अग्नि पुराण - एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 133 Chapter !
अग्नि पुराण एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय नाना प्रकारके बलोंका विचार ! नानाबलानि !अग्नि पुराण - एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 133 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 133 Chapter !
ईश्वर उवाच
गर्भजातस्य वक्ष्यामि क्षेत्राधिपस्वरूपकं ।१३३.००१
नातिदीर्घः कृशः स्थूलः समाङ्गो गौरपैतिकः ॥१३३.००१
रक्ताक्षो गुणवान् शूरो गृहे सूर्यस्य जायते ।१३३.००२
सौभाग्यो मृदुसारश्च जातश्चन्द्रगृहोदये ॥१३३.००२
वाताधिकोऽतिलुब्धादिर्जातो भूमिभुवो गृहे ।१३३.००३
बुद्धिमान् सुभगो मानी जातः सौम्यगृहोदये ॥१३३.००३
वृहत्क्रोधश्च शुभगो जातो गुरुगृहे नरः ।१३३.००४
त्यागो भोगो च सुभगो जातो भृगुगृहोदये ॥१३३.००४
बुद्धिमाञ्छुभगो मानी जातश्चार्किगृहे नरः ।१३३.००५
सौम्यलग्ने तु सौम्यः स्यात्क्रूरः स्यात्क्रूरलग्नके ॥१३३.००५
दशाफलङ्गौरि वक्ष्ये नामराशौ तु संस्थितं ।१३३.००६
गजाश्वधनधान्यानि राज्यश्रीर्विपुला भवेत् ॥१३३.००६
पुनर्धनागमश्चापि दशायां भास्करस्य तु ।१३३.००७
दिव्यस्त्रीदा चन्द्रदशा भूमिलाभः सुखं कुजे ॥१३३.००७
भूमिर्धान्यं धनं बौधे गजाश्वादिधनं गुरौ ।१३३.००८
खाद्यपानधनं द्शुक्रे शनौ व्याध्यादिसंयुतः ॥१३३.००८
स्नानसेवादिनाध्वानं वाणिज्यं राहुर्दर्शने ।१३३.००९
वामनाडीप्रवाहे स्यान्नाम चेद्विषमाक्षरं ॥१३३.००९
तदा जयति सङ्ग्रामे शनिभौमससैंहिकाः ।१३३.०१०
दक्षनाडीप्रवाहेर्के वाणिज्ये चैव निष्फला ॥१३३.०१०
सङ्ग्रामे जयमाप्नोति समनामा नरो ध्रुवं ।१३३.०११
अधश्चारे जयं विद्यादूर्ध्वचारे रणे मृतिं ॥१३३.०११
ओं हूं ओं ह्रूं ओं स्फें अस्त्रं मोटय ओं चूर्णय २ ओं सर्वशत्रुं मर्दय २ ओं ह्रूं ओं ह्रः फट्
सप्तवारन्न्यसेन्मन्त्रं ध्यात्वात्मानन्तु भैरवं ।१३३.०१२
चतुर्भुजन्दशभुजं विंशद्बाह्वात्मकं शुभं ॥१३३.०१२
शूलखट्वाङ्गहस्तन्तु खड्गकट्टारिकोद्यतं ।१३३.०१३
भक्षणं परसैन्यानामात्मसैन्यपराङ्मुखं ॥१३३.०१३
सम्मुखं शत्रसैन्यस्य शतमष्टोत्तरं जपेत् ।१३३.०१४
जपाड्डमरुकाच्छब्दाच्छस्त्रं त्यक्त्वा पलायते ॥१३३.०१४
परसैन्यं शृणु भङ्गं प्रयोगेन पुनर्वदे ।१३३.०१५
श्मशानाङ्गारमादाय विष्टाञ्चोलूककाकयोः ॥१३३.०१५
कर्पटे प्रतिमां लिख्य साध्यस्तैवाक्षरं यथा ।१३३.०१६
नामाथ नवधा लिख्य रिपोश्चैव यथाक्रमं ॥१३३.०१६
मूर्ध्नि वक्त्रे ललाटे च हृदये गुह्यपादयोः ।१३३.०१७
पृष्ठे तु बाहुमध्ये तु नाम वै नवधा लिखेत् ॥१३३.०१७
मोटयेद्युद्धकाले तु उच्चरित्वा तु विद्यय ।१३३.०१८
तार्क्ष्यचक्रं प्रवक्ष्यामि जयार्थं त्रिमुखाक्षरं ॥१३३.०१८
क्षिप ओं स्वाहा तार्क्षात्मा शत्रुरोगविषादिनुत् ।१३३.०१९
दुष्टभूतग्रहार्तस्य व्याधितस्यातुरस्य च ॥१३३.०१९
करोति यादृशङ्कर्म तादृशं सिद्ध्यते खगात् ।१३३.०२०
स्थावरं जङ्गमञ्चैव लूताश्च कृत्रिमं विषं ॥१३३.०२०
तत्सर्वं नाशमायाति साधकस्यावलोकनात् ।१३३.०२१
पुनर्ध्यायेन्महातार्क्ष्यं द्विपक्षं मानुषाकृतिं ॥१३३.०२१
द्विभुजं वक्रचञ्चुं च गजकूर्मधरं प्रभुं ।१३३.०२२
असङ्ख्योरगपादस्थमागच्छन्तं खमध्यतः ॥१३३.०२२
ग्रसन्तञ्चैव खादन्तं तुदन्तं चाहवे रिपून् ।१३३.०२३
चञ्च्वाहताश्च द्रष्टव्याः केचित्पादैश्च चूर्णिताः ॥१३३.०२३
पक्षपातैश्चूर्णिताश्च केचिन्नष्टा दिशो दश ।१३३.०२४
तार्क्ष्यध्यानान्वितो यश्च त्रिलोक्ये ह्यजयो भवेत् ॥१३३.०२४
पिच्छिकान्तु प्रवक्ष्यामि मन्त्रसाधनजां क्रियां ।१३३.०२५
ओं ह्रूं पक्षिन् क्षिप ओं हूं सः महाबलपराक्रम सर्वसैन्यं भक्षय २ ओं मर्दय २ ओं चूर्णय २ ओं विद्रावय २ ओं हूं खः ओं भैरवो ज्ञापयति स्वाहा
अमुञ्चन्द्रग्रहणे तु जपङ्कृत्वा तु पिच्छिकां ॥१३३.०२५
मन्त्रयेद्भ्रामयेत्सैन्यं सम्मुखं गजसिंहयोः ।१३३.०२६
ध्यानाद्रवान्मर्दयेच्च सिंहारूढो मृगाविकान् ॥१३३.०२६
शब्दाद्भङ्गं प्रवक्ष्यामि दूरं मन्त्रेण बोधयेत् ।१३३.०२७
मातॄणां चरुकं दद्यात्कालरात्र्या विशेषतः ॥१३३.०२७
श्मशानभस्मसंयुक्तं मालती चामरी तथा ।१३३.०२८
कार्पासमूलमात्रन्तु तेन दूरन्तु बोधयेत् ॥१३३.०२८
ओं अहे हे महेन्द्रि अहे महेन्द्रि भञ्ज हि ओं जहि मसानंहि खाहि खाहि किलि किलि किलि ओं हुं फट्
अरेर्नाशं दूरशब्दाज्जप्तया भङ्गविद्यया ।१३३.०२९
अपराजिता च धुस्तूरस्ताभ्यान्तु तिलकेन हि ॥१३३.०२९
ओं किलि किलि विकिलि इच्छाकिलि भूतहनि शङ्खिनि उभे दण्दहस्ते रौद्रि माहेश्वरि उल्कामुखि ज्वालामुखि शङ्कुकर्णे शुष्कजङ्घे अलम्बुषे हर ओं सर्वदुष्टान् खन ओं यन्मन्निरीक्षयेद्देवि तांस्तान्मोहय ओं रुद्रस्य हृदये स्थिता रौद्रि सौम्येन भावेन आत्मरक्षान्ततः कुरु स्वाहा
वाह्यतो मातॄः संलिख्य सकलाकृतिवेष्टिताः ।१३३.०३०
नागपत्रे लिखेद्विद्यां सर्वकामार्थसाधनीं ॥१३३.०३०
हस्ताद्यैर्धारिता पूर्वं ब्रह्मरुद्रेन्द्रविष्णुभिः ।१३३.०३१
गुरुसङ्ग्रामकाले तु विद्यया रक्षिताः सुराः ॥१३३.०३१
रक्षया नारसिंह्या च भैरव्या शक्तिरूपया ।१३३.०३२
सर्वे त्रैलोक्यमोहिन्या गौर्या देवासुरे रणे ॥१३३.०३२
वीजसम्पुटितं नाम कर्णिकायां दलेषु च ।१३३.०३३
पूजाक्रमेण चाङ्गानि रक्षायन्त्रं स्मृतं शुभे ॥१३३.०३३
मृत्युञ्जयं प्रवक्ष्यामि नामसंस्कारमध्यग ।१३३.०३४
कलाभिवेष्टितं पश्चात्सकारेण निबोधितं ॥१३३.०३४
जकारं विन्दुसंयुक्तं ओङ्कारेण समन्वितं ।१३३.०३५
धकारोदरमध्यस्थं वकारेण निबोधितं ॥१३३.०३५
चन्द्रसम्पुटमध्यस्थं सर्वदुष्टविमर्दकम् ।१३३.०३६
अथवा कर्णिकायाञ्च लिखेन्नाम च कारणम् ॥१३३.०३६
पूर्वे दले तथोङ्कारं स्वदक्षे चोत्तरे लिखेत् ।१३३.०३७
आग्नेय्यादौ च हूङ्कारन्दले षोडशके स्वरान् ॥१३३.०३७
चतुस्त्रिंशद्दले काद्यान् वाह्ये मन्त्रञ्च मृत्युजित् ।१३३.०३८
लिखेद्वैभूर्जपत्रे तु रोचनाकुङ्ग्कुमेन च ॥१३३.०३८
कर्पूरचन्दनाभ्याञ्च श्वेतसूतेण वेष्टयेत् ।१३३.०३९
सिक्थकेन परिच्छाद्य कलशोपरि पूजयेत् ॥१३३.०३९
यन्त्रस्य धारणाद्रागाः शाम्यन्ति रिपवो मृतिः ।१३३.०४०
विद्यान्तु भेलखीं वक्ष्ये विप्रयोगमृतेर्हरीं ॥१३३.०४०
ओं वातले वितले विडालमुखि इन्द्रपुत्रि उद्भवो वायुदेवेन खीलि आजी हाजा मयि वाह इहादि दुःखनित्यकण्ठोच्चैर्मुहूर्तान्वया अह मां यस्महं उपाडि ओं भेलखि ओं स्वाहा
नवदुर्गासप्तजप्तान्मुखस्तम्भो मुखस्थितात् ।१३३.०४१
ओं चण्डि ओं हूं फट्स्वाहा
गृहीत्वा सप्तजप्तं तु खद्गयुद्धेऽपराजितः ॥१३३.०४१
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे नानाबलानि नाम त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 133 Chapter!-In Hindi
शंकरजी कहते हैं- अब सूर्यादि ग्रहोंकी राशियोंमें पैदा हुए नवजात शिशुका जन्म फल क्षेत्राधिपके अनुसार वर्णन करूँगा। सूर्यके गृहमें अर्थात् सिंह लग्नमें उत्पन्न बालक समकाय, कभी कृशाङ्ग, कभी स्थूलाङ्ग, गौरवर्ण, पित्त प्रकृति, लाल नेत्रोंवाला, गुणवान् तथा वीर होता है। चन्द्रके गृहमें अर्थात् कर्क लग्नका जातक भाग्यवान् तथा कोमल शरीरवाला होता है। मङ्गलके गृहमें अर्थात् मेष तथा वृश्चिक लग्नोंका जातक वातरोगी तथा अत्यन्त लोभी होता है। बुधके गृहमें अर्थात् मिथुन तथा कन्या लग्नोंका जातक बुद्धिमान्, सुन्दर तथा मानी होता है। गुरुके गृहमें अर्थात् धनु तथा मीन लग्नोंका जातक सुन्दर और अत्यन्त क्रोधी होता है। शुक्रके गृहमें अर्थात् तुला तथा वृष लग्नोंका जातक त्यागी, भोगी एवं सुन्दर शरीरवाला होता है। शनिके गृहमें अर्थात् मकर तथा कुम्भ लग्नोंका जातक बुद्धिमान्, सुन्दर तथा मानी होता है। सौम्य लग्नका जातक सौम्य स्वभावका तथा क्रूर लग्नका जातक क्रूर स्वभावका होता है ॥ १-५ ॥ गौरि! अब नाम-राशिके अनुसार सूर्यादि ग्रहोंका दशा-फल कहता हूँ। सूर्यकी दशामें हाथी, घोड़ा, धन-धान्य, प्रबल राज्यलक्ष्मीकी प्राप्ति और धनागम होता है। चन्द्रमाकी दशामें दिव्य स्त्रीकी प्राप्ति होती है। मङ्गलकी दशामें भूमिलाभ और सुख होता है। बुधकी दशामें भूमिलाभके साथ धन-धान्यकी भी प्राप्ति होती है। गुरुकी दशामें घोड़ा, हाथी तथा धन मिलता है। शुक्रकी दशामें खाद्यान्न तथा गोदुग्धादिपानके साथ धनका लाभ होता है। शनिकी दशामें नाना प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं। राहुका दर्शन होनेपर अर्थात् ग्रहण लगनेपर निश्चित स्थानपर निवास, दिनमें ध्यान और व्यापारका काम करना चाहिये ॥ ६-८ ॥
यदि वाम श्वास चलते समय नामका अक्षर विषम संख्याका हो तो वह समय मङ्गल, शनि तथा राहुका रहता है। उसमें युद्ध करनेसे विजय होती है। दक्षिण श्वास चलते समय यदि नामका अक्षर सम संख्याका हो तो वह समय सूर्यका रहता है। उसमें व्यापार-कार्य निष्फल होता है, किंतु उस समय पैदल संग्राम करनेसे विजय होती है और सवारीपर चढ़कर युद्ध करनेसे मृत्यु होती है ॥ ९-११॥
ॐ हूं, ॐ हूं, ॐ स्फें, अस्त्रं मोटय, ॐ चूर्णय, चूर्णय, ॐ सर्वशत्रु मर्दय, मर्दय ॐ हूं, ॐ ह्रः फट्। इस मन्त्रका सात बार न्यास करना चाहिये। फिर जिनके चार, दस तथा बीस भुजाएँ हैं, जो हाथोंमें त्रिशूल, खट्वाङ्ग, खङ्ग और कटार धारण किये हुए हैं तथा जो अपनी सेनासे विमुख और शत्रु सेनाका भक्षण करनेवाले हैं, उन भैरवजीका अपने हृदयमें ध्यान करके शत्रु-सेनाके सम्मुख उक्त मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे। जपके पश्चात् डमरूका शब्द करनेसे शत्रु-सेना शस्त्र त्यागकर भाग खड़ी होती है॥ १२-१५ ॥
पुनः शत्रु-सेनाकी पराजयका अन्य प्रयोग बतलाता हूँ। श्मशानके कोयलेको काक या उल्लूकी विष्ठामें मिलाकर उसीसे कपड़ेपर शत्रुकी प्रतिमा लिखे और उसके सिर, मुख, ललाट हृदय, गुह्य, पैर, पृष्ठ, बाहु और मध्यमें शत्रुका नाम नौ बार लिखे। उस कपड़ेको मोड़कर संग्रामके समय अपने पास रखनेसे तथा पूर्वोक्त मन्त्र पढ़नेसे विजय होती है ॥ १६-१८ ॥ अब विजय प्राप्त करनेके लिये त्रिमुखाक्षर 'तार्थ्यचक्र' को कहता हूँ। 'क्षिप ॐ स्वाहा तार्ध्यात्मा शत्रुरोगविषादिनुत्।' इस मन्त्रको 'तार्थ्य- चक्र' कहते हैं। इसके अनुष्ठानसे दुष्टोंकी बाधा, भूत-बाधा एवं ग्रह-बाधा तथा अनेक प्रकारके रोग निवृत्त हो जाते हैं। इस 'गरुड मन्त्र' से जैसा कार्य चाहे, सब सिद्ध हो जाता है। इस मन्त्रके साधकका दर्शन करनेसे स्थावर जंगम, लूता तथा कृत्रिम ये सभी विष नष्ट हो जाते हैं॥ १९-२१ ॥
पुनः महातार्थ्यका यों ध्यान करना चाहिये- जिनकी आकृति मनुष्यकी-सी है, जो दो पाँख और दो भुजा धारण करते हैं, जिनकी चोंच टेढ़ी है, जो सामर्थ्यशाली तथा हाथी और कछुएको पकड़ रखनेवाले हैं, जिनके पंजोंमें असंख्य सर्प उलझे हुए हैं, जो आकाशमार्गसे आ रहे हैं और रणभूमिमें शत्रुओंको खाते हुए नोच-नोचकर निगल रहे हैं, कुछ शत्रु जिनकी चोंचसे मारे हुए दीख रहे हैं, कुछ पंजोंके आघातसे चूर्ण हो गये हैं, किन्हींका पंखोंके प्रहारसे कचूमर निकल गया है और कुछ नष्ट होकर दसों दिशाओंमें भाग गये हैं। इस तरह जो साधक ध्यान निष्ठ होगा, वह तीनों लोकोंमें अजेय होकर रहेगा अर्थात् उसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता ॥ २२-२५ ॥ अब मन्त्र-साधनसे सिद्ध होनेवाली 'पिच्छिका क्रिया' का वर्णन करता हूँ-ॐ हूं पक्षिन् क्षिप, ॐ हूं सः महाबलपराक्रम सर्वसैन्यं भक्षय भक्षय, ॐ मर्दय मर्दय, ॐ चूर्णय चूर्णय,ॐ विद्रावय विद्रावय, ॐ हूं खः, ॐ भैरवो ज्ञापयति स्वाहा। इस 'पिच्छिका मन्त्र' को चन्द्रग्रहणमें जप करके सिद्ध कर लेनेवाला साधक संग्राममें सेनाके सम्मुख हाथी तथा सिंहको भी खदेड़ सकता है। मन्त्रके ध्यानसे उनके शब्दोंका मर्दन कर सकता है तथा सिंहारूढ़ होकर मृग तथा बकरेके समान शत्रुओंको मार सकता है ॥ २६-२८ ॥
दूर रहकर केवल मन्त्रोच्चारणसे शत्रुनाशका उपाय कह रहे हैं- कालरात्रि (आश्विन शुक्लाष्टमी)- में मातृकाओंको चरु प्रदान करे और श्मशानकी भस्म, मालती-पुष्प, चामरी एवं कपासकी जड़के द्वारा दूरसे शत्रुको सम्बोधित करे। सम्बोधित करनेका मन्त्र निम्नलिखित है- ॐ, अहे हे महेन्द्रि! अहे महेन्द्रि भञ्ज हि। ॐ जहि मसानं हि खाहि खाहि, किलि किलि, ॐ हूं फट्। इस भङ्गविद्याका जप करके दूरसे ही शब्द करनेसे, अपराजिता और धतूरेका रस मिलाकर तिलक करनेसे शत्रुका विनाश होता है॥ २९-३२ ई ॥
ॐ किलि किलि विकिलि इच्छाकिलि भूतहनि शङ्खिनि, उमे दण्डहस्ते रौद्रि माहेश्वरि, उल्कामुखि ज्वालामुखि शङ्कुकर्णे शुष्कजड्डे अलम्बुषे हर हर, सर्वदुष्टान् खन खान, ॐ यन्मान्निरीक्षयेद् देवि ताँस्तान् मोहय, ॐ रुद्रस्य हृदये स्थिता रौद्रि सौम्येन भावेन आत्मरक्षां ततः कुरु स्वाहा। - इस सर्वकार्यार्थसाधक मन्त्रको भोजपत्रपर वृत्ताकार लिखकर बाहरमें मातृकाओंको लिखे। इस विद्याको पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इन्द्रने हाथ आदिमें धारण किया था तथा इस विद्याद्वारा बृहस्पतिने देवासुर संग्राममें देवताओंकी रक्षा की थी ॥ ३३-३५ ॥
(अब रक्षायन्त्रका वर्णन करते हैं) रक्षारूपिणी नारसिंही, शक्तिरूपा भैरवी तथा त्रैलोक्यमोहिनी गौरीने भी देवासुर संग्राममें देवताओंकी रक्षा की थी। अष्टदल कमलकी कर्णिका तथा दलोंमें गौरीके बीज (हीं) मन्त्रसे सम्पुटित अपना नाम लिख दे। पूर्व दिशामें रहनेवाले प्रथमादि दलोंमें पूजाके अनुसार गौरीजीकी अङ्ग-देवताओंका न्यास करे। इस तरह लिखनेपर शुभे! 'रक्षायन्त्र' बन जायगा ॥ ३६-३७॥
अब इन्हीं संस्कारोंके बीच 'मृत्युंजय मन्त्र 'को कहता हूँ, जो सब कलाओंसे परिवेष्टित है, अर्थात् उस मन्त्रसे प्रत्येक कार्यका साधन हो सकता है, तथा जो सकारसे प्रबोधित होता है। मन्त्रका स्वरूप कहते हैं- ॐकार पहले लिखकर फिर बिन्दुके साथ जकार लिखे, पुनः धकारके पेटमें वकारको लिखे, उसे चन्द्रबिन्दुसे अङ्कित करे। अर्थात् 'ॐ जं ध्वम्'- यह मन्त्र सभी दुष्टोंका विनाश करनेवाला है ॥ ३८-३९॥
दूसरे 'रक्षायन्त्र' का उद्धार कहते हैं- गोरोचन-कुङ्कुमसे अथवा मलयागिरि चन्दन कर्पूरसे भोजपत्रपर लिखे हुए चतुर्दल कमलकी कर्णिकामें अपना नाम लिखकर चारों दलोंमें ॐकार लिखे। आग्नेय आदि कोणोंमें हूंकार लिखे। उसके ऊपर षोडश दलोंका कमल बनाये। उसके दलोंमें अकारादि षोडश स्वरोंको लिखे। फिर उसके ऊपर चौंतीस दलोंका कमल बनाये। उसके दलोंमें 'क' से लेकर 'क्ष' तक अक्षरोंको लिखे। उस यन्त्रको श्वेत सूत्रसे वेष्टित करके रेशमी वस्त्रसे आच्छादित कर, कलशपर स्थापन करके उसका पूजन करे। इस यन्त्रको धारण करनेसे सभी रोग शान्त होते हैं एवं शत्रुओंका विनाश होता है॥ ४०॥
अब 'भेलखी विद्या' को कह रहा हूँ, जो वियोगमें होनेवाली मृत्युसे बचाती है। उसका मन्त्रस्वरूप निम्नलिखित है-तारकरसही'ॐ वातले वितले विडालमुखि इन्द्रपुत्रि उद्भवो वायुदेवेन खीलि आजी हाजा मयि वाह इहादिदुःखनित्यकण्ठोच्चैर्मुहूर्त्तान्वया अह मां यस्महमुपाडि ॐ भेलखि ॐ स्वाहा।' प्राप्त नवरात्रके अवसरपर इस मन्त्रको सिद्ध करके संग्रामके समय सात बार मन्त्रजप करनेपर शत्रुका मुखस्तम्भन होता है 'ॐ चण्डि, ॐ हूं फट् स्वाहा।' इस मन्त्रको संग्रामके अवसरपर सात बार जपनेसे खङ्ग-युद्धमें विजय होती है ॥४१ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'नाना प्रकारके बलोंका विचार' नामक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३३॥
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