अग्नि पुराण - तैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 33 Chapter !
अग्निपुराण अध्याय ३३ पवित्रारोपण, भूतशुद्धि, योगपीठस्थ देवताओं तथा प्रधान देवता के पार्षद- आवरणदेवों की पूजा का वर्णन है।-पवित्रारोहणविधानम् -अग्नि पुराण - तैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 33 Chapter ! |
अग्नि पुराण - 33 अध्याय ! Agni Purana - 33 Chapter !
अग्निरुवाच
पवित्रारोहणं वक्ष्ये वर्षपूजाफलं हरेः।
आषाढादौ कार्तिकान्ते प्रतिपद्धनदा तिथिः ।। १ ।।
श्रिया गौर्या गणेशस्य सरस्वत्या गुहस्य च।
मार्त्तण्डमातृदुर्गाणां नागर्षिहरिमन्मथैः ।। २ ।।
शिवस्य ब्रह्मणस्तद्वद्द्वितीयादितिथेः क्रमात्।
यस्य देवस्य यो भक्तः पवित्रा तस्य सा तिथिः ।। ३ ।।
आरोहणे तुल्यविधिः पृथक् मन्त्रादिकं यदि।
सौवर्णं राजतं ताम्रं नेत्रकार्प्पासकादिकम् ।। ४ ।।
ब्राह्मण्या कर्त्तितं सूत्रं तदलाभे तु संस्कृतम्।
त्रिगुणं त्रिगुणीकृत्य तेन कुर्य्यात् पवित्रकम् ।। ५ ।।
अष्टोत्तरशतादूर्द्ध्वं तदर्द्धं चोत्तमादिकम्।
क्रियालोपविधानार्थं यत्त्वयाभिहितं प्रभो ।। ६ ।।
मया तत् क्रियते देव यथा यत्र पवित्रकम्।
अविध्नं तु भवेदत्र कुरु नाथ जयाव्यय ।। ७ ।।
प्रार्थ्य तन्मण्डलायादौ गायत्र्या बन्धयेन्नरः।
ओं नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि ।। ८ ।।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् देवदेवानुरूपतः।
जानूरुनाभिनासान्तं प्रतिमासु पवित्रकम् ।। ९ ।।
पादान्ता वनमाला स्यादष्टोत्तरसहस्रतः ।
मालां तु कल्पसाध्यां वा द्विगुणं षोडशाङ्गुलाम् ।। १० ।।
कर्णिका केशरं पत्रं मन्त्राद्यं मण्डलान्तकम्।
मण्डलाङ्गुलमात्रैकचक्राब्जाद्यौ पवित्रकम् ।। ११ ।।
स्थण्डिलेऽङ्गुलमानेन आत्मनः सप्तविंशतिः।
आचार्य्याणां च सूत्राणि पितृमात्रादिपुस्तके ।। १२ ।।
नाभ्यन्तं द्वादशग्रन्थिं तथा गन्धपवित्रके।
द्व्यङ्गुलात् कल्पनादौ द्विर्माला चाष्टोत्तरं शतम् ।। १३ ।।
अथवार्कचतुर्विंशषट्त्रिंशन्मालिका द्विजः।
अनामामध्यमाङ्गुष्ठैर्मन्दाद्यैः मालिकार्थिभिः ।। १४ ।।
कनिष्ठा दौ द्वादश वा ग्रन्थयः स्युः पवित्रके।
रवेः कुम्भहुताशादेः सम्भवे विष्णुवन्मतम् ।। १५ ।।
पीठस्य पीठमानं स्यान्मेखलान्ते च कुण्डके।
यथाशक्ति सूत्रग्रन्थिः परिचारेथ वैष्णवे ।। १६ ।।
सूत्राणि वा सप्तदश सूत्रेण त्रिविभक्तके ।
रोचनागुरुकर्पूरहरिद्राकुङ्कुमादिभिः ।। १७ ।।
रञ्जयेच्चन्दनाद्यैर्वा स्नानसन्ध्यादिकृन्नरः।
एकादश्यां यागगृहे भगवंतं हरिं यजेत्॥१८॥
समस्तपरिवाराय बलिं पीठे समर्चयेत्।
क्षौं क्षेत्रपालाय द्वारान्ते द्वारोपरि तथा श्रियम् ।। १९ ।।
धात्रे दक्षे विधात्रे च गङ्गाञ्च यमुनां तथा।
शङ्खपद्मनिधी पूज्य मध्ये वास्त्वपसारणम् ।। २० ।।
सारङ्गायेति भूतानां भूतशुद्धिं स्थितश्चरेत् ।। २० ।।
ओं ह्रूं हः फट् ह्रं गन्धतन्मात्रं संहरामि नमः ।।
ओं ह्रूं हः फट् ह्रूं रसतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ओं ह्रूं हः फट् ह्रुं रूपतन्मात्रं संहरामि नमः ।।
ओं ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ओं ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।।
पञ्चोद्घातैर्गन्धतन्मात्ररूपं भूमिमण्डलम्।
चतुरस्रञ्च पीतञ्च कठिनं वज्रलाञ्छितम् ।। २१ ।।
इन्द्राधिदैवतं पादयुग्ममध्यगतं स्मरेत्।
शुद्धञ्च रसतन्मात्रं प्रविलिप्याथ संहरेत् ।।
रसमात्ररूपमात्रे क्रमेणानेन पूजकः ।। २२ ।।
ओं ह्रीं हः फट् ह्रूं रसतन्मात्रं संहरामि नमः ।।
ओं ह्रूं हः फट् रूपतन्मात्रं संहरामि नमः।
ओं ह्रीं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः ।।
ओं ह्रीं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः।
जानुनाभिमध्यगतं श्वेतं वै पद्मलाञ्छितम्।
शुवलवर्णं चार्द्धचन्द्रं ध्यायेद्वरुणदैवतम् ।। २३ ।।
चतुर्भश्च तदुद्घातैः शुद्धं तद्रसमात्रकम्।
संहरेद्रूपतन्मात्रै रूपमात्रे च संहरेन् ।। २४ ।।
ओं ह्रूं हः फट् ह्रूं पूतन्मात्रं संहरामि नमः।
ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः ।
ओं ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।
इति त्रिभिस्तदुद्घातैस्त्रिकोणं वह्निमण्डलम्।
नाभिकण्ठमध्यगतं रक्तं स्वस्तिकलाञ्छितम् ।। २५ ।।
ध्यात्वानलाधिदैवन्तच्छुद्धं स्पर्शे लयं नयेत्।
ओं ह्रौं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः।
ओं ह्रौं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः ।।
कण्ठनासामध्यगतं वृत्तं वै वायुमण्डलम् ।। २६ ।।
द्विरुद्घातैर्धूम्रवर्णं ध्यायेच्छुद्धेन्दुलाञ्छितम्।
स्पर्शमात्रं शब्दमात्रैः संहरेद्ध्यानयोगतः ।। २७ ।।
ओं ह्रौं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः।
एकोद्घातेन चाकाशं शुद्धस्फटिकसन्निभम्।
नासापुटशिखान्तस्थमाकाशामुपसंहरेत् ।। २८ ।।
शोषणाद्यैर्द्देशुद्धिं कुर्यादेवं क्रमात्तः।
शुष्कं कलेवरं ध्यायेत् पादाद्यञ्च शिखान्तकम् ।। २९ ।।
यं बीजेन वं बीजेन ज्वालामालासमायुतम् ।
देहं रमित्यनेनैव ब्रह्मरन्ध्राद्विनिर्गतम् ।। ३० ।।
बिन्दुन्ध्यात्वा चामृतस्य तेन भस्म कलेवरम्।
सम्प्लावयेल्लमित्यस्मात् देहं सम्पाद्य दिव्यकम् ।। ३१ ।।
न्यासं कृत्वा करे देहे मानसं यागमाचरेत्।
विष्णुं साङ्गं हृदि पद्मे मानसैः कुसुमादिभि। ।। ३२ ।।
मूलमन्त्रेण देवेशम्प्रार्च्चयेद्भुक्तिमुक्तिदम्।
स्वागतं देवदेवेश सन्निधौ भव केशव ।। ३३ ।।
गृहाण मानसीं पूजां यथार्थं परिभाविताम्।
आधारशक्तिः कूर्माथ पूज्योनन्तो मही ततः ।। ३४ ।।
मध्येग्न्यादौ च धर्माद्या अधर्मादीन्द्रमुख्यगम् ।
सत्त्वादि मध्ये पद्मञ्च मायाविद्याख्यतत्त्वके ।। ३५ ।।
कालतत्त्वञ्च सूर्यादिमण्डलं पक्षिराजकः।
मध्ये ततश्च वायव्यादीशान्ता गुरुपङ्क्तिकाः ।। ३६ ।।
गणः सरस्वती पूज्या नारदो नलकूबरः।
गुरुर्गरुपादुका च परो गुरुश्च पादुका ।। ३७ ।।
पूर्वसिद्धाः परसिद्धाः केशरेषु च शक्तयः।
लक्ष्मीः सरस्वती प्रीतिः कीर्त्तिः शान्तिश्च कान्तिका ।। ३८ ।।
पुष्टिस्तुष्टिर्म्महेन्द्राद्या मध्ये चावाहितो हरिः ।
धृतिः श्रीरतिकान्त्याद्या मूलेन स्थापितोऽच्युतः ।। ३९ ।।
ओं अभिमुखो भवेत् प्रार्थ्य प्राच्यां सन्निहितो भव।
विन्यस्यार्घ्यादिकं दत्त्वा गन्धाद्यैर्मूलतो यजेत् ।। ४० ।।
ओं भीषय भीषय हृत् शिरस्त्रासय वै पुनः।
मर्द्दय मर्द्दय शिखा अग्न्यादौ शस्त्रतोस्त्रकं ।। ४१ ।।
रक्ष रक्ष प्रध्वंसय प्रध्वंसय कवचाय नमस्ततः।
ओं ह्रूं फट् अस्त्राय नमो मूलबीजेन चाङ्गकम् ।। ४२ ।।
पूर्व्वदक्षाप्यसौम्येषु मूर्त्त्यावरणमर्च्चयेत्।
वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नश्चानिरुद्धकः ।। ४३ ।।
अग्न्यादौ श्रीधृतिरतिकान्तयो मूर्त्तयो हरेः।
शङ्खचक्रगदापद्ममग्न्यादौ पूर्व्वकादिकम् ।। ४४ ।।
शार्ङ्गञ्च मुषलं खङ्गं वनमालाञ्च तद्बहिः।
इन्द्राद्याश्च तथानन्तो नैर्ऋत्यां वरुणस्ततः ।। ४५ ।।
ब्रह्नेन्द्रेशानयोर्मध्ये अस्त्रावरणकं बहिः।
ऐरावतस्ततश्छागो महिषो वानरो झषः ।। ४६ ।।
मृगः शशोऽथ वृषभः कूर्म्मो हंसस्ततो बहिः।
पृश्निगर्भः कुमुदाद्या द्वारपाला द्वयं द्वयम् ।। ४७ ।।
पूर्व्वाद्युत्तरद्वारान्तं हरिं नत्वा बलिं बहिः।
विष्णुपार्षदेभ्यो नमो बलिपीठे बलिं ददेत् ।। ४८ ।।
विश्वाय विश्वक्सेनात्मने ईशानके यजेत्।
देवस्य दक्षिणे हस्ते रक्षासूत्रञ्च बन्धयेत् ।। ४९ ।।
संवत्सरकृतार्चायाः सम्पूर्णफलदायिने।
पवित्रारोहणायेदं कौतुकं धारय ओं नमः ।। ५० ।।
उपवासादिनियमं कुर्याद्वै देवसन्निधौ।
उपवासादिनियतो देवं सन्तोषयाम्यहम् ।। ५१ ।।
कामक्रोधादयः सर्वे मा मे तिष्ठन्तु सर्वथा।
अद्यप्रभृति देवेश यावद्वैशेषिकं दिनम् ।। ५२ ।।
यजमानो ह्यशक्तश्चेत् कुर्य्यान्नक्तादिकं व्रती।
हुत्वा विसर्जयेत् स्तुत्वा श्रीकरन्नित्यपूजनम् ।।
ओं ह्रीं श्रीं श्रीधराय त्रैलोक्यमोहनाय नमः ।। ५३ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये पवित्रारोहणे श्रीधरनित्यपूजाकथनं नाम त्रयर्स्त्रिंशोऽध्यायः ।
अग्नि पुराण - तैंतीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 33 Chapter!-In Hindi
अग्निदेव कहते हैं- मुने! अब मैं पवित्रारोपण की विधि बताऊँगा। वर्ष में एक बार किया गया पवित्रारोपण सम्पूर्ण वर्षभर की हुई श्रीहरि की पूजा का फल देनेवाला है। आषाढ़ (-की शुक्ला एकादशी) से लेकर कार्तिक (की शुक्ला एकादशी) तक के बीच के काल में ही ‘पवित्रारोपण‘ किया जाता है। प्रतिपदा धनद-तिथि है। द्वितीया आदि तिथियाँ क्रमशः लक्ष्मी आदि देवताओं की हैं। यथा-लक्ष्मी की द्वितीया, गौरी की तृतीया, गणेश की चतुर्थी, सरस्वती (तथा नाग देवताओं) – की पञ्चमी, स्वामी कार्तिकेय की षष्ठी, सूर्य की सप्तमी, मातृकाओं की अष्टमी, दुर्गा की नवमी, नागों (या यमराज) – की दशमी, ऋषियों तथा भगवान् विष्णु की एकादशी, श्रीहरि की द्वादशी, कामदेव की त्रयोदशी, शिव की चतुर्दशी तथा ब्रह्मा की पौर्णमासी एवं अमावस्या तिथि है। जो मनुष्य जिस देवताका भक्त है, उसके लिए वही तिथि पवित्र है ॥ १-३॥
सबसे पहले शास्त्रों में इसके लिये उत्तम काल का विचार किया गया है, जिसका दिग्दर्शन मूल के दूसरे तथा तीसरे श्लोकों में कराया गया है। सोमशम्भु के मत से इसके लिये आषाढ़ मास उत्तम, श्रावण मध्यम तथा भाद्रपद कनिष्ठ है। वे इससे आगे बढ़ने की आज्ञा नहीं देते। परंतु ‘विष्णुरहस्य‘ के अनुसार भगवान् विष्णु के लिये पवित्रारोपण का मुख्यकाल श्रावण शुक्ला द्वादशी है। वैसे तो यह सिंहगत सूर्य और कन्यागत सूर्य में, अर्थात् भादों और आश्विन को शुक्ला द्वादशी को भी किया जा सकता है। कार्तिक में इसके करने का सर्वथा निषेध है-‘तुलास्थे न कदाचन।‘
पवित्रारोपण की विधि सब देवताओं के लिये समान है; केवल मन्त्र आदि प्रत्येक देवता के लिये पृथक् पृथक् बोले। पवित्रक बनाने के लिये सोने-चाँदी और ताँबे के तार तथा कपास आदि के सूत होने चाहिये ॥ ४ ॥
विष्णुरहस्य में तन्तु-देवताओं का भी वर्णन है तथा पवित्रक के आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक स्वरूप
ब्राह्मणी के हाथ का काता हुआ सूत सर्वोत्तम है। वह न मिले तो किसी भी सूत को उसका संस्कार करके उपयोग में लेना चाहिये। सूत को तिगुना करके, उसे पुनः तिगुना करे और उसी से, अर्थात् नौ तन्तुओं द्वारा पवित्रक बनाये। एक सौ आठ से लेकर अधिक तन्तुओं द्वारा निर्मित पवित्रक उत्तम आदि की श्रेणी में गिना जाता है।
(पवित्रारोपण के पूर्व) इष्ट देवता से इस प्रकार प्रार्थना करे –’प्रभो! क्रियालोपजनित दोष को दूर करने के लिये आपने जो साधन बताया है, देव! वही मैं कह रहा हूँ। जहाँ जैसा पवित्रक आवश्यक है, वहाँ के लिये वैसा ही पवित्रक अर्पित होगा। नाथ! आपकी कृपा से इस कार्य में कोई विघ्न-बाधा न आवे। अविनाशी परमेश्वर ! आपकी जय हो‘ ॥ ५-७ ॥
इस प्रकार प्रार्थना करके मनुष्य पहले इष्टदेव के मण्डल के लिये गायत्री मन्त्र से पवित्रक बाँधे । इष्टदेव नारायण के लिये गायत्री मन्त्र इस प्रकार है – ॐ नमो नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्। इष्टदेवता के नाम के अनुरूप ही यह गायत्री है। देव प्रतिमाओं पर अर्पित करने के लिये अनेक प्रकार का पवित्रक होता है। एक तो विग्रह की नाभितक पहुँचता है, दूसरा जाँघोंतक और तीसरा घुटनोंतक पहुँचता है। (ये क्रमशः कनिष्ठ, मध्यम तथा उत्तम श्रेणी में परिगणित हैं।) एक चौथा प्रकार भी है, जो पैरोंतक लटकता है। यह पैरोंतक लटकनेवाला पवित्रक ‘वनमाला‘ कहा जाता है। वह एक हजार आठ तन्तुओं से तैयार किया जाता है। (इसका माहात्म्य सबसे अधिक है।) साधारण माला अपनी शक्ति के अनुसार बनायी जाती है। अथवा वह सोलह अङ्गुल से दुगुनी बड़ी होनी चाहिये। कर्णिका, केसर और दल आदि से युक्त जो यन्त्र या चक्र आदि मण्डल है, उस मण्डल को जो नीचे से ऊपरतक ढक ले, ऐसा पवित्रक उसके ऊपर चढ़ाना चाहिये। एक चक्र और एकाब्ज आदि मण्डल (चक्र) में, उस मण्डल का मान जितने अङ्गुल का हो, उतने अङ्गुल मानवाला पवित्रक अर्पित करना चाहिये। वेदी पर अपने सताईस अङ्गुल के माप का पवित्रक अर्पित करे ॥ ८- १२ ॥
श्रीनारायण की प्राप्ति के लिये हम ज्ञानार्जन करें। वासुदेव के लिये ध्यान लगावें। वे भगवान् विष्णु हमें अपने भजन ध्यान की ओर प्रेरित करें।
आचार्यों के लिये, पिता-माता आदि के लिये तथा पुस्तक पर चढ़ाने के लिये (या स्वयं धारण करने के लिये) जो पवित्रक बनावे, वह नाभितक ही लंबा होना चाहिये। उसमें बारह गाँठें लगी हों तथा उस पवित्रक पर गन्ध (चन्दन, रोली या केसर) लगाया गया हो। ( वह उसी में रँगा गया हो।) ब्रह्मन् ! वनमाला में दो-दो अङ्गुल की दूरी पर क्रमशः एक सौ आठ गाँठें रहनी चाहिये। अथवा कनिष्ठ मध्यम तथा उत्तम पवित्रक में क्रमश: बारह, चौबीस तथा छत्तीस गाँठें रखनी चाहिये। मन्द, मध्यम और उत्तम मालार्थी पुरुषों को अनामिका, मध्यमा और अङ्गुष्ठ से ही पवित्रक-माला ग्रहण करनी चाहिये।। अथवा कनिष्ठ आदि नामवाले पवित्रक में समानरूप से बारह बारह ही गाँठें रहनी चाहिये। (केवल तन्तुओं की संख्या में और लंबाई में भेद होने से उनकी भिन्न संज्ञाएँ मानी जाती हैं।) सूर्य, कलश तथा अग्नि आदि के लिये भी यथासम्भव विष्णु- भगवान् के तुल्य ही पवित्रक अर्पित करना उत्तम माना गया है। पीठ के लिये पीठ की लंबाई के अनुसार तथा कुण्ड के लिये भी मेखलापर्यन्त लंबा पवित्रक होना चाहिये। विष्णु पार्षदों के लिये यथाशक्ति सूत्र – ग्रन्थि देनी चाहिये। अथवा बिना ग्रन्थि के ही सत्रह सूत्र चढ़ावे और भद्र नामक पार्षद को त्रिसूत्र (तिरसुत) अर्पित करे ॥ १३ – १७ ॥
पवित्रक को रोचना, अगुरु- कर्पूर-मिश्रित हल्दी एवं कुङ्कुम के रंग से रंग देना चाहिये। भक्त पुरुष एकादशी को स्नान, संध्या आदि करके पूजागृह में जाकर भगवान् श्रीहरि का यजन करे। उनके समस्त परिवार को बलि देकर उसकी अर्चना करे। द्वार के अन्त में ‘क्षं क्षेत्रपालाय नमः।‘ – बोलकर क्षेत्रपाल की पूजा करे। द्वार के ऊपर ‘श्रियै नमः‘ कहकर श्रीदेवी की पूजा करे। द्वार के दक्षिण देश में ‘धात्रे नमः।‘, ‘गङ्गायै नमः।‘– इन मन्त्रों का उच्चारण करते हुए ‘धाता‘ तथा ‘गङ्गा‘जी की अर्चना करे और वाम देश में ‘विधात्रे नमः।‘, ‘यमुनायै नमः।‘– बोलकर विधाता एवं यमुनाजी की पूजा करे। इसी तरह द्वार के दक्षिण वाम देश में क्रमशः ‘शङ्खनिधये नमः।‘ ‘पद्मनिधये नमः।‘ बोलकर शङ्खनिधि एवं पद्मनिधि की पूजा करे। (फिर मण्डप के भीतर दाहिने पैर के पार्ष्णिभाग को तीन बार पटककर विघ्नों का अपसारण करे।) तदनन्तर ‘सारङ्गाय नमः‘ बोलकर विघ्नकारी भूतों को दूर भगावे (इसके बाद ॐ हां वास्त्वधिपतये ब्रह्मणे नमः।‘ इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्रह्मा के स्थान में पुष्प चढ़ावे।) फिर आसन पर बैठकर भूतशुद्धि करे ॥ १८-२१ ॥
उसकी विधि यों है- ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं गन्धतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रसतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रूपतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः।– इस प्रकार पाँच उद्घात वाक्यों का उच्चारण करके गन्धतन्मात्रस्वरूप भूमिमण्डल को, वज्रचिह्नित सुवर्णमय चतुरस्र पीठ को तथा इन्द्रादि देवताओं को अपने युगल चरणों में स्थित देखते हुए उनका चिन्तन करे। इस प्रकार शुद्ध हुए गन्धतन्मात्र को रसतन्मात्र में लीन करके उपासक इसी क्रम से रसतन्मात्र का रूपतन्मात्र में संहार करे। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रसतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रूपतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः। – इन चार उद्घात- वाक्यों का उच्चारण करके जानु से लेकर नाभितक के भाग को श्वेत कमल से चिह्नित, शुक्लवर्ण एवं अर्धचन्द्राकार देखे। ध्यान द्वारा यह चिन्तन करे कि ‘इस जलीय भाग के देवता वरुण हैं।‘ उक्त चार उद्धातों के उच्चारण से रसतन्मात्रा की शुद्धि होती है। इसके बाद इस रसतन्मात्रा का रूपतन्मात्रा में लय कर दे ॥ २१-२३॥
ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं रूपतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः। – इन तीन उद्घात वाक्यों का उच्चारण करके नाभि से लेकर कण्ठतक के भाग में त्रिकोणाकार अग्निमण्डल का चिन्तन करे उसका रंग लाल है; वह स्वस्तिकाकार चिह्न से चिह्नित है। उसके अधिदेवता अग्नि हैं।‘ इस प्रकार ध्यान करके शुद्ध किये हुए रूपतन्मात्र को स्पर्शतन्मात्र में लीन करे। तत्पश्चात् ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः। ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः। – इन दो उद्घातवाक्यों के उच्चारणपूर्वक कण्ठ से लेकर नासिका के बीच के भाग में गोलाकार वायुमण्डल का चिन्तन करे – ‘उसका रंग धूम के समान है। वह निष्कलङ्क चन्द्रमा से चिह्नित है।‘ इस तरह शुद्ध हुए स्पर्शतन्मात्र का ध्यान द्वारा ही शब्दतन्मात्र में लय कर दे। इसके बाद ॐ ह्रूं हः फट् ह्रूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः।– इस एक उद्घातवाक्य से शुद्ध स्फटिक के समान आकाश का नासिका से लेकर शिखातक के भाग में चिन्तन करे। फिर उस शुद्ध हुए आकाश का (अहंकार में) उपसंहार करे ॥ २४-२८ ॥
तत्पश्चात् क्रमशः शोषण आदि के द्वारा देह की शुद्धि करे। ध्यान में यह देखे कि ‘यं‘ बीजरूप वायु के द्वारा पैरों से लेकर शिखातक का सम्पूर्ण शरीर सूख गया है। फिर ‘रं‘ बीज द्वारा अग्नि को प्रकट करके देखे कि सारा शरीर अग्नि की ज्वालाओं में आ गया और जलकर भस्म हो गया। इसके बाद ‘वं‘ बीज का उच्चारण करके भावना करे कि ब्रह्मरन्ध्र से अमृत का बिन्दु प्रकट हुआ है। उससे जो अमृत की धारा प्रकट हुई है, उसने शरीर के उस भस्म को आप्लावित कर दिया है। तदनन्तर ‘लं‘ बीज का उच्चारण करते हुए यह चिन्तन करे कि उस भस्म से दिव्य देह का प्रादुर्भाव हो गया है। इस प्रकार दिव्य देह की उद्भावना करके करन्यास और अङ्गन्यास करे। इसके बाद मानस-याग का अनुष्ठान करे। हृदय – कमल में मानसिक पुष्प आदि उपचारों द्वारा मूल मन्त्र से अङ्गसहित देवेश्वर भगवान् विष्णु का पूजन करे। वे भगवान् भोग और मोक्ष देनेवाले हैं। भगवान्से मानसिक पूजा स्वीकार करने के लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये ‘देव ! देवेश्वर केशव ! आपका स्वागत है मेरे निकट पधारिये और यथार्थरूप से भावना द्वारा प्रस्तुत इस मानसिक पूजा को ग्रहण कीजिये।‘ योगपीठ को धारण करनेवाली आधारशक्ति कूर्म, अनन्त ( शेषनाग ) तथा पृथ्वी का पीठ के मध्यभाग में पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अग्निकोण आदि चारों कोणों में क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य का पूजन करे। पूर्व आदि मुख्य दिशाओं में अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य की अर्चना करे। पीठ के मध्य भाग में सत्त्वादि गुणों का, कमल का, माया और अविद्या नामक तत्त्वों का, कालतत्त्व का, सूर्यादि मण्डल का तथा पक्षिराज गरुड का पूजन करे। पीठ के वायव्यकोण से ईशान- कोणतक गुरुपंक्ति की पूजा करे॥२९-३६॥
आधारशक्ति कूर्मरूपा शिला पर विराजमान है। गोदुग्ध के समान धवल उसका गौर कलेवर है और बीजाङ्कुरमयी आकृति है। उसके पूजन का मन्त्र है – ॐ हां आधारशक्तये नमः‘ भगवान् अनन्त श्रीहरि के आसन हैं। उनकी अङ्ग कान्ति कुन्द इन्दु (चन्द्रमा)- के समान धवल है; ऊपर उठे नाल- दण्डवाले कमल मुकुल के सदृश उनकी आकृति है तथा ये ब्रह्मशिला पर आरूढ़ है। पूजन का मन्त्र है – ॐ हां अनन्तासनाय नमः‘ धर्म आदि के पूजन के मन्त्र यों है – ॐ हां धर्माय नमः – आग्नेये‘, ‘ॐ हां ज्ञानाय नमः।‘-नैर्ऋते, ‘ॐ हां वैराग्याय नमः – वायव्ये‘, ‘ॐ हां ऐश्वर्याय नमः – इसी तरह ॐ हां अधर्माय नमः‘ इत्यादि रूप से मन्त्रों की ऊहा करके अज्ञानादि की भी अर्चना करे। शारदातिलक में आधारशक्ति का ध्यान एक देवी के रूप में बताया गया है। वह कूर्मशिला पर आरूढ़ है। उसका मनोहर मुख शरत्काल के चन्द्रमा को लज्जित कर रहा है तथा उसने अपने हाथों में दो कमल धारण किये हैं। उक्त आधारशक्ति के मस्तक पर भगवान् कूर्म विराजमान हैं। उनकी कान्ति नीली है। ‘ॐ हां कूर्माय नमः । – इस मन्त्र से उनका भी पूजन करे। कूर्म के ऊपर ब्रह्मशिला (इष्टदेव की प्रतिमा के नीचे की आधारभूता शिला है, उस पर कुन्द सदृश गौर अनन्तदेव विराज रहे हैं। उनके हाथ में चक्र है। नाभि से नीचे उनकी आकृति सर्पवत् है और नाभि से ऊपर मनुष्यवत् । ये मस्तक पर पृथ्वी को धारण करते हैं। इस झाँकी में पूर्वोक्त मन्त्र द्वारा उनकी पूजा करके उनके सिर पर विराजमान भूदेवी का ध्यान और पूजन करे। ‘वे तमाल के समान श्यामवर्णा हैं। हाथों में नील कमल धारण करती हैं। उनके कटिप्रदेश में सागरमयी मेखला स्फुरित हो रही है।‘ ‘ॐ हां वसुधायै नमः । ॐ हां सागराय नमः।– इससे पृथ्वी तथा समुद्र की पूजा करके उसके ऊपर रत्नमय द्वीप का, उस द्वीप में मणिमय मण्डप का तथा वहाँ शोभा पानेवाले वाञ्छापूरक कल्पवृक्षों का चिन्तन और पूजन करना चाहिये उन कल्पवृक्षों के नीचे मणिमयी वेदिका का ध्यान करे। उक्त वेदी पर योगपीठ स्थापित है उस पीठ के जो पाये हैं, वे ही धर्म आदि रूप हैं। इनमें धर्म लाल, ज्ञान श्याम, वैराग्य हरिद्रातुल्य पीत तथा ऐश्चर्यं नील है। धर्म की आकृति वृषभ के समान है। ज्ञान सिंह के, वैराग्य भूत के तथा ऐश्वर्य हाथी के रूप में विराजमान है। कोणों में धर्मादि का और दिशाओं में अधर्मादि का पूजन करने के अनन्तर पीठस्थित कमल का ध्यान करे। वह तीन प्रकार का है- पहला आनन्दकन्द, दूसरा संविन्नाल और तीसरा सर्वतत्त्वात्मक है। इस त्रिविध कमल का पूजन करके साधक प्रकृतिमय दलों का, विकृतिमय केसरों का तथा पचास अक्षरों से युक्त कर्णिका का पूजन करे। तत्पश्चात् कलाओं सहित सूर्य, चन्द्रमा और अग्निमण्डल का पूजन करे। कमलादि के पूजन का मन्त्र यों समझना चाहिये-आनन्दकन्दाय संविन्नालाय सर्वतत्वात्मकाय कमलाय नमः‘, ‘प्रकृतिमयदलेभ्यो नमः ।‘, ‘विकृतिमयकेसरेभ्यो नमः‘, ‘द्वादशकलात्मकसूर्यमण्डलाय नमः‘, ‘षोडशकलात्मक चन्द्रमण्डलाय नमः‘, ‘दशकलात्मकवह्निमण्डलाय नमः‘ शारदातिलक, चतुर्थ पटल ५६-६६
गण, सरस्वती, नारद, नलकूबर, गुरु, गुरुपादुका, परम गुरु और उनकी पादुका की पूजा ही गुरुपंक्ति की पूजा है। पूर्वसिद्ध और परसिद्ध शक्तियों की केसरों में पूजा करनी चाहिये। पूर्वसिद्ध शक्तियाँ ये हैं-लक्ष्मी, सरस्वती, प्रीति, कीर्ति, शान्ति, कान्ति, पुष्टि तथा तुष्टि। इनकी क्रमशः पूर्व आदि दिशाओं में पूजा की जानी चाहिये। इसी तरह इन्द्र आदि दस दिक्पालों का भी उनकी दिशाओं में पूजन आवश्यक है। इन सबके बीच में श्रीहरि विराजमान हैं। परसिद्धा शक्तियाँ- धृति, श्री, रति तथा कान्ति आदि हैं। मूल मन्त्र से भगवान् अच्युत की स्थापना की जाती है। पूजा के प्रारम्भ में भगवान्से यों प्रार्थना करे- ‘हे भगवन् ! आप मेरे सम्मुख हों। (ॐ अभिमुखो भव।) पूर्व दिशा में मेरे समीप स्थित हों।‘ इस तरह प्रार्थना करके स्थापना के पश्चात् अर्घ्यपाद्य आदि निवेदन कर गन्ध आदि उपचारों द्वारा मूल मन्त्र से भगवान् अच्युत की अर्चना करे। ॐ भीषय भीषय हृदयाय नमः । ॐ त्रासय त्रासय शिरसे नमः । ॐ मर्दय मर्दय शिखायै नमः । ॐ रक्ष रक्ष नेत्रत्रयाय नमः । ॐ प्रध्वंसय प्रध्वंसय कवचाय नमः । ॐ हूं फट् अस्त्राय नमः । इस प्रकार अग्निकोण आदि दिशाओं में क्रम से मूलबीज द्वारा अङ्गों का पूजन करे ॥ ३७-४२॥
पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में मूर्त्यात्मक आवरण की अर्चना करे। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-ये चार मूर्तियाँ हैं। अग्निकोण आदि कोणों में क्रमशः श्री, रति, धृति और कान्ति की पूजा करे। ये भी श्रीहरि की मूर्तियाँ हैं। अग्नि आदि कोणों में क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म की परिचर्या करे। पूर्वादि दिशाओं में शार्ङ्ग, मुशल, खड्ग तथा वनमाला की अर्चना करे। उसके बाह्यभाग में पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर तथा ईशान की पूजा करके नैर्ऋत्य और पश्चिम के बीच में अनन्त की तथा पूर्व और ईशान के बीच में ब्रह्माजी की अर्चना करे। इनके बाह्यभाग में वज्र आदि अस्त्रमय आवरणों का पूजन करे। इनके भी बाह्यभाग में दिक्पालों के वाहनरूप आवरण पूजनीय होते हैं। पूर्वादि के क्रम से ऐरावत, छाग, भैंसा, वानर, मत्स्य, मृग, शश (खरगोश), वृषभ, कूर्म और हंस – इनकी पूजा करनी चाहिये। इनके भी बाह्यभाग में पृश्निगर्भ और कुमुद आदि द्वारपालों की पूजा की विधि कही गयी है। पूर्व से लेकर उत्तर तक प्रत्येक द्वार पर दो-दो द्वारपालों की पूजा आवश्यक है। तदनन्तर श्रीहरि को नमस्कार करके बाह्यभाग में बलि अर्पण करे। ॐ विष्णुपार्षदेभ्यो नमः।‘ बोलकर बलिपीठ पर उनके लिये बलि समर्पित करे ॥ ४३-४८॥
ईशानकोण में ॐ विश्वाय विष्वक्सेनात्मने नमः।– इस मन्त्र से विष्वक्सेन की अर्चना करे। इसके बाद भगवान्के दाहिने हाथ में रक्षासूत्र बाँधे। उस समय भगवान्से इस प्रकार कहे- ‘प्रभो! जो एक वर्ष तक निरन्तर की हुई आपकी पूजा के सम्पूर्ण फल की प्राप्ति में हेतु है, वह पवित्रारोहण (या पवित्रारोपण) कर्म होनेवाला है; उसके लिये यह कौतुक (मङ्गल सूत्र ) धारण कीजिये।‘ ‘ॐ नमः।‘ इसके बाद भगवान्के समीप उपवास आदि का नियम ग्रहण करे और इस प्रकार कहे मैं उपवास के साथ नियमपूर्वक रहकर इष्टदेव को संतुष्ट करूँगा। देवेश्वर ! आज से लेकर जबतक वैशेषिक (विशेष उत्सव ) – का दिन न आ जाय, तबतक काम, क्रोध आदि सारे दोष मेरे पास किसी तरह भी न फटकने पावें।‘ व्रती यजमान यदि उपवास करने में असमर्थ हो तो नक्त व्रत ( रात में भोजन) किया करे। हवन करके भगवान् की स्तुति के बाद उनका विसर्जन करे। भगवान् का नित्य पूजन लक्ष्मी की प्राप्ति करानेवाला है। ‘ॐ ह्रीं श्रीं श्रीधराय त्रैलोक्यमोहनाय नमः।‘– यह भगवान् की पूजा के लिये मन्त्र है॥४९- ५३॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘सर्वदेवसाधारणपवित्रारोपणविधि-कथन‘ नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥३३॥
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