अग्नि पुराण - इक्कीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 21 Chapter !
अग्निपुराण अध्याय २१ विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा का विधान है। सामान्यपूजाकथनम्-
अग्नि पुराण - इक्कीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 21 Chapter ! |
अग्नि पुराण - इक्कीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 21 Chapter !
नारद उवाच
सामान्यपूजां विष्णवादेर्वक्ष्ये मन्त्रांश्च सर्वदान्।
समस्तपरिवाराय अच्युताय नमो यजेत ।। १ ।।
धात्रे विधात्रे गङ्गायै यमुनायै निधी तथा।
द्वारश्रियं वास्तुनवं शक्तिं कूर्म्मनन्तकम् ।। २ ।।
पृथिवीं धर्म्मकं ज्ञानं वैराग्यैश्वर्यमेव च।
अधर्मादीन् कन्दनालपद्मकेशरकर्णिकाः ।। ३ ।।
ऋग्वेदाद्यं कृताद्यञ्च सत्त्वाद्यर्क्कादिमण्डलम्।
विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया योगा च ता यजेत् ।। ४ ।।
प्रह्वीं सत्यां तथेशानानुग्रहसनमूर्त्तिकाम् ।
दुर्गां गिरङ्गणं क्षेत्रं वासुदेवादिकं यजेत् ।। ५ ।।
हृदयञ्च शिरः शूलं वर्मनेत्रमथास्त्रकम्।
शङ्खं चक्रं गदां पद्मं श्रीवत्सं कौस्तुभं यजेत् ।। ६ ।।
वनमालां श्रियं पुष्टिं गरुडं गुरुमर्चयेत्।
इन्द्रमग्निं यमं रक्षो जलं वायुं धनेश्वरम् ।। ७ ।।
ईशानन्तमजं चास्त्रं वाहनं कुमुदादिकम्।
विष्वकसेनं मण्डलादौ सिद्धिः पूजादिना भवेत् ।। ८ ।।
शिवपूजाथ सामान्या पूर्वं नन्दिनमर्च्चयेत्।
महाकालं यजेद्गङ्गां यमुनाञ्च गणादिकम् ।। ९ ।।
गिरं श्रियं गुरुं वास्तुं शक्त्यादीन् धर्मकादिकम्।
वामा ज्येष्ठा तथा रौद्री काली कलविकारिणी ।। १० ।।
बलविकरिणी चापि बलप्रमथिनी क्रमात्।
सर्वभूतदमनी च मदनोन्मादिनी शिवासनम् ।। ११ ।।
हां हुं हां शिवमूर्त्तये साङ्गवक्त्रं शिवं यजेत्।
हौं शिवाय हामित्यादि हामीशानादिवक्त्रकम् ।। १२ ।।
ह्रीं गौरीं गं गणः शक्रमुखाश्चण्डीहृदादिकाः।
क्रमात्सूर्य्यार्च्यने मन्त्रा दण्डी पूज्यश्च पिङ्गलः ।। १३ ।।
उच्चैः श्रवाश्चारुणश्च प्रभूतं विमलं यजेत्।
साराध्योपरमसुखं स्कन्दाद्यंमध्यतो यजेत् ।। १४ ।।
दीप्ता सूक्ष्मा जया भद्रा विभूतिर्विमला तथा।
अमोघा विद्युता चैव पूज्याथ सर्वतोमुखी ।। १५ ।।
अर्क्कासनं हि हं खं ख सोल्कायेति च मूर्तिकाम्।
ह्रां ह्रीं स सूर्य्याय नम आं नमो ह्रदयाय च ।। १६ ।।
अर्क्काय शिकसे तद्वदग्नीशासुरवायुगान् ।
भूर्भवः स्वरे ज्वालिनि शिखा हुं कवचं स्मृतम् ।। १७ ।।
मां नेत्रं वस्तथार्क्कास्त्रं राज्ञी शक्तिश्च निष्कुभा ।
सोमोऽङ्गारकोथ बुधो जीवः शुक्रः शनिः क्रमात् ।। १८ ।।
राहुः केतुस्तेजश्चण्डः सङ्क्षेपादथ पूजनम्।
आसनं मूर्त्तये मूलं हृदाद्यं परिचारकः ।। १९ ।।
विष्णवासनं विष्णुमूर्त्ते रों श्रीं श्रीं श्रीधरो हरिः।
ह्रीं सर्वमूर्त्तिमन्त्रीयमिति त्रैलोक्यमोहनः ।। २० ।।
ह्रीं हृषीकेशः क्लीं विष्णुः स्वरैर्द्दीर्घैर्हृदादिकम्।
समस्तैः पञ्चमी पूजा सङ्ग्रामादौ जयादिदा ।। २१ ।।
चक्रं गदां क्रमाच्छङ्खं मुषलं खड्गशार्ङ्गकम्।
पाशाङ्कुशौ च श्रीवत्सं कौस्तुभं वनमालया ।। २२ ।।
श्रीं श्रीर्महालक्ष्मीतातार्क्ष्यो गुरुरिन्द्रादयोऽर्च्चनम्।
सरस्वत्यासनं मूर्त्तिरौं ह्रीं देवी सरस्वती ।। २३ ।।
हृदाद्यालक्ष्मीर्म्मेधा च कलातुष्टिश्च पुष्टिका।
गौरी प्रभामती दुर्गा गणो गुरुश्च क्षेत्रपः ।। २४ ।।
तथा गं गणपतये च ह्रीं गौर्यै च श्रीं श्रियै।
ह्रीं त्वरितायै ह्रीं सौ त्रिपुरा चतुर्थ्यन्तनमोन्तकाः ।। २५ ।।
प्रणवाद्याञ्च नामाद्यमक्षरं बिन्दुसंयुतम्।
ओं युतं वा सर्वमन्त्रपूजनाज्जपतः स्मृताः ।। २६ ।।
होमात्तिलघृताद्यैञ्च धर्म्मकामार्थमोक्षदाः।
पूजामन्त्रान् पठेद्यस्तु भुक्तभोगो दिवं व्रजेत् ।। २७ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये वासुदेवादिपूजाकथनं नामएकविंशतितमोऽध्यायः॥
अग्नि पुराण - इक्कीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 21 Chapter!-In Hindi
नारदजी बोले- अब मैं विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा का वर्णन करता हूँ तथा समस्त कामनाओं को देनेवाले पूजा-सम्बन्धी मन्त्रों को भी बतलाता हूँ। भगवान् विष्णु के पूजन में सर्वप्रथम परिवारसहित भगवान् अच्युत को नमस्कार करके पूजन आरम्भ करे, इसी प्रकार पूजा-मण्डप के द्वारदेश में क्रमशः दक्षिण वाम भाग में धाता और विधाता का तथा गङ्गा और यमुना का भी पूजन करे। फिर शङ्खनिधि और पद्मनिधि इन दो निधियों की, द्वारलक्ष्मी की, वास्तु-पुरुष की तथा आधारशक्ति, कूर्म, अनन्त, पृथिवी, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य की पूजा करे। तदनन्तर अधर्म आदि का (अर्थात् अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य का पूजन करे तथा एक कमल की भावना करके उसके मूल, नाल, पद्म, केसर और कर्णिकाओं की पूजा करे।
फिर ऋग्वेद आदि चारों वेदों की, सत्ययुग आदि युगों की, सत्त्व आदि गुणों की और सूर्य आदि के मण्डल की पूजा करे। इसी प्रकार विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा आदि जो शक्तियाँ हैं, उनकी पूजा करे तथा प्रह्वी, सत्या, ईशा, अनुग्रहा, निर्मलमूर्ति दुर्गा, सरस्वती, गण गणेश, क्षेत्रपाल और वासुदेव (संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध) आदि का पूजन करे। इनके बाद हृदय, सिर, चूडा शिखा, वर्म कवच , नेत्र आदि अङ्गों की, फिर शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म नामक अस्त्रों की, श्रीवत्स, कौस्तुभ एवं वनमाला की तथा लक्ष्मी, पुष्टि, गरुड़ और गुरुदेव की पूजा करे। तत्पश्चात् इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, जल (वरुण), वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा और अनन्त- इन दिक्पालों की, इनके अस्त्रों की, कुमुद आदि विष्णुपार्षदों या द्वारपालों की और विष्वक्सेन की आवरण -मण्डल आदि में पूजा आदि करने से सिद्धि प्राप्त होती है ॥ १-८ ॥
अब भगवान् शिव की सामान्य पूजा बतायी जाती है-इसमें पहले नन्दी का पूजन करना चाहिये, फिर महाकाल का। तदनन्तर क्रमशः दुर्गा, यमुना, गण आदि का, वाणी, श्री, गुरु, वास्तुदेव, आधारशक्ति आदि और धर्म आदि का अर्चन करे। फिर वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, काली, कलविकरिणी, बलविकरिणी, बलप्रमथिनी, सर्वभूतदमनी तथा कल्याणमयी मनोन्मनी-इन नौ शक्तियों का क्रम से पूजन करे। ‘हां हं हां शिवमूर्तये नमः।-इस मन्त्र से हृदयादि अङ्ग और ईशान आदि मुखसहित शिव की पूजा करे। ‘हौं शिवाय हौं।‘ इत्यादि से केवल शिव की अर्चना करे और ‘हां‘ इत्यादि से ईशानादि पाँच मुखों की आराधना करे। ‘ह्रीं गौर्यै नमः ।‘ इससे गौरी का और ‘गं गणपतये नमः।‘ इस मन्त्र से गणपति की, नाम मन्त्रों से इन्द्र आदि दिक्पालों की, चण्ड की और हृदय, सिर आदि की भी पूजा करे ।। ९-१२ ॥
ईशान, वामदेव, सद्योजात, अघोर और तत्पुरुष - ये शिव के पाँच मुख हैं। हां ईशानाय नमः। हौं वामदेवाय नमः। हूं सद्योजाताय नमः। हैं अघोराय नमः। हौं तत्पुरुषाय नमः ।-इन मन्त्रों से इन मुखों की पूजा करनी चाहिये।
अब क्रमशः सूर्य की पूजा के मन्त्र बताये जाते हैं। इसमें नन्दी सर्वप्रथम पूजनीय हैं। फिर क्रमशः पिङ्गल, उच्चैःश्रवा और अरुण की पूजा करे। तत्पश्चात् प्रभूत, विमल, सोम, दोनों संध्याकाल, परसुख और स्कन्द आदि की मध्य में पूजा करे। इसके बाद दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युता तथा सर्वतोमुखी – इन नौ शक्तियों की पूजा होनी चाहिये। तत्पश्चात् ‘ॐ ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय पीठाय नमः।‘ इस मन्त्र से सूर्य के आसन का स्पर्श और पूजन करे। फिर ‘ॐ खं खखोल्काय नमः।‘ इस मन्त्र से सूर्यदेव की मूर्ति की उद्भावना करके उसका अर्चन करे । तत्पश्चात् ‘ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः ।‘ इस मन्त्र से सूर्यदेव की पूजा करे। इसके बाद हृदयादि का पूजन करे-ॐ आं नमः ।‘ इससे हृदय की ‘ॐ अर्काय नमः।‘ इससे सिर की पूजा करे। इसी प्रकार अग्नि, ईश और वायु में अधिष्ठित सूर्यदेव का भी पूजन करे। फिर ‘ॐ भूर्भुवः स्वः ज्वालिन्यै शिखायै नमः ।‘ इससे शिखा की, ‘ॐ हुं कवचाय नमः।‘ इससे कवच की, ‘ॐ भां नेत्राभ्यां नमः ।‘ इससे नेत्र की और ‘ॐ रम् अर्कास्त्राय नमः ।‘ इससे अस्त्र की पूजा करे। इसके बाद सूर्य की शक्ति रानी संज्ञा की तथा उनसे प्रकट हुई छायादेवी की पूजा करे। फिर चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु- क्रमशः इन ग्रहों का और सूर्य के प्रचण्ड तेज का पूजन करे। अब संक्षेप से पूजन बतलाते हैं- देवता के आसन, मूर्ति, मूल, हृदय आदि अङ्ग और परिचारक इनकी ही पूजा होती है ॥ १३ – १९ ॥
भगवान् विष्णु के आसन का पूजन ॐ श्रीं श्रीं श्रीधरो हरिः ह्रीं ।‘ इस मन्त्र से करना चाहिये। इसी मन्त्र से भगवान् विष्णु की मूर्ति का भी पूजन करे। यह सर्वमूर्तिमन्त्र है। इसी को त्रैलोक्यमोहन मन्त्र भी कहते हैं। भगवान् के पूजन में ‘ॐ क्लीं हृषीकेशाय नमः। ॐ हुं विष्णवे नमः ।‘– इन मन्त्रों का उपयोग करे। सम्पूर्ण दीर्घ स्वरों के द्वारा हृदय आदि की पूजा करे; जैसे- ‘ॐ आं हृदयाय नमः।‘ इससे हृदय की ‘ॐ ईं शिरसे नमः ।‘ इससे सिर की, ‘ॐ ऊं शिखायै नमः।‘ इससे शिखा की, ॐ एं कवचाय नमः।‘ इससे कवच की, ‘ॐ ऐं नेत्राभ्यां नमः ।‘ इससे नेत्रों की और ‘ॐ औं अस्त्राय नमः ।‘ इससे अस्त्र की पूजा करे। पाँचवीं अर्थात् परिचारकों की पूजा संग्राम आदि में विजय आदि देनेवाली है। परिचारकों में चक्र, गदा, शङ्ख, मुसल, खड्ग, शार्ङ्गधनुष, पाश, अंकुश, श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, ‘श्रीं‘ इस बीज से युक्त श्री – महालक्ष्मी, गरुड, गुरुदेव और इन्द्रादि देवताओं का पूजन किया जाता है। (इनके पूजन में प्रणवसहित नाम के आदि अक्षर में अनुस्वार लगाकर चतुर्थी विभक्तियुक्त नाम के अन्त में ‘नमः‘ जोड़ना चाहिये। जैसे ‘ॐ चं चक्राय नमः।‘ ‘ॐ गं गदायै नमः।‘ इत्यादि) सरस्वती के आसन की पूजा में ‘ॐ ऐं देव्यै सरस्वत्यै नमः।‘ इस मन्त्र का उपयोग करे और उनकी मूर्ति के पूजन में ‘ॐ ह्रीं देव्यै सरस्वत्यै नमः ।‘ इस मन्त्र से काम ले हृदय आदि के लिये पूर्ववत् मन्त्र हैं। सरस्वती के परिचारकों में लक्ष्मी, मेधा, कला, तुष्टि, पुष्टि, गौरी, प्रभा, मति, दुर्गा, गण, गुरु और क्षेत्रपाल की पूजा करे ॥ २० - २४ ॥
तथा ‘ॐ गं गणपतये नमः ।‘- इस मन्त्र से गणेश की, ‘ॐ ह्रीं गौर्यै नमः।‘ इस मन्त्र से गौरी की, ॐ श्रीं श्रियै नमः।‘ इससे श्री की, ‘ॐ ह्रीं त्वरितायै नमः।‘ इस मन्त्र से त्वरिता की, ॐ ऐं क्लीं सौं त्रिपुरायै नमः।‘ इस मन्त्र से त्रिपुरा की पूजा करे। इस प्रकार ‘त्रिपुरा‘ शब्द भी चतुर्थी विभक्त्यन्त हो और अन्त में ‘नमः‘ शब्द का प्रयोग हो। जिन देवताओं के लिये कोई विशेष मन्त्र नहीं बतलाया गया है, उनके नाम के आदि में प्रणव लगावे । नाम के आदि अक्षर में अनुस्वार लगाकर उसे बीज के रूप में रखे तथा पूर्ववत् नाम के अन्त में चतुर्थी विभक्ति और ‘नमः‘ शब्द जोड़ ले। पूजन और जप में प्रायः सभी मन्त्र ‘ॐकारयुक्त बताये गये हैं। अन्त में तिल और घी आदि से होम करे। इस प्रकार ये देवता और मन्त्र धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष- चारों पुरुषार्थ देनेवाले हैं। जो पूजा के इन मन्त्रों का पाठ करेगा, वह समस्त भोगों का उपभोग कर अन्त में देवलोक को प्राप्त होगा ।। २५-२७ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘विष्णु आदि देवताओं की सामान्य पूजा के विधान का वर्णन‘ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥
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