अग्नि पुराण - पैंसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 65 Chapter !
अग्नि पुराण - ६५ अध्याय - सभा आदिकी स्थापनाके विधानका वर्णन ,! सभास्थापनकथनं !
अग्नि पुराण - पैंसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 65 Chapter ! |
अग्नि पुराण - पैंसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 65 Chapter !
भगवानुवाच
सभादिस्थानं वक्ष्ये तथैव तेषां प्रवर्तनं ।
भूमौ परीक्षितायाञ्च वास्तुयागं समाचरेत् ॥००१॥
स्वेच्छया तु सभां कृत्वा स्वेच्छया स्थापयेत् सुरान् ।
चतुष्पथे ग्रामादौ1 च न शून्ये कारयेत् सभां ॥००२॥
निर्मलः कुलमुद्धृत्य कर्ता स्वर्गे विमोदते ।
अनेन विधिना कुर्यात् सप्तभौमं हरेर्गृहं ॥००३॥
यथा राज्ञां तथान्येषां पूर्वाद्याश् च ध्वजादयः ।
कोणभुजान् वर्जयित्वा चतुःशालं तु वर्तयेत् ॥००४॥
त्रिशालं वा द्विशालं वा एकशालमथापि वा ।
व्ययाधिकं न कुर्वीत व्ययदोषकरं हि तत् ॥००५॥
आयाधिके भवेत् पीडा तस्मात् कुर्यात् समं द्वयं ।
करराशिं समस्तन्तु कुर्याद्वसुगुणं गुरुः ॥००६॥
सप्तार्चिषा हृते भागे गर्गविद्याविचक्षणः ।
अष्टधा भाजिते तस्मिन् यच्छेषं स व्ययो गतः ॥००७॥
अथवा करराशिं तु हन्यात् सप्तार्चिषा बुधः ।
वसुभिः संहृते भागे पृथ्व्यादि2 परिकल्पयेत् ॥००८॥
ध्वजो धूम्रस् तथा सिंहः श्वा वृषस्तु खरो गजः ।
तथा ध्वाङ्क्षस्तु पूर्वादावुद्भवन्ति विकल्पयेत् ॥००९॥
त्रिशालकत्रयं शस्तं उदक्पूर्वविवर्जितं ।
याम्यां परगृहोपेतं द्विशालं लभ्यते सदा ॥०१०॥
याम्ये शालैकशालं तु प्रत्यक्शालमथापि वा ।
एकशालद्वयं शस्तं शेषास्त्वन्ये भयावहाः ॥०११॥
चतुःशालं सदा शस्तं सर्वदोषविवर्जितं ।
एकभौमादि कुर्वीत भवनं सप्तभौमकं ॥०१२॥
द्वारवेद्यादिरहितं पूरणेन विवर्जितं ।
देवगृहं देवतायाः प्रतिष्ठाविधिना सदा ॥०१३॥
संस्थाप्य मनुजानाञ्च समुदायोक्तकर्मणा ।
प्रातः सर्वौषधीस्नानं कृत्वा शुचिरतन्द्रितः ॥०१४॥
मधुरैस्तु द्विजान् भोज्य पूर्णकुम्भादिशोभितं ।
सतोरणं स्वस्ति वाच्य द्विजान् गोष्ठहस्तकः1 ॥०१५॥
गृही गृहं प्रविशेच्च दैवज्ञान् प्रार्च्य2 संविशेत् ।
गृहे पुष्टिकरं मन्त्रं पठेच्चेमं समाहितः ॥०१६॥
ॐ नन्दे नन्दय वाशिष्ठे वसुभिः प्रजया सह ।
जये भार्गवदायदे प्रजानां विजयावहे ॥०१७॥
पूर्णे ऽङ्गिरसदायादे पूर्णकामं कुरुध्व मां ।
भद्रे काश्यपदायादे कुरु भद्रां मतिं मम ॥०१८॥
सर्ववीजौषधीयुक्ते सर्वरत्नौषधीवृते ।
रुचिरे नन्दने नन्दे वासिष्ठे रम्यतामिह ॥०१९॥
प्रजापतिसुते देवि चतुरस्रे महीयसि ।
सुभगे सुव्रते देवि गृहे काश्यपि रम्यतां ॥०२०॥
पूजिते परमाचार्यैर् गन्धमाल्यैर् अलङ्कृते ।
भवभूतिकरे देवि गृहे भार्गवि रम्यतां ॥०२१॥
अव्यक्ते व्याकृते पूर्णे मुनेरङ्गिरसः सुते ।
इष्टके त्वं प्रयच्छेष्टं प्रतिष्ठां कारयाम्यहं ॥०२२॥
देशस्वामिपुरस्वामिगृहस्वामिपरिग्रहे ।
मनुष्यधनहस्त्यश्वपशुवृद्धिकरी भव ॥०२३॥
इत्य् आदिमहापुराणे आग्नेये सभागृहस्थापनं नाम पञ्चषष्टितमो ऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - पैंसठवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 65 Chapter!-In Hindi
सभा-स्थापन और एकशालादि भवनके निर्माण आदिकी विधि, गृहप्रवेशका क्रम तथा गोमातासे अभ्युदयके लिये प्रार्थना श्रीभगवान् बोले- अब मैं सभा (देवमन्दिर) आदिकी स्थापनाका विषय बताऊँगा तथा इन सबकी प्रवृत्तिके विषयमें भी कुछ कहूँगा। भूमिकी परीक्षा करके वहाँ वास्तुदेवताका पूजन करे। अपनी इच्छाके अनुसार देव-सभा (मन्दिर) का निर्माण करके अपनी ही रुचिके अनुकूल देवताओंकी स्थापना करे। नगरके चौराहेपर अथवा ग्राम आदिमें सभाका निर्माण करावे; सूने स्थानमें नहीं।
देव-सभाका निर्माण एवं स्थापना करनेवाला पुरुष निर्मल (पापरहित) होकर, अपने समस्त कुलका उद्धार करके स्वर्गलोकमें आनन्दका अनुभव करता है। इस विधिसे भगवान् श्रीहरिके सतमहले मन्दिरका निर्माण करना चाहिये। ठीक उसी तरह, जैसे राजाओंके प्रासाद बनाये जाते हैं। अन्य देवताओंके लिये भी यही बात है। पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे जो ध्वज आदि आय होते हैं,
उनमेंसे कोण-दिशाओंमें स्थित आयोंको त्याग देना चाहिये। चार, तीन, दो अथवा एकशालाका गृह बनावे। जहाँ व्यय (ऋण) अधिक हो, ऐसे 'पद' पर घर न बनावे; क्योंकि वह व्ययरूपी दोषको उत्पन्न करनेवाला होता है। अधिक 'आय' होनेपर भी पीड़ाकी सम्भावना रहती है; अतः आय-व्ययको समभावसे संतुलित करके रखे ॥ १-५३॥
घरकी लंबाई और चौड़ाई जितने हाथकी हों, उन्हें परस्पर गुणित करनेसे जो संख्या होती है, उसे 'करराशि' कहा गया है; उसे गर्गाचार्यकी बतायी हुई ज्योतिष विद्यामें प्रवीण गुरु (पुरोहित) आठगुना करे। फिर सातसे भाग देनेपर शेषके अनुसार 'वार'का निश्चय होता है और आठसे भाग देनेपर जो शेष होता है, वह 'व्यय' माना गया है। अथवा विद्वान् पुरुष करराशिमें सातसे गुणा करे। फिर उस गुणनफलमें आठसे भाग देकर शेषके अनुसार ध्वजादि आयोंकी कल्पना करे।
१. ध्वज, २. धूम्र, ३. सिंह, ४. श्वान, ५. वृषभ, ६. खर (गधा), ७. गज (हाथी) और ८. ध्वाङ्ङ्क्ष (काक) - ये क्रमशः आठ आय कहे गये हैं, जो पूर्वादि दिशाओंमें प्रकट होते हैं- इस प्रकार इनकी कल्पना करनी चाहिये ॥ ६-९॥ तीन शालाओंसे युक्त गृहके अनेक भेदोंमेंसे तीन प्रारम्भिक भेद उत्तम माने गये हैं। उत्तर-पूर्व दिशामें इसका निर्माण वर्जित है। दक्षिण दिशामें अन्यगृहसे युक्त दो शालाओंवाला भवन सदा श्रेष्ठ
माना जाता है। दक्षिण दिशामें अनेक या एक शालावाला गृह भी उत्तम है। दक्षिण-पश्चिममें भी एक शालावाला गृह श्रेष्ठ होता है। एक शालावाले गृहके जो प्रथम (ध्रुव और धान्य नामक) दो भेद हैं, वे उत्तम हैं। इस प्रकार गृहके सोलह भेदोंमेंसे अधिकांश (अर्थात् १०) उत्तम हैं और शेष (छः, अर्थात् पाँचवाँ, नवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, तेरहवाँ और चौदहवाँ भेद) भयावह हैं। चार शाला (या द्वार) वाला गृह सदा उत्तम है; वह सभी दोषोंसे रहित है। देवताके लिये एक मंजिलसे लेकर सात मंजिलतकका मन्दिर बनावे, जो द्वार-वेधादि दोष तथा पुराने सामानसे रहित हो। उसे सदा मानव-समुदायके लिये कथित कर्म एवं प्रतिष्ठा-विधिके अनुसार स्थापित करे ॥ १०-१३३॥
गृहप्रवेश करनेवाले गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वह आलस्य छोड़कर प्रातःकाल सर्वोषधि- मिश्रित जलसे स्नान करके, पवित्र हो, दैवज्ञ ब्राह्मणोंकी पूजा करके उन्हें मधुर अन्न (मीठे पकवान) भोजन करावे। फिर उन ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर गायके पीठपर हाथ रखे हुए, पूर्ण कलश आदिसे सुशोभित तोरणयुक्त गृहमें प्रवेश करे। घरमें जाकर एकाग्रचित्त हो, गौके सम्मुख हाथ जोड़ यह पुष्टिकारक मन्त्र पढ़े- 'ॐ श्रीवसिष्ठजीके द्वारा लालित-पालित नन्दे ! धन और संतान देकर मेरा आनन्द बढ़ाओ। प्रजाको विजय दिलानेवाली भार्गवनन्दिनि जये ! तुम मुझे धन और सम्पत्तिसे आनन्दित करो।
अङ्गिराकी पुत्री पूर्णे! तुम मेरे मनोरथको पूर्ण करो-मुझे पूर्णकाम बना दो। काश्यपकुमारी भद्रे! तुम मेरी बुद्धिको कल्याणमयी बना दो। सबको आनन्द प्रदान करनेवाली वसिष्ठनन्दिनी नन्दे! तुम समस्त बीजों और ओषधियोंसे युक्त तथा सम्पूर्ण रत्नौषधियोंसे सम्पन्न होकर इस सुन्दर घरमें सदा आनन्दपूर्वक रहो ' ॥ १४-१९ ॥ 'कश्यप प्रजापतिकी पुत्री देवि भद्रे! तुम सर्वथा सुन्दर हो, महती महत्तासे युक्त हो, सौभाग्यशालिनी एवं उत्तम व्रतका पालन करनेवाली हो; मेरे घरमें आनन्दपूर्वक निवास करो। देवि
भार्गवि जये! सर्वश्रेष्ठ आचार्य-चरणोंने तुम्हारा पूजन किया है, तुम चन्दन और पुष्पमालासे अलंकृत हो तथा संसारके समस्त ऐश्वर्योंको देनेवाली हो। तुम मेरे घरमें आनन्दपूर्वक विहरो। अङ्गिरामुनिकी पुत्री पूर्णे! तुम अव्यक्त एवं अव्याकृत हो; इष्टके देवि ! तुम मुझे अभीष्ट वस्तु प्रदान करो। मैं तुम्हारी इस घरमें प्रतिष्ठा चाहता हूँ। देवि ! तुम देशके स्वामी (राजा), ग्राम या नगरके स्वामी तथा गृहस्वामीपर भी अनुग्रह करनेवाली हो। मेरे घरमें जन, धन, हाथी, घोड़े तथा गाय-भैंस आदि पशुओंकी वृद्धि करनेवाली बनो'॥ २०-२३ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'सभा आदिकी स्थापनाके विधानका वर्णन' नामक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६५ ॥
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