अग्नि पुराण - एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 132 Chapter !
अग्नि पुराण एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय सेवाचक्र आदिका निरूपणअग्नि पुराण - एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 132 Chapter ! |
अग्नि पुराण - एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय ! Agni Purana - 132 Chapter !
सेवाचक्रम्
सेवाचक्रं प्रवक्ष्यामि लाभालाभानुसूचकं ।१३२.००१
पिता माता तथा भ्राता दम्पती च विशेषतः ॥१३२.००१
तस्मिंश्चक्रे तु विज्ञेयं यो यस्माल्लभते फलं ।१३२.००२
षडूर्ध्वाः स्थापयेद्रेखा भिन्नाश्चाष्तौ तु तिर्यगाः ॥१३२.००२
कोष्ठकाः पञ्चत्रिंशच्च तेषु वर्णान् समालिखेत् ।१३२.००३
स्वरान् पञ्च समुद्धृत्य स्पर्शान् पश्चात्समालिखेत् ॥१३२.००३
ककारादिहकारान्तान् हीनाङ्गांस्त्रीन्विवर्जयेत् ।१३२.००४
सिद्धः साध्यः सुसिद्धश्च अरिर्मृत्युश्च नामतः ॥१३२.००४
अरिर्मृत्युअश्च द्वावेतौ वर्जयेत्सर्वकर्मसु ।१३२.००५
एषां मध्ये यदा नाम लक्षयेत्तु प्रयत्नतः ॥१३२.००५
आत्मपक्षे स्थिताः सत्त्वाः सर्वे ते शुभदायकाः ।१३२.००६
द्वितीयः पोषकाश्चैव तृतीयश्चार्थदायकः ॥१३२.००६
आत्मनाशश्चतुर्थस्तु पञ्चमो मृत्युदायकः ।१३२.००७
स्थानमेवार्थलाभाय मित्रभृत्यादिवान्धवाः ॥१३२.००७
सिद्धः साध्यः सुसिद्धश्च सर्वे ते फलदायकाः ।१३२.००८
अरिर्भृत्यश्च द्वावेतौ वर्जयेत्सर्वकर्मसु ॥१३२.००८
अकारान्तं यथा प्रोक्तं अ+इ+उ+ए+ओ विदुस्तथा ।१३२.००९
पुनश्चैवांशकान् वक्ष्ये वर्गाष्टकसुसंस्कृतान् ॥१३२.००९
देवा अकारवर्गे दैत्याः कवर्गमाश्रिताः ।१३२.०१०
नागाश्चैव चवर्गाः स्युर्गन्धवाश्च टवर्गजाः ॥१३२.०१०
तवर्गे ऋषयः प्रोक्ताः पवर्गे राक्षसाः स्मृताः ।१३२.०११
पिशाचाश्च यवर्गे च शवर्गे मानुषाः स्मृताः ॥१३२.०११
देवेभ्यो बलिनो दैत्या दैत्येभ्यः पन्नगास्तथा ।१३२.०१२
पन्नगेभ्यश्च गन्धर्वा गन्धर्वादृषयो वराः ॥१३२.०१२
ऋषिभ्यो राक्षसाः शूरा राक्षसेभ्यः पिशाचकाः ।१३२.०१३
पिशाचेभ्यो मानुषाः स्युर्दुर्बलं वर्जयेद्बली ॥१३२.०१३
पुनर्मित्रविभागन्तु ताराचक्रं क्रमाच्छृणु ।१३२.०१४
नामाद्यक्षरमृक्षन्तु स्फुटं कृत्वा तु पर्वतः ॥१३२.०१४
ऋक्षे तु संस्थितास्तारा नवत्रिका यथाक्रमात् ।१३२.०१५
जन्म सम्पद्विपत्क्षेमं नामर्क्षात्तारका इमाः ॥१३२.०१५
प्रत्यरा धनदा षष्ठी नैधनामैत्रके परे ।१३२.०१६
परमैत्रान्तिमा तारा जन्मतारा त्वशोभना ॥१३२.०१६
सम्पत्तारा महाश्रेष्ठा विपत्तारा तु निष्फला ।१३२.०१७
क्षेमतारा सर्वकार्ये प्रत्परा अर्थनाशिनी ॥१३२.०१७
धनदा राज्यलाभादि नैधना कार्यनाशिनी ।१३२.०१८
मैत्रतारा च मित्राय परमित्रा हितावहा ॥१३२.०१८
ताराचक्रम् ।
मात्रा वै स्वरसञ्ज्ञा स्यान्नाममध्ये क्षिपेत्प्रिये ।१३२.०१९
विंशत्या च हरेद्भागं यच्छेषं तत्फलं भवेत् ॥१३२.०१९
उभयोर्त्रासमध्ये तु लक्षयेच्च धनं ह्यृणं ।१३२.०२०
हीनमात्रा ह्यृणं ज्ञेयन्धनं मात्राधिकं पुनः ॥१३२.०२०
धनेन मित्रता नॄणां ऋणेनैव ह्युदासता ।१३२.०२१
सेवाचक्रमिदं प्रोक्तं लाभालाभादिदर्शकं ॥१३२.०२१
मेषमिथुनयोः प्रीतिर्मैत्री मिथुनसिंहयोः ।१३२.०२२
तुलासिंहौ महामैत्री एवं धनुर्घटे पुनः ॥१३२.०२२
मित्रसेवां न कुर्वीत मित्रौ मीनवृषौ मतौ ।१३२.०२३
वृषकर्कटयोर्मैत्री कुलीरघटयोस्तथा ॥१३२.०२३
कन्यावृश्चिकयोरेवन्तथा मकरकीटयोः ।१३२.०२४
मीनमकरयोर्मैत्री तृतीयैकादशे स्थिता ॥१३२.०२४
तुलामेषौ महामैत्री विद्विष्टो वृषवृश्चिकौ ।१३२.०२५
मिथुनधनुषोः प्रीतिः कर्कटमकरयोस्तथा ॥१३२.०२५
मृगकुम्भकयोः प्रीतिः कनामीनौ तथैव च ॥२६॥१३२.०२६
इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे सेवाचक्रं नाम द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 132 Chapter!-In Hindi
शंकरजी कहते हैं- अब मैं 'सेवाचक्र' का प्रतिपादन कर रहा हूँ, जिससे सेवकको सेव्यसे लाभ तथा हानिका ज्ञान होता है। पिता, माता तथा भाई एवं स्त्री-पुरुष इन लोगोंके लिये इसका विचार विशेषरूपसे करना चाहिये। कोई भी व्यक्ति पूर्वोक्त व्यक्तियोंमेंसे किससे लाभ प्राप्त कर सकेगा- इसका ज्ञान वह उस 'सेवाचक्र' से कर सकता है ॥ १-२॥
(सेवाचक्रका स्वरूप वर्णन करते हैं) पूर्वसे पश्चिमको छः रेखाएँ और उत्तरसे दक्षिणको आठ तिरछी रेखाएँ खींचे। इस तरह लिखनेपर पैंतीस कोष्ठका 'सेवाचक्र' बन जायगा। उसमें ऊपरके कोष्ठों में पाँच स्वरोंको लिखकर पुनः स्पर्श-वर्णोंको लिखे। अर्थात् 'क' से लेकर 'ह' तकके वर्षोंका न्यास करे। उसमें तीन वर्षों (ङ, ञ, ण) को छोड़कर लिखे। नीचेवाले कोष्ठों में क्रमसे सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, शत्रु तथा मृत्यु - इनको लिखे। इस तरह लिखनेपर सेवाचक्र सर्वाङ्गसम्पन्न हो जाता है। इस चक्रमें शत्रु तथा मृत्यु नामके कोष्ठमें जो स्वर तथा अक्षर हैं, उनका प्रत्येक कार्यमें त्याग कर देना चाहिये। किंतु सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, शत्रु तथा मृत्यु नामवाले कोष्ठोंमेंसे किसी एक ही कोष्ठमें यदि सेव्य तथा सेवकके नामका आदि-अक्षर पड़े तो वह सर्वथा शुभ है। इसमें द्वितीय कोष्ठ पोषक है, तृतीय कोष्ठ धनदायक है, चौथा कोष्ठ आत्मनाशक है, पाँचवाँ कोष्ठ मृत्यु देनेवाला है। इस चक्रसे मित्र, नौकर एवं बान्धवसे लाभकी प्राप्तिके लिये विचार करना चाहिये। अर्थात् हम किससे मित्रताका व्यवहार करें कि मुझे उससे लाभ हो तथा किसको नौकर रखें, जिससे लाभ हो एवं परिवारके किस व्यक्तिसे मुझे लाभ होगा- इसका विचार इस चक्रसे करे। जैसे- अपने नामका आदि-अक्षर तथा विचारणीय व्यक्तिके नामका आदि-अक्षर सेवाचक्रके किसी एक ही कोष्ठमें पड़ जाय तो वह शुभ है, अर्थात् उस व्यक्तिसे लाभ होगा- यह जाने। यदि पहलेवाले तीन कोष्ठोंमेंसे किसी एकमें अपने नामका आदि-वर्ण पहलेवाले तीन कोष्ठों (सि०, सा०, सु०) मेंसे किसी एकमें पड़े और विचारणीय व्यक्तिके नामका आदि- अक्षर चौथे तथा पाँचवें पड़े तो अशुभ होता है। चौथे तथा पाँचवें कोष्ठों में किसी एकमें सेव्यके तथा दूसरेमें सेवकके नामका आदि-वर्ण पड़े तो अशुभ ही होता है॥ ३-८३॥
अब अकारादि वर्गों तथा ताराओंके द्वारा सेव्य-सेवकका विचार कर रहे हैं- अवर्ग (अ इ उएओ) का स्वामी देवता है, कवर्ग (क खग घ ङ) का स्वामी दैत्य है, चवर्ग (च छ ज झ ञ) का स्वामी नाग है, टवर्ग (ट ठ ड ढ ण)- का स्वामी गन्धर्व है, तवर्ग (तथ दधन)-का स्वामी ऋषि है, पवर्ग (प फ ब भ म) का स्वामी राक्षस है, यवर्ग (यरल व) का स्वामी पिशाच है, शवर्ग (शषसह) का स्वामी मनुष्य है। इनमें देवतासे बली दैत्य है, दैत्यसे बली सर्प है, सर्पसे बली गन्धर्व है, गन्धर्वसे बली ऋषि है,ऋषिसे बली राक्षस है, राक्षससे बली पिशाच है और पिशाचसे बली मनुष्य होता है। इसमें बली दुर्बलका त्याग करे- अर्थात् सेव्य सेवक-इन दोनोंके नामोंके आदि-अक्षरके द्वारा बली वर्ग तथा दुर्बल वर्गका ज्ञान करके बली वर्गवाले दुर्बल वर्गवालेसे व्यवहार न करें। एक ही वर्गके सेव्य तथा सेवकके नामका आदि-वर्ण रहना उत्तम होता है॥ ९-१३॥
अब मैत्री-विभाग-सम्बन्धी 'ताराचक्र' को सुनो। पहले नामके प्रथम अक्षरके द्वारा नक्षत्र जान ले, फिर नौ ताराओंकी तीन बार आवृत्ति करनेपर सत्ताईस नक्षत्रोंकी ताराओंका ज्ञान हो जायगा। इस तरह अपने नामके नक्षत्रका तारा जान लें। १ जन्म, २ सम्पत्, ३ विपत्, ४ क्षेम, ५ प्रत्यरि, ६ साधक, ७ वध, ८ मैत्र, ९ अतिमैत्र- ये नौ ताराएँ हैं। इनमें 'जन्म' तारा अशुभ, 'सम्पत्' तारा अति उत्तम और 'विपत्' तारा निष्फल होती है। 'क्षेम' ताराको प्रत्येक कार्यमें लेना चाहिये। 'प्रत्यरि' तारासे धन क्षति होती है। 'साधक' तारासे राज्य-लाभ होता है। 'वध' तारासे कार्यका विनाश होता है। 'मैत्र' तारा मैत्रीकारक है और 'अतिमैत्र' तारा हितकारक होती है। विशेष प्रयोजन- जैसे सेव्य रामचन्द्र, सेवक हनुमान्- इन दोनोंमें भाव कैसा रहेगा, इसे जाननेके लिये हनुमान्के नामके आदि वर्ण (ह) के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र हुआ तथा रामके नामके आदि वर्ण (रा) के अनुसार नक्षत्र चित्रा हुआ। पुनर्वसुसे चित्राकी संख्या आठवीं हुई। इस संख्याके अनुसार 'मैत्र' नामक तारा हुई। अतः इन दोनोंकी मैत्री परस्पर कल्याणकर होगी- यों जानना चाहिये ॥ १४-१८ ॥
(अब ताराचक्र कहते हैं) प्रिये! नामाक्षरोंके स्वरोंकी संख्यामें वर्णोंकी संख्या जोड़ दे। उसमें बीसका भाग दे। शेषसे फलको जाने। अर्थात् स्वल्प शेषवाला व्यक्ति अधिक शेषवाले व्यक्तिसे लाभ उठाता है। जैसे सेव्य राम तथा सेवक हनुमान्। इनमें सेव्य रामके नामका र्-२। आ-२। म्-५। अ-१। सबका योग १० हुआ। इसमें २० से भाग दिया तो शेष १० सेव्यका हुआ तथा सेवक हनुमान्के नामका ह-४। अ-१। न्-५। उ ५। म् ५। आ-२। न्-५। सबका योग २७ हुआ। इसमें २० का भाग दिया तो शेष ७ सेवकका हुआ। यहाँपर सेवकके शेषसे सेव्यका शेष अधिक हो रहा है, अतः हनुमान्जी रामजीसे पूर्ण लाभ उठायेंगे- ऐसा ज्ञान होता है॥ १९ ॥
अब नामाक्षरोंमें स्वरोंकी संख्याके अनुसार लाभ-हानिका विचार करते हैं। सेव्य-सेवक दोनोंके बीच जिसके नामाक्षरोंमें अधिक स्वर हों, वह धनी है तथा जिसके नामाक्षरोंमें अल्प स्वर हों, वह ऋणी है। 'धन' स्वर मित्रताके लिये तथा 'ऋण' स्वर दासताके लिये होता है। इस प्रकार लाभ तथा हानिकी जानकारीके लिये 'सेवाचक्र' कहा गया। मेष-मिथुन राशिवालोंमें प्रीति, मिथुन-सिंह राशिवालोंमें मैत्री तथा तुला- सिंह राशिवालोंमें महामैत्री होती है; किंतु धनु- कुम्भ राशिवालोंमें मैत्री नहीं होती। अतः इन दोनोंको परस्पर सेवा नहीं करनी चाहिये। मीन- वृष, वृष-कर्क, कर्क-कुम्भ, कन्या-वृश्चिक, मकर- वृश्चिक, मीन-मकर राशिवालोंमें मैत्री तथा मिथुन- कुम्भ, तुला मेष राशिवालोंकी परस्पर महामैत्री होती है। वृष-वृश्चिकमें परस्पर वैर होता है; मिथुन-धनु, कर्क-मकर, मकर-कुम्भ, कन्या- मीन राशिवालोंमें परस्पर प्रीति रहती है। अर्थात् उपर्युक्त दोनों राशिवालोंमें सेव्य-सेवक भाव तथा मैत्री-व्यवहार एवं कन्या-वरका सम्बन्ध सुन्दर तथा शुभप्रद होता है॥ २०-२६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'सेवा-चक्र आदिका वर्णन' नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३२ ॥
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