अग्नि पुराण - उनचासवाँ अध्याय ! Agni Purana - 49 Chapter !
अग्निपुराण अध्याय ४९ मत्स्यादि दशावतारों की प्रतिमाओं के लक्षणों का वर्णन है। - मत्स्यादिसक्षणवर्णनम्अग्नि पुराण - उनचासवाँ अध्याय ! Agni Purana - 49 Chapter ! |
अग्नि पुराण - उनचासवाँ अध्याय ! Agni Purana - 49 Chapter !
भगवानुवाच
दशावतारं मत्स्यादिलक्षणं प्रवदामि ते।
मत्स्याकारस्तु मत्स्यः स्यात् कूर्मः कूर्म्माकृतिर्भवेत् ।। १ ।।
नराङ्गो वाथ कर्त्तव्यौ भूवराहौ गदादिभृत्।
दक्षिणे वामके शङ्खं लक्ष्मीर्वा पद्ममेव वा ।। २ ।।
श्रीर्वामकूर्प्परस्था तु क्ष्मानन्तौ चरणानुगौ।
वराहस्थापनाद्राज्यं भवाब्धितरणं भवेत् ।। ३ ।।
नरसिंहो विवृत्तास्यो वामोरुक्षतदानवः ।
तद्वक्षो दारयन्माली स्फुरच्चक्रगदाधरः ।। ४ ।।
छत्री दण्डी वामनः स्यादथवा स्याच्चतुर्भुजः।
रामश्चापेषुहस्तः स्यात् खड्गी परसुनान्वितः ।। ५ ।।
रामश्चापी शरी खड्गी शङ्खी वा द्विभूजः स्मृतः।
गदालाङ्गलधारी च रामो वाथ चतुर्भुजः।। ६ ।।
वामोर्ध्वे लाङ्गलं दद्यादधः शङ्खं सुशोभनम्।
मुषलं दक्षिणोर्ध्वे तु चक्रञ्चाधः सुशोभनम् ।। ७ ।।
धनुस्तृणान्वितः कल्की म्लेच्छोत्सादकरोद्विजः।
अथवाश्वस्थितः खङ्गी शङ्खचक्रशरान्वितः ।। ८ ।।
लक्षणं वासुदेवादिनवकस्य वदामि ते।
दक्षिणोर्ध्वे गदा वामे वामोर्ध्वे चक्रमुत्तमम् ।। ९ ।।
ब्रह्मेशौ पार्श्वगौ नित्यं वासुदेवोस्ति पूर्ववत्।
शङ्खी स वरदो वाथ द्विभुजो वा चतुर्भुजः ।। १० ।।
लाङ्गली मुषली रामो गदापद्मधरः स्मृतः।
प्रद्युम्नो दक्षिणे वज्रं शङ्खं वामे धनुः करे ।। ११ ।।
गदानाभ्यावृतः ग्रीत्या प्रद्युम्नो वा धनुः शरी।
चतुर्भुजोनिरुद्धः स्यात्तथा नारायणो विभुः ।। १२ ।।
चतुर्मुखश्चतुर्व्वाहुर्ब्बृहज्जठरमण्डलः।
लम्बकूर्च्चे जटायुक्तो ब्रह्मा हंसाग्रवाहनः ।। १३ ।।
दक्षिणे चाक्षसूत्रञ्च स्रुवो वामे तु कुण्डिका।
आज्यस्थाली सरस्वती सावित्री वामदक्षिणे ।। १४ ।।
विष्णुरष्टभुजस्तार्क्षे करे खड्गस्तु दक्षिणे।
गदा शरश्च वरदो वामे कार्मुकखेटके ।। १५ ।।
चक्रशङ्खौ चतुर्बाहुर्न्नरसिंहश्चतुर्भुजः।
शङ्खचक्रधरो वापि विदारितमहासुरः ।। १६ ।।
चतुर्बाहुर्वराहस्तु शेषुः पाणितले धृतः।
धारयन् बाहुना पृथ्वीं वामेन कमलाधरः ।। १७ ।।
पादलग्ना धरा कार्य्या पदा लक्ष्मीर्व्यवस्थिता।
त्रैलोक्यमोहनस्तार्क्ष्ये अष्टवाहुस्तु दक्षिणे ।। १८ ।।
चक्रं खड्गं च मुषलं अङ्कुशं वामके करे।
शङ्कशार्ङ्गगदापाशान् पद्मवीणासमन्विते ।।१९ ।।
लक्ष्मीः सरस्वती कार्य्ये विश्वरूपोऽथ दक्षिणे।
मुद्गरं च तथा पाशं शक्तिशूलं शरं करे ।। २० ।।
वामे शङ्खञ्च शार्ङ्गञ्च गदां पाशं च तोमरम्।
लाङ्गलं परशुं दण्डं छुरिकां चर्म्मक्षेपणम् ।। २१ ।।
विंशद्बाहुश्चतुर्व्वक्त्रो दक्षिणस्थोथ वामके।
त्रिनेत्रो वामपार्श्वेन शयितो जलशाय्यपि ।। २२ ।।
श्रिया धृतैकचरणो विमलाद्याभिरीडितः।
नाभिपद्मचतुर्वक्त्रो हरिशङ्करको हरिः ।। २३ ।।
शूलर्ष्टिधारी दक्षे च गदाचक्रधरो पदे।
रुद्रकेशवलक्ष्माङ्गो गौरीलक्ष्मीसमन्वितः ।। २४ ।।
शङ्खचक्रगदावेदपाणिश्चाश्वशिरा हरिः।
वामपादो धृतः शेषे दक्षिणः कूर्म्मपृष्ठगः ।। २५ ।।
दत्तात्रेयो द्विबाहुः स्याद्वामोत्सङ्गे श्रिया सह।
विष्वक्सेनश्चक्रगदी हली शङ्खी हरेर्गणः ।। २६ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये प्रतिमालक्षणं नाम ऊनपञ्चाशोऽध्यायः।
अग्नि पुराण - उनचासवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 49 Chapter!-In Hindi
भगवान् हयग्रीव कहते हैं - ब्रह्मन् ! अब मैं तुम्हें मत्स्य आदि दस अवतार विग्रहों का लक्षण बताता हूँ। मत्स्यभगवान् की आकृति मत्स्य के समान और कूर्म भगवान् की प्रतिमा कूर्म (कच्छप)- के आकार की होनी चाहिये। पृथ्वी के उद्धारक भगवान् वराह को मनुष्याकार बनाना चाहिये, वे दाहिने हाथ में गदा और चक्र धारण करते हैं। उनके बायें हाथ में शङ्ख और पद्म शोभा पाते हैं। अथवा पद्म के स्थान पर वाम भाग में पद्मा देवी सुशोभित होती हैं। लक्ष्मी उनके बायें कूर्पर (कोहनी) – का सहारा लिये रहती हैं। पृथ्वी तथा अनन्त चरणों के अनुगत होते हैं। भगवान् वराह की स्थापना से राज्य की प्राप्ति होती है और मनुष्य भवसागर से पार हो जाता है। नरसिंह का मुँह खुला हुआ है। उन्होंने अपनी बायीं जाँघ पर दानव हिरण्यकशिपु को दबा रखा है और उस दैत्य के वक्ष को विदीर्ण करते दिखायी देते हैं। उनके गले में माला है और हाथों में चक्र एवं गदा प्रकाशित हो रहे हैं ॥ १-४ ॥
वामन का विग्रह छत्र एवं दण्ड से सुशोभित होता है अथवा उनका विग्रह चतुर्भुज बनाया जाय। परशुराम के हाथों में धनुष और बाण होना चाहिये। वे खड्ग और फरसे से भी शोभित होते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के श्रीविग्रह को धनुष, बाण, खड्ग और शङ्ख से सुशोभित करना चाहिये। अथवा वे द्विभुज माने गये हैं। बलरामजी गदा एवं हल धारण करनेवाले हैं, अथवा उन्हें भी चतुर्भुज बनाना चाहिये। उनके बायें भाग के ऊपरवाले हाथ में हल धारण करावे और नीचेवाले में सुन्दर शोभावाली शङ्ख, दायें भाग के ऊपरवाले हाथ में मुसल धारण करावे और नीचेवाले हाथ में शोभायमान सुदर्शन चक्र ॥ ५-७ ॥
बुद्धदेव की प्रतिमा का लक्षण यों है। बुद्ध ऊँचे पद्ममय आसन पर बैठे हैं। उनके एक हाथ में वरद और दूसरे में अभय की मुद्रा है। वे शान्तस्वरूप हैं। उनके शरीर का रंग गोरा और कान लम्बे हैं। वे सुन्दर पीत वस्त्र से आवृत हैं। कल्की भगवान् धनुष और तूणीर से सुशोभित हैं। म्लेच्छों के संहार में लगे हैं। वे ब्राह्मण हैं। अथवा उनकी आकृति इस प्रकार बनावे-वे घोड़े की पीठ पर बैठे हैं और अपने चार हाथों में खड्ग, शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण करते हैं ॥ ८-९ ॥
ब्रह्मन् ! अब मैं तुम्हें वासुदेव आदि नौ मूर्तियों के लक्षण बताता हूँ। दाहिने भाग के ऊपरवाले हाथ में उत्तम चक्र – यह वासुदेव की मुख्य पहचान है। उनके एक पार्श्व में ब्रह्मा और दूसरे भाग में महादेवजी सदा विराजमान रहते हैं। वासुदेव की शेष बातें पूर्ववत् हैं। वे शङ्ख अथवा वरद की मुद्रा धारण करते हैं। उनका स्वरूप द्विभुज अथवा चतुर्भुज होता है। बलराम के चार भुजाएँ हैं। वे दायें हाथ में हल और मुसल तथा बायें हाथ में गदा और पद्म धारण करते हैं। प्रद्युम्न दायें हाथ में चक्र और शङ्ख तथा बायें हाथ में धनुष-बाण धारण करते हैं। अथवा द्विभुज प्रद्युम्न के एक हाथ में गदा और दूसरे में धनुष है। वे प्रसन्नतापूर्वक इन अस्त्रों को धारण करते हैं। या उनके एक हाथ में धनुष और दूसरे में बाण है। अनिरुद्ध और भगवान् नारायण का विग्रह चतुर्भुज होता है ॥ १०-१३ ॥
ब्रह्माजी हंस पर आरूढ होते हैं। उनके चार मुख और चार भुजाएँ हैं। उदर-मण्डल विशाल है। लंबी दाढ़ी और सिर पर जटा-यही उनकी प्रतिमा का लक्षण है। वे दाहिने हाथों में अक्षसूत्र और स्रुवा एवं बायें हाथों में कुण्डिका और आज्यस्थाली धारण करते हैं। उनके वाम भाग में सरस्वती और दक्षिण भाग में सावित्री हैं। विष्णु के आठ भुजाएँ हैं। वे गरुड़ पर आरूढ़ हैं। उनके दाहिने हाथों में खड्ग, गदा, बाण और वरद की मुद्रा है। बायें हाथों में धनुष, खेट, चक्र और शङ्ख हैं। अथवा उनका विग्रह चतुर्भुज भी है। नृसिंह के चार भुजाएँ हैं। उनकी दो भुजाओं में शङ्ख और चक्र हैं तथा दो भुजाओं से वे महान् असुर हिरण्यकशिपु का वक्ष विदीर्ण कर रहे हैं ॥ १४ – १७ ॥
वराह के चार भुजाएँ हैं। उन्होंने शेषनाग को अपने करतल में धारण कर रखा है। वे बायें हाथ से पृथ्वी को और वाम भाग में लक्ष्मी को धारण करते हैं। जब लक्ष्मी उनके साथ हों, तब पृथ्वी को उनके चरणों में संलग्न बनाना चाहिये। त्रैलोक्यमोहनमूर्ति श्रीहरि गरुड़ पर आरूढ़ हैं। उनके आठ भुजाएँ हैं। वे दाहिने हाथों में चक्र, शङ्ख, मुसल और अंकुश धारण करते हैं। उनके बायें हाथों में शङ्ख, शार्ङ्गधनुष, गदा और पाश शोभा पाते हैं। वाम भाग में कमलधारिणी कमला और दक्षिण भाग में वीणाधारिणी सरस्वती की प्रतिमाएँ बनानी चाहिये। भगवान् विश्वरूप का विग्रह बीस भुजाओं से सुशोभित है। वे दाहिने हाथों में क्रमशः चक्र, खड्ग, मुसल, अंकुश, पट्टिश, मुद्गर, पाश, शक्ति, शूल तथा बाण धारण करते हैं। बायें हाथों में शङ्ख, शार्ङ्गधनुष, गदा, पाश, तोमर, हल, फरसा, दण्ड, छुरी और उत्तम ढाल लिये रहते हैं। उनके दाहिने भाग में चतुर्भुज ब्रह्मा तथा बायें भाग में त्रिनेत्रधारी महादेव विराजमान हैं। जलशायी जल में शयन करते हैं। इनकी मूर्ति शेषशय्या पर सोयी हुई बनानी चाहिये। भगवती लक्ष्मी उनकी एक चरण की सेवा में लगी हैं। विमला आदि शक्तियाँ उनकी स्तुति करती हैं। उन श्रीहरि के नाभिकमल पर चतुर्भुज ब्रह्मा विराज रहे हैं॥१८-२४ ॥
हरिहर मूर्ति इस प्रकार बनानी चाहिये - वह दाहिने हाथ में शूल तथा ॠष्टि धारण करती है और बायें हाथ में गदा एवं चक्र शरीर के दाहिने भाग में रुद्र के चिह्न हैं और वाम भाग में केशव के । दाहिने पार्श्व में गौरी तथा वाम पार्श्व में लक्ष्मी विराज रही हैं। भगवान् हयग्रीव के चार हाथों में क्रमश: शङ्ख, चक्र, गदा और वेद शोभा पाते हैं। उन्होंने अपना बायाँ पैर शेषनाग पर और दाहिना पैर कच्छप की पीठ पर रख छोड़ा है। दत्तात्रेय के दो बाँहें हैं। उनके वामाङ्क में लक्ष्मी शोभा पाती है। भगवान् के पार्षद विष्वक्सेन अपने चार हाथों में क्रमशः चक्र, गदा, हल और शङ्ख धारण करते हैं ॥ २५ - २६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘मत्स्यादि दशावतारों की प्रतिमाओं के लक्षणों का वर्णन‘ नामक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४९ ॥
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