अग्नि पुराण - चौवनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 54 Chapter !

अग्नि पुराण - चौवनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 54 Chapter !

अग्निपुराण अध्याय ५४ लिङ्ग-मान एवं व्यक्ताव्यक्त लक्षण आदि का वर्णन है। लिङ्गमानादिकथनम्

अग्नि पुराण - चौवनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 54 Chapter !

अग्नि पुराण - चौवनवाँ अध्याय ! Agni Purana - 54 Chapter !

भगवानुवाच

वक्ष्याम्यन्यप्रकारेण लिङ्गमानादिकं श्रृणु।
वक्ष्ये लवणजं लिङ्गं घृतजं बुद्धिवर्द्धनम् ।। १।।

भूतये वस्त्रलिङ्गन्तु लिङ्गन्तात्‌कालिकं विदुः।
पक्कापक्वं मृण्मयं स्यादपक्कात् पक्क्जं वरम् ।। २ ।।

ततो दारुमयं पुण्यं दारुजात् शैलजं वरम्।
शैलाद्वरं तु मुक्ताजं ततो लौहं सुवर्णजम् ।। ३ ।।

राजतं कीर्त्तितं ताम्रं पैत्तलं भुक्तिमुक्तिदम्।
रङ्गजं रसलिङ्गञ्च भुक्तिमुक्तिप्रदं वरम् ।। ४ ।।

रसजं रसलोहादिरत्नगर्भन्तु वर्धयेत्।
मानादि नेष्टं सिद्धादि स्थापितेथ स्वयम्भुवि ।। ५ ।।

वामे च स्वेच्छया तेषां पीठप्रासादकल्पना।
पूजयेत् सूर्य्यविम्बस्थं दर्पणे प्रतिविम्बितम् ।। ६ ।।

पूज्यो हरस्तु सर्वत्र लिङ्गे पूर्णार्च्चनं भवेत्।
हस्तोत्तरविधं शैलं दारुजं तद्वदेव हि ।। ७ ।।

चलमङ्गुलमानेन द्वारगर्भकरैः स्थितम् ।
अङ्गुलाद् गृहलिङ्गं स्याद्यावत् पञ्चदशाङ्गुलम् ।। ८ ।।

द्वारमानात् त्रिसङ्ख्याकं नवधा गर्भमानतः।
नवधा गर्भमानेन लिङ्गन्धाम्नि च पूजयेत् ।। ९ ।।

एवं लिङ्गानि षट्‌त्रिंशत् ज्ञेयानि ज्येष्ठमानतः।
मध्यमानेन षट्‌त्रिंशत् षट्‌त्रिशदधमेन च ।। १० ।।

इत्थमैक्येन लिङ्गानां शतमष्टोत्तरं भवेत्।
एकाङ्गुलादिपञ्चान्तं कन्यसञ्चलमुच्यते ।। ११ ।।

षडादिदशपर्यन्तञ्चलं लिङ्गञ्च मध्यमम्।
एकादशाङ्गुलादि स्यात् ज्येष्ठं पञ्चदशान्तकम् ।। १२ ।।

षडङ्गुलं महारत्नै रत्नैरन्यैर्न्नवाङ्गुलम्।
रविभिर्हेमभारोत्थं लिङ्गं शेषैस्त्रिपञ्चभिः ।। १३ ।।

षोडशांशे च वेदांशे युगं लुप्त्वोर्ध्वदेशतः।
द्वात्रिंशत्‌षोडशांशांश्च कोणयोस्तु विलोपयेत् ।। १४ ।।

चतुर्निवेशनात् कण्ठो विंशतिस्त्रियुगैस्तथा।
पार्श्वाभ्यां तु विलुप्ताभ्यां चललिङ्गं भवेद्वरम् ।। १५ ।।

धाम्नो युगर्त्तुनागांशैर्द्वारं हीनादितः क्रमात्।
लिङ्गद्वारोच्छयादर्वाग् भवेत् पादोनतः क्रमात् ।। १६ ।।

गर्भार्द्धेनाधम लिङ्गं भूतांशैः स्यात् त्रिभिर्वरम्।
तयोर्मध्ये च सूत्राणि सप्त सम्पातयेत् समम् ।। १७ ।।

एवं स्युर्नव सूत्राणि भूतसूत्रैश्च मध्यमम्।
द्व्यन्तरो वामवामश्च लिङ्गनां दीर्घता नव ।। १८ ।।

हस्ताद्विवर्द्धते हस्तो यावत्स्युर्न्नव पाणयः।
हीनमध्योत्तमं लिङ्गं त्रिविधं त्रिविधात्मकम् ।। १९ ।।

एकैकलिङ्गमद्येषु त्रीणी च पादशः।
लिङ्गानि घटयेद्धीमान् षटसु चाश्टोत्तरेषु च ।। २० ।।

स्थिरदीर्घप्रमेयात्तु द्वारगर्भकरात्मिका।
भागेशञ्चाप्यमीशञ्च देवेज्यन्तुल्यसंज्ञितम् ।। २१ ।।

चत्वारि लिङ्गरुपाणि विष्कम्बेण तु लक्षयेत्।
दीर्घमायान्वितं कृत्वा लिङ्गं कुर्य्यात् त्रिरूपकम् ।। २२ ।।

चतुरष्टाष्टवृत्तञ्च तत्तवत्रयगुणात्मकम् ।
लिङ्गानामीप्सितं दैर्ध्यं तेन कृत्वा ङ्गुलानि वै ।। २३ ।।

ध्वजाद्यायैः सुरैर्भूतैः शिखिभिर्व्वा हरेत् कृतिम्।
तान्यङ्गुलानि चच्छेषं लक्षयेच्च शुभाशुभम् ।। २४ ।।

ध्वजाद्या ध्वजसिंहेभवृषा श्रेष्ठाः परे शुभाः।
खरेषु षड्‌जगान्धारपञ्चमाः शुभदायकाः ।। २५ ।।
भूतेषु च शूबा भूः स्यादग्निष्वाहवनीयकः।

उत्तायामस्य चार्द्धाशे नागांशैर्भाजिते क्रमात् ।। २६ ।।
रसभूतां शषष्ठांशत्र्यंशाधिकशरैर्भवेत्।

आढ्यानाध्यसुरेज्यार्कतुल्यानाञ्चतुरस्रता ।। २७ ।।
पञ्चमं वर्द्धमानाख्यं व्यासान्नाहप्रवृद्धितः।

द्विधा भेदा बहून्यत्र वक्ष्यन्ते विश्वकर्म्मतः ।। २८ ।।
आढ्यादीनां त्रिधा स्थौल्याद्यवधूतं तदष्यथ ।

त्रिधा हस्ताकज्जिनाख्यञ्च युक्तं सर्वसमेन च ।। २९
पञ्चविंशतिलिङ्गानि नाद्ये देवार्च्चिते तथा।

पञ्चसप्तभिरेकत्वाज्जिनैर्भक्तैर्भवन्ति ।। ३० ।।
चतुर्दशसहस्त्राणि चतुर्दशशतानि च।

एवमष्टाङऱ्गुलविस्तारो नवैककरगर्भतः ।। ३१
तेषां कोणार्द्धकोणस्थैश्चिन्त्यात् कोणानि सूत्रकैः।

विस्तारं मध्यतः कृत्वा स्थाप्यं वा मध्यतस्त्रयम् ।। ३२ ।।
विभागादूद्‌र्ध्वमष्टास्रो द्व्यष्टास्रः स्याच्छिवांशकः।

पादाज्जान्तको ब्रह्मा नाभ्यन्तो विष्णुरित्यतः ।। ३३ ।।
मूद्‌र्ध्वान्तो भूतभागेशो व्यक्तेऽव्यक्ते च तद्वति।

पञ्चलिङ्गव्यवस्थायां शिरो वर्त्तुलमुच्यते ।। ३४ ।।
छत्राभं कुक्कुटाभं वा बालेन्दुप्रतिमाकृतिः ।

एकैकस्य चतुर्भेदैः काम्यभेदात् फलं वदे ।। ३५ ।।
लिङ्गमस्तकविस्तारं वसुभक्तन्तु कारयेत्।

आद्यभागं चतुर्द्धा तु विस्तारोच्छायतो भजेत् ।। ३६ ।।
चत्वारि तत्र सूत्राणि भागभागानुपातनात्।

पुण्डरीकन्तु भागेन विशालाख्यं विलोपनात् ।। ३७ ।।
त्रिशातनात्तु श्रीवत्सं शत्रुकृद्वेदलोपनात्।

शिरः सर्वसमे श्रेष्ठं कुक्कुटाभं सुराह्वये ।। ३८ ।।
चतुर्भागात्मके लिङ्गे त्रपुषं द्वयलोपनात्।

अनाद्यस्य शिरः प्रोक्तमर्द्धचन्द्रं शिरः श्रृणु ।। ३९ ।।
अंशात् प्रान्ते युगांशैश्च त्वेकहान्यामृताक्षकम् ।

पूर्णवालेन्दुकुमुदं द्वित्रिवेदक्षयात् क्रमात् ।। ४० ।।
चतुस्त्रिरेकवदनं सुखलिङ्गमतः श्रृणु।

पूजाभागं प्रकर्त्तव्यं मर्त्त्यग्निपदकल्पितम् ।। ४१ ।
अर्क्काशंपूर्ववत् त्यक्त्वा षट स्थानानि विवर्त्तयेत्।

शिरोन्नतिः प्रकर्त्तव्या ललाटं नासिका ततः ।। ४२ ।।
वदनं चिवुकं ग्रीवा युगभागैर्भुजाक्षिभिः।

कराभ्यां मुकुलीकृत्य प्रतिमायाः प्रमाणतः ।। ४३ ।।
मुखं प्रति समः कार्या विस्तारादष्टमांशतः।

चतुर्मुखं मया प्रोक्तं त्रिमुखञ्चोच्यते श्रृणु ।। ४४ ।।
कर्णपादाधिकास्तस्य ललाटादीनि निर्दिशेत्।

भुजौ चतुर्भिर्भागैम्तु कर्त्तव्यौ पञ्चिमोर्जितम् ।। ४५ ।।
विस्तरादष्टमांशेन मुखानां प्रतिनिर्गमः।

एकवक्त्रं तथा कार्य्यं पूर्वस्यां सौम्यलोचनम् ।। ४६ ।।
ललाटनासिकावक्त्रग्नीवायाञ्च विवर्त्तयेत्।

भुजाच्च पञ्चमांशेन भुजहीनं विवर्तयेत् ।। ४७ ।।
विस्तारस्य षडंशेन मुखैर्निर्गमनं हितम्।

सर्वषां मुखलिङ्गानां त्रपुषं वाथ कुक्कुटम् ।। ४८ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्यक्ताव्यक्तलक्षणं नाम चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।

अग्नि पुराण - चौवनवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 54 Chapter!-In Hindi

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं – ब्रह्मन् ! अब मैं दूसरे प्रकार से लिङ्ग आदि का वर्णन करता हूँ, सुनो, लवण तथा घृत से निर्मित शिवलिङ्ग बुद्धि को बढ़ानेवाला होता है। वस्त्रमय लिङ्ग ऐश्वर्यदायक होता है। उसे तात्कालिक (केवल एक बार ही पूजा के उपयोग में आनेवाला) लिङ्ग माना गया है। मृत्तिका से बनाया हुआ शिवलिङ्ग दो प्रकार का होता है-पक्व तथा अपक्व। अपक्व से पक्व श्रेष्ठ माना गया है। उसकी अपेक्षा काष्ठ का बना हुआ शिवलिङ्ग अधिक पवित्र एवं पुण्यदायक है। काष्ठमय लिङ्ग से प्रस्तर का लिङ्ग श्रेष्ठ है। प्रस्तर से मोती का और मोती से सुवर्ण का बना हुआ ‘लौह लिङ्ग उत्तम माना गया है। चाँदी, तांबे, पीतल, रत्न तथा रस (पारद) का बना हुआ शिवलिङ्ग भोग मोक्ष देनेवाला एवं श्रेष्ठ है। रस (पारद आदि) के लिङ्ग को राँगा, लोहा (सुवर्ण, ताँबा ) आदि तथा रत्न के भीतर आबद्ध करके स्थापित करे। सिद्ध आदि के द्वारा स्थापित स्वयम्भूलिङ्ग आदि के लिये माप आदि करना अभीष्ट नहीं है॥ १-५ ॥
बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर ) - के लिये भी यही बात है। (अर्थात् उसके लिये भी ‘वह इतने अङ्गुल का हो‘- इस तरह का मान आदि आवश्यक नहीं है ।) वैसे शिवलिङ्गों के लिये अपनी इच्छा के अनुसार पीठ और प्रासाद का निर्माण करा लेना चाहिये। सूर्यमण्डलस्थ शिवलिङ्ग को दर्पण में प्रतिबिम्बित करके उसका पूजन करना चाहिये। वैसे तो भगवान् शंकर सर्वत्र ही पूजनीय हैं, किंतु शिवलिङ्ग में उनके अर्चन की पूर्णता होती है। प्रस्तर का शिवलिङ्ग एक हाथ से अधिक ऊँचा होना चाहिये। काष्ठमय लिङ्ग का मान भी ऐसा ही है। चल शिवलिङ्ग का स्वरूप अङ्गुल-मान के अनुसार निश्चित करना चाहिये तथा स्थिर लिङ्ग का द्वारमान, गर्भमान एवं हस्तमान के अनुसार। गृह में पूजित होनेवाला चललिङ्ग एक अङ्गुल से लेकर पंद्रह अङ्गुल तक का हो सकता है ॥ ६-८ ॥
द्वारमान से लिङ्ग के तीन भेद हैं। इनमें से प्रत्येक के गर्भमान के अनुसार नौ-नौ भेद होते हैं। (इस तरह कुल सत्ताईस हुए। इनके अतिरिक्त) करमान से नौ लिङ्ग और हैं। इनकी देवालय में पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार सबको एक में जोड़ने से छत्तीस लिङ्ग जानने चाहिये। ये ज्येष्ठमान के अनुसार हैं। मध्यममान से और अधम (कनिष्ठ)- मान से भी छत्तीस – छत्तीस शिवलिङ्ग हैं- ऐसा जानना चाहिये। इस प्रकार समस्त लिङ्गों को एकत्र करने से एक सौ आठ शिवलिङ्ग हो सकते हैं। एक से लेकर पाँच अङ्गुलतक का चल शिवलिङ्ग ‘कनिष्ठ‘ कहलाता है, छ: से लेकर दस अङ्गुलतक का चल लिङ्ग ‘मध्यम‘ कहा गया है तथा ग्यारह से लेकर पंद्रह अङ्गुलतक का चल शिवलिङ्ग ‘ज्येष्ठ‘ जानने योग्य है। महामूल्यवान् रत्नों का बना हुआ शिवलिङ्ग छः अङ्गुल का, अन्य रत्नों से निर्मित शिवलिङ्ग नौ अङ्गुल का, सुवर्णभार का बना हुआ बारह अङ्गुल का तथा शेष वस्तुओं से निर्मित शिवलिङ्ग पंद्रह अङ्गुल का होना चाहिये ॥ ९-१३ ॥
लिङ्ग - शिला के सोलह अंश करके उसके ऊपरी चार अंशों में से पार्श्ववर्ती दो भाग निकाल दे। फिर बत्तीस अंश करके उसके दोनों कोणवर्ती सोलह अंशों को लुप्त कर दे। फिर उसमें चार अंश मिलाने से ‘कण्ठ‘ होता है। तात्पर्य यह कि बीस अंश का कण्ठ होता है और उभय पार्श्ववर्ती ३x४-१२ अंशों को मिटाने से ज्येष्ठ चल लिङ्ग बनता है। प्रासाद की ऊँचाई के मान को सोलह अंशों में विभक्त करके उसमें से चार, छः और आठ अंशों द्वारा क्रमशः हीन, मध्यम और ज्येष्ठ द्वार निर्मित होता है। द्वार की ऊँचाई में से एक चौथाई कम कर दिया जाय तो वह लिङ्ग की ऊँचाई का मान है। लिङ्गशिला के गर्भ के आधे भागतक की ऊँचाई का शिवलिङ्ग ‘अधम‘ (कनिष्ठ) होता है और तीन भूतांश (३ x ५ = ) पंद्रह अंशों के बराबर की ऊँचाई का शिवलिङ्ग ‘ज्येष्ठ‘ कहा गया है। इन दोनों के बीच में बराबर की ऊँचाई पर सात जगह सूत्रपात (सूत द्वारा रेखा) करे। इस तरह नौ सूत (सूत्रनिर्मित रेखाचिह्न) होंगे। इन नौ सूतों में से पाँच सूतों की ऊँचाई के माप का शिवलिङ्ग ‘मध्यम‘ होगा। लिङ्गों की लंबाई (या ऊँचाई) उत्तरोत्तर दो-दो अंश के अन्तर से होगी। इस तरह लिङ्गों की दीर्घता बढ़ती जायगी और नौ लिङ्ग निर्मित होंगे ॥ १४ – १८ ॥
यदि हाथ के माप से नौ लिङ्ग बनाये जायँ तो पहला लिङ्ग एक हाथ का होगा, फिर दूसरे के माप में पहले से एक हाथ बढ़ जायगा; इस प्रकार जबतक नौ हाथ की लंबाई पूरी न हो जाय तबतक शिला या काष्ठ की माप में एक-एक हाथ बढ़ाते रहेंगे। ऊपर जो हीन, मध्यम और उत्तम- तीन प्रकार के लिङ्ग बताये गये हैं, उनमें से प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं। बुद्धिमान् पुरुष एक- एक लिङ्ग में विभागपूर्वक तीन-तीन लिङ्ग का निर्माण करावें। छः अङ्गुल और नौ अङ्गुल के शिवलिङ्गों में भी तीन-तीन लिङ्ग निर्माण करावे। स्थिर लिङ्ग द्वारमान, गर्भमान तथा हस्तमान- इन तीन दीर्घ प्रमाणों (मापों) के अनुसार बनाना चाहिये। उक्त तीन मापों के अनुसार ही उसकी तीन संज्ञाएँ हैं- भगेश, जलेश तथा देवेश । विष्कम्भ (विस्तार) के अनुसार लिङ्ग के चार रूप लक्षित करे। दीर्घप्रमाण के अनुसार सम्पादित होनेवाले तीन रूपों में निर्दिष्ट लिङ्ग को शुभ आय आदि से युक्त करके निर्मित करावे। उन त्रिविध लिङ्गों की लंबाई चार या आठ-आठ हाथ की हो-यह अभीष्ट है। वे क्रमशः त्रितत्त्वरूप अथवा त्रिगुणरूप हैं। जो लिङ्ग जितने हाथ का हो, उसका अङ्गुल बनाकर आय- संख्या ८, स्वर- संख्या (७), भूत- संख्या (५) तथा अग्नि संख्या (३) से पृथक्-पृथक् भाग दे। जो शेष बचे उसके अनुसार शुभाशुभ फल को जाने ॥ १९ – २४ ॥
ध्वजादि आयों में से ध्वज, सिंह, हस्ती और वृषभ ये श्रेष्ठ हैं। अन्य चार आय अशुभ हैं। सात संख्या से भाग देने पर जो शेष बचे, उसके अनुसार स्वर का निश्चय करे ।) स्वरों में षड्ज,गान्धार तथा पञ्चम शुभदायक हैं। [पाँच से भाग देने पर जो शेष बचे, उसके अनुसार पृथ्वी आदि भूतों का निश्चय करे । भूतों में पृथ्वी ही शुभ है। तीन से भाग देने पर जो शेष रहे, तदनुसार अग्नि जाने। अग्नियों में आहवनीय अग्नि ही शुभ है।उक्त लिङ्ग की लंबाई को आधा करके उसमें आठ से भाग देने पर यदि शेष सात से अधिक हो तो वह लिङ्ग ‘ आढ्य‘ कहा जाता है। यदि पाँच से अधिक शेष रहे तो वह ‘अनाढ्य‘ है। यदि छः अंश से अधिक शेष हो तो वह लिङ्ग ‘देवेज्य‘ है और यदि तीन अंश से अधिक शेष हो तो उस लिङ्ग को ‘अर्कतुल्य‘ माना जाता है। ये चारों ही प्रकार के लिङ्ग चतुष्कोण होते हैं। पाँचवाँ ‘वर्धमान‘ संज्ञक लिङ्ग है, उसमें व्यास से नाह बढ़ा हुआ होता है। व्यास के समान नाह एवं व्यास से बढ़ा हुआ नाह- इस प्रकार इन लिङ्गों के दो भेद हो जाते हैं। विश्वकर्म शास्त्र के अनुसार इन सबके बहुत-से भेद बताये जायेंगे। आढ्य आदि लिङ्गों की स्थूलता आदि के कारण तीन भेद और होते हैं। उनमें एक-एक यव की वृद्धि करने से वे सब आठ प्रकार के लिङ्ग होते हैं। फिर हस्तमान से ‘जिन‘ संज्ञक लिङ्ग के भी तीन भेद होंगे। उसको सर्वसम लिङ्ग में जोड़ लिया जायगा ॥ २५-२९ ॥
अपराजित पृच्छा‘ के ‘आयाधिकार‘ नामक चौसठवें सूत्र में आयों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं-ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वान, वृष, गर्दभ, गज और ध्वांक्ष (काक)। इनकी स्थिति पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिण क्रम से है। देवालय के लिये ध्वज, सिंह, वृष और गज ये आय श्रेष्ठ कहे गये हैं। अधमों के लिये शेष आय सुखावह हैं। सत्ययुग में ध्वज, त्रेता में सिंह, द्वापर में वृषभ और कलियुग में गजी नामक आय का प्राधान्य है। सिंह नामक आय मुख्यतः राजाओं के लिये कल्याणकारक है; ब्राह्मण के लिये ध्वज प्रशस्त है तथा वैश्य के लिये वृष । ध्वज आप में अर्थलाभ होता है और धूम्र में संताप सिंह आय में विपुल भोग उपस्थित होते हैं। श्वान नामक आय में कलह होता है। वृषभ में धन-धान्य की वृद्धि होती है। गर्दभ में स्त्रियों का चरित्र दूषित होता है। हाथी नामक आय में सब लोग शुभ देखते हैं और काक नामक आय होने पर निश्चय ही मृत्यु होती है। (श्लोक ९-१६)
अनाढ्य, देवार्चित तथा अर्कतुल्य में भी पाँच- पाँच भेद होने से ये पच्चीस होंगे। ये सब एक, जिन और भक्त भेदों से पचहत्तर हो जायँगे। सबका आकलन करने से पंद्रह हजार चार सौ शिवलिङ्ग हो सकते हैं। इसी तरह आठ अङ्गुल के विस्तारवाला लिङ्ग भी एकाङ्गुल मान, हस्तमान एवं गर्भमान के अनुसार नौ भेदों से युक्त है। इन सबके कोण तथा अर्द्धकोणस्थ सूत्रों द्वारा कोणों का छेदन (विभाजन) करे। लिङ्ग के मध्यभाग के विस्तार को ही प्रत्येक विभाग का विस्तार मानकर, तदनुसार मध्य, ऊर्ध्व और अधः - इन विभागों की स्थापना करे। मध्यम विभाग से ऊपर का अष्टकोण या षोडश कोणवाला विभाग शिव का अंश है। पाद या मूलभाग से जानुपर्यन्त लिङ्ग का अधोभाग है, यह ब्रह्मा का अंश है तथा जानु से नाभिपर्यन्त लिङ्ग का मध्यम भाग है, जो भगवान् विष्णु का अंश है ॥ ३० - ३३ ॥
मूर्धान्तभाग भूतभागेश्वर का है। व्यक्त-अव्यक्त सभी लिङ्गों के लिये ऐसी ही बात है। जिस शिवलिङ्ग में पाँच लिङ्ग की व्यवस्था है, वहाँ शिरोभाग गोलाकार होना चाहिये- ऐसा बताया जाता है। वह गोलाई छत्राकार हो, मुर्गी के अंडेके समान हो; नवोदित चन्द्र के सदृश हो या पुरुष के आकार की हो। ‘पुरुषाकृति‘ के स्थान में ‘त्रपुषाकृति‘ पाठ हो तो गोलाई त्रपुष के समान आकारवाली हो - ऐसा अर्थ लेना चाहिये।] इस प्रकार एक- एक के चार भेद होते हैं। कामनाओं के भेद से इनके फल में भी भेद होता है, यह बताऊँगा। लिङ्ग के मस्तक भाग का विस्तार जितने अङ्गुल का हो, उतनी संख्या में आठ से भाग दे। इस प्रकार मस्तक को आठ भागों में विभक्त करके आदि के जो चार भाग हैं, उनका विस्तार और ऊँचाई के अनुसार ग्रहण करे। एक भाग को छाँट देने से ‘पुण्डरीक‘ नामक लिङ्ग होता है, दो भागों को लुप्त कर देने से ‘विशाल‘ संज्ञक लिङ्ग होता है, तीन भागों का उच्छेद कर देने पर उसकी ‘श्रीवत्स‘ संज्ञा होती है तथा चार भागों के लोप से उस लिङ्ग को ‘शत्रुकारक‘ कहा गया है। शिरोभाग सब ओर से सम हो तो श्रेष्ठ माना गया है। देवपूज्य लिङ्ग में मस्तक भाग कुक्कुट के अण्ड की भाँति गोल होना चाहिये ॥ ३४-३८ ॥
चतुर्भागात्मक लिङ्ग में से ऊपर का दो भाग मिटा देने से ‘त्रपुष‘ नामक लिङ्ग होता है। यह(त्रपुष) अनाढ्यसंज्ञक शिवलिङ्ग का सिर माना गया है। अब अर्द्ध-चन्द्राकार सिर के विषय में सुनो-शिवलिङ्ग के प्रान्तभाग में एक अंश के चार अंश करके एक अंश को त्याग दिया जाय तो वह ‘अमृताक्ष‘ नाम धारण करता है। दूसरे, तीसरे और चौथे अंश का लोप करने पर क्रमशः उन शिवलिङ्गों की ‘पूर्णेन्दु‘, ‘बालेन्दु‘ तथा ‘कुमुद‘ संज्ञा होती है। ये क्रमशः चतुर्मुख, त्रिमुख और एकमुख होते हैं। इन तीनों को ‘मुखलिङ्ग‘ भी कहते हैं। अब मुखलिङ्ग के विषय में सुनो- पूजाभाग की त्रिविध कल्पना करनी चाहिये- मूर्तिपूजा, अग्निपूजा तथा पदपूजा। पूर्ववत् द्वादशांश का त्याग करके छः भागों द्वारा छः स्थानों की अभिव्यक्ति करे। सिर को ऊँचा करना चाहिये तथा ललाट, नासिका, मुख, चिबुक तथा ग्रीवाभाग को भी स्पष्टतया व्यक्त करे। चार भागों  या अंशों द्वारा दोनों भुजाओं तथा नेत्रों को प्रकट करे। प्रतिमा के प्रमाण के अनुसार मुकुलाकार हाथ बनाकर विस्तार के अष्टमांश से चारों मुखों का निर्माण करे। प्रत्येक मुख सब ओर से सम होना चाहिये। यह मैंने चतुर्मुखलिङ्ग के विषय में बताया है; अब त्रिमुखलिङ्ग के विषय में बताया जाता है, सुनो-॥ ३९-४४ ॥
त्रिमुखलिङ्ग में चतुर्मुख की अपेक्षा कान और पैर अधिक रहेंगे। ललाट आदि अङ्गों का पूर्ववत् ही निर्देश करे। चार अंशों से दो भुजाओं का निर्माण करे, जिनका पिछला भाग सुदृढ़ एवं सुपुष्ट हो। विस्तार के अष्टमांश से तीनों मुखों का विनिर्गम (प्राकट्य ) हो । अब एकमुखलिङ्ग के विषय में सुनो एकमुख पूर्व दिशा में बनाना चाहिये उसके नेत्रों में सौम्यभाव रहे। उग्रता न हो। उसके ललाट, नासिका, मुख और ग्रीवा में विवर्तन (विशेष उभाड़) हो। बाहु- विस्तार के पञ्चमांश से पूर्वोक्त अङ्गों का निर्माण होना चाहिये। एकमुखलिङ्ग को बाहुरहित बनाना चाहिये। एकमुखलिङ्ग में विस्तार के छठे अंश से मुख का निर्गमन हितकर कहा गया है। मुखयुक्त जितने भी लिङ्ग हैं, उन सबका शिरोभाग पुषाकार या कुक्कुटाण्ड के समान गोलाकार होना चाहिये ॥ ४५-४८ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘लिङ्गमान एवं व्यक्ताव्यक्त लक्षण आदि का वर्णन‘ नामक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५४ ॥

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