अग्नि पुराण - नब्बेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 90 Chapter !
अग्नि पुराण ९० अध्याय अभिषेक आदिकी विधिका वर्णन !निर्वाणदीक्षाङ्गीभूताभिषेककथनं !अग्नि पुराण - नब्बेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 90 Chapter ! |
अग्नि पुराण - नब्बेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 90 Chapter !
ईश्वर उवाच
शिवमभ्यर्च्याभिषेकं कुर्याच्छिष्यादिके श्रिये ।
कुम्भानीशादिकाष्ठासु क्रमशो नव विन्यसेत् ॥००१॥
तेषु क्षारोदं क्षीरोदं दध्युदं घृतसागरं ।
इक्षुकादम्बरीस्वादुमस्तूदानष्टसागरान् ॥००२॥
निवेशयेद् यथासङ्ख्यमष्टौ विद्येश्वरानथ ।
एकं शिखण्डिनं रुद्रं श्रीकण्ठन्तु द्वितीयकं ॥००३॥
त्रिमूर्तमेकरुद्राक्षमेकनेत्रं शिवोत्तमं ।
सप्तमं सूक्ष्मनामानमनन्तं रुद्रमष्टमं ॥००४॥
मध्ये शिवं समुद्रञ्च शिवमन्त्रं च विन्यसेत् ।
यागालयान् दिगीशस्य रचिते स्नानमण्डपे ॥००५॥
कुर्यात् करद्वयायामां वेदीमष्टाङ्गुलोच्छ्रितां ।
श्रीपर्णाद्यासने तत्र विन्यस्यानन्तमानसं ॥००६॥
शिष्यं निवेश्य पूर्वास्यं सकलीकृत्य पूजयेत् ।
काञ्जिकौदनमृद्भस्मदूर्वागोमयगोलकैः ॥००७॥
सिद्धार्थदधितोयैश् च कुर्यान्निर्मञ्छनं ततः ।
क्षारोदानुक्रमेणाथ हृदा विद्येशशम्बरैः ॥००८॥
कलसैः स्नापयेच्छिष्यं स्वधाधारणयान्वितं ।
परिधाप्य सिते वस्त्रे निवेश्य शिवदक्षिणे ॥००९॥
पूर्वोदितासने शिष्यं पुनः पूर्ववदर्चयेत् ।
उष्णीषं योगपट्टञ्च मुकुटं कर्तरीं घटीं ॥०१०॥
अक्षमालां पुस्तकादि शिवकाद्यधिकारकं ।
दीक्षाव्याख्याप्रतिष्ठाद्यं ज्ञात्वाद्यप्रभृति त्वया ॥०११॥
सुपरीक्ष्य विधातव्यमाज्ञां संश्रावयेदिति ।
अभिवाद्य ततः शिष्यं प्रणिपत्य महेश्वरं ॥०१२॥
विघ्नज्वालापनोदार्थं कुर्याद्विज्ञापनां यथा ।
अभिषेकार्थमादिष्टस्त्वयाहं गुरुमूर्तिना ॥०१३॥
संहितापारगः सो ऽयमभिषिक्तो मया शिव ।
तृप्तये मन्त्रचक्रस्य पञ्चपञ्चाहुतीर्यजेत् ॥०१४॥
दद्यात् पूर्णां ततः शिष्यं स्थापयेन्निजदक्षिणे ।
शिष्यदक्षिणपाणिस्था अङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीः क्रमात् ॥०१५॥
लाञ्छयेदुपबद्धाय दग्धदर्भाग्रशम्बरैः ।
कुसुमानि करे दत्वा प्रणामं कारयेदमुं ॥०१६॥
कुम्भे ऽनले शिवे स्वस्मिसंस्ततस्कृत्यमाविशेत् ।
अनुग्राह्यास्त्वया शिष्याः शास्त्रेण सुपरीक्षिताः ॥०१७॥
भूपवन्मानवादीनामभिषेकादभीप्सितं ।
आं श्रां श्रौं पशुं हूं फडिति अस्त्रराजाभिषेकतः ॥०१८॥
इत्य् आदिमहापुराणे आग्नेये अभिषेकादिकथनं नाम नवतितमो ऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - नब्बेवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 90 Chapter !-In Hindi
भगवान् शंकर कहते हैं- स्कन्द ! शिवका पूजन करके गुरु शिष्य आदिका अभिषेक करे। इससे शिष्यको श्रीकी प्राप्ति होती है। ईशान आदि आठ दिशाओंमें आठ और मध्यमें एक इस प्रकार नौ कलश स्थापित करे। उन आठ कलशोंमें क्रमशः क्षारोद, क्षीरोद, दध्युदक, घृतोद, इक्षुरसोद, सुरोद, स्वादूदक तथा गर्भोद- इन आठ समुद्रोंका आवाहन करे। इसी तरह क्रमानुसार उनमें आठ विद्येश्वरोंका भी स्थापन करे, जिनके नाम इस प्रकार हैं-१. शिखण्डी,२. श्रीकण्ठ, ३. त्रिमूर्ति, ४. एकरुद्र, ५. एकनेत्र, ६. शिवोत्तम, ७. सूक्ष्म और ८. अनन्तरुद्र ॥ १-४॥
मध्यवर्ती कलशमें शिव, समुद्र तथा शिव- मन्त्रकी स्थापना करे। यागमण्डपकी दिशाके स्वामीके लिये रचित स्नान-मण्डपमें दो हाथ लंबी और आठ अङ्गुल ऊँची एक वेदी बनावे। उसपर कमल आदिका आसन बिछा दे। और उसके ऊपर आसनस्वरूप अनन्तका न्यास करके शिष्यको पूर्वाभिमुख बिठाकर सकलीकरणपूर्वक पूजन करे। काञ्जी, भात, मिट्टी, भस्म, दूर्वा, गोबरके गोले, सरसों, दही और जल-इन सबके द्वारा उसके शरीरको मलकर क्षारोदक आदिके क्रमसे नमस्कारसहित विद्येश्वरोंके नाम मन्त्रोंद्वारा पूर्वोक्त कलशोंके जलसे शिष्यको स्नान करावे और शिष्य मन-ही-मन यह धारणा करे कि मुझे अमृतसे नहलाया जा रहा है ॥५-८ ॥ '
तत्पश्चात् उसे दो श्वेत वस्त्र पहनाकर शिवके दक्षिण भागमें बिठावे और पूर्वोक्त आसनपर पुनः उस शिष्य की पहलेकी ही भाँति पूजा करे। इसके बाद उसे पगड़ी, मुकुट, योग-पट्टिका, कर्तरी (कैंची, चाकू या कटार), खड़िया, अक्षमाला और पुस्तक आदि अर्पित करे। वाहनके लिये शिबिका आदि भी दे। तदनन्तर गुरु उस शिष्यको अधिकार सौंपे। 'आज से तुम भलीभाँति जानकर अच्छी तरह जाँच-परखकर किसीको दीक्षा, व्याख्या और प्रतिष्ठा आदिका उपदेश करना'- यह आज्ञा सुनावे। तदनन्तर शिष्यका अभिवादन स्वीकार कर और महेश्वरको प्रणाम करके उनसे विघ्न-समूहका निवारण करनेके लिये इस प्रकार प्रार्थना करे-'प्रभो शिव। आप गुरुस्वरूप हैं; आपने इस शिष्यका अभिषेक करनेके लिये मुझे आदेश दिया था, उसके अनुसार मैंने इसका अभिषेक कर दिया। यह संहितामें पारंगत है'॥९-१३ ॥
मन्त्रचक्रकी तृप्तिके लिये पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। फिर पूर्णाहुति होम करे। इसके बाद शिष्यको अपने दाहिने बिठावे। शिष्यके दाहिने हाथकी अङ्गुष्ठ आदि अँगुलियोंको क्रमशः दग्ध दर्भाङ्ग- शम्बरोंसे 'ऊषरत्व' के लिये लाञ्छित करे। उसके हाथमें फूल देकर उससे कलश, अग्नि एवं शिवको प्रणाम करवावे। तदनन्तर उसके लिये कर्तव्यका आदेश दे- 'तुम्हें शास्त्रके अनुसार भलीभाँति परीक्षा करके शिष्योंको अनुगृहीत करना चाहिये।' मानव आदिका राजाकी भाँति अभिषेक करनेसे अभीष्टकी प्राप्ति होती है। 'ॐ श्लीं पशु हूं फट्।'- यह अस्त्रराज पाशुपत-मन्त्र है। इसके द्वारा अस्त्रराजका पूजन और अभिषेक करना चाहिये ॥ १४-१८॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अभिषेक आदिकी विधिका वर्णन' नामक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९० ॥
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