अग्नि पुराण - पंचानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 95 Chapter !
अग्नि पुराण पंचानबेवाँ अध्याय प्रतिष्ठा, काल और सामग्री आदिको विधिका वर्णन ! प्रतिष्ठासामग्रीविधानम् !
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अग्नि पुराण - पंचानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 95 Chapter !
ईश्वर उवाच
वक्ष्ये लिङ्गप्रतिष्ठां च प्रासादे भुक्तिमुक्तिदां।
ताञ्चरेत् सर्वदा मुक्तौ भुक्तौ देवदिने सति ।। १ ।।
विना चैत्रेण माघादौ प्रतिष्ठा मासपञ्चके।
गुरुशुक्रोदये कार्य्या प्रथमे करणत्रये ।। २ ।।
शुक्लपक्षे विशेषेण कृष्णे वा पञ्चमन्दिनं ।
चतुर्थी नवमीं षष्ठीं वर्जयित्वा चतुर्दशीं ।। ३ ।।
शोभनास्तिथयः शषाः क्रूरवारविवर्जिताः।
शतभिषा धनिष्ठाद्र्द्रा अनुराधोत्तरत्रयं ।। ४ ।।
रोहिणी श्रवणश्चेति स्थिरारम्भे महोदयाः।
लग्नञ्च कुम्भसिहालितुलास्त्रीवृषधन्विनां ।। ५ ।।
शस्तो जीवो नवर्क्षेषु सप्तस्थानेषु सर्वदा।
बुधः षडष्टदिक्सप्ततुर्येषु विनर्तुं शितः ।। ६ ।।
सप्तर्त्तु त्रिदशादिस्थः शशाङ्को बलदः सदा ।
सविर्दशत्रिषट्संस्थो राहुस्त्रिदशषङ्गतः ।। ७ ।।
षट्त्रिस्थानगताः शस्ता मन्दाङ्गारार्ककेतवः।
शुभाः क्रूराश्च पापाश्च सर्व एकादशस्थिताः ।। ८ ।।
एषां दृष्टिर्मुनौ पूर्णा त्वार्द्धिकी ग्रहभूतयोः।
पादिकी रामदिक्स्थाने चतुरष्टौ पादवर्जिताः ।। ९ ।।
पादान्यूनचतुर्नाडी भोगः स्यान्मीनमेषयोः।
वृषकुम्भौ च भुञ्जाते चतस्रः पादवर्जिताः ।। १० ।।
मकरो मिथुनं पञ्च चापालिहरिकर्क्कटाः।
पादोनाः षट्तुलाकन्ये घटिकाः सार्द्धपञ्च च ।। ११ ।।
केशरीवृषभः कुम्भ स्थिराः स्युः सिद्धिदायकाः।
चरा धनुस्तुलामेषा द्विः स्वभावास्तुतृतीयकाः ।। १२ ।।
शुभः शुभग्रहैर्दृष्टः शस्तो लग्नः शुभाश्रितः ।
गुरुशुक्रबुधैर्युक्तो लग्नो दद्याद्बलायुषी ।। १३ ।।
राज्यं शौर्य्यं बलं पुत्रान् यशोधर्म्मादिकं बहु।
प्रथमः सप्तमस्तुर्य्यो दशमः केन्द्र उच्यते ।। १४ ।।
गुरुशुक्रबुधास्तत्र सर्वसिद्धिप्रदायकाः।
त्रयेकादशचतुर्थस्था लग्नात् पापग्रहाः शुभाः ।। १५ ।।
अतोप्यनीचकर्मार्थं योज्यास्तिथ्यादयो बुधैः।
धाम्नः पञ्चगुणां भूमिं त्यक्त्वा वा धानसम्मितां ।। १६ ।।
हस्ताद् द्वादशसोपानात् कुर्य्यान्मण्डपमग्रतः।
चतुरस्रं चतुर्द्वारं स्नानार्थन्तु तदर्द्धतः ।। १७ ।।
एकास्यं चतुरास्यं वा रौद्र्यां प्राच्युत्तरेथवा ।
हास्तिको दशहस्तो वै मण्डपोर्ककरोऽथवा ।। १८ ।।
द्विहस्तोत्तरया वृद्ध्या शेष स्यान्मण्डपाष्टकं।
वेदी चतुष्करा मध्ये कोणस्तम्भेन संयुता ।। १९ ।।
वेदीपादान्तरं त्यक्त्वा कुण्डानि नव पञ्च वा।
एकं वा शिवकाष्ठायां प्राच्यां वा तद्गुरोः परं ।। २० ।।
मुष्टिमात्रं शतार्द्धे स्याच्छते चारत्निमात्रकं ।
हस्तं सहस्रहोमे स्यान्नियुते तु द्विहास्तिकं ।। २१ ।।
लक्षे चतुष्करं कुण्डंकोटिहोमेऽष्टहस्तकं।
भगाभमग्नौ खण्डेन्दु दक्षे त्र्यस्रञ्च नैर्ऋते ।। २२ ।।
षडस्रं वायवे पद्म सौम्ये चाष्टास्रकं शिवे।
तिर्य्यक्पातशिवं खातमूद्र्ध्वं मेखलया सह ।। २३ ।।
तद्वहिर्म्मेखलास्तिस्रो वेदवह्नियमाङ्गुलै ।
अङ्गुलैः षड्भिरेका वा कुण्डाकारास्तु मेखलाः ।। २४ ।।
तासामुपरि योनिः स्यान्मध्येऽश्वत्थदलाकृतिः।
उच्छ्रायेणाङ्गुलं तस्मादिविस्तारेणाङ्गुलाष्टकं ।। २५ ।।
दैर्घ्यं कुण्डार्द्धमानेन कुण्डकण्ठसमोऽधरः।
पूर्वाग्नियाम्यकुण्डानां योनिः स्यादुत्तरानना ।। २६ ।।
पूर्वानना तु शेषाणामैशान्येऽन्यतरा तयोः।
कुण्डानां यश्चतुर्विंशो बागः सोङ्गुल इत्यतः ।। २७ ।।
प्लक्षोदुम्बरकाश्वत्थवटजास्तोरणाः क्रमात्।
शान्तिभूतिबलारोग्यपूर्वाद्या नामतः क्रमात् ।। २८ ।।
पञ्चषट्सप्तहस्तानि हस्तकातस्थितानि च।
तदर्द्धविस्तराणि स्युर्युतान्याम्रदलादिभिः ।। २९ ।।
इन्द्रायुधोपमा रक्ता कृष्णा धूम्रा शशिप्रभा।
शुक्लाभा हेमवर्णा च पताका स्फाटिकोपमा ।। ३० ।।
पूर्वादितोब्जजे रक्ता नीलाऽन्न्तस्य नैर्ऋते।
पञ्चहस्तास्तदर्द्धाञ्च ध्वजा दीर्घाश्च विस्तराः ।। ३१ ।।
हस्तप्रदेशिता दण्डा ध्वजानां पञ्चहस्तकाः।
वल्मीकाद्दन्तिदन्ताग्रात्तथा वृषभश्रृङ्गतः ।। ३२ ।।
पद्मषण्डाद्वराहाच्च गोष्ठादपि चतुष्पथात्।
मृत्तिका द्वादश ग्राह्य वैकुण्ठेष्टौ पिनाकिनि ।। ३३ ।।
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थचूतजम्वुत्वगुद्भवं।
कषायपञ्चकं ग्राह्यमार्त्तवञ्च फलाष्टकं ।। ३४ ।।
तीर्थाम्भांसि सुगन्धीनि तथा सर्वौषधीजलं।
शस्तं पुष्पफलं वक्ष्ये रत्नगोश्रृङ्गवारि च ।। ३५ ।।
स्नानायापाहरेत् पञ्च पञ्चगव्यामृतं तथा।
पिष्टनिर्मितवस्त्रादिद्रव्यं निर्म्मज्जनाय च ।। ३६ ।।
शतमोषधिमूलानां विजया लक्ष्मणा बला ।। ३७ ।
गुडूच्यतिबला पाठा सहदेवा शतावरी।
ऋद्धि सुवर्चसा वृद्धिः स्नाने प्रोक्ता पृथक् पृथक ।। ३८ ।।
रक्षायै तिलदर्भौघो भस्मस्नानन्तु केवलं।
यवगोधूमविल्वानां चुर्णानि च विचक्षणः ।। ३९ ।।
विलेपनं सकर्प्पूरं स्नानार्थं कुम्भगण्डकान् ।
खट्वाञ्च तुलिकायुग्मं सोपधानं सव स्त्रकां ।। ४० ।।
कुर्य्याद्वित्तानुसारेण शयने लक्ष्यकल्पने ।
घृतक्षौद्रयुतं पात्रं कुर्य्यात् स्वर्णशलाकिकां ।। ४१ ।।
वर्द्धनीं शिवकुम्भञ्च लोकपालघटानपि।
एकं निद्राकृते कुम्भं शान्त्यर्थं कुण्डसङ्ख्यया ।। ४२ ।।
द्वारपालादिधर्म्मादि प्रशान्तादिघटानपि।
वास्तुलक्ष्मीगणेशानां कलशानपरानपि ।। ४३ ।।
धान्यपुञ्जकृताधारान् सवस्त्रान् स्रग्विभूषितान्।
सहिरण्यान् समालब्धान् गन्धपानीयपूरितान् ।। ४४ ।।
पूर्णपात्रफलाधारान् पल्लवाद्यान् सलक्षणान्।
वस्त्रैराच्छादयेत् कुम्भानाहरेद्गौरसर्षपान् ।। ४५ ।।
विकिरार्थन्तथा लाजान् ज्ञानखड्गञ्च पूर्ववत्।
सापिधानां चरुस्थालीं दर्व्वी च ताम्रनिर्म्मितां ।। ४६ ।।
घृतक्षौद्रान्वितं पात्रं पादाभ्यङ्गकृते तथा।
विष्टरांस्त्रिशतादर्भदलैर्बाहुप्रमाणकान् ।। ४७ ।।
चतुरश्चतुरस्तद्वत् पालाशान् परिधीनपि।
तिलपात्रं हविः पात्रमर्धपात्रं पवित्रकं ।। ४८ ।।
पलविंशाष्टमानानि घटो धूपप्रदानकं ।
श्रुक्श्रुवौ पिटकं पीठं व्यजनं शुष्कमिन्धनं ।। ४९ ।।
पुष्पं पत्रं गुग्गुलञ्च घृतैर्द्दीपांश्च धूपकं।
अक्षतानि त्रिसूत्रीञ्च गव्यमाज्यं यवांस्तिलान् ।। ५० ।।
कुशाः शानत्यै त्रिमधुरं समिधो दशपर्विकाः।
बाहुमात्रं श्रुवं हस्तम् अर्कादिग्रहशान्त्ये ।। ५१ ।।
समिधोऽर्कपलाशोत्थाः खादिरामार्गपिप्पलाः ।
उदुम्बरशमीदूर्वाकुशोत्थाः शतमष्ट च ।। ५२ ।।
तदभावे यवतिला गृहोपकरणं तथा।
स्थालीदर्वीपिधानादि देवादिभ्योंऽशुकद्वयं ।। ५३ ।।
मुद्रामुकृटवासांसि हारकुण्डलकङ्कणान्।
कुर्य्यादाचार्यपूजार्थं वित्तशाठ्यं विवर्जयेत् ।। ५४ ।।
तत्पादपादहीना च मूत्तिभृदस्त्रजापिनां ।
पूजा स्याज्जापिभिस्तुल्या विप्रदैवज्ञशिल्पिनां ।। ५५ ।।
वज्रार्कशान्तौ नीलातिनाल्मुक्ताफलानि च ।
पुष्पपद्मादिशगञ्च वैदूर्य्यं रत्नमष्टमं ।। ५६ ।।
उषीरमाधवक्रान्तारक्तचन्दनकागुरुं।
श्रीखण्डं सारिकङ्कुष्ठं शङ्खिनी ह्योषधीगणः ।। ५७ ।।
हेमताम्रमयं रक्तं राजतञ्च सकांस्यकं।
शीसकञ्चेति लोहानि हरितालं मनः शिला ।। ५८ ।।
गैरिकं हेममाक्षीकं पारदो वह्निगैरिकं।
गन्धकाभ्रकमित्यष्टौ धातवो ब्रीहयस्तथा ।। ५९ ।।
गोधूमान् सतिलान्माषान्मुद्गानप्याहरेद्यवान्।
नीवारान् श्यामकानेवं व्रीहयोऽप्यष्ट कीर्त्तिताः ।। ६० ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नये प्रतितष्ठासामग्री नाम पञ्चनवतितमोऽध्यायः।
अग्नि पुराण - पंचानबेवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 95 Chapter !-In Hindi
भगवान् शंकर कहते हैं- स्कन्द ! अब मैं मन्दिरमें लिङ्ग-स्थापनाकी विधिका वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्षको देनेवाली है। यदि मुक्तिके लिये लिङ्ग-प्रतिष्ठा करनी हो तो उसे हर समय किया जा सकता है, परंतु यदि भोग-सिद्धिके उद्देश्यसे लिङ्ग-स्थापना करनेका विचार हो तो देवताओंका दिन (उत्तरायण) होनेपर ही वह कार्य करना चाहिये। माघसे लेकर पाँच महीनोंमें, चैत्रको छोड़कर, देवस्थापना करनेकी विधि है। जब गुरु और शुक्र उदित हों तो प्रथम तीन करणों (वव, बालव और कौलव) में स्थापना करनी चाहिये। विशेषतः शुक्लपक्षमें तथा कृष्ण- पक्षमें भी पञ्चमी तिथितकका समय प्रतिष्ठाके लिये शुभ माना गया है। चतुर्थी, नवमी, षष्ठी और चतुर्दशीको छोड़कर शेष तिथियाँ क्रूर- ग्रहके दिनसे रहित होनेपर उत्तम मानी गयी हैं॥१-३३॥ शतभिषा, धनिष्ठा, आर्द्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, रोहिणी और श्रवण- ये नक्षत्र स्थिर प्रतिष्ठा आरम्भ करनेके लिये महान् अभ्युदयकारक कहे गये हैं। कुम्भ, सिंह, वृश्चिक, तुला, कन्या, वृष- ये लग्र श्रेष्ठ बताये गये हैं। बृहस्पति (तृतीय, अष्टम और द्वादशको छोड़कर शेष) नौ स्थानोंमें शुभ माने गये हैं। सात स्थानोंमें तो वे सर्वदा ही शुभ हैं। छठे, आठवें, दसवें, सातवें और चौथे भावोंमें बुधकी स्थिति हो तो वे शुभकारक होते हैं। इन्हीं स्थानोंमें छठेको छोड़कर यदि शुक्र हों तो उन्हें शुभ कहा गया है। प्रथम, तृतीय, सप्तम, षष्ठ, दशम (द्वितीय और नवम) स्थानोंमें चन्द्रमा सदैव बलदायक माने गये हैं। सूर्य, दसवें, तीसरे और छठे भावोंमें स्थित हों तो शुभफल देनेवाले होते हैं। तीसरे, छठे और दसवेंमें राहुको भी शुभकारक कहा गया है॥४-७॥
छठे और तीसरे स्थानमें स्थित होनेपर शनैश्चर, मङ्गल और केतु प्रशस्त कहे गये हैं। शुभग्रह, क्रूरग्रह और पापग्रह-सभी ग्यारहवें स्थानमें स्थित होनेपर श्रेष्ठ बताये गये हैं। अपनी जगहसे सप्तम स्थानपर ही इन समस्त ग्रहोंकी दृष्टि पूर्ण (चारों चरणोंसे युक्त) होती है। पाँचवें और नवें स्थानोंपर इनकी दृष्टि आधी (दो चरणोंसे युक्त) बतायी गयी है। तृतीय और दसवें स्थानोंको ये ग्रह एकपादसे देखते हैं तथा चौथे एवं आठवें स्थानोंपर इनकी दृष्टि तीन चरणोंसे युक्त होती है। मीन और मेष राशिका भोग पौने चार नाड़ीतक है। वृष और कुम्भ भी पौने चार नाड़ीका ही उपभोग करते हैं। मकर और मिथुन पाँच नाड़ी, धन, वृश्चिक, सिंह और कर्क पौने छः नाड़ी तथा तुला और कन्या राशियाँ साढ़े पाँच नाड़ीका उपभोग करती हैं ॥ ८-११ ॥
सिंह, वृष और कुम्भ-ये 'स्थिर' लग्न सिद्धिदायक होते हैं। धन, तुला और मेष 'चर' कहे गये हैं। तीसरी-तीसरी संख्याके लग्न (मिथुन, कन्या आदि) 'द्वि-स्वभाव' कहे गये हैं। कर्क, मकर और वृश्चिक - ये प्रव्रज्या (संन्यास) कार्यके नाशक हैं। जो लग्न शुभग्रहोंसे देखा गया हो, वह शुभ है तथा जिस लग्रमें शुभग्रह स्थित हों, वह श्रेष्ठ माना गया है। बृहस्पति, शुक्र और बुधसे युक्त लग्र धन, आयु, राज्य, शौर्य (अथवा सौख्य), बल, पुत्र, यश तथा धर्म आदि वस्तुओंको अधिक मात्रामें प्रदान करता है। कुण्डलीके बारह भावोंमेंसे प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशमको 'केन्द्र' कहते हैं। उन केन्द्र-स्थानोंमें यदि गुरु, शुक्र और बुध हों तो वे सम्पूर्ण सिद्धियोंके दाता होते हैं। लग्न स्थानसे तीसरे, ग्यारहवें और चौथे स्थानोंमें पापग्रह हों तो वे शुभकारक होते हैं। अतः इनको तथा इनसे भिन्न शुभग्रहों तथा शुभ तिथियोंको विद्वान् पुरुष प्रतिष्ठाकर्मके लिये योजित करे। मन्दिरके सामने उससे पाँच गुनी अथवा मन्दिरके बराबर ही या सीढ़ीसे दस हाथ आगेतककी भूमि छोड़कर मण्डप निर्माण करे ॥ १२-२७ ॥
वह मण्डप चौकोर और चार दरवाजोंसे युक्त हो। उसकी आधी भूमि लेकर स्नानके लिये मण्डप बनावे। उसमें भी एक या चार दरवाजे हों। यह स्त्रान-मण्डप ईशान, पूर्व अथवा उत्तर दिशामें होना चाहिये। [प्रथम तीन लिङ्गोंके लिये तीन मण्डपोंका निर्माण करे। पहले मण्डपकी 'हास्तिक' संज्ञा है। वह आठ हाथका होता है। शेष दो मण्डप एक-एक हाथ बड़े होंगे, अर्थात् दूसरा मण्डप नौ हाथका और तीसरा दस हाथका होगा। इसी तरह अन्य लिङ्गोंके लिये भी प्रति- मण्डप दो-दो हाथ भूमि बढ़ा दे, जिससे नौ हाथ बड़े नवें लिङ्गके लिये बाईस हाथका मण्डप सम्पन्न हो सके।] प्रथम मण्डप आठ हाथका,दस हाथका अथवा बारह हाथका होना चाहिये। शेष आठ मण्डपोंको दो-दो हाथ बढ़ाकर रखे। (इस प्रकार कुल नौ मण्डप होने चाहिये।) [पाद आदिसे वृद्धलिङ्गोंकी स्थापनामें पादों (पायों)
के अनुसार मण्डप बनावे। बाणलिङ्ग, रत्नजलिङ्ग तथा लौहलिङ्गकी स्थापनाके अवसरपर हास्तिक (आठ हाथवाले) मण्डपके अनुसार सब कुछ बनावे। अथवा जो देवीका प्रासाद हो, उसके अनुसार मण्डप बनावे। समस्त लिङ्गोंके लिये प्रासाद-निर्माणकी विधि शैव-शास्त्रके अनुसार जाननी चाहिये। घन, घोष, विराग, काञ्चन, काम, राम, सुवेश, घर्मर तथा दक्ष-ये नौ लिङ्गोंक लिये नौ मण्डपोंके नाम हैं। चारों कोणोंमें चार खंभे हों और दरवाजोंपर दो-दो। यह सब हास्तिक-मण्डपके विषयमें बताया गया है। उससे विस्तृत मण्डपमें जैसे भी उसकी शोभा सम्भव हो, अन्य खंभोंका भी उपयोग किया जा सकता है। ॥ १८-१९ ॥
मध्य-मण्डलमें चार हाथकी वेदी बनावे। उसके चारों कोनोंमें चार खंभे हों। वेदी और पायोंके बीचका स्थान छोड़कर कुण्डोंका निर्माण करे। इनकी संख्या नौ अथवा पाँच होनी चाहिये। ईशान या पूर्व दिशामें एक ही कुण्ड बनावे। वह गुरुका स्थान है। यदि पचास आहुति देनी हो तो मुट्ठी बँधे हाथसे एक हाथका कुण्ड होना चाहिये। सौ आहुतियाँ देनी हों तो कोहनीसे लेकर कनिष्ठिकातकके मापसे एक अरत्नि या एक हाथका कुण्ड बनावे। एक हजार आहुतियोंका होम करना हो तो एक हाथ लंबा, चौड़ा और गहरा कुण्ड हो। दस हजार आहुतियोंके लिये इससे दूने मापका कुण्ड होना चाहिये। लाख आहुतियोंके लिये चार हाथके और एक करोड़ आहुतियोंके लिये आठ हाथके कुण्डका विधान है। अग्निकोणमें भगाकार, दक्षिण दिशामें अर्धचन्द्राकार, नैऋत्यकोणमें त्रिकोण (पश्चिम दिशामें चन्द्रमण्डलके समान गोलाकार), वायव्यकोणमें षट्कोण, उत्तर दिशामें कमलाकार, ईशानकोणमें अष्टकोण (तथा पूर्व दिशामें चतुष्कोण) कुण्डका निर्माण करना चाहिये ॥ २०-२३ ॥
कुण्ड सब ओरसे बराबर और ढालू होना चाहिये। ऊपरकी ओर मेखलाएँ बनी होनी चाहिये। बाहरी भागमें क्रमशः चार, तीन और दो अङ्गुल चौड़ी तीन मेखलाएँ होती हैं। अथवा एक ही छः अङ्गुल चौड़ी मेखला रहे। मेखलाएँ कुण्डके आकारके बराबर ही होती हैं। उनके ऊपर मध्यभागमें योनि हो, जिसकी आकृति पीपलके पत्तेकी भाँति रहे। उसकी ऊँचाई एक अङ्गुल और चौड़ाई आठ अङ्गुलकी होनी चाहिये। लंबाई कुण्डार्धके तुल्य हो। योनिका मध्यभाग कुण्डके कण्ठकी भाँति हो, पूर्व, अग्रिकोण और दक्षिण दिशाके कुण्डोंकी योनि उत्तराभिमुखी होनी चाहिये, शेष दिशाओंके कुण्डोंकी योनि पूर्वाभिमुखी हो तथा ईशानकोणके कुण्डकी योनि उक्त दोनों प्रकारोंमेंसे किसी एक प्रकारकी (उत्तराभिमुखी या पूर्वाभिमुखी) रह सकती है॥ २४- २७ ॥
कुण्डोंका जो चौबीसवाँ भाग है, वह 'अङ्गुल' कहलाता है। इसके अनुसार विभाजन करके मेखला, कण्ठ और नाभिका निश्चय करना चाहिये। मण्डपमें पूर्वादि दिशाओंकी ओर जो चार दरवाजे लगते हैं, वे क्रमशः पाकड़, गूलर, पीपल और बड़की लकड़ीके होने चाहिये। पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे इनके नाम शान्ति, भूति, बल और आरोग्य हैं। दरवाजोंकी ऊँचाई पाँच, छः अथवा सात हाथकी होनी चाहिये। वे हाथभर गहरे खुदे हुए गड्ढेमें खड़े किये गये हों। उनका विस्तार ऊँचाई या लंबाईकी अपेक्षा आधा होना चाहिये। उनमें आम्र-पल्लव आदिकी बन्दनवारें लगा देनी चाहिये। मण्डपकी पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः इन्द्रायुधकी भाँति तिरंगी, लाल, काली, धूमिल, चाँदनीकी भाँति श्वेत, तोतेकी पाँखके समान हरे रंगकी, सुनहरे रंगकी तथा स्फटिक मणिके समान उज्ज्वल पताका फहरानी चाहिये। ईशान और पूर्वके मध्यभागमें ब्रह्माजीके लिये लाल रंगकी तथा नैऋत्य और पश्चिमके मध्यभागमें अनन्त (शेषनाग) के लिये नीले रंगकी पताका फहरानी चाहिये। ध्वजोंकी पताकाएँ पाँच हाथ लंबी और इससे आधी चौड़ी हों। ध्वज दण्डकी ऊँचाई पाँच हाथकी होनी चाहिये। ध्वजकी मोटाई ऐसी हो कि दोनों हाथोंकी पकड़में आ जाय ॥ २८-३२ ॥
पर्वत-शिखर, राजद्वार, नदीतट, घुड़सार, हथिसार, विमौट, हाथीके दाँतोंके अग्रभागसे कोड़ी गयी भूमि, साँड़के सींगसे खोदी गयी भूमि, कमलसमूहके नीचेके स्थान, सूअरकी खोदी हुई भूमि, गोशाला तथा चौराहा- इन बारह स्थानोंसे बारह प्रकारकी मिट्टी लेनी चाहिये। भगवान् विष्णुकी स्थापनामें ये द्वादश मृत्तिकाएँ तथा भगवान् शिवकी स्थापनामें आठ प्रकारकी मृत्तिकाएँ ग्राह्य हैं। बरगद, गूलर, पीपल, आम और जामुनकी छालसे पैदा हुई पाँच प्रकारकी गोंद संग्रहणीय हैं। आठ प्रकारके ऋतुफल मँगा लेने चाहिये। तीर्थजल, सुगन्धित जल, सर्वोषधि मिश्रित जल, शस्य-पुष्पमिश्रित जल, स्वर्णमिश्रित, रत्नमिश्रित तथा गो-शृङ्गके स्पर्शसे युक्त जल, पञ्चगव्य और पञ्चामृत-इन सबको देवस्त्रानके लिये एकत्र करे। विघ्नकर्ताओंको डरानेके लिये आटेके बने हुए वज्र आदि आयुध-द्रव्योंको भी प्रस्तुत रखना चाहिये। सहस्त्र छिद्रोंसे युक्त कलश तथा मङ्गलकृत्यके लिये गोरोचना भी रखे ॥ ३३-३७ ॥
सौ प्रकारकी ओषधियोंकी जड़, विजया, लक्ष्मणा (श्वेत कण्टकारिका), बला (अथवा अभया-हरें), गुरुचि, अतिबला, पाठा, सहदेवा, शतावरी, ऋद्धि, सुवर्चला और वृद्धि - इन सबका पृथक् पृथक् स्नानके लिये उपयोग बताया गया है। रक्षाके लिये तिल और कुशा आदि संग्रहणीय हैं। भस्मस्नानके लिये भस्म जुटा ले। विद्वान् पुरुष स्नानके लिये जौ और गेहूँके आटे, बेलका चूर्ण, विलेपन, कपूर, कलश तथा गडुओंका संग्रह कर ले। खाट, दो तूलिका (रूईभरा गद्दा तथा रजाई), तकिया, चादर आदि अन्य आवश्यक वस्त्र- इन सबको अपने वैभवके अनुसार तैयार करावे और विविध चिह्नोंसे सुसज्जित शयन- कक्षमें इनको रखे। घी और मधुसे युक्त पात्र, सोनेकी सलाई, पूजोपयोगी जलसे भरा पात्र, शिवकलश और लोकपालोंके लिये कलशका भी संग्रह करे ॥ ३८-४२ ॥
एक कलश निद्राके लिये भी होना चाहिये। कुण्डोंकी संख्याके अनुसार उतने ही शान्ति- कलश रखे जाने चाहिये। द्वारपाल आदि, धर्म आदि तथा प्रशान्त आदिके लिये भी कलश जुटा ले। वास्तुदेव, लक्ष्मी और गणेशके लिये भी अन्यान्य पृथक् पृथक् कलश आवश्यक हैं। इन कलशोंके नीचे आधारभूमिपर धान्य-पुञ्ज रखना चाहिये। सभी कलश वस्त्र और पुष्पमालासे विभूषित किये जाने चाहिये। इनके भीतर सुवर्ण डालकर इनका स्पर्श किया जाय और इन्हें सुगन्धित जलसे भरा जाय। सभी कलशोंके ऊपर पूर्णपात्र और फल रखे जायें। उनके मुखभागमें पञ्चपल्लव रहें तथा वे कलश उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न हों। कलशोंको वस्त्रोंसे आच्छादित करे। सब ओर बिखेरनेके लिये पीली सरसों और | लावाका संग्रह कर ले। पूर्ववत् ज्ञान-खड्गका भी सम्पादन करे। चरु रखनेके लिये बटलोई और उसका ढक्कन मँगा ले। ताँबेकी बनी हुई करछुल तथा पादाभ्यङ्गके लिये घृत और मधुका पात्र भी संगृहीत कर ले ॥ ४३-४७ ॥
कुशके तीस दलोंसे बने हुए दो-दो हाथ लंबे-चौड़े चार-चार आसन एकत्र कर ले। इसी तरह पलाशोंके बने हुए चार-चार परिधि भी जुटा ले। तिलपात्र, हविष्यपात्र, अर्घ्यपात्र और पवित्रक एकत्र करे। इनका मान बीस-बीस पल है। घण्टा और धूपदानी भी मँगा ले। लुक्, सुवा, पिटक (पिटारी एवं टोकरी), पीठ (पीढ़ा या चौकी), व्यजन, सूखी लकड़ी, फूल, पत्र, गुग्गुल, बीके दीपक, धूप, अक्षत, तिगुना सूत, गायका घी, जौ, तिल, कुशा, शान्तिकर्मके लिये त्रिविध मधुर पदार्थ (मधु, शक्कर और घी), दस पर्वकी समिधाएँ, बाँह बराबर या एक हाथका सुवा, सूर्य आदि ग्रहोंकी शान्तिके लिये समिधाएँ - आक, पलाश, खैर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूर्वा और कुशा भी संग्रहणीय हैं। आक आदिमें प्रत्येककी समिधाएँ एक सौ आठ-आठ होनी चाहिये। ये न मिल सकें तो इनकी जगह जौ और तिलोंकी आहुति देनी चाहिये। इनके सिवा घरेलू आवश्यकताकी वस्तुओंका भी संग्रह करे ॥ ४८-५३ ॥
बटलोई, करछुल, ढक्कन आदि जुटा ले। देवता आदिके लिये प्रत्येकको दो-दो वस्त्र देने चाहिये। आचार्यकी पूजाके लिये मुद्रा, मुकुट, वस्त्र, हार, कुण्डल और कङ्गन आदि तैयार करा ले। धन खर्च करनेमें कंजूसी न करे ॥ ५४ ॥ मूर्ति धारण करनेवाले तथा अस्त्र-मन्त्रका जप करनेवाले ब्राह्मणोंको आचार्यकी अपेक्षा एक- एक चौथाई कम दक्षिणा दे। सामान्य ब्राह्मणों, ज्योतिषियों तथा शिल्पियोंको जपकर्ताओंके बराबर ही पूजा देनी चाहिये। हीरा, सूर्यकान्तमणि, नीलमणि, अतिनीलमणि, मुक्ताफल, पुष्पराग, पद्मराग तथा आठवाँ रत्न वैदूर्यमणि- इनका भी संग्रह करे। उशीर (खस), विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), रक्तचन्दन, अगुरु, श्रीखण्ड, शारिवा (अनन्ता या श्यामालता), कुष्ठ (कुट) और शङ्खिनी (श्वेत पुत्राग) - इन ओषधियोंका समुदाय संग्रहणीय है।॥ ५५-५७ ॥
सोना, ताँबा, लोहा, राँगा, चाँदी, काँसी और सीसा-इन सबकी 'लोह' संज्ञा है। इनका भी संग्रह करे। हरिताल, मैनसिल, गेरू, हेममाक्षीक, पारा, वह्निगैरिक, गन्धक और अभ्रक-ये आठ धातुएँ संग्रहणीय हैं। इसी प्रकार आठ प्रकारके व्रीहियों (अनाजों) का भी संग्रह करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं-धान, गेहूँ, तिल, उड़द, मूँग, जौ, तिनी और सावाँ ॥ ५८-६0 ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'प्रतिष्ठा, काल और सामग्री आदिको विधिका वर्णन' नामक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९५ ॥
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