अग्नि पुराण - पचासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 85 Chapter !

अग्नि पुराण - पचासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 85 Chapter !

अग्नि पुराण पचासीवाँ अध्याय - निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत प्रतिष्ठाकलाके शोधनकी विधिका वर्णन !

अग्नि पुराण - पचासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 85 Chapter !

अग्नि पुराण - पचासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 85 Chapter !

ईश्वर उवाच
तत्त्वयोरथ सन्धानं कुर्याच्छुद्धविशुद्धयोः ।
ह्रस्वदीर्घप्रयोगेण नादनादान्तसङ्गिना ॥००१॥

ॐ हां ह्रूं हां
अप्तेजो वायुराकाशं तन्मात्रेन्द्रियबुद्धयः ।
गुणत्रयमहङ्कारश् चतुर्विंशः पुमानिति ॥००२॥

प्रतिष्ठायां निविष्ठानि तत्त्वान्येतानि भावयेत् ।
पञ्चविंशतिसङ्ख्यानि खादियान्ताक्षराणि च ॥००३॥

पञ्चाशदधिका षष्टिर्भुवनैस्तुल्यसञ्ज्ञिताः ।
तावन्त एव रुद्राश् च विज्ञेयास्तत्र तद्यथा ॥००४॥

अमरेशः प्रभावश् च नेमिषः पुष्करो ऽपि च ।
तथा पादिश् च दण्डिश् च भावभूतिरथाष्टमः ॥००५॥

नकुलीशो हरिश् चन्द्रः श्रीशैलो दशमः स्मृतः ।
अन्वीशो ऽस्रातिकेशश् च महाकालो ऽथ मध्यमः ॥००६॥

केदारो भैरवश् चैव द्वितीयाष्टकमीरितं ।
ततो गयाकुरुक्षेत्रखलानादिकनादिके ॥००७॥

विमलश्चाट्टहासश् च महेन्द्रो भाम एव च ।
वस्वापदं रुद्रकोटिरवियुक्तो महावन्तः ॥००८॥

गोकर्णो भद्रकर्णश् च स्वर्णाक्षः स्थाणुरेव च ।
अजेशश् चैव सर्वज्ञो भास्वरः सूदनान्तरः ॥००९॥

सुबाहुर्मत्तरूपी च विशालो जटिलस् तथा ।
रौद्रो ऽथ पिङ्गलाक्षश् च कालदंष्ट्री भवेत्ततः ॥०१०॥

विदुरश् चैव घोरश् च प्राजापत्यो हुताशनः ।
कामरूपी तथा कालः कर्णो ऽप्यथ भयानकः ॥०११॥

मतङ्गः पिङ्गलश् चैव हरो वै धातृसज्ञकः ।
शङ्कुकर्णो विधानश् च श्रीकण्ठश् चन्द्रशेखरः ॥०१२॥

सहैतेन च पर्यन्ताः कथ्यन्ते ऽथ पदान्यपि ।
व्यापिन् ॐ अरूप ॐ प्रमथ ॐ तेजः ॐ ज्योतिः ॐ पुरुष
ॐ अग्ने ॐ अधूम ॐ अभस्म ॐ अनादि ॐ नाना ॐ धूधू
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः अनिधन निधनोद्भव शिव शर्व
परमात्मन् महेश्वर महादेव सद्भावेश्वर महातेजः
योगाधिपतये मुञ्च प्रथम सर्व सर्वेसर्वेति द्वात्रिंशत् पदानि

वीजभावे त्रयो मन्त्रा वामदेवः शिवः शिखा ॥०१३॥
गान्धारी च सुषुम्णा च नाड्यौ द्वौ मारुतौ तथा ।

समानोदाननामानौ रसनापायुरिन्द्रिये ॥०१४॥
रसस्तु विषयो रूपशब्दस्पर्शरसा गुणाः ।

मण्डलं वर्तुलं तच्च पुण्डरीकाङ्कितं सितं ॥०१५॥
स्वप्नावस्थाप्रतिष्ठायां कारणं गरुडध्वजं ।

प्रतिष्ठान्तकृतं सर्वं सञ्चिन्त्य भुवनादिकं ॥०१६॥
सूत्रं देहे स्वमन्त्रेण प्रविश्यैनां वियोजयेत् ।

ॐ हां खीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय ॐ फट्
स्वाहान्तेनानैनैव पूरकेणाङ्कुशमुद्रया समाकर्षेत् ततः
ॐ हां ह्रूं ह्रां ह्रूं प्रतिष्ठा कलापाशाय
ह्रूं फडित्यनेन संहारमुद्रया कुम्भकेन हृदयादधो
सूत्रादादाय ॐ हां ह्रूं ह्रां हां
प्रतिष्ठाकलापाशाय नम इत्य् अनेनोद्भवमुद्रया रेचकेन कुम्भे
समारोपयेत् ॐ हां ह्रीं प्रतिष्ठाकलापाशाय नम इत्य्
अनेनार्चयित्वा सम्पूज्य स्वाहान्तेनाहुतीनां त्रयेण सन्निधाय
ततः ॐ हां विष्णवे नम इति विष्णुमावाह्य सम्पूज्य सन्तर्प्य

विष्णो तवाधिकारे ऽस्मिन् मुमुक्षुं दीक्षयाम्यहं ॥०१७॥
भाव्यं त्वयानुकूलेन विष्णुं विज्ञापयेदिति ।

ततो वागीश्वरीं देवीं वागीशमपि पूर्ववत् ॥०१८॥
आवाह्याभ्यर्च्य सन्तर्प्य शिष्यं वक्षसि ताडयेत् ।
ॐ हां हां हं फट्

प्रविशेदप्यनेनैव चैतन्यं विभजेत्ततः ॥०१९॥
शस्त्रेण पाशसंयुक्तं ज्येष्टयाङ्कुशमुद्रया ।

ॐ हां हं हों ह्रूं फट्
स्वाहान्तेन हृदाकृष्य तेनैव पुटितात्मना ॥०२०॥
गृहीत्वा तं नमोन्तेन निजात्मनि नियोजयेत् ।
ॐ हां हं हों  आत्मने नमः

पूर्ववत् पितृसंयोगं भावयित्वोद्भवाख्यया ॥०२१॥
वामया तदनेनैव देवीगर्भे विनिक्षिपेत् ।

ॐ हां हं हां आत्मने नमः
देहोत्पत्तौ हृदा ह्य् एवं शिरसा जन्मना तथा ॥०२२॥
शिखया वाधिकाराय भोगाय कवचाणुना ।

तत्त्वशुद्धौ हृदा ह्य् एवं गर्भाधानाय पूर्ववत् ॥०२३॥
शिरसा पाशशैथिल्ये निष्कृत्यैवं शतं जपेत् ।

एवं पाशवियोगे ऽपि ततः शास्त्रजप्तया ॥०२४॥
छिन्द्यादस्त्रेण कर्तर्या कलावीजवता यथा ।

ॐ ह्रीं प्रतिष्ठाकलापाशाय हः फट्
विसृज्य वर्तुलीकृत्य पाशमन्त्रेण पूर्ववत् ॥०२५॥
घृतपूर्णे श्रवे दत्वा कलास्त्रेणैव होमयेत् ।

अस्त्रेण जुहुयात् पञ्च पाशाङ्कुरनिवृत्तये ॥०२६॥
प्रायश्चित्तनिषेधार्थं दद्यादष्टाहुतीस्ततः ।

ॐ हः अस्त्राय ह्रूं फट्
हृदावाह्य हृषीकेशं कृत्वा पूजतर्पणे ॥०२७॥
पूर्वोक्तविधिना कुर्यादधिकारसमर्पणं ।

ॐ हां रसशुल्कं गृहाण स्वाहा
निःशेषदग्धपाशस्य पशोरस्य हरे त्वया ॥०२८॥
न स्थेयं बन्धकत्वेन शिवाज्ञां श्रावयेदिति ।

ततो विसृज्य गोविन्दं विद्यात्मानं नियोज्य च ॥०२९॥
बाहुमुक्तार्धदृश्येन चन्द्रविम्बेन सन्निभं ।

संहारमुद्रया स्वस्थं विधायोद्भवमुद्रया ॥०३०॥
सूत्रे संयोज्य विन्यस्य तोयविन्दुं यथा पुरा ।

विसृज्य पितरौ वह्नेः पूजितौ कुसुमादिभिः ।०३१।
दद्यात् पूर्णां विधानेन प्रतिष्ठापि विशोधिता ॥०३१॥

अग्नि पुराण - पचासीवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 85 Chapter!-In Hindi

भगवान् शंकर कहते हैं- स्कन्द ! तदनन्तर शुद्ध और अशुद्ध कलाओंका शान्त और नादान्तसंज्ञक हस्व-दीर्घ-प्रयोगद्वारा संधान करे। संधानका मन्त्र इस प्रकार है-' ॐ ह्रां ह्रां ह्रीं हां।' इसके बाद प्रतिष्ठाकलामें निविष्ट जल, तेज,वायु, आकाश, पाँच तन्मात्रा, दस इन्द्रिय, बुद्धि, तीनों गुण, चौबीसवाँ अहंकार और पुरुष - इन पचीस तत्त्वों तथा 'क' से लेकर 'य' तकके पचीस अक्षरोंका चिन्तन करे। प्रतिष्ठाकलामें छप्पन भुवन हैं और उनमें उन्होंके समान नामवाले उतने ही रुद्र जानने चाहिये। इनकी नामावली इस प्रकार है-॥१-५॥
अमरेश, प्रभास, नैमिष, पुष्कर, आषाढ़ि, डिण्डि, भारभूति तथा लकुलीश (यह प्रथम अष्टक कहा गया)। हरिश्चन्द्र, श्रीशैल, जल्प, आम्रातकेश्वर, महाकाल, मध्यम, केदार और भैरव - (यह द्वितीय अष्टक बताया गया)। तत्पश्चात् गया, कुरुक्षेत्र, नाल, कनखल, विमल, अट्टहास, महेन्द्र और भीम (यह तृतीय अष्टक कहा गया)। वस्त्रापद, रुद्रकोटि, अविमुक्त, महालय, गोकर्ण, भद्रकर्ण, स्वर्णाक्ष और स्थाणु - (यह चौथा अष्टक बताया गया)। अजेश, सर्वज्ञ, भास्वर, तदनन्तर सुबाहु, मन्त्ररूपी, विशाल, जटिल तथा रौद्र - (यह पाँचवाँ अष्टक हुआ)। पिङ्गलाक्ष, कालदंष्ट्री, विधुर, घोर, प्राजापत्य, हुताशन, कालरूपी तथा कालकर्ण (यह छठा अष्टक कहा गया)। भयानक, पतङ्ग, पिङ्गल, हर, धाता, शङ्कुकर्ण, श्रीकण्ठ तथा चन्द्रमौलि (यह सातवाँ अष्टक बताया गया)। ये छप्पन रुद्र छप्पन भुवनोंमें व्याप्त हैं। अब बत्तीस पद बताये जाते हैं॥६-१३॥ 
व्यापिन्, अरूपिन्, प्रथम, तेजः, ज्योतिः, अरूप, पुरुष, अनग्ने, अधूम, अभस्मन्, अनादे, नाना नाना, धूधू धूधू, ॐ भूः, ॐ भुवः, ॐ स्वः, अनिधन, निधन, निधनोद्भव, शिव, शर्व, परमात्मन्, महेश्वर, महादेव, सद्भाव, ईश्वर, महातेजा, योगाधिपते, मुञ्च, प्रमथ, सर्व, सर्वसर्व - ये बत्तीस पद हैं। दो बीज, तीन मन्त्र - वामदेव, शिर, शिखा, गान्धारी और सुषुम्णा - दो नाड़ियाँ, समान और उदान नामक दो प्राणवायु, रसना और पायु-दो इन्द्रियाँ, रस नामक विषय, रूप, शब्द, स्पर्श तथा रस-ये चार गुण, कमलसे अङ्कित श्वेत अर्धचन्द्राकार मण्डल, सुषुप्ति अवस्था तथा प्रतिष्ठामें कारणभूत भगवान् विष्णु - इस प्रकार भुवन आदि सब तत्त्वोंका प्रतिष्ठाके भीतर चिन्तन करके प्रतिष्ठाकला-सम्बन्धी मन्त्रसे शिष्यके शरीरमें भावनाद्वारा प्रवेश करके उसे उस कलापाशसे मुक्त करे ॥ १४-१८॥
'ॐ हां हीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय हूं फट् स्वाहा।' - इस स्वाहान्त-मन्त्रसे ही पूरक प्राणायाम तथा अङ्कुशमुद्राद्वारा उक्त कलापाशका आकर्षण करे। तत्पश्चात् ॐ हूं हां हीं हां हूं प्रतिष्ठाकलापाशाय हूं फट्।' - इस मन्त्रसे संहारमुद्रा और कुम्भक प्राणायामद्वारा उसे हृदयके नीचे नाड़ीसूत्रसे लेकर 'ॐ हूं हीं हां प्रतिष्ठाकलापाशाय नमः ।'- इस मन्त्रसे उद्भवमुद्रा तथा रेचक प्राणायामद्वारा कुण्डमें स्थापित करे। तदनन्तर 'ॐ हां हां हीं हां प्रतिष्ठाकलाद्वाराय नमः।' - इस मन्त्रसे अर्घ्य दे, पूजन करके स्वाहान्त मन्त्रद्वारा तीन-तीन आहुतियाँ देते हुए संतर्पण और संनिधापन करे। इसके बाद 'ॐ हां विष्णवे नमः।' - इस मन्त्रसे विष्णुका आवाहन, पूजन और संतर्पण करके निम्नाङ्कित प्रार्थना करे- 'विष्णो ! आपके अधिकारमें मैं मुमुक्षु शिष्यको दीक्षा दे रहा हूँ। आप सदा अनुकूल रहें।' इस प्रकार विष्णुभगवान्से निवेदन करे। तत्पश्चात् वागीश्वरी देवी और वागीश्वर देवताका पूर्ववत् आवाहन, पूजन और तर्पण करके शिष्यकी छातीमें ताड़न करे। ताड़नका मन्त्र इस प्रकार है- 'ॐ हां हं हः हूं फट् ।' इसी मन्त्रसे शिष्यके हृदयमें प्रवेश करके उसके पाशबद्ध चैतन्यको अस्त्र-मन्त्र एवं ज्येष्ठ अङ्कुशमुद्राद्वारा उस पाशसे पृथक् करे। यथा- 'ॐ हां हं हः फट्।' उक्त मन्त्रके ही अन्तमें 'नमः स्वाहा' लगाकर उससे सम्पुटित मन्त्रद्वारा जीवचैतन्यको खींचे तथा नमस्कारान्त आत्ममन्त्रसे उसको अपने आत्मामें नियोजित करे। आत्मामें नियोजनका मन्त्र यों है-' ॐ हां हां हामात्मने नमः ।' ॥ १९-२६ ॥
इसके बाद पूर्ववत् उस जीवचैतन्यके पितासे संयुक्त होनेकी भावना करके वामा उद्भव मुद्राद्वारा उसे देवीके गर्भमें स्थापित करे। साथ ही इस मन्त्रका उच्चारण करे -'ॐ हां हां हामात्मने नमः ।' देहोत्पत्तिके लिये हृदय मन्त्रसे पाँच बार और जीवात्माकी स्थितिके लिये शिरोमन्त्रसे पाँच बार आहुति दे। अधिकार प्राप्तिके लिये शिखा मन्त्रसे, भोगसिद्धिके लिये कवच-मन्त्रसे, लयके लिये अस्त्र-मन्त्रसे, स्रोतः सिद्धिके लिये शिव मन्त्रसे तथा तत्त्वशुद्धिके लिये हृदय मन्त्रसे इसी तरह पाँच-पाँच आहुतियाँ देनी चाहिये। इसके बाद पूर्ववत् गर्भाधान आदि संस्कार करे। पाशकी शिथिलता और निष्कृति (प्रायश्चित्त) के लिये शिरोमन्त्रसे सौ आहुतियाँ दे। मलशक्तिके तिरोधान (निवारण) के लिये स्वाहान्त अस्त्र-मन्त्रसे  बार हवन करे ॥ २७ - ३० ॥ इस प्रकार पाश-वियोग होनेपर भी सात बार अस्त्र-मन्त्रके जपपूर्वक कलाबीजसे युक्त अस्त्र- मन्त्ररूपी कटारसे उस कलापाशको काट डाले। वह मन्त्र इस प्रकार है - ॐ ह्रीं प्रतिष्ठाकलापाशाय हूं फट् ।' तदनन्तर पाश-शस्त्रसे उस पाशको मसलकर वर्तुलाकार बनाकर पूर्ववत् घृतपूर्ण  सुवामें रख दे और कला-शस्त्रसे ही उसकी आहुति दे दे। इसके बाद पाशाङ्कुरकी निवृत्तिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे पाँच आहुतियाँ दें और प्रायश्चित्त- निवारणके लिये फिर आठ आहुतियोंका हवन करे। आहुतिके लिये अस्त्र-मन्त्र इस प्रकार है- ' ॐ हः अस्वाय हूं फट् ।'॥ ३१-३५ ॥
इसके बाद हृदय-मन्त्रसे भगवान् हृषीकेशका आवाहन करके पूर्वोक्त विधिसे उनका पूजन और तर्पण करनेके पश्चात् अधिकार-समर्पण करे। इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ हां विष्णो रसं शुल्कं गृहाण स्वाहा।' इसके बाद उन्हें भगवान् शिवकी आज्ञा इस प्रकार सुनावे - 'हरे! इस पशुका पाश सम्पूर्णतः दग्ध हो चुका है। अब आपको इसके लिये बन्धनकारक होकर नहीं रहना चाहिये।' शिवाज्ञा सुनानेके बाद रौद्री नाड़ीद्वारा गोविन्दका विसर्जन करके राहुमुक्त आधे भागवाले चन्द्रमण्डलके समान आत्माको नियोजित करे-संहारमुद्राद्वारा उसे आत्मस्थ करके उद्भवमुद्राद्वारा सूत्रमें उसकी संयोजना करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् जलबिन्दु-सदृश उस आत्माको शिष्यके सिरपर स्थापित करे। इससे उसका आप्यायन होता है। फिर अग्निके पिता-माताका आहुति दे दे। इसके बाद पाशाङ्कुरकी निवृत्तिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे पाँच आहुतियाँ दें और प्रायश्चित्त- निवारणके लिये फिर आठ आहुतियोंका हवन करे। आहुतिके लिये अस्त्र-मन्त्र इस प्रकार है- ' ॐ हः अस्वाय हूं फट् ।'॥ ३१-३५ ॥
इसके बाद हृदय-मन्त्रसे भगवान् हृषीकेशका आवाहन करके पूर्वोक्त विधिसे उनका पूजन और तर्पण करनेके पश्चात् अधिकार-समर्पण करे। इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ हां विष्णो रसं शुल्कं गृहाण स्वाहा।' इसके बाद उन्हें भगवान् शिवकी आज्ञा इस प्रकार सुनावे - 'हरे! इस पशुका पाश सम्पूर्णतः दग्ध हो चुका है। अब आपको इसके लिये बन्धनकारक होकर नहीं रहना चाहिये।' शिवाज्ञा सुनानेके बाद रौद्री नाड़ीद्वारा गोविन्दका विसर्जन करके राहुमुक्त आधे भागवाले चन्द्रमण्डलके समान आत्माको नियोजित करे-संहारमुद्राद्वारा उसे आत्मस्थ करके उद्भवमुद्राद्वारा सूत्रमें उसकी संयोजना करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् जलबिन्दु-सदृश उस आत्माको शिष्यके सिरपर स्थापित करे। इससे उसका आप्यायन होता है। फिर अग्निके पिता-माताका आहुति दे दे। इसके बाद पाशाङ्कुरकी निवृत्तिके लिये अस्त्र-मन्त्रसे पाँच आहुतियाँ दें और प्रायश्चित्त- निवारणके लिये फिर आठ आहुतियोंका हवन करे। आहुतिके लिये अस्त्र-मन्त्र इस प्रकार है- ' ॐ हः अस्वाय हूं फट् ।'॥ ३१-३५ ॥
इसके बाद हृदय-मन्त्रसे भगवान् हृषीकेशका आवाहन करके पूर्वोक्त विधिसे उनका पूजन और तर्पण करनेके पश्चात् अधिकार-समर्पण करे। इसके लिये मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ हां विष्णो रसं शुल्कं गृहाण स्वाहा।' इसके बाद उन्हें भगवान् शिवकी आज्ञा इस प्रकार सुनावे - 'हरे! इस पशुका पाश सम्पूर्णतः दग्ध हो चुका है। अब आपको इसके लिये बन्धनकारक होकर नहीं रहना चाहिये।' शिवाज्ञा सुनानेके बाद रौद्री नाड़ीद्वारा गोविन्दका विसर्जन करके राहुमुक्त आधे भागवाले चन्द्रमण्डलके समान आत्माको नियोजित करे-संहारमुद्राद्वारा उसे आत्मस्थ करके उद्भवमुद्राद्वारा सूत्रमें उसकी संयोजना करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् जलबिन्दु-सदृश उस आत्माको शिष्यके सिरपर स्थापित करे। इससे उसका आप्यायन होता है। फिर अग्निके पिता-माताका पुष्प आदिसे पूजन एवं विसर्जन करके विधिकी पूर्तिके लिये विधानपूर्वक पूर्णाहुति प्रदान करे। ऐसा करनेसे प्रतिष्ठाकलाका भी शोधन सम्पन्न हो जाता है ॥ ३६-४१ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत प्रतिष्ठाकलाके शोधनकी विधिका वर्णन' नामक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८५

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