Navratri : नवरात्रि के द्वितीयं दिन मां ब्रह्मचारिणी के स्तोत्र चालीसा एवं आरती सहित,Navratri Ke Dviteey Din Brahmacharini Ke Srot Chalisa and Aarti Sahit

Navratri : नवरात्रि के द्वितीयं दिन ब्रह्मचारिणी के स्तोत्र चालीसा एवं आरती सहित

मां ब्रह्मचारिणी

नवरात्रि के द्वितीयं दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है. मां ब्रह्मचारिणी को तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम, शक्ति, बुद्धि, और ज्ञान का आशीर्वाद देने वाली माना जाता है. माना जाता है कि मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से जातक को आदि और व्याधि रोगों से मुक्ति मिलती है. साथ ही, भगवान शिव भी प्रसन्न होते हैं.

नवरात्रि के द्वितीयं दिन मां ब्रह्मचारिणी- मंत्र

दधाना करपद्माभ्याम मालाकमण्डलम् । 
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्माचारिण्यनुत्तमा॥ 

मंत्र का मतलब है,- "जिनके एक हाथ में अक्षमाला है और दूसरे हाथ में कमण्डल है, ऐसी उत्तम ब्रह्मचारिणीरूपा मां दुर्गा मुझ पर कृपा करें

भगवती दुर्गा नवरात्रि के दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी

भगवती दुर्गा की नौ शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्म का अर्थ है, तपस्या। तप का आचरण करने वाली भगवती जिस कारण उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा गया, वेदस्तत्वं तपो ब्रह्म, वेद, तत्व और ताप ब्रह्म अर्थ है ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला  एवं बायें हाथ में कमण्डल रहता है।

Navratri Ke Dviteey Din Brahmacharini Ke Srot Chalisa and Aarti Sahit

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नवरात्रि के द्वितीयं दिन मां ब्रह्मचारिणी कवच-

त्रिपुरा मे हृदये पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी । 
अर्पणा सदापातु नेत्रो अर्धरो च कपोलो ॥ 
पंचदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु माहेश्वरी ॥ 
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो। 
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी ॥ 
इस मंत्र का उच्चारण करते हुए पीली सरसों से अपने चारों ओर डाल लें अथवा पञ्चमुखी रुद्राक्ष और गंगाजल मैं सफेद चंदन की रेखा अपने चारों ओर खींचें।

मां ब्रह्मचारिणी स्तोत्र

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्। 
ब्रह्मरूपधरां ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
 नवचक्र भेंदनी त्वंहि नवऐश्वर्य प्रदायनीम्।
धनदा-सुखदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥ 
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी। 
शान्तिदा मानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्। 

ब्रह्मचारिणी के रूप में द्वितीय कन्या का पूजन

ब्रह्मचारिणी के रूप में द्वितीय नवरात्र को या नवरात्र की अंतिम तिथि को 'कल्याणी' का पूजन किया जाता है। 'कल्याणी' के लिए चार वर्ष की कन्या का पूजन करना चाहिए। निम्न मंत्र से ब्रह्मचारिणी को भोज्य पदार्थ अर्पित करें-
कालात्मिकां कलातीता कारुण्यहृदयां शिवाम्। कल्याणजननीं देवीं कल्याणीं पूजयाम्हम्॥

मां ब्रह्मचारिणी स्तुति

चन्द्र तपे सूरज तपे, और तपे आकाश ।
इन सब से बढकर तपे,माताऒ का सुप्रकाश ।।
मेरा अपना कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा ॥
पद्म कमण्डल अक्ष, कर ब्रह्मचारिणी रूप ।
हंस वाहिनी कृपा करो, पडू नहीं भव कूप ॥
जय जय श्री ब्रह्माणी, सत्य पुंज आधार ।
चरण कमल धरि ध्यान में, प्रणबहुँ माँ बारम्बार ॥

ब्रह्मचारिणी माता ध्यान-स्तुति

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालङ्कार भूषिताम्॥
परम वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

आरती ब्रह्मचारिणी माता की

जय अंबे ब्रह्माचारिणी माता।
जय चतुरानन प्रिय सुख दाता।

ब्रह्मा जी के मन भाती हो।
ज्ञान सभी को सिखलाती हो।

ब्रह्मा मंत्र है जाप तुम्हारा।
जिसको जपे सकल संसारा।

जय गायत्री वेद की माता।
जो मन निस दिन तुम्हें ध्याता।

कमी कोई रहने न पाए।
कोई भी दुख सहने न पाए।

उसकी विरति रहे ठिकाने।
जो ​तेरी महिमा को जाने।

रुद्राक्ष की माला ले कर।
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर।

आलस छोड़ करे गुणगाना।
मां तुम उसको सुख पहुंचाना।

ब्रह्माचारिणी तेरो नाम।
पूर्ण करो सब मेरे काम।

भक्त तेरे चरणों का पुजारी।
रखना लाज मेरी महतारी।

जय अंबे ब्रह्माचारिणी माता।
जय चतुरानन प्रिय सुख दाता।

ब्रह्मा जी के मन भाती हो।
ज्ञान सभी को सिखलाती हो।

ब्रह्मा मंत्र है जाप तुम्हारा।
जिसको जपे सकल संसारा।

जय गायत्री वेद की माता।
जो मन निस दिन तुम्हें ध्याता।

कमी कोई रहने न पाए।
कोई भी दुख सहने न पाए।

उसकी विरति रहे ठिकाने।
जो ​तेरी महिमा को जाने।

रुद्राक्ष की माला ले कर।
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर।

आलस छोड़ करे गुणगाना।
मां तुम उसको सुख पहुंचाना।

ब्रह्माचारिणी तेरो नाम।
पूर्ण करो सब मेरे काम।

भक्त तेरे चरणों का पुजारी।
रखना लाज मेरी महतारी।

श्री ब्रह्माणी चालीसा ( चौपाई )

जय जय जग मात ब्रह्माणी । भक्ति मुक्ति विश्व कल्याणी ॥ १ ॥
वीणा पुस्तक कर में सोहे । मात शारदा सब जग सोहे ॥ २ ॥

हँस वाहिनी जय जग माता । भक्त जनन की हो सुख दाता ॥ ३ ॥
ब्रह्माणी ब्रह्मा लोक से आई । मात लोक की करो सहाई ॥ ४ ॥

खीर सिन्धु में प्रकटी जब ही । देवों ने जय बोली तब ही ॥ ५ ॥
चतुर्दश रतनों में मानी । अद॒भुत माया वेद बखानी ॥ ६ ॥

चार वेद षट शास्त्र कि गाथा । शिव ब्रह्मा कोई पार न पाता ॥ ७ ॥
आद अन्त अवतार भवानी । पार करो मां माहे जन जानी ॥ ८ ॥

जब−जब पाप बढे अति भारे । माता सस्त्र कर में धारे ॥ ९ ॥
अद्य विनाशिनी तू जगदम्बा । धर्म हेतु ना करी विलम्भा ॥ १० ॥

नमो नमो चण्डी महारानी । ब्रह्मा विष्णु शिव तोहे मानी ॥ ११ ॥
तेरी लीला अजब निराली । स्याह करो माँ पल्लू वाली ॥ १२ ॥

चिन्त पुरणी चिन्ता हरणी । अमंगल में मंगल करणी ॥ १३ ॥
अन्न पूरणी हो अन्न की दाता । सब जग पालन करती माता ॥ १४ ॥

सर्व व्यापिनी अशख्या रूपा । तो कृपा से टरता भव कूपा ॥ १५ ॥
योग निन्दा योग माया । दीन जान, माँ करियो दाया ॥ १६ ॥

पवन पुत्र की करी सहाई ।लंक जार अनल शित लाई ॥ १७ ॥
कोप किया दश कन्ध पे भारी । कुटम्ब सहारा सेना भारी  ॥ १८ ॥

तुही मात विधी हरि हर देवा । सुर नर मुनी सब करते सेवा ॥ १९ ॥
देव दानव का हुवा सम्वादा । मारे पापी मेटी बाधा ॥ २० ॥

श्री नारायण अंग समाई । मोहनी रूप धरा तू माई ॥ २१ ॥
देव दैत्यों की पंक्ती बनाई । सुधा देवों को दीना माई ॥ २२ ॥

चतुराई कर के महा माई । असुरों को तूं दिया मिटाई ॥ २३ ॥
नौखण्ङ मांही नेजा फरके । भय मानत है दुष्टि डर के ॥ २४ ॥

तेरह सो पेंसठ की साला । आसू मांसा पख उज्याला ॥ २५ ॥
रवि सुत बार अष्टमी ज्वाला । हंस आरूढ कर लेकर भाला ॥ २६ ॥

नगर कोट से किया पयाना । पल्लू कोट भया अस्थाना ॥ २७ ॥
चौसठ योगिन बावन बीरा । संग में ले आई रणधीरा ॥ २८ ॥

बैठ भवन में न्याव चुकाणी । द्वार पाल सादुल अगवाणी ॥ २९ ॥
सांझ सवेरे बजे नगारा । सीस नवाते शिष्य प्यारा ॥ ३० ॥

मढ़ के बीच बैठी मतवाली । सुन्दर छवि होंठो की लाली ॥ ३१ ॥
उतरी मढ बैठी महा काली । पास खडी साठी के वाली ॥ ३२ ॥

लाल ध्वजा तेरी सीखर फरके । मन हर्षाता दर्शन करके ॥ ३३ ॥
चेत आसू में भरता मेला । दूर दूर से आते चेला ॥ ३४ ॥

कोई संग में कोई अकेला । जयकारो का देता हेला ॥ ३५ ॥
कंचन कलश शोभा दे भारी । पास पताका चमके प्यारी ॥ ३६ ॥

भाग्य साली पाते दर्शन । सीस झुका कर होते प्रसन ॥ ३७ ॥
तीन लोक की करता भरता । नाम लिया स्यू कारज सरता ॥ ३८ ॥

मुझ बालक पे कृपा की ज्यो । भुल चूक सब माफी दीज्यो ॥ ३९ ॥
मन्द मति दास चरण का चेहरा । तुझ बिन कौन हरे दुख मेरा ॥ ४० ॥

दोहा

आठों पहर तन आलस रहे, मैं कुटिल बुद्धि अज्ञान ।
भव से पार करो मातेश्वरी, भोला बालक जान ॥

ब्रह्मचारिणी वाहन का रहस्य

द्वितीय शक्ति माहेश्वरी अर्थात् ब्रह्मचारिणी हैं। महोश्वरी लय शक्ति को कहते हैं। अखण्ड चैतन्य-समुद्र के जिस अंश में प्रलय-भाव का प्रकाश हो उस चैतन्यांश का नाम महेश्वर है अर्थात् आत्मा जहां पर प्रलय क्रिया का अभिमान करे उस स्थान में वह 'महेश्वर' नाम से पुकारा जाता है। उस चेतनाधिष्ठान से जो प्रलयरूप क्रियाशक्ति प्रकाशित हो, वही माहेश्वरी शक्ति है। इसका वाहन वृष (बैल) है। 'वृष' शब्द का अर्थ 'धर्म' होता है। इसके तप, शौच, दया, दान-ये चार चरण हैं। धर्म सत्वगुण से उत्पन्न होता है और सत्व शुभ्रवर्ण है। इस कारण - "कारणगुणाः कार्यगुणानारमन्ते।" इस नियम से धर्म भी श्वेतवर्ण ही हो सकता है यही हेतु है कि धर्म को वृष की उपाधि शास्त्रकारों ने दी है।

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