अग्नि पुराण - एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 137 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 137 Chapter !

अग्नि पुराण एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय महामारी-विद्याका वर्णन ! महामारीविद्या !

अग्नि पुराण - एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 137 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 137 Chapter !

ईश्वर उवाच
महामारीं प्रवक्ष्यामि विद्यां शत्रुविमर्दिनीं ।१३७.००१
ओं ह्रीं महामारि रक्ताक्षि कृष्णवर्णे यमस्याज्ञाकरिणि सर्वभूतसंहारकारिणि अमुकं हन २ ओं दह २ पच २ ओं छिन्द २ ओं मारय २ ओं उत्सादय २ ओं सर्वसत्त्ववशङ्करि सर्वकामिके हुं फट्स्वाहेति
ओं मारि हृदयाय नमः । ओं महामारि शिरसे स्वाहा । ओं कालरात्रि शिखायै वौषट् । ओं कृष्णवर्णे खः कवचाय हुम् । ओं तारकाक्षि विद्युज्जिह्वे सर्वसत्त्वभयङ्करि रक्ष २ सर्वकार्येषु ह्रं त्रिनेत्राय चषट् । ओं महामारि सर्वभूतदमानि महाकालि अस्त्राय हुं फट्
एष न्यासी महादेवि कर्तव्यः साधकेन तु ॥१३७.००१

शवादिवस्त्रमादाय चतुरस्रन्त्रिहस्तकं ।१३७.००२
कृष्णवर्णां त्रिवक्त्राञ्च चतुर्बाहुं समालिखेत् ॥१३७.००२

पटे विचित्रवर्णैश्च धनुः शूलञ्च कर्तृकां ।१३७.००३
खट्वाङ्गन्धारयन्तीं च कृष्णाभं पूर्वमाननं ॥१३७.००३

तस्य दृष्टिनिपातेन भक्षयेदग्रतो नरं ।१३७.००४
द्वितीयं याम्यभागे तु रक्तजिह्वं भयानकं ॥१३७.००४

लेलिहानं करालं च दंष्ट्रोत्कटभयानकं ।१३७.००५
तस्य दृष्टिनिपातेन भक्ष्यमाणं हयादिकं ॥१३७.००५

तृतीयं च सुखं देव्याः श्वेतवर्णं गजादिनुत् ।१३७.००६
गन्धपुष्पादिमध्वाज्यैः पश्चिमाभिमुखं यजेत् ॥१३७.००६

मन्त्रस्मृतेरक्षिरोगशिरोरोगादि नश्यति ।१३७.००७
वश्याः स्युर्यक्षरक्षाश्च नाशमायान्ति शत्रवः ॥१३७.००७

समिधो निम्बवृक्षस्य ह्यजारक्तविमिश्रिताः ।१३७.००८
मारयेत्क्रोधसंयुक्तो होमादेव न संशयः ॥१३७.००८

परसैन्यमुखो भूत्वा सप्ताहं जुहुयाद्यदि ।१३७.००९
व्याधिभिर्गृह्यते सैन्यम्भङ्गो भवति वैरिणः ॥१३७.००९

समिधोऽष्टसहस्रन्तु यस्य नाम्ना तु होमयेत् ।१३७.०१०
अचिरान्म्रियते सोपि ब्रह्मणा यदि रक्षितः ॥१३७.०१०

उन्मत्तसमिधो रक्तविषयुक्तसहस्रकं ।१३७.०११
दिनत्रयं ससैन्यश्च नाशमायाति वै रिपुः ॥१३७.०११

राजिकालवर्णैर्होमाद्भङ्गोऽरेः स्याद्दिनत्रयात् ।१३७.०१२
खररक्तसमायुक्तहोमादुच्चाटयेद्रिपुं ॥१३७.०१२

काकरक्तसमायोगाद्धोमादुत्सादनं ह्यरेः ।१३७.०१३
बधाय कुरुते सर्वं यत्किञ्चिन्मनसेप्सितं ॥१३७.०१३

अथ सङ्ग्रामसमये गजारूढस्तु साधकः ।१३७.०१४
कुमारीद्वयसंयुक्तो मन्त्रसन्नद्धविग्रहः ॥१३७.०१४

दूरशङ्खादिवाद्यनि विद्यया ह्याभिमन्त्रयेत् ।१३७.०१५
महामायापटं गृह्य उच्छेत्तव्यं रणाजिरे ॥१३७.०१५

परसैन्यमुखो भूत्वा दर्शयेत्तं महापटं ।१३७.०१६
कुमारीर्भोजयेत्तत्र पश्चात्पिण्डीञ्च भ्रामयेत् ॥१३७.०१६

साधकश्चिन्तयेत्सैन्यम्पाषाणमिव निश्चलं ।१३७.०१७
निरुत्साहं विभग्नञ्च मुह्यमानञ्च भावयेत् ॥१३७.०१७

एष स्तम्भो मया प्रोक्तो न देयो यस्य कस्य चित् ।१३७.०१८
त्रैलोक्यविजया माया दुर्गैवं भैरवी तथा ॥१३७.०१८

कुब्जिका भैरवो रुद्रो नारसिंहपटादिना ॥१९॥१३७.०१९
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे महामारी नाम सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 137 Chapter!-In Hindi

महेश्वर कहते हैं- देवि ! अब मैं महामारी विद्याका वर्णन करूँगा, जो शत्रुओंका मर्दन करनेवाली है ॥ १॥ 
ॐ ह्रीं महामारि रक्ताक्षि कृष्णवर्णे यमस्याज्ञाकारिणि सर्वभूतसंहारकारिणि अमुकं हन हन, ॐ दह दह, ॐ पच पच, ॐ च्छिन्द च्छिन्द, ॐ मारय मारय, ओमुत्सादयोत्सादय, ॐ सर्वसत्त्ववशंकरि सर्वकामिके हुं फट् स्वाहा ॥ ॐ ह्रीं लाल नेत्रों तथा काले रंगवाली महामारि! तुम यमराजकी आज्ञाकारिणी हो, समस्त भूतोंका संहार करनेवाली हो, मेरे अमुक शत्रुका हनन करो, हनन करो। ॐ उसे जलाओ, जलाओ। ॐ पकाओ, पकाओ। ॐ काटो, काटो। ॐ मारो, मारो। ॐ उखाड़ फेंको, उखाड़ फेंको। ॐ समस्त प्राणियोंको वशमें करनेवाली और सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली! हुं फट् स्वाहा ॥ २ ॥ 
अङ्गन्यास 'ॐ मारि हृदयाय नमः ।' - इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथकी मध्यमा, अनामिका और तर्जनी अँगुलियोंसे हृदयका स्पर्श करे। 'ॐ महामारि शिरसे स्वाहा।'- इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथसे सिरका स्पर्श करे। 'ॐ कालरात्रि शिखायै वौषट् ।' - इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथके अँगूठेसे शिखाका स्पर्श करे। 'ॐ कृष्णवर्णे खः कवचाय हुम्।' - इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथकी पाँचों अँगुलियोंसे बायीं भुजाका और बायें हाथकी पाँचों अँगुलियोंसे दाहिनी भुजाका स्पर्श करे। 'ॐ तारकाक्षि विद्युजिह्वे सर्वसत्त्वभयंकरि रक्ष रक्ष सर्वकार्येषु हूं त्रिनेत्राय वषट्।'- इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथकी अँगुलियोंके अग्रभागसे दोनों नेत्रों और ललाटके मध्यभागका स्पर्श करे।' ॐ महामारि सर्वभूतदमनि महाकालि अस्त्राय हुं फट्।'- इस वाक्यको बोलकर दाहिने हाथको सिरके ऊपर एवं बायीं ओरसे पीछेकी ओर ले जाकर दाहिनी ओरसे आगेकी ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अँगुलियोंसे बायें हाथकी हथेलीपर ताली बजाये ॥ ३ ॥
महादेवि ! साधकको यह अङ्गन्यास अवश्य करना चाहिये। वह मुर्देपरका वस्त्र लाकर उसे चौकोर फाड़ ले। उसकी लंबाई-चौड़ाई तीन- तीन हाथकी होनी चाहिये। उसी वस्त्रपर अनेक प्रकारके रंगोंसे देवीकी एक आकृति बनावे, जिसका रंग काला हो। वह आकृति तीन मुख और चार भुजाओंसे युक्त होनी चाहिये। देवीकी यह मूर्ति अपने हाथोंमें धनुष, शूल, कतरनी और खट्वाङ्ग (खाटका पाया) धारण किये हुए हो। उस देवीका पहला मुख पूर्व दिशाकी ओर हो और अपनी काली आभासे प्रकाशित हो रहा हो तथा ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही वह अपने सामने पड़े हुए मनुष्यको खा जायगी। दूसरा मुख दक्षिण भागमें होना चाहिये। उसकी जीभ लाल हो और वह देखनेमें भयानक जान पड़ता हो। वह विकराल मुख अपनी दाढ़ोंके कारण अत्यन्त उत्कट और भयंकर हो और जीभसे दो गलफर चाट रहा हो। साथ ही ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही यह घोड़े आदिको खा जायगा ॥ ४-७॥ 
देवीका तीसरा मुख पश्चिमाभिमुख हो। उसका रंग सफेद होना चाहिये। वह ऐसा जान पड़ता हो कि सामने पड़नेपर हाथी आदिको भी खा जायगा। गन्ध-पुष्प आदि उपचारों तथा घी-मधु आदि नैवेद्योंद्वारा उसका पूजन करे ॥ ८ ॥
पूर्वोक्त मन्त्रका स्मरण करनेमात्रसे नेत्र और मस्तक आदिका रोग नष्ट हो जाता है। यक्ष और राक्षस भी वशमें हो जाते हैं और शत्रुओंका नाश हो जाता है। यदि मनुष्य क्रोधयुक्त होकर, निम्ब-वृक्षकी समिधाओंको होम करे तो उस होमसे ही वह अपने शत्रुको मार सकता है, इसमें संशय नहीं है। यदि शत्रुकी सेनाकी ओर मुँह करके एक सप्ताहतक इन समिधाओंका हवन किया जाय तो शत्रुकी सेना नाना प्रकारके रोगोंसे ग्रस्त हो जाती है और उसमें भगदड़ मच जाती है। जिसके नामसे आठ हजार उक्त समिधाओंका होम कर दिया जाय, वह यदि ब्रह्माजीके द्वारा सुरक्षित हो तो भी शीघ्र ही मर जाता है। यदि धतूरेकी एक सहस्र समिधाओंको रक्त और विषसे संयुक्त करके तीन दिनतक उनका होम किया जाय तो शत्रु अपनी सेनाके साथ ही नष्ट हो जाता है॥ ९-१३ ॥
राई और नमकसे होम करनेपर तीन दिनमें ही शत्रुकी सेनामें भगदड़ पड़ जायगी- शत्रु भाग खड़ा होगा। यदि उसे गदहेके रक्तसे मिश्रित करके होम किया जाय तो साधक अपने शत्रुका उच्चाटन कर सकता है- वहाँसे भागनेके लिये उसके मनमें उचाट पैदा कर सकता है। कौएके रक्तसे संयुक्त करके हवन करनेपर शत्रुको उखाड़ फेंका जा सकता है। साधक उसके वधमें समर्थ हो सकता है तथा साधकके मनमें जो-जो इच्छा होती है, उन सब इच्छाओंको वह पूर्ण कर लेता है। युद्धकालमें साधक हाथीपर आरूढ़ हो, दो कुमारियोंके साथ रहकर, पूर्वोक्त मन्त्रद्वारा शरीरको सुरक्षित कर ले; फिर दूरके शङ्ख आदि वाद्योंको पूर्वोक्त महामारी-विद्यासे अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर महामायाकी प्रतिमासे युक्त वस्त्रको लेकर समराङ्गणमें ऊँचाईपर फहराये और शत्रुसेनाकी ओर मुँह करके उस महान् पटको उसे दिखाये। तत्पश्चात् वहाँ कुमारी कन्याओंको भोजन करावे। फिर पिण्डीको घुमाये। उस समय साधक यह चिन्तन करे कि शत्रुकी सेना पाषाणकी भाँति निश्चल हो गयी है वह यह भी भावना करे कि शत्रुकी सेनामें लड़नेका उत्साह नहीं रह गया है, उसके पाँव उखड़ गये हैं और वह बड़ी घबराहटमें पड़ गयी है। इस प्रकार करनेसे शत्रुकी सेनाका स्तम्भन हो जाता है। वह चित्रलिखितकी भाँति खड़ी रह जाती है, कुछ कर नहीं पाती। यह मैंने स्तम्भनका प्रयोग बताया है। इसका जिस-किसी भी व्यक्तिको उपदेश नहीं देना चाहिये। यह तीनों लोकोंपर विजय दिलानेवाली देवी 'माया' कही गयी है और इसकी आकृतिसे अङ्कित वस्त्रको 'मायापट' कहा गया है। इसी तरह दुर्गा, भैरवी, कुब्जिका, रुद्रदेव तथा भगवान् नृसिंहकी आकृतिका भी वस्त्रपर अङ्कन किया जा सकता है। इस तरहकी आकृतियोंसे अङ्कित पट आदिके द्वारा भी यह स्तम्भनका प्रयोग सिद्ध हो सकता है ॥ १४-१९ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'महामारी-विद्याका वर्णन' नामक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३७ ॥

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