अग्नि पुराण - तिरसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 63 Chapter !
तिरसठवाँ अध्याय में विष्णु आदि देवताओंकी प्रतिष्ठाकी सामान्य विधिका वर्णन - र्शनचक्रादिप्रतिष्ठकथानम् |
अग्नि पुराण - तिरसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 63 Chapter ! |
अग्नि पुराण - तिरसठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 63 Chapter !
भगवानुवाच |
एवं तार्क्ष्यस्य चक्रस्य ब्राह्मणो नृहरेस्तथा |
प्रतिष्ठा विष्णुवतकार्य स्वस्वमंत्रेण तं शृणु || 1 ||
सुदर्शन महाचक्र शांता दुष्टाभयंकर |
चच्चिन्द चिन्द भिन्दा भिन्दा विधाराय विधाराय परमन्त्रं ग्रसा ग्रसा भक्षाय भक्षाय भूतां त्रयसा त्रयसा हुं फत्सुदर्शनाय नमः
अभ्यार्च्य चक्रं कनेन रानणे दारायते रिपुन् || 2 ||
ॐ क्षौं नरसिम्ह उग्ररूप ज्वला ज्वला प्रज्वला प्रज्वला स्वाहा |
नृसिंहस्य मंत्रोयं पातालख्यास्य वचमि ते |
ॐ क्षौं नमो भगवते नरसिम्हाय प्रदीप्तसूर्यकोटिसहस्रसमतेजसे वज्रनखदंत्रयुद्धायं स्फुत्तविकतविकिर्णकेसरसताप्रकाशप्रक्षुभितामहारण्वभोददुन्दुब हिनिर्घोषाय सर्वमन्त्रोत्तारणाय एह्येहि भगवाननरसिम्हा पुरुषपरपराब्रह्मसत्येन स्फुर स्फुर विजम्भा विजृम्भा अक्रम गर्ज गरजा मुञ्च मुञ्च सिन्हानादान विधाराय विद्रावाय विद्रावय अविशा |
अविशा सर्वमन्त्ररूपाणि सर्वमन्त्रजातयश्च हाना हाना चिन्द संक्षिपा संक्षिपा सारा सारा दाराय दाराय स्फुट स्फुट स्फोटया स्फोटया ज्वलामालासंगहा तमया सर्वतोऽनन्तज्वलवज्रशनिकरेण सर्वपतलानुत्सादय उत्सदया सर्वतोऽनतज्वलावज्रशरापञ्जरेण सर्वपतलान् परिवाराय परिवार सर्वपतलासुरवा सिनां हृदयान्याकर्षय आकर्षय शिघ्रं दाहा दहा पच पच मथ मथ शोषय निक्रान्ताय निक्रान्ताय तावद्यवन्मे वशमागतः पातालेभ्यः फतुसुरेब ह्यः फामंत्ररूपेभ्यः फामंत्रजतिभ्यः फात्सास्यान्म भगवन्नारसिहरूप विष्णु सर्वपदभ्यः सर्वमंत्ररूपेभ्यो रक्ष रक्ष ह्रुं फट नमोऽस्तु ते |
नृसिंहस्य विद्येयं हरिरूपार्थसिद्धिदा || 3 |
त्रैलोक्यमोहनैर्मंत्रैः स्थाप्यस्त्रैलोक्यमोहनः |
गदो दक्षे शांतिकारो द्विभुजो वा चतुर्भुजः || 4 ||
वामोर्ध्वे कार्येचक्रं पाञ्चजन्यमथो ह्यदः |
श्रीपुष्टिसंयुक्तं कुर्याद्बलेन सह भद्रया || 5 ||
प्रसादे स्थापयेदविष्णुं गृहे वा मण्डापेऽपि वा |
वामनं चैव वैकुण्ठं हयास्यामणिरुद्धकम् || 6 ||
स्थापयेज्जलशय्यास्थं मत्स्यादिन्श्चावतारकं |
संकर्षणं विश्वरूपं लिंगं वै रुद्रमूर्तिकम् || 7 |
अर्धनारीश्वरं तद्वद्धारिशंकारमातृकाः |
भैरवं च तथा सूर्यं ग्रहान्स्तद्विनायकम् || 8 ||
गौरीमिन्द्रादिकं लेप्यं चित्रजं च बलबलं |
पुस्तकानां प्रतिष्ठां च वक्षे लेखनादविधिम् || 9 ||
स्वस्तिके मंडलेऽभ्यार्च्य शरपत्रासने स्थितम् |
लेख्यञ्च लिखितं पुस्तं गुरुर्विद्यां हरिं यजेत् || 10 ||
यजमानो गुरुं विद्यां हरिं लिपिकरतं नारां |
प्राण्मुखः पद्मिनीं ध्यायेतलिखित्वा श्लोकपञ्चकम् || 11 ||
रौप्यस्तमस्य हैम्य च लेखन्य नागराक्षरम् |
ब्राह्मणान् भोजयेच्चक्य शक्तिया दद्यच्च दक्षिणाण् || 12 ||
गुरुं विद्यां हरिं प्रार्च्य पुराणादि लिखेनरः |
पूर्ववनमंडलाद्ये च एषान्यां भद्रपीठके || 13 ||
दर्पणे पुस्तकं दृष्ट्वा सचिवालयः |
नेत्रोंमिलनकं कृत्वा शय्यायं तु न्यासेन्नरः || 14 ||
न्यासेतु पौरुषं सूक्तं देवद्यं तत्र पुस्तके |
कृत्वा सजीवीकरणं प्रार्च्य हुत्वा चारुं ततः || 15 ||
संप्रश्य दक्षिणाभिस्तु गुरुवादिन भोजयेद्दविजान् |
रथेन हस्तिना वापि भ्रमयेत्पुस्तकम् नारायणः || 16 ||
गृहे देवालयादौ तु पुस्तकं स्थाप्य पूज्येत् |
वस्त्रदिवेष्ठितं पथदादावंते समारचयेत् || 17 ||
जगच्छन्तिन्चावधार्य पुस्तकं वाचेननरः |
अध्ययनमेकं कुम्भादभिर्यजमानादि सेकायेत् || 18 |
द्विजया पुस्तकं दत्वा फलस्यान्तो न विद्यते |
तृण्याहुरतिदानानि गावः पृथ्वीं सरस्वती || 19 ||
विद्यादानफलं दत्वा मास्यन्तं पात्रसंच्चयम् |
यावत्तु पात्रसंख्यानमक्षराणां तथाघ || 20 ||
तवद्वर्षसहस्राणी विष्णुलोके महीयते |
पंचरात्रं पुराणानि भरतनि ददान्नरः |
कुलैकविंशमुद्धृत्य परे तत्वे तु लीयते || 21 ||
अग्नि पुराण - तिरसठवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 63 Chapter!-In Hindi
श्रीभगवान् कहते हैं - इस प्रकार विनतानन्दन गरुड, सुदर्शनचक्र, ब्रह्मा और भगवान् नृसिंहकी प्रतिष्ठा भी उनके अपने-अपने मन्त्रसे श्रीविष्णुकी ही भाँति करनी चाहिये; इसका श्रवण करो ॥ १ ॥ 'ॐ सुदर्शन महाचक्र शान्त दुष्टभयंकर, छिन्धिच्छिन्धि भिन्धि भिन्धि विदारय विदारय परमन्त्रान् ग्रस ग्रस भक्षय भक्षय भूतांस्त्रासय त्रासय हुं फट् सुदर्शनाय नमः ।'
इस मन्त्रसे चक्रका पूजन करके वीर पुरुष युद्धक्षेत्रमें शत्रुओंको विदीर्ण कर डालता है॥ २-३ ॥ 'ॐ क्षौं नरसिंह उग्ररूप ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल स्वाहा।' यह नरसिंहभगवान्का मन्त्र है। अब मैं तुमको पाताल-नृसिंह-मन्त्रका उपदेश करता हूँ ॥ ४-५ ॥ 'ॐ क्षौं नमो भगवते नरसिंहाय प्रदीप्तसूर्य कोटिसहस्त्रसमतेजसे वज्रनखदंष्ट्रायुधाय स्फुटविकट- विकीर्णकेसरसटाप्रक्षुभितमहार्णवाम्भोदुन्दुभिनिर्घोषाय सर्वमन्त्रोत्तारणाय एहोहि भगवन्नरसिंह पुरुष परापर ब्रह्म सत्येन स्फुर स्फुर विजृम्भ विजृम्भ आक्रम आक्रम गर्ज गर्ज मुञ्च मुञ्च सिंहनादं विदारय विदारय विद्रावय विद्रावयाऽऽविशाऽऽविश सर्वमन्त्ररूपाणि मन्त्रजातींश्च हन हन च्छिन्दच्छिन्द संक्षिप संक्षिप दर दर दारय दारय स्फुट स्फुट स्फोटय स्फोटय ज्वालामालासंघातमय सर्वतोऽनन्तज्वालावज्राशनि- सर्वपातालानुत्सादयोत्सादय चक्रेण सर्वतोऽनन्तज्वालावज्रशरपञ्जरेण सर्व- पातालान्परिवारय परिवारय सर्वपातालासुरवासिनां हृदयान्याकर्षयाऽऽकर्षय शीघ्रं दह दह पच पच मथ मथ शोषय शोषय निकृन्तय निकृन्तय तावद्यावन्मे वशमागताः पातालेभ्यः (फट्सुरेभ्यः फण्मन्त्ररूपेभ्यः फण्मन्त्रजातिभ्यः फट् संशयान्मां भगवन्नरसिंहरूप विष्णो सर्वापद्भ्यः ) सर्वमन्त्ररूपेभ्यो रक्ष रक्ष हुं फण्नमो नमस्ते ॥ ६ ॥
यह श्रीहरिस्वरूपिणी नृसिंह-विद्या है, जो अर्थसिद्धि प्रदान करनेवाली है। त्रैलोक्यमोहन श्रीविष्णुकी त्रैलोक्यमोहन मन्त्रसमूहसे प्रतिष्ठा करे। उनके द्विभुज विग्रहके वाम हस्तमें गदा और दक्षिण हस्तमें अभयमुद्रा होनी चाहिये। यदि चतुर्भुज रूपकी प्रतिष्ठा की जाय, तो दक्षिणोर्ध्व हस्तमें चक्र और वामोर्ध्वमें पाञ्चजन्य शङ्ख होना चाहिये। उनके साथ श्री एवं पुष्टि, अथवा बलराम, सुभद्राकी भी स्थापना करनी चाहिये। श्रीविष्णु, वामन, वैकुण्ठ, हयग्रीव और अनिरुद्धकी प्रासादमें, घरमें अथवा मण्डपमें स्थापना करनी चाहिये। मत्स्यादि अवतारोंको जल-शय्यापर स्थापित करके शयन करावे। संकर्षण, विश्वरूप, रुद्रमूर्तिलिङ्ग, अर्धनारीश्वर, हरिहर, मातृकागण, भैरव, सूर्य, ग्रह, विनायक तथा इन्द्र आदिके द्वारा सेवनीया गौरी, चित्रजा एवं 'बलाबला' विद्याकी भी उसी प्रकार स्थापना करनी चाहिये ॥ ७ - १२ ॥
अब मैं ग्रन्थकी प्रतिष्ठा और उसकी लेखन विधिका वर्णन करता हूँ। आचार्य स्वस्तिक मण्डलमें शरयन्त्रके आसनपर स्थित लेख्य, लिखित पुस्तक, विद्या एवं श्रीहरिका यजन करे। फिर यजमान, गुरु, विद्या एवं भगवान् विष्णु और लिपिक (लेखक) पुरुषकी अर्चना करे। तदनन्तर पूर्वाभिमुख होकर पद्मिनीका ध्यान करे और चाँदीकी दावातमें रखी हुई स्याही तथा सोनेकी कलमसे देवनागरी अक्षरोंमें पाँच श्लोक लिखे। फिर ब्राह्मणोंको यथाशक्ति भोजन करावे और अपनी सामर्थ्यके अनुसार दक्षिणा दे। आचार्य, विद्या और श्रीविष्णुका पूजन करके लेखक पुराण आदिका लेखन प्रारम्भ करे। पूर्ववत् मण्डल आदिके द्वारा ईशानकोणमें भद्रपीठपर दर्पणके ऊपर पुस्तक रखकर पहलेकी ही भाँति कलशोंसे सेचन करे। फिर यजमान नेत्रोन्मीलन करके शय्यापर उस पुस्तकका स्थापन करे। तत्पश्चात् पुस्तकपर पुरुषसूक्त तथा वेद आदिका न्यास करे ॥ १३-१८ ॥
तदनन्तर प्राण-प्रतिष्ठा, पूजन एवं चरुहोम करके, पूजनके पश्चात् दक्षिणासे आचार्य आदिका सत्कार करके ब्राह्मण भोजन करावे। उस ग्रन्थको रथ या हाथीपर रखकर जनसमाजके साथ नगरमें घुमावे। अन्तमें गृह या देवालयमें उसे स्थापित करके उसकी पूजा करे। ग्रन्थको वस्त्रसे आवेष्टित करके पाठके आदि-अन्तमें उसका पूजन करे। पुस्तकवाचक विश्वशान्तिका संकल्प करके एक अध्यायका पाठ करे। फिर गुरु कुम्भजलसे यजमान आदिका अभिषेक करे। ब्राह्मणको पुस्तक- दान करनेसे अनन्त फलकी प्राप्ति होती है। गोदान, भूमि-दान और विद्यादान ये तीन अतिदान कहे गये हैं। ये क्रमशः दोहन, वपन और पाठमात्र करनेपर नरकसे उद्धार कर देते हैं। मसीलिखित पत्र-संचयका दान विद्यादानका फल देता है और उन पत्रोंकी एवं अक्षरोंकी जितनी संख्या होती है, दाता पुरुष उतने ही हजार वर्षोंतक विष्णुलोकमें पूजित होता है। पञ्चरात्र, पुराण और महाभारतका दान करनेवाला मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके परमतत्त्वमें विलीन हो जाता है॥ १९-२६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'विष्णु आदि देवताओंकी प्रतिष्ठाकी सामान्य विधिका वर्णन' नामक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६३ ॥
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