अग्नि पुराण - एक सौ चालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 140 Chapter !
एक सौ चालीसवाँ अध्याय वश्य आदि योगोंका वर्णन ! वश्यादियोगाः !अग्नि पुराण - एक सौ चालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 140 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ चालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 140 Chapter !
ईश्वर उवाच
वश्यादियोगान् वक्ष्यामि लिखेद्द्व्यष्टपदे त्विमान् ।१४०.००१
भृङ्गराजः सहदेवी मयूरस्य शिखा तथा ॥१४०.००१
पुत्रञ्जीवकृतञ्जली ह्यधःपुष्पा रुदन्तिका ।१४०.००२
कुमारी रुद्रजटा स्याद्विष्णुक्रान्ता शितोऽर्ककः ॥१४०.००२
लज्जालुका मोहलता कृष्णधुस्तूरसञ्ज्ञिता ।१४०.००३
गोरक्षः कर्कटो चैव मेषशृङ्गी स्नुही तथा ॥१४०.००३
ऋत्विजो १६ वह्नये ३ नागाः ८ पक्षौ २ मुनि ३ मनू १४ शिवः ११ ।१४०.००४
वसवो ८ दिक्१० रसा ६ वेदा ४ ग्रह ९ र्तु६ अवि १२ चन्द्रमाः १ ॥१४०.००४
तिथयश्च १५ क्रमाद्भागा ओषधीनां प्रदक्षिणं ।१४०.००५
प्रथमेन चतुष्केण धूपश्चोद्वर्तनं परं ॥१४०.००५
तृतीयेनाञ्जनं कुर्यात्स्नानं कुर्याच्चतुष्कतः ।१४०.००६
भृङ्गराजानुलोमाच्च चतुर्धा लेपनं स्मृतं ॥१४०.००६
मुनयो दक्षणे पार्श्वे युगाद्याश्चोत्तराः स्मृताः ।१४०.००७
भुजगाः पादसंस्थाश्च ईश्वरा मूर्ध्नि संस्थिताः ॥१४०.००७
मध्येन सार्कशशिभिर्धूपः स्यात्सर्वकार्यके ।१४०.००८
एतैर्विलिप्तदेहस्तु त्रिदशैरपि पूज्यते ॥१४०.००८
धूपस्तु षोडशाद्यस्तु गृहाद्युद्वर्तने स्मृतः ।१४०.००९
युगाद्याश्चाञ्जने प्रोक्ता वाणाद्याः स्नानकर्मणि ॥१४०.००९
रुद्राद्या भक्षणे प्रोक्ताः पक्षाद्याः पानके स्मृताः ।१४०.०१०
ऋत्विग्वेदर्तुनयनैस्तिलकं लोकमोहनं ॥१४०.०१०
सूर्यत्रिदशपक्षैश्च शैलैः स्त्री लेपतो वशा ।१४०.०११
चन्द्रेन्द्रफणिरुद्रैश्च योनिलेपाद्वशाः स्त्रियः ॥१४०.०११
तिथिदिग्युगवाणैश्च गुटिका तु वशङ्करी ।१४०.०१२
भक्ष्ये भोज्ये तथा पाने दातव्या गुटिका वशे ॥१४०.०१२
ऋत्विग्ग्रहाक्षिशैलैश्च शस्त्रस्तम्भे मुखे धृता ।१४०.०१३
शैलेन्द्रवेदरन्ध्रैश्च अङ्गलेपाज्जले वसेत् ॥१४०.०१३
वाणाक्षिमनुरुद्रैश्च गुटिका क्षुत्तृषादिनुत् ।१४०.०१४
त्रिषोडशदिशावाणैर्लेपात्स्त्री दुर्भगा शुभा ॥१४०.०१४
त्रिदशाक्षिदिशानेत्रैर्लेपात्क्रीडेच्च पत्रगैः ।१४०.०१५
त्रिदशाक्षेशभुजगैर्लेपात्स्त्री सूयते सुखं ॥१४०.०१५
सप्तदिङ्मुनिरन्ध्रैश्च द्यूतजिह्वस्त्रलेपतः ।१४०.०१६
त्रिदशाक्ष्यब्धिमुनिभिर्ध्वजलेपात् रतौ सुतः ॥१४०.०१६
ग्रहाब्धिसर्प्यत्रिदशैर्गुटिका स्याद्वशङ्करी ।१४०.०१७
ऋत्विक्पदस्थितौषध्याः प्रभावः प्रतिपादितः ॥१४०.०१७
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे षोडशपदका नाम चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - एक सौ चालीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 140 Chapter!-In Hindi
भगवान् महेश्वर कहते हैं- स्कन्द ! अब मैं वशीकरण आदिके योगोंका वर्णन करूँगा। निम्नाङ्कित ओषधियोंको सोलह कोष्ठवाले चक्रमें अङ्कित करे-भृङ्गराज (भँगरैया), सहदेवी (सहदेइया), मोरकी शिखा, पुत्रजीवक (जीवापोता) नामक वृक्षकी छाल, अधःपुष्पा (गोझिया), रुदन्तिका (रुद्रदन्ती), कुमारी (घीकुँआर), रुद्रजटा (लताविशेष), विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), श्वेतार्क (सफेद मदार), लज्जालुका (लाजवन्ती लता), मोहलता (त्रिपुरमाली), काला धतूरा, गोरक्षकर्कटी (गोरखककड़ी या गुरुम्ही), मेषशृङ्गी (मेढ़ासिंगी) तथा स्नुही (सेंहुड़) ॥ १-३॥
ओषधियोंके ये भाग प्रदक्षिण-क्रमसे ऋत्विज् १६, वह्रि ३, नाग ८, पक्ष २, मुनि ७, मनु १४, शिव ११, वसुदेवता ८, दिशा १०, शर ५, वेद ४, ग्रह ९, ऋतु ६, सूर्य १२, चन्द्रमा १ तथा तिथि १५-इन सांकेतिक नामों और संख्याओंसे गृहीत होते हैं। प्रथम चार ओषधियोंका अर्थात् भँगरैया, सहदेड्या, मोरकी शिखा और पुत्रजीवककी छाल-इनका चूर्ण बनाकर इनसे धूपका काम लेना चाहिये। अथवा इन्हें पानीके साथ पीसकर उत्तम उबटन तैयार कर ले और उसे अपने अङ्गोंमें लगावे ॥ ४-५ ॥
तीसरे चतुष्क (चौक) अर्थात् अपराजिता, श्वेतार्क, लाजवन्ती लता और मोहलता- इन चार ओषधियोंसे अञ्जन तैयार करके उसे नेत्रमें लगावे तथा चौथे चतुष्क अर्थात् काला धतूरा, गोरखककड़ी, मेढ़ासिंगी और सेंहुड़-इन चार ओषधियोंसे मिश्रित जलके द्वारा स्नान करना चाहिये। भृङ्गराजवाले चतुष्कके बादका जो द्वितीय चतुष्क अर्थात् अधःपुष्पा, रुद्रदन्ती, कुमारी तथा रुद्रजटा नामक ओषधियाँ हैं, उन्हें पीसकर अनुलेप या उबटन लगानेका विधान है ॥ ६ ॥
अधःपुष्पाको दाहिने पार्श्वमें धारण करना चाहिये तथा लाजवन्ती आदिको वाम पार्श्वमें। मयूरशिखाको पैरमें तथा घृतकुमारीको मस्तकपर धारण करना चाहिये। रुद्रजटा, गोरखककड़ी और मेढ़ाशृङ्गी इनके द्वारा सभी कार्योंमें धूपका काम लिया जाता है। इन्हें पीसकर उबटन बनाकर जो अपने शरीरमें लगाता है, वह देवताओंद्वारा भी सम्मानित होता है। भृङ्गराज आदि चार ओषधियाँ, जो धूपके उपयोगमें आती हैं, ग्रहादिजनित बाधा दूर करनेके लिये उनका उद्वर्तनके कार्यमें भी उपयोग बताया गया है। युगादिसे सूचित लज्जालुका आदि ओषधियाँ अञ्जनके लिये बतायी गयी हैं। बाण आदिसे सूचित श्वेतार्क आदि ओषधियाँ स्नान कर्ममें उपयुक्त होती हैं। घृतकुमारी आदि ओषधियाँ भक्षण करनेयोग्य कही गयी हैं और पुत्रजीवक आदिसे संयुक्त जलका पान बताया गया है। ऋत्विक् (भँगरैया), वेद (लाजवन्ती), ऋऋतु (काला धतूरा) तथा नेत्र (पुत्रजीवक)- इन ओषधियोंसे तैयार किये हुए चन्दनका तिलक सब लोगोंको मोहित करनेवाला होता है ॥ ९॥
सूर्य (गोरखककड़ी), त्रिदश (काला धतूरा), पक्ष (पुत्रजीवक) और पर्वत (अधःपुष्पा)- इन ओषधियोंका अपने शरीरमें लेप करनेसे स्त्री वशमें होती है। चन्द्रमा (मेढ़ासिंगी), इन्द्र (रुद्रदन्तिका), नाग (मोरशिखा), रुद्र (घीकुआँर) - इन ओषधियोंका योनिमें लेप करनेसे स्त्रियाँ वशमें होती हैं। तिथि (सेंहुड़), दिक् (अपराजिता), युग (लाजवन्ती) और बाण (श्वेतार्क)- इन ओषधियोंके द्वारा बनायी हुई गुटिका (गोली) लोगोंको वशमें करनेवाली होती है। किसीको वशमें करना हो तो उसके लिये भक्ष्य, भोज्य और पेय पदार्थमें इसकी एक गोली मिला देनी चाहिये ॥ १२॥
ऋत्विक् (भँगरैया), ग्रह (मोहलता), नेत्र (पुत्रजीवक) तथा पर्वत (अधःपुष्पा)- इन ओषधियोंको मुखमें धारण किया जाय तो इनके प्रभावसे शत्रुओंके चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रोंका स्तम्भन हो जाता है-वे घातक आघात नहीं कर पाते। पर्वत (अधःपुष्पा), इन्द्र (रुद्रदन्ती), वेद (लाजवन्ती) तथा रन्ध्र (मोहलता)- इन ओषधियोंका अपने शरीरमें लेप करके मनुष्य पानीके भीतर निवास कर सकता है। बाण (श्वेतार्क), नेत्र (पुत्रजीवक), मनु (रुद्रदन्ती) तथा रुद्र (घीकुआँरि)- इन ओषधियोंसे बनायी हुई बटी भूख, प्यास आदिका निवारण करनेवाली होती है। तीन (सहदेइया), सोलह (भँगरैया), दिशा (अपराजिता) तथा बाण (श्वेतार्क)- इन ओषधियोंका लेप करनेसे दुर्भगा स्त्री सुभगा बन जाती है। त्रिशद (काला धतूरा), अक्षि (पुत्रजीवक) तथा दिशा (विष्णुक्रान्ता) और नेत्र (सहदेइया) - इन दवाओंका अपने शरीरमें लेप करके मनुष्य सर्पोंके साथ क्रीडा कर सकता है। इसी प्रकार त्रिदश (काला धतूरा), अक्षि (पुत्रजीवक), शिव (घृतकुमारी) और सर्प (मयूरशिखा)-से उपलक्षित दवाओंका लेप करनेसे स्त्री सुखपूर्वक प्रसव कर सकती है॥ १३-१५
सात (अधःपुष्पा), दिशा (अपराजिता), मुनि (अधःपुष्पा) तथा रन्ध्र (मोहलता)- इन दवाओंका वस्त्रमें लेपन करनेसे मनुष्यको जूएमें विजय प्राप्त होती है। काला धतूरा, नेत्र (पुत्रजीवक), अब्धि (अधःपुष्पा) तथा मनु (रुद्रदन्तिका) से उपलक्षित ओषधियोंका लिङ्गमें लेप करके रति करनेपर जो गर्भाधान होता है, उससे पुत्रकी उत्पत्ति होती है। ग्रह (मोहलता), अब्धि (अधःपुष्पा), सूर्य (गोरक्षकर्कटी) और त्रिदश (काला धतूरा) - इन ओषधियोंद्वारा बनायी गयी बटी सबको वशमें करनेवाली होती है। इस प्रकार ऋत्विक् आदि सोलह पदोंमें स्थित ओषधियोंके प्रभावका वर्णन किया गया ॥ १६-१७ ॥
प्रइस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ' वश्य आदि योगोंका वर्णन' नामक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४० ॥
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