अग्नि पुराण - तिरानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 93 Chapter !

अग्नि पुराण - तिरानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 93 Chapter !

अग्नि पुराण ९३अध्याय - वास्तु पूजा की विधि का वर्णन -! वास्तुपूजादिविधानम् !

अग्नि पुराण - तिरानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 93 Chapter !

अग्नि पुराण - तिरानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 93 Chapter !

ईश्वर उवाच
ततः प्रासादमासूत्र्य वर्तयेद्वास्तुमण्डपं ।
कुर्यात् कोष्ठचतुःषष्टिं क्षेत्रे वेदास्रके समे ॥ १॥

कोणेषु विन्यसेद् वंशौ  रज्जवो ऽष्टौ विकोणगाः ।
द्विपदाः षट्पदास्तास्तु वास्तुन्तत्रार्चयेद् यथा ॥ २॥

आकुञ्चितकचं वास्तुमुत्तानमसुराकृतिं ।
स्मरेत् पूजासु कुड्यादिनिवेशे उत्तराननं ॥३॥

जानुनी कूर्परौ शक्थि दिशि वातहुताशयोः ।
पैत्र्यां पादपुटे रौद्र्यां शिरो ऽस्य हृदये ऽञ्जलिः ॥ ४॥

अस्य देहे समारूढा देवताः पूजिताः शुभाः ।
अष्टौ कोणाधिपास्तत्र कोणार्धेष्वष्टसु स्थिताः ॥ ५॥

षट्पदास्तु मरीच्याद्या दिक्षु पूर्वादिषु क्रमात् ।
मध्ये चतुष्पदो ब्रह्मा शेषास्तु पदिकाः स्मृताः ॥ ६॥

समस्तनाडीसंयोगे महामर्मानुजं फलं ।
त्रिशूलं स्वस्तिकं वज्रं महास्वस्तिकसम्पुटौ ॥ ७॥

त्रिकुटुं मणिबन्धं च सुविशुद्धं पदं तथा ।
इति द्वादश मर्माणि वास्तोर्भित्त्यादिषु त्यजेत् ॥ ८॥

साज्यमक्षतमीशाय पर्जन्यायाम्बुजोदकं ।
ददीताथ जयन्ताय पताकां कुङ्कुमोज्ज्वलां ॥ ९॥

रत्नवारि महेन्द्राय रवौ धूम्रं वितानकं ।
सत्याय घृतगोधूममाज्यभक्तं भृशाय च ॥ १०॥

विमांसमन्तरीक्षाय शुक्तुन्तेभ्यस्तु पूर्वतः ।
मधुक्षीराज्यसम्पूर्णां प्रदद्याद्वह्नये श्रुचं ॥ ११॥

लाजान् पूर्णं सुवर्णाम्बु वितथाय निवेदयेत् ।
दद्याद् गृहक्षते क्षौद्रं यमराजे पलौदनं ॥ १२॥

गन्धं गन्धर्वनाथाय जिह्वां भृङ्गाय पक्षिणः ।
मृगाय पद्मपर्णानि याम्यामित्यष्टदेवताः ॥ १३॥

पित्रे तिलोदकं क्षीरं वृक्षजं दन्तधावनं ।
दौवारिकाय देवाय प्रदद्याद् धेनुमुद्रया ॥ १४॥

सुग्रीवाय दिशेत् पूपान् पुष्पदन्ताय दर्भकं ।
रक्तं प्रचेतसे पद्ममसुराय सुरासवं ॥ १५॥

घृतं गुडौदनं शेषे रोगाय घृतमण्डकान् ।
लाजान् वा पश्चिमाशायां देवाष्टकमितीरितं ॥ १६॥

मारुताय ध्वजं पीतं नागाय नागकेशरं ।
मुख्ये भक्ष्याणि भल्लाटे मुद्गसूपं सुसंस्कृतं ॥ १७॥

सोमाय पायसं साज्यं शालूकमूषये दिशेत् ।
लोपीमदितये दित्यै पुरीमित्युत्तराष्टकं ॥ १८॥

मोदकान् ब्रह्मणः प्राच्यां षट्पादाय मरीचये ।
सवित्रे रक्तपुष्पाणि वह्न्यधःकोणकोष्ठके ॥ १९॥

तदधःकोष्ठके दद्यात् सावित्र्यै च कुशोदकं ।
दक्षिणे चन्दनं रक्तं षट्पदाय विवस्वते ॥ २०॥

हरिद्रौदनमिन्द्राय रक्षोधःक्रीणकोष्ठके ।
इन्द्रजयाय मिश्रान्नमिन्द्राधस्तान्निवेदयेत् ॥ २१॥

वरुण्यां षट्पदासीने मित्रे सङुडमोदनं ।
रुद्राय घृतसिद्धान्नं वायुकोणाधरे पदे ॥ २२॥

तदधो रुद्रदासाय मासं मार्गमथोत्तरे ।
ददीत माषनैवेद्यं  षट्पदस्थे धराधरे ॥ २३॥

आपाय शिवकोणाधः तद्वत्साय च तत्स्थले ।
क्रमाद्दद्याद्दधिक्षीरं पूजयित्वा विधानतः ॥ २४॥

चतुष्पदे निविष्टाय ब्रह्मणे मध्मदेशतः ।
पञ्चगव्याक्षतोपेतञ्चरुं साज्यं निवेदयेत् ॥ २५॥

ईशादिवायुपर्यन्तकोणेष्वथ यथाक्रमं ।
वास्तुवाह्ये चरक्याद्याश् चतस्रः पूजयेद् यथा ॥ २६॥

चरक्यै सघृतं मांसं विदार्यै दधिपङ्कजे ।
पूतनायै पलं पित्तं रुधिरं च निवेदयेत् ॥ २७॥

अस्थीनि पापराक्षस्यै रक्तपित्तपलानि च ।
ततो माषौदनं प्राच्यां स्कन्दाय विनिवेदयेत् ॥ २८॥

अर्यम्णे दक्षिणाशायां पूपान् कृसरया युतान् ।
जम्भकाय च वारुण्यामामिषं रुधिरान्वितं ॥ २९॥

उदीच्यां पिलिपिञ्जाय रक्तान्नं कुसुमानि च ।
यजेद्वा सकलं वास्तुं कुशदध्यक्षतेर्जलैः ॥ ३०॥

गृहे च नगरादौ च एकाशीतिपदैर् यजेत् ।
त्रिपदा रज्जवः कार्याः षट्पदाश् च विकोणके ॥ ३१॥

ईशाद्याः पादिकास्तस्मिन्नागद्याश् च द्विकोष्ठगाः ।
षट्पदस्था मरीच्याद्या ब्रह्मा नवपदः स्मृतः ॥ ३२॥

नगरग्रामखेटादौ वास्तुः शतपदो ऽपि वा ।
वंशद्वयं कोणगतं दुर्जयं दुर्धरं सदा ॥ ३३॥

यथा देवालये न्यसस् तथा शतपदे हितः ।
ग्रहाः स्कन्दादयस्तत्र विज्ञेयाश् चैव षट्पदाः ॥ ३४॥

चरक्याद्या भूतपदा रज्जुवंशादि पूर्ववत् ।
देशसंस्थापने वास्तु चतुस्त्रिंशच्छतं भवेत् ॥ ३५॥

चतुःषष्टिपदो ब्रह्मा मरीच्याद्याश् च देवताः ।
चतुःपञ्चाशत्पदिका आपाद्यष्टौ रसाग्निभिः ॥ ३६॥

ईशानाद्या नवपदाः स्कन्दाद्याः शक्तिकाः  स्मृताः ।
चरक्याद्यास्तद्वदेव रज्जुवंशादि पूर्ववत् ॥ ३७॥

ज्ञेयो वंशसहस्रैस्तु वास्तुमण्डलगः पदैः ।
न्यासो नवगुणस्तत्र कर्तव्यो देशवास्तुवित् ॥ ३८॥

पञ्चचिंशत्पदो वास्तुर्वैतालाख्यश्चितौ स्मृतः ।
अन्यो नवपदो वास्तुः षोडशाङ्घ्रिस् तथापरः ॥ ३९॥

षडस्रत्र्यस्रवृत्तादेर्मध्ये स्याच्चतुरस्रकं ।
खाते वास्तोः समं पृष्ठे न्यासे ब्रह्मशिलात्मके ॥ ४०॥

शाषाकस्य निवेशे च मूर्तिसंस्थापने तथा ।
पायसेन तु नैवेद्यं सर्वेषां वा प्रदापयेत् ॥ ४१॥

उक्तानुक्ते तु वै वास्तुः पञ्चहस्तप्रमाणतः ।
गृहप्रासादमानेन वास्तुः श्रेष्ठस्तु सर्वदा ॥ ४२॥

इत्य् आदिमहपुराणे आग्नेये वास्तुपूजाकथनं नाम त्रिनवतितमो ऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तिरानबेवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 93 Chapter!-In Hindi

भगवान् शिव कहते हैं - स्कन्द ! तदनन्तर । प्रासादको आसूत्रित करके वास्तुमण्डलकी रचना करे। समतल चौकोर क्षेत्रमें चौंसठ कोष्ठ बनावे। कोनोंमें दो वंशोंका विन्यास करे। विकोणगामिनी आठ रज्जुएँ अङ्कित करे। वे द्विपद और षट्पद स्थानोंके रूपमें विभक्त होंगी। उनमें वास्तुदेवताका पूजन करे, जिसकी विधि इस प्रकार है- 'कुञ्चित केशधारी वास्तुपुरुष उत्तान सो रहा है। उसकी आकृति असुरके समान है।' पूजाकालमें उसके इसी स्वरूपका स्मरण करना चाहिये, परंतु दीवार आदिकी नींव रखते समय उसका ध्यान यों करना चाहिये कि 'वह औंधेमुँह पड़ा हुआ है। कोहनीसे सटे हुए उसके दो घुटने वायव्य और अग्निकोणमें स्थित हैं। अर्थात् दाहिना घुटना वायव्यकोणमें और बायाँ घुटना अग्रिकोणमें स्थित है। उसके जुड़े हुए दोनों चरण पैतृ (नैऋत्य!) दिशामें स्थित हैं तथा उसका सिर ईशानकोणकी ओर है। उसके हाथोंकी अञ्जलि वक्षःस्थलपर है
उस वास्तुपुरुषके शरीरपर आरूढ़ हुए देवताओंकी पूजा करनेसे वे शुभकारक होते हैं। आठ देवता कोणाधिपति माने गये हैं, जो आठ कोणाधौंमें स्थित हैं। क्रमशः पूर्व आदि दिशाओंमें स्थित मरीचि आदि देवता छः-छः पदोंके स्वामी कहे गये हैं और उनके बीचमें विराजमान ब्रह्मा चार पदोंके स्वामी हैं। शेष देवता एक-एक पदके अधिष्ठाता बताये गये हैं। समस्त नाडी-सम्पात, महामर्म, कमल, फल, त्रिशूल, स्वस्तिक, वज्र, महास्वस्तिक, सम्पुट, त्रिकटि, मणिबन्ध तथा सुविशुद्ध पद- ये बारह मर्म स्थान हैं। वास्तुकी भित्ति आदिमें इन सबका पूजन करे। ईशान रुद्र) को घृत और अक्षत चढ़ावे। पर्जन्यको कमल और जल अर्पित करे। जयन्तको कुङ्कुमरञ्जित निर्मल पताका दे। महेन्द्रको रत्नमिश्रित जल, सूर्यको धूम्र वर्णका चंदोवा, सत्यको घृतयुक्त गेहूँ तथा भृशको उड़द भात चढ़ावे। अन्तरिक्षको विमांस (विशिष्ट फलका गूदा या औषधविशेष) अथवा सक्कु (सत्तू) निवेदित करे। ये पूर्व दिशाके आठ देवता हैं ॥५-१० ॥ 
अग्निदेवको मधु, दूध और घीसे भरा हुआ खुक् अर्पित करे। पूषाको लाजा और वितथको सुवर्ण-मिश्रित जल दे। गृहक्षतको शहद तथा यमराजको पलोदन भेंट करे। गन्धर्वनाथको गन्ध, भृङ्गराजको पक्षिजिह्वा तथा मृगको यवपर्ण (जौके पत्ते) चढ़ावे - ये आठ देवता दक्षिण दिशामें पूजित होते हैं। 'पितृ' देवताको तिल-मिश्रित जल अर्पित करे। 'दौवारिक' नामवाले देवताको वृक्ष-जनित दूध और दन्तधावन धेनुमुद्राके प्रदर्शनपूर्वक निवेदित करे। 'सुग्रीव' को पूआ चढ़ावे, पुष्पदन्तको कुशा अर्पित करे, वरुणको लाल कमल भेंट करे और असुरको सुरा एवं आसव चढ़ावे। शोषको घीसे ओतप्रोत भात तथा (पाप यक्ष्मा) रोगको घृतमिश्रित माँड़ या लावा चढ़ावे। ये पश्चिम दिशाके आठ देवता कहे गये हैं ॥ ११-१६ ॥
मारुतको पीले रंगका ध्वज, नागदेवताको नागकेसर, मुख्यको भक्ष्यपदार्थ तथा भल्लाटको छाँक-बघारकर मूँगकी दाल अर्पित करे। सोमको घृतमिश्रित खीर, चरकको शालूक, अदितिको लोपी तथा दितिको पूरी चढ़ावे। ये उत्तर दिशाके आठ देवता कहे गये। मध्यवर्ती ब्रह्माजीको मोदक चढ़ावे। पूर्व दिशामें छः पदोंके उपभोक्ता मरीचिको भी मोदक अर्पित करे। ब्रह्माजीसे नीचे अग्रिकोणवर्ती कोष्ठमें स्थित सविता देवताको लाल फूल चढ़ावे। सवितासे नीचे वह्निकोणवर्ती कोष्ठमें सावित्री देवीको कुशोदक अर्पित करे। ब्रह्माजीसे दक्षिण छः पदोंके अधिष्ठाता विवस्वान्को लाल चन्दन चढ़ावे ॥ १७ - २० ॥
ब्रह्माजीसे नैऋत्य दिशामें नीचेके कोष्ठमें इन्द्र- देवताके लिये हल्दी-भात अर्पित करे। इन्द्रसे नीचे नैऋत्यकोणमें इन्द्रजयके लिये मिष्टान्न निवेदित करे। ब्रह्माजीसे पश्चिम छः पदोंमें विराजमान मित्र देवताको गुडमिश्रित भात चढ़ावे। वायव्यकोणसे नीचेके पदमें रुद्रदेवताको घृतपक्व अन्न अर्पित करे। रुद्र देवतासे नीचेके कोष्ठमें, रुद्र दासके लिये आर्द्रमांस (औषधविशेष) निवेदित करे। तत्पश्चात् उत्तरवर्ती छः पदोंके अधिष्ठाता पृथ्वीधरके निमित्त उड़दका बना नैवेद्य चढ़ावे । ईशानकोणके निम्नवर्ती पदमें 'आप' की और उससे भी नीचेके पदमें आपवत्सकी विधिवत् पूजा करके उन्हें क्रमशः दही और खीर अर्पित करे ॥ २१-२४॥
तत्पश्चात् (चौंसठ पदवाले वास्तुमण्डलमें) मध्यदेशवर्ती चार पदोंमें स्थित ब्रह्माजीको पञ्चगव्य, अक्षत और घृतसहित चरु निवेदित करे। तदनन्तर ईशानसे लेकर वायव्यकोण-पर्यन्त चार कोणोंमें स्थित चरकी आदि चार मातृकाओंका वास्तुके बाह्यभागमें क्रमशः पूजन करे, जैसा कि क्रम बताया जाता है। चरकीको सघृत मांस (फलका गूदा), विदारीको दही और कमल तथा पूतनाको पल, पित्त एवं रुधिर अर्पित करे। पापराक्षसीको अस्थि (हड्डी), मांस, पित्त तथा रक्त चढ़ावे। इसके पश्चात् पूर्व दिशामें स्कन्दको उड़द भात चढ़ावे। दक्षिण दिशामें अर्यमाको खिचड़ी और पूआ चढ़ावे तथा पश्चिम दिशामें जम्भक को रक्त-मांस अर्पित करे। उत्तर दिशामें पिलिपिच्छको रक्तवर्णका अन्न और पुष्प निवेदित करे। अथवा सम्पूर्ण वास्तुमण्डलका कुश, दही, अक्षत तथा जलसे ही पूजन करे ॥ २५-३० ॥ घर और नगर आदिमें इक्यासी पदोंसे युक्त वास्तुमण्डलका पूजन करना चाहिये। इस वास्तुमण्डलमें त्रिपद और षट्पद रज्जुएँ पूर्ववत् बनानी चाहिये। उसमें ईश आदि देवता 'पदिक' (एक-एक पदके अधिष्ठाता) माने गये हैं। 'आप' आदिकी स्थिति दो-दो कोष्ठोंमें बतायी गयी है। मरीचि आदि देवता छः पदोंमें अधिष्ठित होते हैं और ब्रह्मा नौ पदोंके अधिष्ठाता कहे गये हैं। नगर, ग्राम और खेट आदिमें शतपद-वास्तुका भी विधान है। उसमें दो वंश कोणगत होते हैं। वे सदा दुर्जय और दुर्धर कहे गये हैं ।॥ ३१-३३ ॥
देवालयमें जैसा न्यास बताया गया है, वैसा ही शतपद-वास्तुमण्डलमें भी विहित है। उसमें स्कन्द आदि ग्रह 'षट्पद' (छः पदोंके अधिष्ठाता) जानने चाहिये। चरकी आदि पाँच-पाँच पदोंकी अधिष्ठात्री कही गयी हैं। रज्जु और वंश आदिका उल्लेख पूर्ववत् करना चाहिये। देश (या राष्ट्र) की स्थापनाके अवसरपर चौंतीस सौ पदोंका वास्तुमण्डल होना चाहिये। उसमें मध्यवर्ती ब्रह्मा चौंसठ पदोंके अधिष्ठाता होते हैं। मरीचि आदि देवताओंके अधिकारमें चौवन-चौवन पद होते हैं। 'आप' आदि आठ देवताओंके स्थान छत्तीस- छत्तीस पद बताये गये हैं। वहाँ ईशान आदि नौ- नौ पदोंके अधिष्ठाता कहे गये हैं और स्कन्द आदि सौ-सौ पदोंके। चरकी आदिके पद भी तदनुसार ही हैं। रज्जु, वंश आदिकी कल्पना पूर्ववत् जाननी चाहिये। बीस हजार पदोंके वास्तुमण्डलमें भी वास्तुदेवकी पूजा होती है- यह जानना चाहिये। उसमें देश-वास्तुकी भाँति नौ गुना न्यास करना चाहिये। पच्चीस पदोंका वास्तुमण्डल चितास्थापनके समय विहित है। उसकी 'वताल' संज्ञा है। दूसरा नौ पदोंका भी होता है। इसके सिवा एक सोलह पदोंका भी वास्तुमण्डल होता है ॥ ३४-३९ ॥
षट्कोण, त्रिकोण तथा वृत्त आदिके मध्यमें चौकोर वास्तुमण्डलका भी विधान है। ऐसा वास्तु खात (नींव आदिके लिये खोदे गये गड्ढे) के लिये उपयुक्त है। इसीके समान वास्तु ब्रह्म- शिलात्मक पृष्ठन्यासमें, शावाकके निवेशमें और मूर्तिस्थापनमें भी उपयोगी होता है। वास्तुमण्डलवर्ती समस्त देवताओंको खीरसे नैवेद्य अर्पित करे। उक्त- अनुक्त सभी कार्योंके लिये सामान्यतः पाँच हाथकी लंबाई-चौड़ाईमें वास्तुमण्डल बनाना चाहिये। गृह और प्रासादके मानके अनुसार ही निर्मित वास्तुमण्डल सर्वदा श्रेष्ठ कहा गया है।॥ ४०-४२ ॥ 
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'वास्तु पूजा की विधि का वर्णन' नामक तिरानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९३

टिप्पणियाँ