अग्नि पुराण - चौवालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 44 Chapter !

अग्नि पुराण - चौवालीसवाँ  अध्याय ! Agni Purana - 44  Chapter !

अग्निपुराण अध्याय ४४ वासुदेव आदि की प्रतिमाओं के लक्षण का वर्णन है। वासुदेवादिप्रातिमालक्षणविधि-

अग्नि पुराण - चौवालीसवाँ  अध्याय ! Agni Purana - 44  Chapter !

अग्नि पुराण - 44 अध्याय ! Agni Purana - 44  Chapter !

भगवानुवाच
वासुदेवादिप्रतिमालक्षणं प्रवदामि ते।
प्रासादस्योत्तरे पूर्वमुखीं वा चोत्ताराननाम् ।। १ ।।

संस्थाप्य पूज्य च बलिं दत्त्वाथो मध्यसूत्रकम्।
शिल्पी तु नवधा विभज्य नवमेंऽशके ।। २ ।।

सूर्पभक्तैः शिलायां तु भागं स्वाङ्गुलमुच्यते।
द्व्यङ्गुलं गोलकं नाम्ना कालनेत्रं तदुच्यते ।। ३ ।।

भागमेकं त्रिदा भक्त्वा पार्ष्णिभागं प्राकल्पयेत्।
भागमेकं तथा जानौ ग्रीवायां भागमेव च ।। ४ ।।

मुकुटं तालमात्रं स्यात्तालमात्रं तथा मुखम्।
तालेनैकेन कण्ठन्तु तालेन हृदयं तथा ।। ५ ।।

नाभिमेढ्रान्तरन्तालं द्वितालावूरुकौ तथा।
तालद्वयेन जङ्घा स्यात् सूत्राणि श्रृणु साम्प्रतम् ।। ६ ।।

कार्य्यं सूत्रद्वयं पादे जङ्घामध्ये तथापरम्।
जानौ सूत्रद्वयं कार्य्यमूरुमध्ये तथापरम् ।। ७ ।।

मेढ्रे तथापरं कार्य्यं कट्यां सूत्रन्तथापरम्।
मेखलाबन्धसिद्ध्यर्थं नाभ्यां चैवापरन्तथा ।। ८ ।।

हृदये च तथा कार्य्यं कण्ठे सूत्रद्वयं तथा।
ललाटे चापरं कार्यं मस्तके च तथापरम् ।। ९ ।।

मुकुटोपरि कर्त्तव्यं सूत्रमेकं विचक्षणैः।
सूत्राण्यूद्‌र्ध्वं प्रदेयानि सप्तैव कमलोद्भव ।। १० ।।

कक्षात्रिकान्तरेणैव षट् सूत्राणि प्रदापयेत्।
मध्यसूत्रं तु सन्त्यज्य सूत्राण्येव निवेदयेत् ।। ११ ।।

ललाटं नासिकावक्त्रं कर्त्तव्यञ्चतुरङ्गुलम्।
ग्रीवाकर्णौ तु कर्त्तव्यौ आयामाच्चतुरङ्गुलौ ।। १२ ।।

द्व्यङ्गुले हनुके कार्य्ये विस्ताराच्चिवुकन्तथा।
अष्टाङ्गुलं ललाटन्तु विस्तारेण प्रकीत्तिंतम् ।। १३ ।।

परेण द्व्यङ्गुलौ शङ्खौ कर्त्तव्यावलकान्वितौ।
चतुरङ्गुलमाख्यातमन्तरं कर्णनेत्रयोः ।। १४ ।।

द्व्यङ्गुलौ पृथुकौ कर्णौ कर्णापाङ्गार्द्धंपञ्च मे।
भ्रूसभेन तु सूत्रेण कर्णक्षोत्रं प्रकीत्तितम् ।। १५ ।।

विद्धं षडङ्गुलं कर्णमविद्धञ्चतुरङ्गुलम्।
चिवुकेन समं विद्धमविद्धं वा षडङ्गुलम् ।। १६ ।।

गन्धपात्रं तथावर्त्तं शष्कुलीं कल्वयेत्तथा।
द्व्यङ्गुलेगधरः कार्यस्तस्यार्द्धेनोत्तराधरः ।। १७ ।।

अर्द्धाङ्गुलं तथा नेत्रं वक्त्रन्तु चतुरङ्गुलम्।
आयामेन तु वैपुल्यात् सार्द्धमङ्गुलमुच्यते ।। १८ ।।

अचव्यात्तमेवं स्याद्वक्त्रं व्यात्तं द्व्यङ्गुलमिष्यते।
नासावंशसमुच्छायं मूले त्वेकाङ्गुलं मतम् ।। १९ ।।

उच्छाया द्व्यङ्गुलं चाग्रे करवीरोपमाः स्मृताः।
अन्तरं चक्षुषोः कार्यं चतुरङ्गुलमानतः ।। २० ।।

द्व्यङ्गुलं चाक्षिकोणं च द्व्यङ्गुलं चान्तरं तयोः।
तारा नेत्रत्रिभागेण दृक्‌तारा पञ्चमांशिका ।। २१ ।।

त्र्यङ्गुलं नेत्रविस्तारं द्रोणी चार्द्धाङ्गुला मता।
तत्‌प्रमाणा भ्रुवोर्लेखा भ्रुवौ चैव समे मते ।। २२ ।।

भ्रूमध्यं द्व्यङ्गुलं कार्यं भ्रूदैर्घ्यं चतुरङ्गुलम् ।
षट्‌त्रिंशदङ्गुलायामम्मस्तकस्य तु वेष्टनम् ।। २३ ।।

मूर्त्तीनां केशवादीनां द्वात्रिंशद्वेष्टनं भवेत्।
पञ्च नेत्रा त्वधोग्रीवा विस्तारद्वेष्टनं पुनः ।। २४ ।।

त्रिगुणं तु भवेदूद्धर्वं विस्तृताष्टाङ्गुलं पुनः।
ग्रीवात्रिगुणमायामं ग्रीवावक्षोन्तरं भवेत् ।। २५ ।।

स्कन्दावष्टाङ्गुलौ कार्यौ त्रिकलावंशकौ शुभौ।
सप्तनेत्रौ स्मृतौ बाहू प्रवाहू षोडशाङ्गुलौ ।। २६ ।।

त्रिकलौ विस्तृतौ बाहू प्रवाहू चापि तत्‌समौ।
बाहुदण्डोद्ध्‌र्वतो ज्ञेयः परिणाहः कला नव ।। २८ ।।

नाहः प्रबाहुमध्ये तु षोडशाङ्गुल उच्यते।
अग्रहस्ते परीणाहो द्वादशाङ्गुल उच्यते ।। २९ ।।

विस्तारेण करतलं कीर्त्तितं तु षडङ्गुलम्।
दैर्घ्यं सप्ताङ्गुलं कार्यं मध्या पञ्चाङ्गुला मता ।। ३० ।।

तर्ज्जन्यनामिका चैव तस्मादर्द्धाङ्गुलं विना।
कनिष्ठाङ्गुष्ठकौ कार्यौ चतुरङ्गुलम्मितौ ।। ३१ ।।

द्विपर्वोङगुष्ठकः कार्यः शेषांगुल्यस्त्रिपर्विकाः।
सर्वासां पर्वणोर्द्धेन नखमानं विधीयते ।। ३२ ।।

वक्षसो यत् प्रमाणन्तु जठरं तत्‌प्रमाणतः।
अङ्‌गुलैकं भवेन्नाभी वेधेन च प्रमाणतः ।। ३३ ।।

ततो मेढ्रान्तरं कार्यं तालमात्रं प्रमाणतः।
नाभिमध्ये परीणाहो द्विचत्वारिंशदङ्गुलैः ।। ३४ ।।

अन्तरं स्तनयोः कार्य्यं तालमात्रं प्रमाणतः।
चिवुकौ यवमानौ तु मण्डलं द्विपदं भवेत् ।। ३५ ।।

चतुः षष्ट्यङ्गुलं कार्यं वेष्टनं वक्षसः स्फुटम्।
चतुर्मुखञ्च तदधोवेष्टनं परिकीर्त्तितम् ।। ३६ ।।

परिणाहस्तथा कट्या चतुः पञ्चाशदङ्गुलैः।
विस्तारश्चोरुमूले तु प्रोच्यते द्वादशाङ्गुलः ।। ३७ ।।

तस्मादभ्यधिकं मध्ये ततो निम्नतरं क्रमात्।
विस्तृताष्टाङ्गुलं जानुत्रिगुणा परिणाहतः ।। ३८ ।।

जङ्घा मध्ये तु विस्तारः सप्ताङ्गुल उदाहृतः।
त्रिगुणा परिधिश्चास्य जङ्घाग्रं पञ्चविस्तरात् ।। ३९ ।।

त्रिगुणा परिधिस्चास्य पादौ तालप्रमाणकौ।
आयामादुत्थितौ पादौ चतुरङ्गुलमेव च ।। ४० ।।

गुल्फात् पूर्वं तु कर्त्तव्यं प्रमाणाच्चतुरङ्गेलम्।
त्रिकलं विस्तृतौ पादौ त्र्यङ्गुलो गुह्यकः स्मृतः ।। ४१ ।।

पञ्चाङ्गुलन्तु नाहोस्य दीर्घा तद्वत् प्रदेशिनी।
अष्टमाष्टांशतो न्यूताः शेषाङ्गुल्यः क्रमेण तु ।। ४२ ।।

सपादाङ्गुलमुत्तसेधमङगुष्ठस्य प्रकीर्त्तितम्।
यवोनमङ्गुलं कार्यमङ्गुष्ठस्य नखं तथा ।। ४३ ।।

अर्द्धाङ्गुलं तथान्यासां क्रमान् न्यूनं तु कारयेत्।
त्र्यङ्गुलौ वृषणौ कार्यौ मेढ्रं तु चतुरङ्गुम् ।। ४४ ।।

परिणाहोत्र कोषाग्रं कर्त्तव्यञ्चतुरङ्गुलम्।
षडङ्गुलपरीणाहौ वृषणौ परिकीर्त्तितौ ।। ४५ ।।

प्रतिमा भूषणाढ्या स्यादेतदुद्देशलक्षणम्।
अनयैव दिशा कार्यं लोके दृष्ट्वा तु लक्षणम् ।। ४६ ।।

दक्षिणे तु करे चक्रमधस्तात् पद्ममेव च।
वामे शङ्खं गदीदसितद्वासुदेवस्य लक्षणात् ।। ४७ ।।

श्रीपुष्टी चापि कर्त्तव्ये पद्मवीणाकरान्विते।
ऊरुमात्रोच्छितायामे मालाविद्याधरौ तथा ।। ४८ ।।

प्रभामण्डलसंस्थौ तौ प्रभा हस्त्यादिभूषणा।
पद्माभं पादपीठन्तु प्रतिमास्वेवमाचरेत् ।। ४९ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये प्रतिमालक्षणं नाम चतुश्चत्वार्रिशोऽध्यायः।

अग्नि पुराण - उचौवालीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 44 Chapter!-In Hindi

भगवान्‌ हयग्रीव बोले-ब्रह्मन्‌! अब मैं तुम्हें वासुदेव आदिकी प्रतिमाके लक्षण बताता हूँ, सुनो। मन्दिरके उत्तर भागमें शिलाको पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख रखकर उसकी पूजा करे और उसे बलि अर्पित करके कारीगर शिलाके बीचमें सूत लगाकर उसका नौ भाग करे। नवें भागको भी १२ भागोंमें विभाजित करनेपर एकएक भाग अपने अद्भुलसे एक अद्भुलका होता है। दो अज्जुलका एक गोलक होता है, जिसे “कालनेत्र' भी कहते हैं॥ १-३॥
उक्त नौ भागोंमेंसे एक भागके तीन हिस्से करके उसमें पार्ण्णि-भागकी कल्पना करे। एक भाग घुटनेके लिये तथा एक भाग कण्ठके लिये निश्चित रखे। मुकुटको एक बित्ता रखे। मुँहका भाग भी एक बित्तेका ही होना चाहिये। इसी प्रकार एक बित्तेका कण्ठ और एक ही बित्तेका हृदय भी रहे। नाभि और लिड्भके बीचमें एक बित्तेका अन्तर होना चाहिये। दोनों ऊरु दो बित्तेके हों। जंघा भी दो बित्तेकी हो। अब सूत्रोंका माप सुनो॥ ४-६॥
दो सूत पैरमें और दो सूत जद्भामें लगावे। घुटनोंमें दो सूत तथा दोनों ऊरुओंमें भी दो सूतका उपयोग करे। लिड्रमें दूसरे दो सूत तथा कटिमें भी कमरबन्ध (करधन) बनानेके लिये दूसरे दो सूतोंका योग करे। नाभिमें भी दो सूत काममें लावे। इसी प्रकार हृदय और कण्ठमें दो सूतका उपयोग करे। ललाटमें दूसरे और मस्तकमें दूसरे दो सूतोंका उपयोग करे। बुद्धिमान्‌ कारीगरों मुकुटके ऊपर एक सूत करना चाहिये। ब्रह्मन्‌! ऊपर सात ही सूत देने चाहिये। तीन कक्षाओंके अन्तरसे ही छः: सूत्र दिलावे। फिर मध्यसूत्रको त्याग दे और केवल सूत्रोंको ही निवेदित करे॥ ७ -११॥
ललाट, नासिका और मुखका विस्तार चार अज्भुलका होना चाहिये। गला और कानका भी चार-चार अज्भुल विस्तार करना चाहिये। दोनों ओरकी हनु (ठोढ़ी) दो-दो अज्भुल चौड़ी हो और चिबुक (ठटोढ़ीके बीचका भाग) भी दो अद्भुलका हो। पूरा विस्तार छः अज्भुलका होना चाहिये। इसी प्रकार ललाट भी विस्तारमें आठ अड्भुलका बताया गया है। दोनों ओरके शट्ढु दोदो अद्भुलके बनाये जायँ और उनपर बाल भी हों। कान और नेत्रके बीचमें चार अज्भुलका अन्तर रहना चाहिये। दो-दो अद्भुलके कान एवं पृथुक बनावे। भौंहोंके समान सूत्रके मापका कानका स्रोत कहा गया है। बिंधा हुआ कान छः अड्जुलका हो और बिना बिंधा हुआ चार अद्भुलका। अथवा बिंधा हो या बिना बिंधा, सब चिबुकके समान छ: अन्जुलका होना चाहिये॥ १२-१६॥
गन्धपात्र, आवर्त तथा शष्कुली (कानका पूरा घेरा) भी बनावे। एक अड्जभुलमें नीचेका ओठ और आधे अद्भुलका ऊपरका ओठ बनावे। नेत्रका विस्तार आधा अज्भुल हो और मुखका विस्तार चार अद्भुल हो। मुखकी चौड़ाई डेढ़ अद्भुलकी होनी चाहिये। नाककी ऊँचाई एक अज्भुल हो और ऊँचाईसे आगे केवल लंबाई दो अज्भुलकी रहे। करवीर-कुसुमके समान उसकी आकृति होनी चाहिये। दोनों नेत्रोंके बीच चार अज्भुलका अन्तर हो। दो अड्भुल तो आँखके  घेरेमें आ जाता है, सिर्फ दो अद्भुल अन्तर रह  जाता है। पूरे नेत्रका तीन भाग करके एक भागके  बराबर तारा (काली पुतली) बनावे और पाँच भाग करके, एक भागके बराबर दृक्तारा (छोटी पुतली) बनावे। नेत्रका विस्तार दो अज्भुलका हो और द्रोणी आधे अद्भुलकी। उतना ही प्रमाण भौंहोंकी रेखाका हो। दोनों ओरकी भौंहें बराबर रहनी चाहिये। भौंहोंका मध्य दो अद्जुलका और विस्तार चार अज्भुलका होना चाहिये॥ १७-२२॥
भगवान् केशव आदि की मूर्तियों के मस्तक का पूरा घेरा छब्बीस अङ्गुल का होवे अथवा बत्तीस अङ्गुल का । नीचे ग्रीवा (गला) पाँच नेत्र (अर्थात् दस अङ्गुल) की हो और इसके तीन गुना अर्थात् तीस अङ्गुल उसका वेष्टन (चारों ओर का घेरा ) हो नीचे से ऊपर की ओर ग्रीवा का विस्तार आठ अङ्गुल का हो । ग्रीवा और छाती के बीच का अन्तर ग्रीवा के तीन गुने विस्तारवाला होना चाहिये। दोनों ओर के कंधे आठ-आठ अङ्गुल के और सुन्दर अंस तीन-तीन अङ्गुल के हों। सात नेत्र (यानी चौदह अङ्गुल) की दोनों बाहें और सोलह अङ्गुल की दोनों प्रबाहुएँ हों (बाहु और प्रबाहु मिलकर पूरी बाँह समझी जाती है) । बाहुओं की चौड़ाई छः अङ्गुल की हो। प्रबाहुओं की भी इनके समान ही होनी चाहिये। बाहुदण्ड का चारों ओर का घेरा कुछ ऊपर से लेकर नौ कला अथवा सत्रह अङ्गुल समझना चाहिये। आधे पर बीच में कूर्पर (कोहनी) है। कूर्पर का घेरा सोलह अङ्गुल का होता है। ब्रह्माजी ! प्रबाहु के मध्य में उसका विस्तार सोलह अङ्गुल का हो । हाथ के अग्रभाग का विस्तार बारह अङ्गुल हो और उसके बीच करतल का विस्तार छः अङ्गुल कहा गया है। हाथ की चौड़ाई सात अङ्गुल की करे। हाथ के मध्यमा अङ्गुली की लंबाई पाँच अङ्गुल की हो और तर्जनी तथा अनामिका की लंबाई उससे आधा अङ्गुल कम अर्थात् ४ ॥ अङ्गुल की करे । कनिष्ठिका और अँगूठे की लंबाई चार अङ्गुल की करे। अँगूठे में दो पोरु बनावे और बाकी सभी अँगुलियों में तीन-तीन पोरु रखे। सभी अँगुलियों के एक-एक पोरु के आधे भाग के बराबर प्रत्येक अँगुली के नख की नाप समझनी चाहिये। छाती की जितनी माप हो, पेट की उतनी ही रखे। एक अङ्गुल के छेदवाली नाभि हो । नाभि से लिङ्ग के बीच का अन्तर एक बित्ता होना चाहिये ॥ २३-३३
दोनों पैरों की चौड़ाई छः अङ्गुल की, गुह्यभाग तीन अङ्गुल का और उसका पंजा पाँच अङ्गुल का होना चाहिये। पैरों में प्रदेशिनी, अर्थात् अँगूठा चौड़ा होना उचित है। शेष अंगुलियों के मध्यभाग का विस्तार क्रमश: पहली अँगुली के आठवें-आठवें भाग के बराबर कम होना चाहिये। अँगूठे की ऊँचाई सवा अङ्गुल बतायी गयी है। इसी प्रकार अँगूठे के नख का प्रमाण और अँगुलियों से दूना रखना चाहिये। दूसरी अँगुली के नख का विस्तार आधा अङ्गुल तथा अन्य अँगुलियों के नखों का विस्तार क्रमशः जरा-जरा-सा कम कर देना चाहिये ॥ ४१-४३ ॥
दोनों अण्डकोष तीन-तीन अङ्गुल लंबे बनावे और लिङ्ग चार अङ्गुल लंबा करे। इसके ऊपर का भाग चार अङ्गुल रखे। अण्डकोषों का पूरा घेरा छः-छः अङ्गुल का होना चाहिये। इसके सिवा भगवान्की प्रतिमा सब प्रकार के भूषणों से भूषित करनी चाहिये। यह लक्षण उद्देश्यमात्र (संक्षेप से) बताया गया है । ४४-४५ ।।
इसी प्रकार लोक में देखे जानेवाले अन्य लक्षणों को भी दृष्टि में रखकर प्रतिमा में उसका निर्माण करना चाहिये। दाहिने हाथों में से ऊपरवाले हाथ में चक्र और नीचेवाले हाथ में पद्म धारण करावे। बायें हाथों में से ऊपरवाले हाथ में शङ्ख और नीचेवाले हाथ में गदा बनावे। यह वासुदेव श्रीकृष्ण का चिह्न है, अतः उन्हीं की प्रतिमा में रहना चाहिये। भगवान्‌ के निकट हाथ में कमल लिये हुए लक्ष्मी तथा वीणा धारण किये पुष्टि देवी की भी प्रतिमा बनावे। इनकी ऊँचाई (भगवद्विग्रह के) ऊरुओं के बराबर होनी चाहिये। इनके अलावा प्रभामण्डल में स्थित मालाधर और विद्याधर का विग्रह बनावे। प्रभा हस्ती आदि से भूषित होती है। भगवान्‌ के चरणों के नीचे का भाग अर्थात् पादपीठ कमल के आकार का बनावे। इस प्रकार देव प्रतिमाओं में उक्त लक्षणों का समावेश करना चाहिये ॥ ४६ - ४९ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘वासुदेव आदि की प्रतिमाओं के लक्षण का वर्णन‘ नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४४ ॥

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