण लोकों की माता हो और देवदेव भगवान् हरि पिता हैं। हे मातः ! तुमसे और श्री विष्णु भगवान्से यह सकल चराचर जगत् व्याप्त है हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशुशाला), गृह, भोगसामग्री, शरीर और स्त्री आदिको आप कभी न त्यागें अर्थात् इनमें भरपूर रहें  अयि विष्णुवक्षः स्थल निवासिनि ! हमारे पुत्र, सुहृद्, पशु और भूषण आदिको आप कभी न छोड़ें हे अमले ! जिन मनुष्योंको तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं और तुम्हारी कृपा-दृष्टि होनेपर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदिसे सम्पन्न हो जाते है  हे देवि ! जिसपर तुम्हारी कृपा- दृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान् है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है हे विष्णुप्रिये! हे जगञ्जननि ! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरन्त अवगुणरूप हो जाते हैं हे देवि ! तुम्हारे गुणोंका वर्णन करनेमें तो श्रीब्रह्माजीकी रसना भी समर्थ नहीं है। [फिर मैं क्या कर सकता हूँ?] अतः हे कमलनयने ! अब मुझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी न छोड़ो ॥ १२७  - १३३ ॥
  • श्रीपराशर उवाच
एवं श्रीः संस्तुता सम्यक् प्राह देवी शतक्रतुम् । 
शृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज ॥ १३४
  • श्रीरुवाच
परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे। 
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं तवागता ॥ १३५
  • इन्द्र उवाच
वरदा यदि मे देवि वरार्हो यदि वाप्यहम्। 
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेऽस्तु वरः परः ॥ १३६ 
स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे। 
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तु वरो मम ॥ १३७
  • श्रीरुवाच
त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव। 
दत्तो वरो मया यस्ते स्तोत्राराधनतुष्टया ॥ १३८ 
यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः । 
मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराङ्मुखी ॥ १३९
  • श्रीपराशर उवाच
एवं ददौ वरं देवी देवराजाय वै पुरा। 
मैत्रेय श्रीमहाभागा स्तोत्राराधनतोषिता ॥ १४० 
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना श्रीः पूर्वमुदधेः पुनः । 
देवदानवयत्नेन प्रसूताऽमृतमन्थने ॥ १४१ 
एवं यदा जगत्स्वामी देवदेवो जनार्दनः । 
अवतारं करोत्येषा तदा श्रीस्तत्सहायिनी ॥ १४२ 
पुनश्च पद्मादुत्पन्ना आदित्योऽभूद्यदा हरिः । 
यदा तु भार्गवो रामस्तदाभूद्धरणी त्वियम् ॥ १४३
  • श्री पराशर जी बोले
हे द्विज। इस प्रकार सम्यक् स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थिता श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओं के सुनते हुए इन्द्रसे इस प्रकार बोलीं !
  • श्रीलक्ष्मीजी बोलीं
हे देवेश्वर इन्द्र! मैं तेरे इस स्तोत्रसे अति प्रसन्न हूँ; तुझको जो अभीष्ट हो वही वर माँग ले। मैं तुझे वर देनेके लिये ही यहाँ आयी हूँ  !
  • इन्द्र बोले- 
हे देवि! यदि आप वर देना चाहती हैं और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि आप इस त्रिलोकीका कभी त्याग न करें  और हे समुद्रसम्भवे! दूसरा वर मुझे यह दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्रसे स्तुति करे उसे आप कभी न त्यागें 
  • श्रीलक्ष्मीजी बोलीं- 
हे देवश्रेष्ठ इन्द्र ! मैं अब इस त्रिलोकी को कभी न छोड़ेंगी। तेरे स्तोत्र से प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर देती हूँ  तथा जो कोई मनुष्य प्रातःकाल और सायं काल के समय इस स्तोत्रसे मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न होऊँगी !
  •  श्री पराशर जी बोले
हे मैत्रेय! इस प्रकार पूर्वकालमें महाभागा श्रीलक्ष्मीजीने देवराजकी स्तोत्ररूप आराधनासे सन्तुष्ट होकर उन्हें ये वर दिये लक्ष्मीजी पहले भृगुजीके द्वारा ख्याति नामक स्त्रीसे उत्पन्न हुई थीं, फिर अमृत- मन्थनके समय देव और दानवों के प्रयत्नसे वे समुद्रसे प्रकट हुईं  इस प्रकार संसारके स्वामी देवाधिदेव श्री विष्णु भगवान् जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मी जी उनके साथ रहती है जब श्रीहरि आदित्य रूप हुए तो वे पद्म से फिर उत्पन्न हुई [और पद्मा कहलायीं]। तथा जब वे परशुराम हुए तो ये पृथिवी हुईं ॥ १३४ - १४३॥
 
राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि ।
अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेषानपायिनी ।। १४४ 
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी । 
विष्णोर्देहानुरूपां वै करोत्येषात्मनस्तनुम् ॥ १४५ 
यश्चैतच्छृणुयाञ्जन्म लक्ष्म्या यश्च पठेन्नरः । 
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलत्रयम् ।। १४६ 
पठ्यते येषु चैवेयं गृहेषु श्रीस्तुतिर्मुने। 
अलक्ष्मीः कलहाधारा न तेष्वास्ते कदाचन ॥ १४७ 
एतत्ते कथितं ब्रह्मन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।
क्षीराब्धौ श्रीर्यथा जाता पूर्व भृगुसुता सती ।॥ १४८
इति सकलविभूत्यवाप्तिहेतुः स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गता हि लक्ष्म्याः ।
अनुदिनमिह पठ्यते नृभिर्ये- र्वसति न तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः ॥ १४९


श्रीहरिके राम होनेपर ये सीताजी हुईं और कृष्णावतारमें श्रीरुक्मिणीजी हुई। इसी प्रकार अन्य अवतारोंमें भी ये भगवान्से कभी पृथक् नहीं होतीं भगवान्‌के देवरूप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती हैं और मनुष्य होनेपर मानवीरूपसे प्रकट होती हैं। विष्णुभगवान्‌के शरीरके अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती हैं  जो मनुष्य लक्ष्मीजीके जन्मकी इस कथाको सुनेगा अथवा पढ़ेगा उसके घरमें (वर्तमान आगामी और भूत) तीनों कुलोंके रहते हुए कभी लक्ष्मीका नाश न होगा हे मुने ! जिन घरोंमें लक्ष्मीजीके इस स्तोत्रका पाठ होता है उनमें कलहकी आधारभूता दरिद्रता कभी नहीं ठहर सकती हे ब्रह्मन् ! तुमने जो मुझसे पूछा था कि पहले भृगुजीकी पुत्री होकर फिर लक्ष्मीजी क्षीर-समुद्रसे कैसे उत्पन्न हुई सो मैंने तुमसे यह सब वृत्तान्त कह दिया इस प्रकार इन्द्रके मुखसे प्रकट हुई यह लक्ष्मीजीकी स्तुति सकल विभूतियोंकी प्राप्तिका कारण है। जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह सकेगी ॥ १४४ - १४९ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें 👇👇

श्री पराशर उवाच - 

टिप्पणियाँ