अग्नि पुराण - साठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 60 Chapter !
अग्निपुराण अध्याय ६० वासुदेव आदि देवताओं के स्थापन की साधारण विधि का वर्णन है। वासुदेवप्रतिष्ठादिविधिः-अग्नि पुराण - साठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 60 Chapter ! |
अग्नि पुराण - साठवाँ अध्याय ! Agni Purana - 60 Chapter !
भगवानुवाच
पिण्डिकास्थापनार्थन्तु गर्भागारं तु सप्तधा।
विभजेद् ब्रह्मभागे तु प्रतिमां स्थापयेद् बुधः ।। १ ।।
देवमानुषपैशाचभागेषु न कदायन।
ब्रह्मभागं परित्यज्य किञ्चदाश्रित्य चाण्डज ।। २ ।।
देवमानुषभागाभ्यां स्थाप्या यत्नात्तुपिण्डिका ।
नपुंसकशिलायान्तु रत्नन्यासं समाचरेत् ।। ३ ।।
नारसिंहेन हुत्वाथ नत्नयासं च तेन वै।
व्रीहीन् सत्नांस्त्रिधातूँश्च लोहादींश्चन्दनादिकान् ।। ४ ।।
पूर्वादिनवगर्त्तेषु न्यसेन् मध्ये यथारुचि।
अथ चेन्द्रादिमन्त्रैश्च गर्त्तो गुग्गुलुनावृतः ।। ५ ।।
रत्नन्यासविधिं कृत्वा प्रतिमामालभेद्गुरुः।
सशलाकैर्द्दर्भपुञ्जैः सहदेवैः समन्वितैः ।। ६ ।।
सबाह्यन्तैश्च संस्कृत्य पञ्चगव्येन शोधयेत्।
प्रोक्षयेद्दर्भतोयेन नदीतीर्थोदकेन च ।। ७ ।।
होमार्थे स्थण्डिलं कुर्य्यात् सिकतामिः समन्ततः।
सार्द्धहस्तप्रमाणं तु चतुरस्रं सुशोभनम् ।। ८ ।।
अष्टदिक्षु यथान्यासं कलशानाप विन्यसेत्।
पूर्वाद्यानष्टवर्णेन अग्निमानीय संस्कृतम् ।। ९ ।।
त्वमग्नेद्युभिरिति गायत्र्या समिधो हुनेत्।
अष्टार्णेनाष्टशतकं आज्यं पूर्णा प्रदापयेत् ।। १० ।।
शान्त्युदकं आम्रपत्रैः मूलेन शतमन्त्रितम्।
सिञ्चेद्देवस्य तन्मूर्दिध्न श्रीश्च ते ह्यनया ऋचा ।। ११ ।।
ब्रह्मयानेन चोद्धृत्य उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते।
तद्विष्णोरिति मन्त्रेण प्रासादाभिमुखं नयेत् ।। १२ ।।
शिविकायां हरिं स्थाप्य भ्रामयीत पुरादिकम्।
गीतवेदादिशब्दैश्च प्रासादद्वारि धारयेत् ।। १३ ।।
स्त्रीभिर्विप्रैर्मङ्गलाष्टघटै संस्नापयेद्धरिम्।
ततो गन्धादिनाभ्यर्च्य मूलमन्त्रेण देशिकः ।। १४ ।।
अतो देवेति वस्त्राद्यामष्टाङ्गार्घ्यं निवेद्य च।
स्थिरेलग्ने पिण्डिकायां देवस्य त्वेति धारयेत् ।। १५ ।।
ओं त्रेलोक्यविक्रान्ताय नमस्तेस्तु त्रिविक्रम।
संस्थाप्या पिण्डिकायान्तु स्थिरं कुर्य्याद्विचक्षणः ।। १६ ।।
ध्रुवा द्यौरिति मन्त्रेण विश्वतश्चक्षुरित्यपि।
पञ्चगव्येन संस्नाप्य क्षाल्य गन्धदकेन च ।। १७ ।।
पूजयेत् सकलीकृत्य साङ्गं सावरणं हरिम्।
ध्यायेत् स्वं तस्य मूर्त्तिन्तु पृथिवी त्स्य पीठिका ।। १८ ।।
कल्पयेकद्विग्रहं तस्य तैजसैः परमाणुभिः।
जीवमावाहयिष्यामि पञ्चविंशतितत्त्वगम् ।। १९ ।।
चैतन्यं परमानन्दं जाग्रत्स्वप्नविवर्जितम्।
देहेन्द्रियमनोबुद्धिप्राणाहङ्कारवर्जितम् ।। २० ।।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्य्यन्तं हृदयेषु व्यवस्थितम्।
हृदयात् प्रतिमाविभ्बे स्थिरो भव परेश्वर ।। २१ ।।
सजीवं कुरु विम्बं त्वं ब्हह्म एकमेवाद्वितीयकम्।
सजीवीकरणं कृत्वा प्रणवेन निबोध्येत् ।। २२ ।।
ज्योतिर्ज्ञानं परं ब्रह्म एकमेवाद्वितीयकम्।
सजीवीकरणं कृत्वा प्रणवेन निबोधयेत् ।। २३ ।।
सान्निध्यकरणन्नाम हृदयं स्पृस्य वै जपेन्।
सूक्तन्तु पौरुषं ध्यायन् इदं गुह्यमनुं जपेत् ।। २४ ।।
नमस्तेस्तु सुरेशाय सन्तोषविभवात्नमे।
ज्ञानविज्ञानरूपाय ब्रह्मतेजोनुयायिने ।। २५ ।।
गुणातिक्रान्तवेशाय पुरुषाय भहात्मने।
अक्षयाय पुराणाय विष्णो सन्निहितो भव ।। २६ ।।
यच्च ते परमं तत्त्वं यच्च ज्ञानमयं वपुः।
तत् सर्वमेकतो लीनमस्मिन्देहे विबुध्यताम् ।। २७ ।।
आत्मानं सन्निधीकृत्य ब्रह्मादिपरिवारकान्।
स्वनाम्ना स्थापयेदन्यानायुधादीन् स्वमुद्रया ।। २८ ।।
यात्रावर्षादिकं दृष्ट्वा ज्ञेयः स्न्निहितो हरिः।
नत्वा स्तुत्वा स्तवाद्यैश्च जप्त्वा चाष्टाक्षरादिकम् ।। २९ ।।
चण्डप्रचण्डौ द्वारस्थौ निर्गत्याभ्यर्चयेद्गुरुः।
अग्निमण्डपमासाद्य गरुडं स्थाप्य पूजयेत् ।। ३० ।।
दिगीशान् दिशि देवाश्चं स्थाप्य सम्पूज्य देशिकः।
विश्वक्सेनं तु संस्थाप्य शङ्खचक्रादि पूजयेत् ।। ३१ ।।
सर्वपार्षदकेभ्यश्च बलिं भूतेभ्य अर्पयेत्।
ग्रामवस्त्रसुवर्णादि गुरवे दक्षिणां ददेत् ।। ३२ ।।
यागोपयोगिद्रव्याद्यमाचार्य्याय नरोर्पयेत्।
आचार्य्यादक्षिणार्द्धन्तु ऋत्विगभ्यो दक्षिणां ददेत् ।। ३३ ।।
अन्येब्यो दक्षिणां दद्याद्भोजयेद् ब्राह्मणांस्ततः।
अवारितान् फलान् दद्याद्यजमानाय वैगुरुः ।। ३४ ।।
विष्णुं नयेत् प्रतिष्ठाता चात्मना सकलं कुलम ।
सर्वेषामेव देवानामेष साधारणो विधिः।
मूलमन्त्राः पृथक् तेषा शेषं कार्य्यं समानकम् ।। ३५ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये वासुदेवप्रतिष्ठादिकथनं नाम षष्टितमोऽध्यायः।
अग्नि पुराण - साठवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 60 Chapter!-In Hindi
श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं - ब्रह्मन् ! पिण्डिका की स्थापना के लिये विद्वान् पुरुष मन्दिर के गर्भगृह को सात भागों में विभक्त करे और ब्रह्मभाग में प्रतिमा को स्थापित करे। देव, मनुष्य और पिशाच- भागों में कदापि उसकी स्थापना नहीं करनी चाहिये। ब्रह्मन् ! ब्रह्मभाग का कुछ अंश छोड़कर तथा देवभाग और मनुष्य भागों में से कुछ अंश लेकर, उस भूमि में यत्नपूर्वक पिण्डिका स्थापित करनी चाहिये। नपुंसक शिला में रत्नन्यास करे। नृसिंह- मन्त्र से हवन करके उसी से रत्नन्यास भी करे। व्रीहि, रत्न, लोह आदि धातु और चन्दन आदि पदार्थों को पूर्वादि दिशाओं तथा मध्य में बने हुए नौ कुण्डों में अपनी रुचि के अनुसार छोड़े । तदनन्तर इन्द्र आदि के मन्त्रों से पूर्वादि दिशाओं के गर्त को गुग्गुल से आवृत करके, रत्नन्यास की विधि सम्पन्न करने के पश्चात्, गुरु शलाका सहित कुश- समूहों और ‘सहदेव‘ नामक औषध के द्वारा प्रतिमा को अच्छी तरह मले और झाड़-पोंछ करे । बाहर-भीतर से संस्कार (सफाई) करके पञ्चगव्य द्वारा उसकी शुद्धि करे। इसके बाद कुशोदक, नदी के जल एवं तीर्थ जल से उस प्रतिमा का प्रोक्षण करे ॥ १-७ ॥होम के लिये बालू द्वारा एक वेदी बनावे, जो सब ओर से डेढ़ हाथ की लंबी-चौड़ी हो। वह वेदी चौकोर एवं सुन्दर शोभा से सम्पन्न हो । आठ दिशाओं में यथास्थान कलशों को भी स्थापित करे। उन पूर्वादि कलशों को आठ प्रकार के रंगों से सुसज्जित करे। तत्पश्चात् अग्नि ले आकर वेदी पर ‘उसकी स्थापना करे और कुशकण्डिका द्वारा संस्कार करके उस अग्नि में ‘त्वमग्ने द्युभिः‘ (यजु ११ । २७) इत्यादि से तथा गायत्री मन्त्र से समिधाओं का हवन करे। अष्टाक्षर मन्त्र से अष्टोत्तरशत घी की आहुति दे, पूर्णाहुति प्रदान करे। तत्पश्चात् मूल- मन्त्र से सौ बार अभिमन्त्रित किये गये शान्तिजल को आम्रपल्लवों द्वारा लेकर इष्टदेवता के मस्तक पर अभिषेक करे। अभिषेक काल में ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च, इत्यादि ऋचा का पाठ करता रहे। ‘उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते, इस मन्त्र से प्रतिमा को उठाकर ब्रह्मरथ पर रखे और ‘तद् विष्णोः , इत्यादि मन्त्र से उक्त रथ द्वारा उसे मन्दिर की ओर ले जाय। वहाँ श्रीहरि को उस प्रतिमा को शिविका (पालकी) में पधराकर नगर आदि में घुमावे और गीत, वाद्य एवं वेदमन्त्रों की ध्वनि के साथ उसे पुनः लाकर मन्दिर के द्वार पर विराजमान करे ॥ ८- १३ ॥
इसके बाद गुरु सुवासिनी स्त्रियों और ब्राह्मणों द्वारा आठ मङ्गल कलशों के जल से श्रीहरि को स्नान करावे तथा गन्ध आदि उपचारों से मूल मन्त्र द्वारा पूजन करने के पश्चात् ‘अतो देवाः ‘ (ऋक् १ । २२ । १६ ) इत्यादि मन्त्र से वस्त्र आदि अष्टाङ्ग अर्घ्य निवेदन करे। फिर स्थिर लग्न में पिण्डिका पर ‘देवस्य त्वा, इत्यादि मन्त्र से इष्टदेवता के उस अर्चा-विग्रह को स्थापित कर दे। स्थापना के पश्चात् इस प्रकार कहे सच्चिदानन्दस्वरूप त्रिविक्रम! आपने तीन पगों द्वारा समूची त्रिलोकी को आक्रान्त कर लिया था। आपको नमस्कार है।‘ इस तरह पिण्डिका पर प्रतिमा को स्थापित करके विद्वान् पुरुष उसे स्थिर करे। प्रतिमा स्थिरीकरण के समय ‘ध्रुवाद्यौः, इत्यादि तथा ‘विश्वतश्चक्षुः , (यजु १७ । १९) इत्यादि मन्त्रों का पाठ करे। पञ्चगव्य से स्नान कराकर गन्धोदक से प्रतिमा का प्रक्षालन करे और सकलीकरण करने के पश्चात् श्रीहरि का साङ्गोपाङ्ग साधारण पूजन करे । १४ – १७ ॥
उस समय इस प्रकार ध्यान करे –’आकाश भगवान् विष्णु का विग्रह है और पृथिवी उसकी पीठिका (सिंहासन) है।‘ तदनन्तर तैजस परमाणुओं से भगवान् के श्रीविग्रह की कल्पना करे और कहे- ‘मैं पच्चीस तत्त्वों में व्यापक जीव का आवाहन करूँगा ।‘ ।। १८-१९ ॥
“वह जीव चैतन्यमय, परमानन्दस्वरूप तथा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओं से रहित है; देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण तथा अहंकार से शून्य है। वह ब्रह्मा आदि से लेकर कीटपर्यन्त समस्त जगत्में व्याप्त और सबके हृदयों में विराजमान है। परमेश्वर! आप ही जीव चैतन्य हैं; आप हृदय से प्रतिमा बिम्ब में आकर स्थिर होइये। आप इस प्रतिमा बिम्ब को इसके बाहर और भीतर स्थित होकर सजीव कीजिये । अङ्गुष्ठमात्र पुरुष (परमात्मा जीवरूप से) सम्पूर्ण देहोपाधियों में स्थित हैं। वे ही ज्योतिः स्वरूप, ज्ञानस्वरूप, एकमात्र अद्वितीय परब्रह्म हैं। इस प्रकार सजीवीकरण करके प्रणव द्वारा भगवान्को जगावे। फिर भगवान् के हृदय का स्पर्श करके पुरुषसूक्त का जप करे। इसे ‘सांनिध्यकरण‘ नामक कर्म कहा गया है। इसके लिये भगवान्का ध्यान करते हुए निम्नाङ्गित गुह्य मन्त्र का जप करे ॥ २० -२४ ॥
‘प्रभो! आप देवताओं के स्वामी हैं, संतोष- वैभव-रूप हैं। आपको नमस्कार है। ज्ञान और विज्ञान आपके रूप हैं, ब्रह्मतेज आपका अनुगामी है। आपका स्वरूप गुणातीत है। आप अन्तर्यामी पुरुष एवं परमात्मा हैं; अक्षय पुराणपुरुष हैं; आपको नमस्कार है। विष्णो! आप यहाँ संनिहित होइये। आपका जो परमतत्त्व है, जो ज्ञानमय शरीर है, वह सब एकत्र हो, इस अर्चाविग्रह में जाग उठे।‘ इस प्रकार परमात्मा श्रीहरि का सांनिध्यकरण करके ब्रह्मा आदि परिवारों की उनके नाम से स्थापना करे। उनके जो आयुध आदि हैं, उनकी भी मुद्रासहित स्थापना करे। यात्रा सम्बन्धी उत्सव तथा वार्षिक आदि उत्सव की भी योजना करके और उन उत्सवों का दर्शन कर श्रीहरि को अपने संनिहित जानना चाहिये। भगवान् को नमस्कार, स्तोत्र आदि के द्वारा उनकी स्तुति तथा उनके अष्टाक्षर आदि मन्त्र का जप करते समय भी भगवान् को अपने निकट उपस्थित जानना चाहिये ।। २५-२९ ॥
तदनन्तर आचार्य मन्दिर से निकलकर द्वारवर्ती द्वारपाल चण्ड और प्रचण्ड का पूजन करे। फिर मण्डप में आकर गरुड की स्थापना एवं पूजा करे। प्रत्येक दिशा में दिक्पालों तथा अन्य देवताओं का स्थापन-पूजन करके गुरु विष्वक्सेन की स्थापना तथा शङ्ख, चक्र आदि की पूजा करे। सम्पूर्ण पार्षदों और भूतों को बलि अर्पित करे। आचार्य को दक्षिणारूप से ग्राम, वस्त्र एवं सुवर्ण आदि का दान दे। यज्ञोपयोगी द्रव्य आदि आचार्य को अर्पित करे। आचार्य से आधी दक्षिणा ऋत्विजों को दे। इसके बाद अन्य ब्राह्मणों को भी दक्षिणा दे और भोजन करावे। वहाँ आनेवाले किसी भी ब्राह्मण को रोके नहीं, सबका सत्कार करे। तदनन्तर गुरु यजमान को फल दे ॥ ३०-३४ ॥
भगवद्विग्रह की स्थापना करनेवाला पुरुष अपने साथ सम्पूर्ण कुल को भगवान् विष्णु के समीप ले जाता है। सभी देवताओं के लिये यह साधारण विधि है; किंतु उनके मूल मन्त्र पृथक्-पृथक् होते हैं। शेष सब कार्य समान हैं।।३५॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वासुदेव आदि देवताओं की स्थापना के सामान्य विधान का वर्णन‘ नामक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ६० ॥
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